● एक विचारणीय प्रश्न ? / उमाकांत दीक्षित
आज कृष्णजन्माष्टमी है, भारतवर्ष में हर ओर तथाकथित "नंदलाल" की जय जयकार हो रही है । उनका जन्मदिन धूमधाम से मनाया जा रहा है किन्तु मेरे मन में अचानक एक विचार आया कि लिंगभेद के चलते क्या कन्याओं की बलि द्वापरयुग में भी आज की भांति ही हुआ करती थी?
ये कितना बड़ा झूठ पिछले 5258 साल से आज तक दुनिया को परोसा जा रहा है कि "कृष्ण" नंद के लाल अर्थात नंद के पुत्र थे ... अगर कृष्ण सच में नंद के पुत्र थे तो वह निरीह अबोध कन्या कौन थी जो देवकी व वासुदेव के पुत्र के बदले हत्या के लिए कंस को सौंपी गई थी?
क्या कृष्णजन्माष्ठमी को मनाते हुए हमें एकबार भी उस अबोध बालिका की याद नही आती जिसने इस कृष्ण को जीवित रखने के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे? मैं उस निरीह कन्या की हत्या के पक्ष में दिए जाने वाले किसी भी तर्क से सहमत नही हूँ। क्या हमारी संवेदना नारी जाति के प्रति इतनी जड़ हो चुकी है? क्या आज उस निरपराध कन्या का जन्मदिन नहीं है? जिसकी पत्थर पर पटक कर की गई भयावह हत्या केवल एक "पुत्र" को जीवित रखने के लिए जान बूझकर करवा दी गयी?
क्या यह बालिका वध नहीं है? आखिर कब तक इस तरह पुत्र मोह में पुत्रियों की बलि दी जाती रहेगी? क्यों आज भी बालिकाओं की भ्रूण हत्या को नही रोका जा सका है? यह सोच केवल भारत में ही क्यों है? क्या यह सच में "यत्र नार्यस्तु पूजन्ते रमन्ते तत्र देवता" का संदेश देने वाला देश है?
मैं पुरुष होने के नाते, आज उस अनाम कन्या के प्रति कृतज्ञ हूँ जो पुरुष के अहम के लिए भेंट चढ़ गई। मुझे यह स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं है कि यह पुरुष समाज कितना स्वार्थी है ?
आज उस कन्या का जन्म दिवस तो है ही साथ ही उसका निर्वाण दिवस भी है। भारत के इस पुत्रमोह के भेंट चढ़ी उस दिव्य आत्मा को कोटि कोटि नमन ...
...उमाकांत दीक्षित
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