.एक ब्राह्मणी थी जो बहुत निर्धन थी। भिक्षा माँग कर जीवन-यापन करती थी।
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एक समय ऐसा आया कि पाँच दिन तक उसे भिक्षा नहीं मिली। वह प्रति दिन पानी पीकर भगवान का नाम लेकर सो जाती थी।
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छठवें दिन उसे भिक्षा में दो मुट्ठी चना मिले। कुटिया पे पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी।
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ब्राह्मणी ने सोंचा अब ये चने रात मे नही खाऊँगी प्रात:काल वासुदेव को भोग लगाकर तब खाऊँगी ।
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यह सोंचकर ब्राह्मणी ने चनों को कपडे़ में बाँधकर रख दिया और वासुदेव का नाम जपते-जपते सो गयी
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देखिये समय का खेल... कहते हैं...
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पुरुष बली नहीं होत है, समय होत बलवान ।
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ब्राह्मणी के सोने के बाद कुछ चोर चोरी करने के लिए उसकी कुटिया मे आ गये।
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इधर उधर बहुत ढूँढा, चोरों को वह चनों की बँधी पुटकी मिल गयी। चोरों ने समझा इसमें सोने के सिक्के हैं ।
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इतने मे ब्राह्मणी जाग गयी और शोर मचाने लगी ।
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गाँव के सारे लोग चोरों को पकडने के लिए दौडे़। चोर वह पुटकी लेकर भागे।
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पकडे़ जाने के डर से सारे चोर संदीपन मुनि के आश्रम में छिप गये।
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संदीपन मुनि का आश्रम गाँव के निकट था जहाँ भगवान श्री कृष्ण और सुदामा शिक्षा ग्रहण कर रहे थे.
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गुरुमाता को लगा कि कोई आश्रम के अन्दर आया है। गुरुमाता देखने के लिए आगे बढीं तो चोर समझ गये कोई आ रहा है,
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चोर डर गये और आश्रम से भागे ! भागते समय चोरों से वह पुटकी वहीं छूट गयी। और सारे चोर भाग गये।
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इधर भूख से व्याकुल ब्राह्मणी ने जब जाना ! कि उसकी चने की पुटकी चोर उठा ले गये ।
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तो ब्राह्मणी ने श्राप दे दिया कि... मुझ दीनहीन असहाय के जो भी चने खायेगा वह दरिद्र हो जायेगा।
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उधर प्रात:काल गुरु माता आश्रम मे झाडू़ लगाने लगीं तो झाडू लगाते समय गुरु माता को वही चने की पुटकी मिली ।
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गुरु माता ने पुटकी खोल के देखी तो उसमे चने थे।
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सुदामा जी और कृष्ण भगवान जंगल से लकडी़ लाने जा रहे थे। ( रोज की तरह ) गुरु माता ने वह चने की पुटकी सुदामा जी को दे दी।
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और कहा बेटा ! जब वन मे भूख लगे तो दोनो लोग यह चने खा लेना ।
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सुदामा जी जन्मजात ब्रह्मज्ञानी थे। ज्यों ही चने की पुटकी सुदामा जी ने हाथ में लिया त्यों ही उन्हे सारा रहस्य मालुम हो गया ।
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सुदामा जी ने सोचा ! गुरु माता ने कहा है यह चने दोनों लोग बराबर बाँट के खाना।
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लेकिन ये चने अगर मैंने त्रिभुवनपति श्री कृष्ण को खिला दिये तो सारी सृष्टि दरिद्र हो जायेगी।
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नहीं-नहीं मैं ऐसा नही करुँगा। मेरे जीवित रहते मेरे प्रभु दरिद्र हो जायें मै ऐसा कदापि नही करुँगा ।
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मैं ये चने स्वयं खा जाऊँगा लेकिन कृष्ण को नहीं खाने दूँगा।
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और सुदामा जी ने सारे चने खुद खा लिए।
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दरिद्रता का श्राप सुदामा जी ने स्वयं ले लिया। चने खाकर। लेकिन अपने मित्र श्री कृष्ण को एक भी दाना चना नही दिया। ऐसे होते हैं मित्र..
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मित्रों ! आपसे निवेदन है कि अगर मित्रता करें तो सुदामा जी जैसी करें और कभी भी अपने मित्रों को धोखा ना दें..
जय जय श्री राधे
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