**राधास्वामी!! 01-01-2021- आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-
(1) हे मन मानी सद अज्ञानी। क्यों दुख सुख यहँ सहना हो।।टेक।। सुरत पडी बस तेरे मन में निज घर बार भुलाता हो।।-(राधास्वामी मेहर से देवें तुझको। चरनन माहिं ठिकाना हो।।) (प्रेमबानी-4-शब्द-3-पृ.सं.64,65)
(2) बृक्षन से पाती झडी पडी धूल में आय। जोबन था सब झड गया दिन दिन सूखी जाय।। नाम गुरु का लेत है महिमा गुरु की गायँ। सतगुरु सँग की बात सुन पर ढीले पड जायँ।।-(साँचा होय गुरु संग कर नैन श्रवन दोउ खोल कर। हानि लाभ चिन्ता मिटे मिले बस्तु अनमोल।।) (प्रेमबिलास- शब्द-116-पृ.सं.173)
(3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
**राधास्वामी!! 01- 01- 2021
आज शाम सत्संग में पढ़ा गया बचन-
कल से आगे:-( 109)-
इसके अतिरिक्त विचार करें कि यदि संसार का कोई भी आस्तिक मत सच्चा है तो मानना होगा कि उसके प्रवर्तक अथवा नेता को मालिक, ब्रह्म या खुदा का दर्शन अवश्य प्राप्त हुआ होगा । और दर्शन से तात्पर्य केवल झाँका- झाँकी नहीं है। हम अपने नेत्रों से प्रतिदिन सैकड़ों वस्तुएँ देखते हैं। यह दर्शन- ज्ञान हमें अपने नेत्रों तथा सूर्य आदि के प्रकाश के द्वारा होता है। नेत्रों के रुग्ण होने अथवा बाहरी प्रकाश में परिवर्तन होने से इस ज्ञान में परिवर्तन हो जाता है।
जिन वस्तुओं के रंग सूर्य के प्रकाश में एक तरह से दृष्टिगत होते हैं उनके रंग पारे से भी भरी हुई नली (Mercury Column) के द्वारा प्रकाश लेकर देखने से दूसरी ही तरह के दिखाई देते हैं। शरीर में पीलिया( कमल ) रोग हो जाने से प्रत्येक वस्तु पीली ही प्रतीत होती है ।
अब जोकि यह ज्ञान अधिकतर हमारे नेत्रों की दर्शन- शक्ति और बाहरी प्रकाश की परिस्थिति पर निर्भर है इसलिए इसका कुछ भरोसा नहीं। निःसंदेह संसार का व्यापार इस ज्ञान से चलता है किंतु यह सत्य है अर्थात् असली ज्ञान नहीं है। यह केवल आपेक्षिक (Relative) ज्ञान है।
किंतु यदि किसी ऋषि, पैगंबर अथवा संत महात्मा ने परमात्मा या खुदा का वास्तविक दर्शन प्राप्त किया तो वह दर्शन न किसी भौतिक इंद्रिय के द्वारा होना चाहिए, न किसी भौतिक प्रकाश के द्वारा। उस दर्शन की दशा में केवल द्रष्टा और दृश्य अर्थात देखने वाला और देखने की वस्तु (आत्मा और परमात्मा) होने चाहिएँ। अब यदि आत्मा के निजी गुण एक है और परमात्मा के दूसरे तो परमात्मा का दर्शन करने वाली आत्मा परमात्मा को परमात्मा- स्वरुप न देख सकेगी।
वह केवल उसको ऐसा देखेगी जैसा कि वह देख सकती है । और यदि यह परिणाम युक्तिसंगत है तो इस दिशा में भी यही कहना होगा कि आत्मा को परमात्मा का सत्यज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। सत्यज्ञान तब कहलाता है जब आत्मा परमात्मा को वैसा ही देखती है जैसा कि परमात्मा है। किंतु आत्मा बेचारी क्या करें। आप उसका सारतत्त्व या जौहर परमात्मा के सारतत्त्व से भिन्न मानते हैं और आप उसे परिमित, अल्प आदि, और परमात्मा को अपरिमित, सर्वशक्तिमान् आदि नामों से पुकारते हैं।
इसलिए यह परिणाम निकलता है कि यदि संसार का एक भी धर्म सच्चा है और जब से सृष्टि हुई उस समय से आज तक एक भी ऋषि, संत, महात्मा, पैगंबर, या वली ने परमात्मा या खुदा का वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया तो मानना होगा कि उस महान् आत्मा में परमात्मा या खुदा के दर्शन की शक्ति रही होगी। और यदि एक आत्मा में ऐसी शक्ति विद्यमान हो सकती है तो सभी आत्माओं में विद्यमान होगी।
और जोकि "ज्ञान लेने वाला अपने जौहर से बढ़कर या उच्च कोटि के गुणों का ज्ञान नहीं ले सकता किंतु अपने जौहर के से ही गुणों का ज्ञान ले सकता है इसलिए परमात्मा और आत्मा के जौहर के एक से गुण होने चाहिएँ" । संत- मत इसी अर्थ में आत्मा और परमात्मा के अंश- अंशी- भाव संबंध मानता है।
🙏🏻राधास्वामी 🙏🏻
यथार्थ प्रकाश- भाग दूसरा -
परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!**
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