परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज -रोजाना वाकिआत-
17 फरवरी 1933 - शुक्रवार :-
सुबह सैर को निकले ही थे कि कल वाले आदमी आये । जो जात के "गोली" है। कहने लगे कि कल की बेवकूफी के लिए सख्त शर्मिंदा है माफी दी जावे। माफी दे दी गई। दोपहर को भंडारा हुआ जिसमें 125 मर्द, औरत को बच्चे शरीक हुए । खाने के लिए पूरी ,कचौरी ,रस की खीर और आलू मटर की सब्जी का इंतजाम था। खाना बहुत अच्छा था । भंडारे में हर जाति व कौम के मर्द और औरत थे। जात पाँत तोड़क मंडल के सेक्रेटरी साहब यह सुनकर खुश होंगे कि सत्संगी चुपचाप उनका काम कामयाबी के साथ कर रहा है । और झूठ मूट की जात पाँत के गढ़ रफ्ता रफ्ता ध्वस्त हो रहे हैं। राजाबरारी में यह कौमें आबाद है:- गोंड, कोरकू, गोली ,,गोलान,बलाही प्रधान , कहार ,ठठिया। यह सब अपनी अपनी कौम का पक्ष करते हैं और एक दूसरे के साथ बैठकर खाने पीने से सख्त परहेज करते हैं ।
शाम के वक्त लोगों को समझाया कि सुबह उठकर अव्वल मुँह धो कर कुछ देर मालिक के चरणो की याद करें साफ सुथरा खाना खायें, अपने घरों व जिस्म को साफ रखें, और दिन का काम खत्म होने पर कुछ देर चुपचाप बैठ कर फिर मालिक की याद करें। दरयाफ्त करने पर मालूम हुआ कि बाज लोगों को अभी तक नदी का पानी पीना पड़ता है । प्रबंधंक गण राजाबरारी से मश्वरा किया।
निश्चय पाया कि एक के बजाय चार नयें कुएँ तामीर कराएँ जावे। इन कुओं से सिंचाई का भी काम लिया जावे ताकि कृषि की तरक्की भी हो तामीर का खर्चा भी निकल आवे।।
रात के वक्त इत्तिला मिली एक लड़की 2 दिन बुखार में प्रेषित रह कर इंतकाल कर गई। उस लड़की को अपनी लड़की की तरह पाला था। हमारे राजाबरारी पहुंचने से एक रोज पहले ही आगरा से यहाँ आई थी। उसका पति राजाबरारी में पटवारी है। और उसका ससुर यही सुकून से बसे हैं । और उसने सत्संग की राजाबरारी में अनेक प्रशंसनीय सेवाएँ की है। लड़की के मर जाने से हर किसी को सख्त सदमा हुआ।
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻***
राधास्वामी!! 29-10-2020- आज सुबह सतसंग में पढे गये पाठ:-
(1) गुरु चरन बसे अब मन में। मैं सेऊँ दम दम तन में।। करमी जिव जग के अंधे। सब फँसे काल के फँदे।। उनसे नहिं कहना चहिये। मत गूढ छिपाये रहिये।।-(उपदेश किया यह टीका। राधास्वामी नाम मैं सीखा।।) (सारबचन-शब्द-12वाँ, पृ.सं.195)
(2) आज भींजे सुरत गुरु प्रेम रंग।।टेक।।
उमँग भरी आई सतगुरु चरना। बचन सुनत हुई आज निसंक।।-(राधास्वामी प्रीतम मिले अधर में। लिपट रही स्रुत उमँग उँमग।।) (
प्रेमबानी-2-शब्द-66 पृ.सं.332-333)
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