------ कबीर जी की पगड़ी ------
एक बार संत कबीर जी ने बड़ी ही कुशलता से एक पगड़ी बनाई। झीना-झीना कपड़ा बुना और उसे गोलाई में लपेटा और हो गई पगड़ी तैयार। वो पगड़ी, जिसे हर कोई बड़ी शान से अपने सिर सजाता है। फिर वो नई-नवेली पगड़ी लेकर संत कबीर जी दुनिया की हाट (बाजार) में जा बैठे। ऊंची-ऊंची पुकार उठाई- शानदार पगड़ी! जानदार पगड़ी! दो टके की भाई! दो टके की भाई।
एक खरीददार निकट आया। उसने घुमा-घुमाकर पगड़ी का निरीक्षण किया और फिर संत कबीर जी से प्रश्न किया- क्यों महाशय! एक टके में दोगे क्या?
संत कबीर जी ने अस्वीकार कर दिया- ना भाई! दो टके की है और दो टके में ही सौदा होना चाहिए।
वो खरीददार भी नट (अड़) गया और पगड़ी छोड़कर आगे बढ़ गया।
यही प्रतिक्रिया हर खरीददार की रही। सुबह से शाम हो गई। संत कबीर जी अपनी पगड़ी बगल में दबाकर खाली जेब वापिस लौट आए। थके-मांदे कदमों से घर-आंगन में प्रवेश करने ही वाले थे कि तभी एक पड़ोसी से भेंट हो गई। उसकी दृष्टि पगड़ी पर पड़ गई।
पड़ोसी ने जिज्ञासा की- क्या हुआ संत जी, इसकी बिक्री नहीं हुई?
और फिर कबीर जी ने दिन भर का क्रम कह सुनाया।
पड़ोसी ने संत कबीर जी से पगड़ी ले ली और बोला- आप इसे बेचने की सेवा मुझे दे दीजिए। मैं कल प्रातः ही बाजार चला जाऊंगा।
अगली सुबह कबीर जी के पड़ोसी ने ऊंची-ऊंची बोली लगाई- शानदार पगड़ी! जानदार पगड़ी! आठ टके की भाई! आठ टके की भाई।
पहला खरीददार निकट आया और बोला- बड़ी महंगी पगड़ी है। दिखाना जरा।
पड़ोसी- पगड़ी भी तो शानदार है, और ऐसी और कहीं भी नहीं मिलेगी।
खरीददार- ठीक दाम लगा लो भईया।
पड़ोसी- चलो, आपके लिए सात टका लगा देते हैं।
खरीददार- ये लो छः टका और पगड़ी दे दो।
एक घंटे के भीतर-भीतर पड़ोसी पगड़ी बेचकर वापस लौट आया और संत कबीर जी के चरणों में छः टके अर्पित किए।
पैसे देखकर संत कबीर जी के मुख से अनायास ही निकल पड़ा-
------ सत्य गया पाताल में ------
------ झूठ रहा जग छाए ------
------ दो टके की पगड़ी ------
------ छः टके में जाए ------
यही इस जगत का व्यावहारिक सत्य है। सत्य के पारखी इस जगत में बहुत कम होते हैं। संसार में अक्सर सत्य का सही मूल्य नहीं मिलता, लेकिन असत्य बहुत ज्यादा कीमत पर बिकता है, इसलिए संत कबीर जी ने कहा-
------ सच्चे का कोई ग्राहक नाही ------
------ झूठा जगत पतीजै जी ------
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