*(२४) प्रेम पत्र -१*
जो कोई सत्संगी किसी दूसरे सत्संगी की बुराई या निंदा करे, तो उसको सुनना नहीं चाहिए और उसको समझाना चाहिए कि यह आदत निहायत नाकिस है, बल्कि संसारियों में भी यह आदत बहुत बुरी समझी जाती है, क्योंकि जो कोई एक कि बुराई और निंदा करता है वह इसी तरह सबकी बुराई और निंदा करता फिरेगा और अपना भारी अकाज करता है कि उसके मन में सच्चे मालिक और गुरु का प्रेम कभी नहीं ठहरेगा और दूसरे के प्रेम और भक्ति को भी गदला करता है । परमार्थी को मुनासिब है कि हमेशा सब के गुन देखता रहे और ओगुन दृष्टि में न लावे। और जो किसी सतसंगी में कोई ओगुण नजर पड़े, तो उसको एकांत में प्यार से समझा देवे और जो वह उस ऑगुन को न छोड़े तो सतगुरु से इतिला करें । वे जैसा मुनासिब समझेंगे कार्यवाही करेंगे, पर इसको चाहिए कि फिर उसका ख्याल मन में न रक्खे।
मत देख पराए ओगून
क्यों पाप बड़ावे दिन दिन ।
मक्खी सम मत कर भिन्न भिन्न ।
नहि खावे चोट तू छिन छिन ।।
देखा कर सब के तू गुन ।
सुख मिले बहुत तोही पुन पुन ।।
No comments:
Post a Comment