Tuesday, June 4, 2013

रूपकुंड झील चमोसी क रहस्य




गणराज्य
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रूपकुंड झील/ हिमानी (बर्फीली) झील/ रहस्यमयी झील/ कंकाल झील

रूपकुंड झील पर बर्फ़ की परत
गढ़वाल हिमालय के अन्तर्गत अनेक सुरम्य ऐतिहासिक स्थल हैं जिनकी जितनी खोज की जाय उतने ही रहस्य सामने आ जाते हैं। इन आकर्षक एवं मनमोहक स्थलों को देखने के लिये प्राचीन काल से वैज्ञानिक, इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ताओं भूगर्भ विशेषज्ञों एवं जिज्ञासु पर्यटकों के क़दम इन स्थानों में पड़ते रहे हैं।
यहां उच्च हिमालय क्षेत्र के अन्तर्गत अनेक ताल एवं झील हैं जिनमें उत्तरांचल के चमोली ज़िले के सीमान्त देवाल विकास खांड में समुद्र तल से 16200 फुट की ऊंचाई पर स्थित प्रसिद्ध नंदादेवी राजजात यात्रा मार्ग पर नंदाकोट, नंदाघाट और त्रिशूल जैसे विशाल हिम पर्वत शिखरों की छांव में चट्टानों तथा पत्थरों के विस्तार के बीच फैला हुआ प्रकृति का अनमोल उपहार एवं अद्वितीय सौन्दर्य स्थान रूपकुंड एक ऐसा मनोरम स्थल है जो अपनी स्वास्थ्यवर्धक जलवायु, दिव्य, अनूठे रहस्यमय स्वरूप और नयनाभिराम दृश्यों के लिए जाना जाता है। यह रूपकुंड झील त्रिशूली शिखर (24000 फीट) की गोद में ज्यूंरागली पहाड़ी के नीचे 150-200 फीट ब्यास (60 से 70 मीटर लम्बी), 500 फीट की परिधि तथा 40 से 50 मीटर गहरी हरे-नीले रंग की अंडाकार (आंख जैसी) आकृति में फैली स्वच्छ एवं शांत मनोहारी झील है। इससे रूपगंगा जलधारा निकलती है। अपनी मनोहारी छटा के लिये यह झील जिस कारण अत्यधिक चर्चित है वह है झील के चारों ओर पाये जाने वाले रहस्यमय प्राचीन नरकंकाल, अस्थियां, विभिन्न उपकरण, कपड़े, गहने, बर्तन, चप्पल एवं घोड़ों के अस्थि-पंजर आदि वस्तुऐं।
यह झील बागेश्वर से सटे चमोली जनपद में बेदनी बुग्याल के निकट स्थित है। उत्तराखंड के उत्तर में हिमालय की अनेक चोटियों के बीच त्रिशूल की तीन चोटियां हैं। ये चोटियां गढ़वाल इलाके के चमोली ज़िले व कुमाऊँ इलाके के बागेश्वर ज़िले की सीमा पर स्थित हैं। भगवान शिव का त्रिशूल माने जाने वाले हिमश्रंग त्रिशूल चोटी के बगल में ही रूपकुंड है। समुद्रतल से 4778 मीटर की ऊंचाई पर और नन्दाघुंटी शिखर की तलहटी पर स्थित रूपकुंड झील सदैव बर्फ़ की परतों से ढकी रहती है। अतः इसे 'हिमानी झील' कहते हैं। इसे रहस्यमयी झील का नाम दिया है। म़ोढे की पीठ जैसी आकृति में इसके किनारे ख़डी चट्टानों पर सदैव जमी रहने वाली श्वेत बर्फ़ का अक्स झील के धवल जल में और जल की चंचल लहरों के बनते बिग़डते प्रतिबिम्ब बर्फ़ के दर्पण में झिलमिला कर इस स्थल की नैसर्गिक छटा को द्विगणित कर देते हैं। इसकी स्थिति दुर्गम क्षेत्र में है। झील से सटा ज्यूरांगली दर्रा (5355 मीटर) है। वैसे, शिवालिक पर्वतमाला में मणि की भांति गुंथा हुआ यह अति प्राचीन पौराणिक तीर्थ उन पर्वतारोहियों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र है, जो जान जोखिम में डालकर भी विविध रूपा सृष्टि के ग़ूढ तत्वों को खोज लेने हेतु सतत प्रयत्नशील रहते हैं।

रूपकुंड की उत्पत्ति पर पौराणिक कथाए

हर बारहवें वर्ष नौटी गांव के हजारों श्रद्धालु तीर्थ यात्री राजजय यात्रा लेकर निकलते हैं। नंदादेवी की प्रतिमा को चांदी की पालकी में बिठाकर रूपकुंड झील से आचमन करके वे देवी के पावन मंदिर में दर्शन करते हैं। इस यात्रा से संबंधित कथा के अनुसार अपने स्वामी गृह कैलाश जाते समय अनुपम सुंदरी हिमालय (हिमवन्त) पुत्री नंदादेवी जब शिव के साथ रोती-बिलखती जा रही थी मार्ग में एक स्थान पर उन्हें प्यास लगी। नंदा-पार्वती के सूखे होंठ देख शिवजी ने चारों ओर देखा परन्तु कहीं पानी नहीं दिखाई दिया, उन्होंने अपना त्रिशूल धरती पर मारा, धरती से पानी फूट पड़ा। नंदा ने प्यास बुझाई, लेकिन पानी में उन्हें एक रूपवती स्त्री दिखाई दी जो शिव के साथ बैठी थी। नंदा को चौंकते देख शिवजी समझ गये, उन्होंने नंदा से कहा यह रूप तुम्हारा ही है। प्रतिबिम्ब में शिव-पार्वती एकाकार दिखाई दिये। तब से ही वह कुंड रूपकुंड और शिव अर्द्धनारीश्वर कहलाये। यहां का पर्वत त्रिशूल और नंद-घुंघटी कहलाया, उससे निकलने वाली जलधारा नन्दाकिनी कहलायी।
पुराण कथाओं के अनुसार यहां जगदम्बा, कालका, शीतला, सतोषी आदि नव दुर्गाओं ने महिषासुर का वध किया था।

लाटू देवता - क्षेत्रीय देवता


रूपकुंड झील
लाटू देवता का मंदिर वाण का प्रमुख आकर्षण है। लाटू कैदखाने में रखे गये देवता हैं और 12 वर्ष में एक बार चंद घंटों के लिए केवल तभी मुक्त किये जाते हैं। जब नंदा राजजात के दौरान देवी नंदापार्वती की डोली त्रिशूल पर्वत पर ले जाती है। लाटू को मिली कैद की इस सज़ा के मूल में किंवदंती इस प्रकार है कि शिवजी के साथ विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद देवी नंदा की डोली कैलाश ले जाई रही थी, तो अन्य भाईबंधुओं के साथ चचेरे भाई लाटू भी उन्हें विदाई देने के लिए साथ-साथ चले। किंतु वाण पहुंचते पहुंचते उनका कंठ प्यास के कारण बुरी तरह सूखने लगा। इधर-उधर द़ौड लगाने के बाद उन्हें दूर पर एक मकान दिखलाई दिया। मकान का मालिक सोया प़डा था। लाटू ने उसे झिंझ़ोड कर जगाया और पानी मांगी। नींदे से मकान मालिक ने एक कोने में रखे मटके की ओर इशारा कर दिया, जिसमें भारी मदिरा देखकर उनका मन ललचा गया और पूरा मटका मुंह से लगाकर गटागट पी गये। मद्य ने भी अपना रंग जल्दी ही दिखलाया। बस, लगे वह उत्पात मचाने। उनकी इस हरकत से क्षुब्ध होकर देवी नंदा ने उन्हें वहीं कैद कर डालने का आदेश दे डाला। तब से बेचारे यहीं बंद प़डे हैं। वैसे, लाटू इस क्षेत्र के सर्वमान्य देवता है। उनका नाम लेकर मनौतियां तक मांगी जाती है।

खोज, अन्वेशण व परीक्षण

रूपकुंड झील वर्षों तक दुर्गम होने के कारण अज्ञात ही रहा। रूपकुंड के आसपास पड़े अस्थियों के ढेर एवं नरकंकालों की खोज सर्वप्रथम वर्ष 1942 - 43 में भारतीय वन निगम के एक अधिकारी द्वारा की गई। वन विभाग के अधिकारी मढ़वाल यहां दुर्लभ पुष्पों की खोज करने गए थे। एक रेंजर अनजाने में झील के भीतर किसी चीज़ से टकराया। देखा तो कंकाल पाया। खोज की तो रहस्य और गहरा गया। झील के आसपास और तलहटी में नरकंकालों का ढेर मिला। अधिकारी के साथियों को ऐसा लगा, जैसे वे किसी दूसरे ही लोक में आ गए हों। उनके साथ चल रहे मजदूर तो इस दृश्य को देखते ही भाग खड़े हुए। इसके बाद शुरू हुआ वैज्ञानिक अध्ययन का दौर। 1950 में कुछ अमेरिकी वैज्ञानिक नरकंकाल अपने साथ ले गए।
अनेक जिज्ञासु-अन्वेशक दल भी इस रहस्यमय रूपकुंड क्षेत्र की ऐतिहासिक यात्रा सम्पन्न कर चुके हैं। भारत सरकार के भूगर्भ वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों के एक दल ने भी दुर्गम क्षेत्र में प्रवेश कर अपने विषय का अन्वेशण व परीक्षण किया था। उप्र वन विभाग के एक अधिकारी ने 1955 के सितम्बर में रूपकुंड क्षेत्र का भ्रमण किया व कुछ नरकंकाल, अस्थियां, चप्पल आदि वस्तुऐं एकत्रित कर लखनऊ विश्वविद्यालय के मानव शास्त्र विभाग के प्रसिद्ध मानव शास्त्री (नृंशशास्त्री) एवं विभाग के डायरेक्टर जनरल डा. डी.एन.मजूमदार को परीक्षणार्थ सौंप दी थीं। डा. मजूमदार ने गढ़वाल पर्वतीय क्षेत्र का व्यापक भ्रमण कर और वहां से अस्थियां आदि कुछ सामग्री एकत्रित कर ले गये। भ्रमण कर बताया कि यह घटना तीन-चार सौ वर्ष से कहीं अधिक पुरानी है और ये अस्थि अवशेष किसी तीर्थ यात्री दल के हैं। डा. डी.एन.मजूमदार ने 1957 में यहां से कुछ मानव हड्डियों के नमूने अमेरिकी मानव शरीर विशेषज्ञ डा. गिफन को भेजे जिन्होंने रेडियो कार्बन विधि से परीक्षण कर इन अस्थियों को 400 - 600 साल पुराना बताया। ब्रिटिश व अमेरिका के वैज्ञानिकों ने रूपकुंड क्षेत्र के मानव कंकालों के रहस्यों को सुलझाते हुए विश्वास व्यक्त किया कि ये कंकाल लगभग 600 वर्ष पुराने हैं। यहां के अवशेषों में तिब्बती लोगों के ऊनी कपड़े के बने बूंट, लकड़ी के बर्तनों के टुकड़े, घोड़े की साबूत रालों पर सूखा चमड़ा, टूटी छंतोलियों के रिंगाल और चटाइयों के टुकड़े हैं। याक के अवशेष भी मिले हैं। याक की पीठ पर तिब्बती अपना सामान लाद कर यात्रा करते थे। इन अवशेषों में ख़ास वस्तु बड़े-बड़े दानों की 'हमेल' है, जिसे लामा स्त्रियां पहनती थीं।

रूपकुंड झील में नरकंकाल और अस्थियां
बाद में अनेक अन्वेषकों और पर्वतारोहियों ने इस स्थान पर कई बार जाकर इन शवों के बारे में अनुमान लगाए। आखिरकार रूपकुंड के वैज्ञानिक पहलू को प्रकाश में लाने का श्रेय प्रसिद्ध पर्यटक एवं हिमालय अभियान के विशेषज्ञ एवं अन्वेशक साधक विद्वान स्वामी प्रणवानन्द को है जो अनेक बार रूपकुंड गये और उन्होंने रूपकुंड के रहस्य का सभी दृष्टि से अध्ययन किया। स्वामी जी ने सन् 1956 में लगभग ढाई माह तथा सन् 195758 में दो-दो माह रूपकुंड में शिविर लगाकर नरकंकाल, अस्थियां, बालों की चुटिया, चमड़े के चप्पल व बटुआ, चूड़ियां, लकड़ी व मिट्टी के बर्तन, शंख के टुकड़े, आभूषणों के दाने आदि पर्याप्त वस्तुऐं एकत्रित कीं। उन्होंने ये वस्तुऐं वैज्ञानिक जांच हेतु बाहर भेजीं। यहां से कंकालों को बाहर ले जाकर 1957 से 1961 तक शोध परीक्षण किया जाते रहे। वैज्ञानिक शोध के आधार पर ये नरकंकाल, अस्थियां आदि लगभग 650 वर्ष (750 वर्ष पूर्व) पुराने साबित हुए हैं। स्वामी प्रणवानन्द ने अपने अध्ययन के निष्कर्ष में रूपकुंड में प्राप्त अस्थियां आदि वस्तुऐं कन्नौज के राजा यशोधवल के यात्रा दल के माने हैं जिसमें राजपरिवार के सदस्यों के अलावा अनेक दास-दासियां, कर्मचारी तथा कारोबारी आदि सम्मिलित थे। बताया गया है कि हताहतों की संख्या कम से कम तीन सौ होगी। पशुओं का एक भी अस्थि पंजर नहीं पाया गया। स्वामी प्रणवानन्द जब पुन: चौथी बार अन्वेशण हेतु रूपकुंड गये तो बताया गया कि उप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानन्द द्वारा प्रदत्त नाव में बैठकर उन्होंने झील की परिक्रमा की। यह झील लगभग 12 मीटर लम्बी, 10 मीटर चौड़ी व 2 मीटर गहरी है व झील का धरातल प्राय: सर्वत्र समतल प्रतीत हुआ है।
वर्ष 2004 में भारतीय और यूरोपीय वैज्ञानिकों के एक दल ने भी संयुक्त रूप से झील का रहस्य खोलने का प्रयास किया। इसी साल नेशनल ज्योग्राफिक के शोधार्थी भी कुछ नमूने इंग्लैंड ले गए। बावजूद इसके गुत्थी सुलझ नहीं पाई। तीस साल तक नरकंकालों पर शोध के बाद मानव शास्त्री विलियम एस. साक्स सिर्फ इतना बता पाए कि ये कंकाल आठवीं सदी के हैं।
नया शोध
दुनिया के मानव विज्ञानियों के लिए पिछले कई दशकों से कौतूहल का कारण रहे हिमालय की रूपकुंड झील में बिखरे सैकड़ों कंकालों का रहस्य जर्मनी के एक विशेषज्ञ के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के दल ने सुलझा लेने का दावा किया है। इन वैज्ञानिकों का दावा है कि इन लोगों ने मोक्ष पाने के लिए आत्महत्या नहीं की। रूपकुंड झील में बिखरे नरकंकाल विदेशी आक्रमणकारियों या सौदागरों के न होकर उन भारतीयों के हैं जिनकी मौत दैवीय प्रकोप की वजह से 9 वीं सदी में हो गई थी।
जर्मनी की हीडेलबर्ग यूनिवर्सिटी के मानव विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. विलियम सैक्स के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल ने गहन परीक्षणों के बाद माना है कि ये घटना नंदादेवी राजजात से संबंधित है। वैज्ञानिकों के दल ने रूपकुंड के कंकालों और वहां मिले एकमात्र जमे हुए शव का डीएनए परीक्षण ब्रिटेन तथा जर्मनी की प्रयोगशालाओं में कराया। वैज्ञानिकों ने कहा है कि 16000 फुट से अधिक ऊंचाई पर इस रहस्यमय झील और उसके पास बिखरे कंकाल ज़्यादातर बाहरी और कुछ स्थानीय लोगों के हैं।
दल के भारतीय सदस्य में से एक डॉ. वालिम्बे के अनुसार भारी-भरकम ओलों की बरसात में इन स्त्रियों, पुरुषों, वृद्धों और बच्चों सहित क़रीब 600 लोग मारे गए थे। हड्डियों के परीक्षण में खोपडि़यों पर क्रिकेट की गेंद जैसी भारी गोल वस्तु के प्रहार के निशानों की पुष्टि हुई है। साठ के दशक में हुए परीक्षणों में इन कंकालों 12 वीं से 15 वीं सदी के बीच का बताया गया था। नवीनतम पुरातात्विक परीक्षण में इन्हें 9 वीं सदी का बताया गया है। गढ़वाल में पवार वंश का शासन भी इसी दौरान शुरू हुआ था और नंदा देवी राजजात की शुरुआत भी तभी से मानी जाती है। ये सैकड़ों लोग एक ही हादसे में मारे गए थे। नई खोज में इन मृतकों के तिब्बती होने का भी खंडन किया गया है, जिससे इन लोगों के राजजात यात्री होने की अवधारणा को बल मिलता है।
शोध टीम में डॉ. वालिम्बे के अलावा विशेषज्ञ डॉ. प्रमोद जोगलेकर, गढ़वाल विश्वविद्यालय के डॉ. एम.पी.एस. बिष्ट और राकेश भट्ट शामिल हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार लंबे-चौड़े कंकाल मैदानी भारत के लोगों के हैं। इनमें आनुवंशिक समानता होने के साथ ही खोपडि़यों की बनावट भी एक जैसी है जो इनके एक ही परिवार के या रिश्तेदार होने की पुष्टि करती है। वैज्ञानिकों के इस निष्कर्ष को सही माना जाए तो यह इन कंकालों के राजा यशोधवल, उसके साथ आए परिजनों और उसके सुरक्षाकर्मियों के होने की धारणा की पुष्टि करता है। इस तरह के कंकाल झील के निकट मिले हैं। माना जाता है कि राजा यशोधवल नंदा देवी की यात्रा पर नर्तकियों को भी लेकर आया था, जिसके कारण उस पर कहर बरपा।
कंकालों के डीएनए परीक्षणकर्ताओं में से एक सेंटर फॉर सेल्युलर एवं मोलिक्युलर बायोलॉजी के निदेशक डॉ. लालजी सिंह ने कुछ विलक्षण खोपडि़यों को महाराष्ट्र के कोकानस्थ ब्राकी करार दिया और दावा किया कि इनकी खोपडि़यों की कुछ हड्डियां अन्यत्र नहीं मिलतीं। डॉ. वालिम्बे ने छोटे क़द के कंकालों को स्थानीय लोगों का बताया है और इन्हें इस यात्री दल का कुली और गाइड माना है। इनकी गोल खोपडि़यों के बीच का हिस्सा थोड़ा धंसा हुआ है जो कि शोधकर्ताओं के अनुसार पीठ के भारी बोझ को सिर से सहारा देने के लिए बांधे रस्से के कारण होगा। ये लोग नंदादेवी राजजात मार्ग के आसपास के गांवों के रहे होंगे। शोधकर्ता इनकी मौत का कारण भूस्खलन या भारी बर्फबारी को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उनके अनुसार ये सभी लोग एक साथ सिर की चोट से मरे हैं।

लोकगाथा में रूपकुंड का रहस्यमय इतिहास


रूपकुंड झील और त्रिशूली शिखर
रूपकुंड रहस्य की ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक आधार पर जांच पड़ताल के बाद तथा घाटी के आखिरी गांव बाक घेस बलाण के वृद्ध लोगों और लोकोक्तियों (उत्तराखंड अंचल में प्रचलित लोकगाथा एवं लोकगीतों) के अनुसार यह निष्कर्ष निकाला जा चुका है कि चौदहवीं शताब्दी (12वीं शताब्दी) में तत्कालीन कन्नौज की महारानी बल्लभा द्वारा अपना अपमान किये जाने से देवी नंदापार्वती कुपित हो उठी। इसके बाद ही सारे राज्य पर अकाल की छाया मंडराने लगी तथा अनेक प्राकृतिक प्रकोप होने लगे। कुएं सूख गये। धरती फट प़डी। पशुपक्षी और प्रजनन त्राहि-त्राहि कर उठे। अचानक आई इस विपत्ति से छुटकारा पाने के लिए राजा यशधवल (यशोधवल) ने यज्ञादि जितने भी अनुष्ठान किये व्यर्थ ही गये। तब, नंदा पार्वती ने उसे स्वप्न में दर्शन देकर कहा, ‘यशधवल’ धुर उत्तर में त्रिशूल एवं नंदाघुंघटी नाम की दो पर्वत चोटियाँ हैं। इनमें से त्रिशूल भगवान शिव का प्रतिरूप है, तो नंदा घुंघटी साक्षात में स्वयं इन दोनों से अलग-अलग प्रवाहित होने वाली दो जल धाराएं घाटी में जिस स्थल पर गिरकर नंदाकिनी नदी का रूप धारण करती हैं, ठीक वहीं स्थित होमकुंड में पूजा अर्चना कर तू, जब तक मेरी अभ्यर्थना नहीं करेगा, तब तक इस विपत्ति से छुटकारा नहीं पा सकेगा।
राजा यशधवल ह़डब़डाकर तुरंत उठ बैठा। आनन-फानन में देवी का जाप कर जाने का डंका पिटवाया गया। फिर तो क्या राजा रानी, मंत्री और क्या प्रजानन, सभी देवी नंदापार्वती की जाप करने निकल प़डे। यात्रियों का यह विशाल दल जब बेंदिनी बुग्याल से आगे पहुंचा, तो एक उपयुक्त स्थान देखकर प़डाव डालने के बाद नृत्य संगीत व मदिरा पान के आयोजन की तैयारी की जाने लगी। इस पर राज पुरोहित ने यशधवल को समझाया, ‘हे राजन भजन कीर्तन की जगह देवभूमि पर रासरंग का आयोजन करना उचित प्रतीत नहीं होता। कृपया, अपना यह विचार तुरंत त्याग दें।’ अट्टहास कर राजा यशधवल ने राज पुरोहित की खिल्ली उ़डाते हुए जवाब दिया, ‘राज पुरोहित जी, आप कहीं एकांत देखकर खूब संकीर्तन करें। हमारे देवता तो नृत्य संगीत के आयोजन से ही प्रसन्न होंगे।’ परंतु उधर, राजा का संकेत पाकर राजनर्तकियों ने जैसे ही नाचना प्रारंभ किया, वैसे ही पत्थर की मूर्तियों में परिवर्तित हो गई। इस घटना से यशधवल बेहद घबराया। किसी प्रकार रात वहीं गुजारने के बाद जब वह अपने दलबल सहित रूपकुंड पहुंचा, तो अनायास ही रानी बल्लभा को प्रसव प़ीडा ने आ घेरा और उसने शीघ्र ही वहीं एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। कन्या रत्न को देवी का वरदान समझकर राजा यशधवल इतना हर्षाया कि पूर्व रात्रि को नर्तकियों के साथ घटित पूरी दुर्घटना को भूलकर वह पुनः रासरंग में डूब गया। बस, फिर क्या था। पलक झपकते ही तारों भरा सारा आकाश काले-काले बादलों से उम़डने घुम़डने लगा। हवा झंझावात बन गई। बिजली की घनघोर गरज के साथ इतनी मूसलाधार वर्षा हुई कि प़डाव के न केवल सारे डेरे तम्बू उख़ड गये, बल्कि बेगवती जल धारा के साथ-साथ बहकर राजा रानी सहित सभी यात्रीगण भी रूपकुंड में जा समाए और इस प्रकार अपने अतीत को दुहराता कन्नौज एक बार फिर उज़ड गया। अत: ये नरकंकाल व अस्थियां आदि वस्तुऎं उसी समय के बताये गये हैं। कुछ लोग तिब्बत से आये यात्री दल के अवशेष बताते हैं।

निष्कर्ष

रहस्यमय नरकंकालों से अटी पडी रूपकुंड झील अपनी प्राकृतिक संरचना, भौगोलिक परिवेश और प्रचलित किंवदंतियों के कारण वर्तमान में विश्व भर के लिए प्रबल जिज्ञासा, असामान्य कौतुहल तथा विषद वैज्ञानिक परिचर्चा की महत्त्वपूर्ण विषय वस्तु बन गई है।
लोकगाथाओं व लोकगीतों से शुरू हुई रहस्य कथा रेडियो कार्बन विधि की जांच के बाद भी खत्म नहीं हुई। स्थिति जो कुछ भी हो लेकिन इतिहासकारों एवं वैज्ञानिकों के लिये रूपकुंड रहस्य एक बहुचर्चित विषय बन गया है। इस बीच इन पांच-छह दशकों में इस क्षेत्र में जितनी भी खोज तथा अन्वेशण कार्य किये गये हैं उसमें विशेषज्ञ एकमत व निष्कर्ष पर नहीं पंहुच पाये हैं। लेकिन अनेक अन्वेशक व खोजकर्ता प्राय: इस निष्कर्ष पर तो अवश्य पंहुचे हैं कि ये नरकंकाल व अस्थियां आदि वस्तुऐं छह-सात सौ वर्ष पुराने रहे होंगे।
यह रहस्यमय झील ग्रीष्मकाल वर्षा ऋतु के तीन-चार महीने (जून से सितम्बर तक) बर्फ़ पिघलने से दिखाई देती है और शेष अवधि में हिमाच्छादित रहती है। आज भी रूपकुंड के आसपास यत्र-तत्र व किनारों पर छुटपुट मानव कंकाल व अस्थियां के टुकड़े पड़े दिखाई देते हैं लेकिन पर्यटकों, अन्वेशकों आदि भ्रमणकर्ताओं के आगमन के बाद अब इस क्षेत्र में ये वस्तुऐं धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं। यह गतिविधि पुरातात्विक स्थल रूपकुंड के इतिहास को नष्ट करती रही है।

रूपकुंड झील यात्रा


रूपकुंड झील का मार्ग
रूपकुंड तक का मार्ग अत्यंत मोहक और प्राकृतिक छटाओं से भरा है। घने जंगल, मखमली घास के चरागाह, फूलों की बहार, झरनों नदी-नालों का शोर, बड़ी-बड़ी गुफाएं, गांव, खेत सर्वत्र एक सम्मोहन पसरा हुआ है। गहरी खामोशी में डूबी चट्टानों के बीहड़ जमघट में भी एक आनन्द छुपा है।
शीतकाल में रूपकुंड यात्रा का अभियान नितांत असंभव है। वर्षा ऋतु में भी ऐसा प्रयास मृत्यु को आमंत्रण देने जैसी ही बात होगी, जबकि मई और जून की भीषण गर्मी वाले दिन भी पर्यटन के लिए तभी अनुकूल सिद्ध होंगे कि जब ‘ट्रेकिंग’ की आधुनिक साजसज्जा से युक्त होकर सामूहिक रूप से आरोहण किया जाये।
रूपकुंड की यात्रा के लिए जून उत्तरार्द्ध से सितम्बर उत्तरार्द्ध का समय सर्वोत्तम होता है क्योंकि इसके बाद इस पूरे क्षेत्र में हिमपात का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है जिससे पर्यटकों को यात्रा के लिए अनुकूल परिस्थितियां दुर्लभ हो जाती हैं।
रूपकुंड पंहुचने के लिये मार्ग
इस विश्वप्रसिद्ध रहस्यमय रूपकुंड स्थान में पंहुचने के लिये मुख्यत: निम्न मार्ग हैं -
  • कर्णप्रयाग से थराली, देवाल, वाण, गैरोलीपातल, वेदिनी बुग्याल, कैलोविनायक, रूपकुंड (लगभग 155 किमी)।
  • नन्दप्रयाग से घाट, सुतोल, वाण, वेदिनी बुग्याल, रूपकुंड।
  • ग्वालदम से देवाल, वाण, वेदिनी बुग्याल, रूपकुंड।
हरिद्वार से लगभग 350 किमी की दूरी पर स्थित रूपकुंड तक पहुंचने के लिए कर्णप्रयाग होते हुए बग़डग़ाड तक (कुल 222 किमी) बस अथवा कार द्वारा सफर किया जा सकता है। कर्ण प्रयाग से पिण्डारी नदी के किनारे-किनारे थराली होते हुए देवल वहां से 13 कि.मी. बकरीगढ़ तक कच्चा मार्ग है। रूपकुंड पहुंचने के लिए अंतिम बस स्टेशन बकरीगढ़ (बगरीगाड़) है। यहां से रूपकुंड तक 41 किमी की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। बगरीगाड़ में पोर्टर गाइड मिल जाते हैं, यहीं से इन्हें साथ ले चलना बेहतर रहता है। खाने-पीने, पहनने का पर्याप्त सामान लेकर ही ट्रैकिंग शुरू करनी चाहिए। बग़डग़ाड से प्रारम्भ होती है सीधी ख़डी च़ढाई और फिर दुरुह पगडंडियां। बकरीगढ़ से 3 कि.मी. मुन्दौली गांव होते हुए वा 7 किमी का फासला तय करने के बाद आती है, लौहजंग सुरम्य एवं पौराणिक स्थली, जहां पहुंचते-पहुंचते वैसाख व जेठ के गर्म थप़ेडों से त्रस्त यात्री को शीतल हवा के स्पर्श से अथाह आनंद की अनुभूति होने लगती है। लौहजंग से रूपकुंड के लिए दो रास्ते जाते हैं। एक वाण से होकर, दूसरा बांक से गुजरते हुए। एक तीसरा रास्ता और भी है, जो घने जंगल की ओर फटता है, जिस पर च़ढते उतरते नौ किमी का रास्ता तय करते हुए 'भैंकल ताल व ब्रह्मताल' नामक पर्यटन स्थल प़डते हैं। फिर, गुंजान जंगलों से बाहर निकलते ही रंगबिरंगे चित्ताकर्षक फूलों व मखमली घास से लदेफंसे तितली, बुग्याल, चारागाह (ऊंचाई 10000 फुट) की मनोरम छटा बरबस ही पर्यटकों का मन मोहने लगती है। लेकिन, रूपकुंड यात्रा की दृष्टि से यह रास्ता न केवल विषम है, वरन्‌ थ़ोडा लम्बा भी प़डता है।
प्रकृति की अनूठी कृति रूपकुंड का अवलोकन करने जाने के लिए श्रीनगर, कर्णप्रयाग तथा देवाल होते हुए भी जाया जा सकता है, लेकिन यदि ट्रैकिंग के रूप में ग्वालदम से पदयात्रा की जाए तो पर्यटक उस क्षेत्र के ग्रामीण जनजीवन, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विरासत तथा अनछुए स्थलों से जुड़े विशिष्ट अनुभवों से ओत–प्रोत होकर लगभग 10 दिन की अवधि में रूपकुंड पहुंचता है। पर्यटक तीन दिन की पदयात्रा के प्रथम चरण में मुंदोली तथा बाण होते हुए लगभग 70 किमी की दूरी तय करने के पश्चात वेदनी बुग्याल पहुंचते हैं।
वाण होकर रूपकुंड जाने का कुछ अलग ही आनंद है। लौहजंग से 15 किमी के फासले पर स्थित यह चित्रमयी गांव धुर उत्तर में ग़ढवाल की सीमांत बस्ती है, जिसका मुख्यालय चमोली है। यहां के निवासी चरवाहे हैं, जो ग्रीष्म ऋतु में अपने पशुओं को लेकर बेदिनी बुग्याल चले जाते हैं। दुमंजिले तिमंजिले मकानों के निर्माण की जो शैली यहां अपनाई गई हैं, ग़ढवाल में वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। ख़डे ढलानों पर बहती बेगवती नदी के किनारे चकचक करती पन चक्कियों का शोर, शहरी कोलाहल से ऊबे पर्यटक को अद्‌भुत आनन्द प्रदान करता है। यहां ग़ढवाल मंडल विकास निगम का रेस्ट हाउस भी है और डाक बंगला भी। बाज़ार है तो छोटा, किंतु आवश्यकता की प्रायः सभी चीज़ें मिल जाती हैं।
लौहजंग से प्रारम्भ हुए बांस और बुरांस के जंगल की सघनता वाण से आगे गहरी होने लगती है। प्रत्येक दस-पन्द्रह क़दम पर म़ोड लेती हुई ऊब़ड-खाब़ड संकरी व फिसलन भरी पगडंडी इस क़दर बल खाये हुए कि जहां नजर चूकी, दुर्घटना घटी। बीच-बीच में गधेरो (बरसाती नदी) को पार करने की मुसीबत ऊपर से जंगल का नाम हैगैरोली पातल, जिसे पार करते ही बेंदिनी बुग्याले का दिलकश नजारा सहसा ही मन प्राणों को गुदगुदा उठता है। यहां मखमली हरी घास के मैदान हैं जिन्हें कश्मीर में सोनमर्ग और गुलमर्ग जैसे नामों से जाना जाता है। समुद्रतल से 2400 मीटर (चारागाह ऊंचाई 12000 फुट) की ऊंचाई पर पसरा हुआ वेदनी बाग़ एशिया के प्रमुख विशाल बागों में से एक है। मीलों तक फैली रेशमी घास तथा नाना प्रकार के ख़ूबसूरत फूलों से फूटती सुगंध का स्पर्श कर इठलाती हवा जैसे सांस-सांस में रम जाती है। यहां पहुंचने पर पर्यटक की थकान पल भर में उड़न छू हो जाती है और वह ताजगी से सराबोर होकर अनोखी स्फूर्ति का अनुभव करता है। उसे यहां असीम सुखद आनंद की अनुभूति होती है। यह सम्पूर्ण क्षेत्र विभिन्न रंग–बिरंगे पुष्पों की अनेक प्रजातियों तथा नाना प्रकार की औषधियुक्त दुर्लभ जड़ी–बूटियों से भरा पड़ा है जहां पर्यटक को स्वतः ही स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो जाता है। कहा जाता है कि वेदों की रचना यहीं पर की गई थी। यत्र-तत्र बहते ध्वजधार वाले झरने जहां इस चारागाह के अपलक सौन्दर्य में श्री वृद्धि करते हैं, वहीं बीचोंबीच स्थित 'वैतरणी' नाम का ताल भारतीय संस्कृति के वांग्मय की दिव्य धरोहर बन गया है। यहां 4 - 4 फुट के आकार वाले लघु मंदिरों की श्रृंखला पर्यटक को श्रद्धा एवं भक्ति से भावविभोर कर देती है। पौराणिक मान्यता यह है कि यहां मौजूद एक छोटे कुंड में पूर्वजों के पिंड दान कर देने से उन्हें तत्काल मोक्ष मिल जाता है।

रूपकुंड झील का मार्ग
अगले 18 किलोमीटर की पदयात्रा के बाद पर्यटक रूपकुंड के पास पहुंच जाता है। बेंदिनी के बाद च़ढाई बिल्कुल सपाट और बेहद तीखी हो जाती है। कहीं कहीं तो पगडंडी के दोनों ओर हजारों फुट गहरी खाइयां है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से सांस फूलने लगती है। चित्रांकित घाटियों एवं पर्वतशिखरों पर लहराती महीन कोहरे की पारदर्शी पर्व तथा हवा में घुली हुई ब्रह्म कमलों तथा विभिन्न प्रकार की ज़डी बूटियों की मादक गंध शिराओं में नशासा बनकर बहने लगती है। ऐसे मनहरन वातावरण में एकएक क़दम ब़डे मनोयोग से फूंक-फूंक कर चलना प़डता है। रात्रि प़डाव के लिए पातुर नचैणियां सर्वाधिक उपयुक्त स्थल है। यहां ल़ुढकी प़डी तीन चट्‌टानों में परिलक्षित पूर्ण स्त्री आकृतियां रूपकुंड से ज़ुडकर उसके रहस्य को और भी अधिक गहरा देती है। धुंध की चादर यहां मोटी हो जाती है और थ़ोडी-थ़ोडी देर बाद बूंदाबांदी होने लगती है। यात्रा का यह अन्तिम प़डाव होता है।
इस दिव्य कुंड की अथाह गहराई, कटोरेनुमा आकार तथा चारों ओर बिखरे नर कंकाल व वातावरण में फैले गहन निस्तब्धता से मन में कौतूहल व जिज्ञासा का ज्वार उत्पन्न हो जाता है। रूपकुंड के रहस्य का प्रमुख कारण ये नर कंकाल ही हैं जो न केवल इसके इर्द–गिर्द दिखते हैं बल्कि तालाब में इनकी परछाइयां भी दिखाई पड़ती हैं। इन अस्थि अवशेषों के विषय में क्षेत्रवासियों में अनेक प्रकार की किवदन्तियां प्रचलित हैं जिन्हें सुनकर पर्यटक रोमांचित हो उठता है। वर्षों से पुरातत्ववेत्ता व इतिहासकार इन नर कंकालों के रहस्य का पता लगाने में जुटे हैं लेकिन अब तक कोई ठोस और सर्वमान्य हल नहीं निकाल पाए हैं।
पर्यटन विभाग के सौजन्य से वेदनी बाग़ में हर वर्ष रूपकुंड महोत्सव का आयोजन किया जाता है। वैसे तो सम्पूर्ण उत्तारांचल को प्रकृति ने अपने विपुल भण्डार से अद्भुत सौंदर्य देकर काफ़ी समृद्ध बनाया है जिसका लुत्फ उठाने के लिए देश–विदेश के हजारों पर्यटक हर वर्ष यहां आते हैं। लेकिन मौजूदा पर्यटन स्थलों में बहुत से स्थान अछूते पड़े हैं जिनके विषय में पर्यटन विभाग सड़कों के किनारे सम्बंधित स्थलों के विवरण दर्शाते साइनबोर्ड लगाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है, रूपकुंड भी इन्हीं में से एक है।
कैलो विनायक - आदि कलाकार का शिल्प
तब, प्रारंभ होती है एकदम घुमावदार बेहद ख़डी विकट च़ढाई, जिस पर रेंगते हुए ब़ढना भी बिना पर्याप्त प्रशिक्षण के असंभव है। राह में प़डते हैं, कैलो विनायक। किसी आदि कलाकार द्वारा चट्टान के निकट काले भाग को तराश कर निर्मित की गई यह गणेश प्रतिमा संभवतः संसार भर में अद्धितीय है। रूपकुंड यहां से कुल छह किमी दूर है।


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Saturday, June 1, 2013

तालागाँव का रुद्र शिव





rudrashivaछत्तीसगढ़ में बिलासपुर से रायपुर जाने वाले राज मार्ग पर दक्षिण की ओर 25 कि.मी.चलने के बाद एक गाँव पड़ता है – भोजपुर. यहाँ से अमेरीकापा के लिए बाईं ओर मार्ग बना हुआ है. इसी मार्ग पर 4 कि.मी. की दूरी पर मनियारी नदी के तट पर 6वीं सदी के देवरानी जेठानी मंदिरों का भग्नावशेष है. सन 1984 के लगभग यहाँ मलवा सफाई के नाम पर उत्खनन कार्य संपन्न हुआ था. इस अभियान में एक तो जेठानी मंदिर का पूरा स्थल विन्यास प्रकट हुआ और साथ ही कई अभूतपूर्व पुरा संपदा धरती के गर्भ से प्रकट हुई थी. स्थल से प्राप्त हुए मूर्तियों के विलक्षण सौंदर्य ने संपूर्ण भारत एवं विदेशी पुरावेत्ताओं को मोहित कर लिया था. देवरानी जेठानी मंदिरों के सामने, हालाकी वे भग्नावस्था में हैं, पूरे भारत में कोई दूसरी मिसाल नहीं है.
देवरानी मंदिर के अग्र भाग में बाईं ओर से एक विलक्षण भव्य प्रतिमा प्राप्त हुई जो भारतीय शिल्पशास्त्र के लिए भी एक चुनौती बनी हुई है. किसी पुराण में भी ऐसे किसी देव या दानव का उल्लेख नहीं मिलता और ना ही ऐसी कोई प्रतिमा भारत या विदेशों में पाई गयी है. सभी विद्वान केवल अटकलें लगा रहे हैं. कुछ नाम तो इस प्रतिमा को देना ही था इसलिए रुद्र शिव कहकर संबोधित किया जा रहा है.
Devrani Temple, Talagaon
देवरानी मंदिर, तालागाँवभग्नावशेष
इस प्रतिमा को देखने पर लगता है कि शिल्पी ने विधाता की सृष्टि में पाए जाने वाले सभी प्राणियों को मानव अवयवों में समाहित कर एक अद्भुत परिकल्पना को मूर्त रूप दिया हो. इस प्रकार की शारीरिक संरचना तो किसी राक्षस की भी नही थी. यह दैत्याकार मूर्ति लगभग ८ फीट ऊँची और ६ टन वजन की बलुआ पत्थर से निर्मित है. हमने इस प्रतिमा को सहलाकर महसूस ही नहीं किया बल्कि उसकी ऊर्जा को कुछ अंश तक ग्रहण करने का भी प्रयास किया था.
चलिए अब एक नज़र उन अवयवों पर भी डाल लें जिस के कारण यह प्रतिमा विशिष्ट बनी. सर पर देखें तो सर्पों का बोल बाला है. जैसे हम अपने कॉलर में ‘बो’ लगाते हैं वैसे ही माथे के ऊपर दो सर्पों को पगड़ी के रूप मे प्रयोग कर फनो को आपस में बाँध दिया गया है. दो बड़े बड़े नाग फन उठाए दोनो कंधों के ऊपर दिख रहे हैं. पता नहीं पूंछ का क्या हुआ. इसका चेहरा तो देखो. आँखों के ऊपर, भौं,  छिपकिलियों से बनी है और एक बड़ी छिपकिली नाक की जगह है. पलकों और आँख की पुतलियों में भी लोगों को कुछ कुछ दिखाई पड़ता है. हमने घूर कर नहीं देखा, डर लगता है ना. ऊपर की ओंठ और मूछे दो मछलियों, और नीचे की ओंठ सहित ठुड्डी केकड़े से निर्मित है. दोनो भुजाएँ मगर के मुह के अंदर से निकली है या यों कहें कि कंधों की जगह मकर मुख बना है. हाथ की उंगलियों का छोर सर्प मुख से बना है.
जब शरीर के निचले ओर चलते हैं तो मानव मुखों की बहुतायत पाते हैं. छाती में स्तनो की तरह दो मूछ वाले मानव मुख हैं. पेट की जगह एक बड़ा मूछ  वाला मानव मुख है. जंघाओं पर सामने की ओर दो मुस्कुराते अंजलि बद्ध मुद्रा में मानव मुख सुशोभित हैं. जंघा के अगल बगल भी दो चेहरे दिखते हैं. वहीं, और नीचे जाते हैं तो घुटनों में शेर का चेहरा बना है. क्या आपको कछुआ दिखा? दोनो पैरों के बीच देखें कछुए के मुह को लिंग की जगह स्थापित कर दिया गया है और अंडकोष की जगह दो घंटे! लटक रहे हैं. मूर्ति के बाएँ पैर की तरफ एक फन उठाया हुआ सर्प तथा ऊपर एक मानव चेहरा और दिखता है. दाहिनी ओर भी ऐसा ही रहा होगा, मूर्ति के उस तरफ का हिस्सा खंडित हो जाने के कारण गायब हो गया. कुछ विद्वानों का मत है कि पैर का निचला हिस्सा हाथी के पैरों जैसा रहा होगा जो अब खंडित हो चला है.Jethani Temple Ruins at Talagaon
जेठानी मंदिर के भग्नावशेष
क्या आपको नहीं लगता कि सृष्टि का रचयिता भी अपना सर पटक रहा होगा और कहता होगा कि हे मानव तू मुझसे भी श्रेष्ट है. लेकिन सवाल उठता है कि ऐसी प्रतिमा बनाने के पीछे शिल्पी का क्या उद्देश्य रहा होगा.
यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि उस मूर्ति को किस अवस्था में प्राप्त किया गया था. खुदाई के समय हमने अपनी इन छोटी छोटी आँखों से देखा है कि यह भारी भरकम प्रतिमा को बक़ायदा 10 x 4 का गड्ढा खोद, नीचे पत्थर बिछा कर, दफ़नाया गया था. वह अपने आप गिर कर मिट्टी के नीचे दबी नहीं थी. गिरी होती तो अपने भार के कारण खंडित हो जाती. इसका मतलब यह हुआ कि उसे जान बूझ कर ही दफ़ना दिया गया था. पर प्रश्न उठता है क्यों? संभवतः उस मूर्ति की आवश्यकता ही नहीं रही होगी!. उन अति सुंदर मंदिरों के बनाते समय हमारे इस तथाकथित रुद्र शिव को पहरेदार की तरह खड़ा रखा गया होगा ताकि लोगों की दृष्टि ना पड़े. जब मंदिर बन गया और उद्‍घाटन भी हो गया तो फिर उस दैत्य रूपी रुद्र शिव को अलविदा कर दिया. हमारे एक मित्र जो एक वरिष्ट पुरावेत्ता हैं, का मानना है कि ऐसी एक नहीं, दो प्रतिमाएँ रही होंगी. एक अभी कहीं दबी पड़ी है.

शिवपुराण ( 6-9-14) में बताया गया है कि:
रूर दुखं दुखः हेतुम व
तद द्रवयति याः प्रुभुह
रुद्र इत्युच्यते तस्मात्
शिवः परम कारणम्
सारांश में: “रूर का तात्पर्य दुःख से है या फ़िर उसका जो कारक है. इसे नाश करने वाला ही रुद्र है जो शिव ही है”
जो बातें शिवपुराण में कही गई है उसे देख कर आभास होता है कि रुद्र में निश्चित ही वीभस्वता तो कदापि नहीं हो सकती. इसलिए जिस मूर्ति कि चर्चा हम कर रहे हैं वह रुद्र शिव तो नहीं ही है.
इस अति विशालकाय रुद्र शिव की अनुकृति को राज्य संग्रहालय, भोपाल के मुख्य द्वार पर स्थापित किया गया है

पूज्य हुज़ूर का निर्देश

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