Sunday, January 31, 2021

राजा की इज़्ज़त

 🌀💫 *बन्द मुठ्ठी लाख की !💫🌀*

एक समय एक राज्य में  राजा ने घोषणा की कि वह राज्य के मंदिर में पूजा अर्चना करने के लिए अमुक दिन जाएगा।

 इतना सुनते ही  मंदिर के पुजारी ने मंदिर की रंग रोगन और सजावट करना शुरू कर दिया, क्योंकि राजा आने वाले थे। इस खर्चे के लिए उसने  ₹6000/- का कर्ज लिया ।

 नियत तिथि पर राजा मंदिर में दर्शन, पूजा, अर्चना के लिए पहुंचे और पूजा अर्चना करने के बाद आरती की थाली में *चार आने दक्षिणा* स्वरूप रखें और अपने महल में प्रस्थान कर गए !

 पूजा की थाली में चार आने देखकर पुजारी बड़ा नाराज हुआ, उसे लगा कि राजा जब मंदिर में आएंगे तो काफी दक्षिणा मिलेगी पर चार आने !!

बहुत ही दुखी हुआ कि कर्ज कैसे चुका पाएगा, इसलिए उसने एक उपाय सोचा !!!

 गांव भर में ढिंढोरा पिटवाया की राजा की दी हुई वस्तु को वह नीलाम कर रहा है। नीलामी पर उसने अपनी मुट्ठी में चार आने रखे पर मुट्ठी बंद रखी और किसी को दिखाई नहीं।

 लोग समझे की राजा की दी हुई वस्तु बहुत अमूल्य होगी इसलिए बोली रु10,000/- से शुरू हुई।

रु 10,000/- की बोली बढ़ते बढ़ते रु50,000/- तक पहुंची और पुजारी ने वो वस्तु फिर भी देने से इनकार कर दिया। यह बात राजा के कानों तक पहुंची ।

राजा ने अपने सैनिकों से पुजारी को बुलवाया और पुजारी से निवेदन किया कि वह मेरी वस्तु को नीलाम ना करें मैं तुम्हें रु50,000/-की बजाय *सवा लाख रुपए* देता हूं और इस प्रकार राजा ने *सवा लाख रुपए देकर अपनी प्रजा के सामने अपनी इज्जत को बचाया  !*

तब से यह कहावत बनी *बंद मुट्ठी सवा लाख की खुल गई तो खाक की !!*

*यह मुहावरा आज भी प्रचलन में है।*    


ईश्वर ने सृष्टि की रचना करते समय *तीन* विशेष रचना की

*1.* अनाज में *कीड़े* पैदा कर दिए, वरना लोग इसका सोने और चाँदी की  तरह संग्रह करते।

*2.* मृत्यु के बाद देह (शरीर) में *दुर्गन्ध* उत्पन्न कर दी, वरना कोई अपने प्यारों को कभी भी  जलाता या दफ़न नहीं करता।

*3.* जीवन में किसी भी प्रकार के संकट या अनहोनी के साथ *रोना और समय के साथ भुलना* दिया, वरना जीवन में निराशा और अंधकार ही रह जाता, कभी भी आशा, प्रसन्नता या जीने की इच्छा नहीं होती।

जीना *सरल* है...

प्यार करना *सरल* है..

हारना और जीतना भी *सरल* है...

तो फिर *कठिन* क्या है?

*सरल* होना बहुत *कठिन* है

विदुर और महाभारत


 महात्मा विदुर महाभारत के मुख्य पात्रों में से एक हैं। उन्होंने अपने जीवनकाल में बहुत सी ऐसी नीतियों की रचना की है, जिन्हें अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में अपना लें तो उसका जीवन बहुत ही सरल हो सकता है। उन्होंने व्यक्ति के जीवन से जुड़ी कई समस्याओं का हल बताने के साथ ही उत्तम पुरुष के लक्षण बताए हैं और आज हम आपको उन्हीं लक्ष्णों के बारे में विस्तार से बताने जा रहे हैं।  


विदुर कहते हैं कि परोपकार रहित मानव का जीवन व्यर्थ होता है। लेकिन उत्तम पुरुष उस मरे हुए पशु के समान होते हैं जिसका मृत्यु के बाद चमड़ा भी काम आता है। यानि ऐसे लोगों को मृत्यु के बाद स्वर्ग मिलता है। उत्तम पुरुष को भले ही मृत्यु लोक में कष्टों का सामना करना पड़ता है, लेकिन वह तटस्थ भाव से धर्म निभाता है। उत्तम पुरुष के जीवन में कितने ही दुख क्यों न आ जाएं, लेकिन वह अपना धर्म निभाता है। विदुर जी कहते हैं कि उत्तम पुरुष में हर दुख को सहने की शक्ति होती है।


विदुर जी कहते हैं कि धर्म का पालन, दान करने, सत्य बोलने और मेहनत करने वाले पुरुषों की चर्चा तीनों लोकों में होती है। ऐसे लोगों की मृत्यु के बाद इनकी कई पीढ़ियां इनके द्वारा किए गए पुण्य का लाभ उठाती हैं।


कहते हैं कि ऐसे पुरुष को पति के रूप में पाकर स्त्री स्वर्ग के समान सुख भोगती है। महात्मा विदुर ने ऐसे पुरुष को उत्तम से भी उत्तम बताया है। विदुर नीति के अनुसार, इन पुरुषों पर हमेशा देवी-देवताओं की कृपा बनी रहती है।

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हेमन्त किगरं


आधुनिक भारत का अनोखा यूनिवर्सिटी


मॉडर्न इंडिया  का ग्लोबल डिजिटल यूनिवर्सिटी


 दयालबाग। डी ई आई के ओपन डे के मौके पर मिली तमाम क्षेत्रों की जानकारियों के अनुसार यह कहा जा सकता है कि दयालबाग यूनिवर्सिटी के  आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगों से यह स्पष्ट हो गया है कि प्रकाश और ध्वनि एक दूसरे के साथ परस्पर जुड़े हुए हैं। इसलिए फोटोन जो प्रकाश के कण होते हैं और फोनोन जो ध्वनि के कण होते हैं उनमें पारस्परिक सम्बन्ध रहता है। 

भारत में विभिन्न धर्मों द्वारा आतंरिक ध्वनि को संपूर्ण सृष्टि का आधार माना जाता है, जिससे उसकी रचना हुई । अल्ट्रा ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन अथवा सुरत-शब्द-योग ध्यान के दौरान अनुभव की जाने वाली आंतरिक ध्वनि संपूर्ण सृष्टि की परम वास्तविकता तथा परम सत्य को प्रकट करती है। हालाँकि, भौतिक दुनिया में प्रकाश का वेग सबसे अधिक होता है, आंतरिक व आध्यात्मिक ध्वनि के फ़ोनॉन गहनता के स्तर पर और भी तेज़ अनंत वेग से गतिमान होते हैं और फोटॉनों पर नियंत्रण भी कर सकते हैं । 

हमें उन परंपराओं का लाभ उठाना चाहिए जो हमें अपने समाज से विरासत के रूप में मिली हैं। इसलिए, दयालबाग़ में विज्ञान एवं अध्यात्म का एक अनूठा संगम कायम किया गया है। हमने एक आधुनिक टिकाऊ स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का निर्माण किया है, जिसमें हम मानव जीवन को बनाए रखने वाली हेल्थकेयर व्यवस्था प्रदान करते हैं, ताकि प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाये रखा जा सके । इसी सिद्धांत पर दयालबाग जीवन शैली और दयालबाग शिक्षा प्रणाली आधारित है।

संवाद /महाभागवत पुराण

 श्री भागवत महापुराण में आज की कथा / प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय


परीक्षित्‌की दिग्विजय तथा धर्म और पृथ्वीका संवाद


प्रस्तुति - कृष्ण मेहता 


सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! पाण्डवोंके महाप्रयाणके पश्चात् भगवान्‌के परम भक्त राजा परीक्षित्‌ श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी शिक्षाके अनुसार पृथ्वीका शासन करने लगे। उनके जन्मके समय ज्योतिषियोंने उनके सम्बन्धमें जो कुछ कहा था, वास्तवमें वे सभी महान् गुण उनमें विद्यमान थे ॥ १ ॥ उन्होंने उत्तरकी पुत्री इरावतीसे विवाह किया। उससे उन्होंने जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥ तथा कृपाचार्यको आचार्य बनाकर उन्होंने गङ्गाके तटपर तीन अश्वमेध-यज्ञ किये, जिनमें ब्राह्मणोंको पुष्कल दक्षिणा दी गयी। उन यज्ञोंमें देवताओंने प्रत्यक्षरूपमें प्रकट होकर अपना भाग ग्रहण किया था ॥ ३ ॥ एक बार दिग्विजय करते समय उन्होंने देखा कि शूद्रके रूपमें कलियुग राजाका वेष धारण करके एक गाय और बैलके जोड़ेको ठोकरोंसे मार रहा है। तब उन्होंने उसे बलपूर्वक पकडक़र दण्ड दिया ॥ ४ ॥


  शौनकजीने पूछा—महाभाग्यवान् सूतजी ! दिग्विजयके समय महाराज परीक्षित्‌ने कलियुगको दण्ड देकर ही क्यों छोड़ दिया—मार क्यों नहीं डाला ? क्योंकि राजाका वेष धारण करनेपर भी था तो वह अधम शूद्र ही, जिसने गायको लातसे मारा था ? यदि यह प्रसङ्ग भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलासे अथवा उनके चरणकमलोंके मकरन्द-रसका पान करनेवाले रसिक महानुभावोंसे सम्बन्ध रखता हो तो अवश्य कहिये। दूसरी व्यर्थकी बातोंसे क्या लाभ। उनमें तो आयु व्यर्थ नष्ट होती है ॥ ५-६ ॥ प्यारे सूतजी ! जो लोग चाहते तो हैं मोक्ष परन्तु अल्पायु होनेके कारण मृत्युसे ग्रस्त हो रहे हैं, उनके कल्याणके लिये भगवान्‌ यमका आवाहन करके उन्हें यहाँ शान्तिकर्ममें नियुक्त कर दिया गया है ॥ ७ ॥ जबतक यमराज यहाँ इस कर्ममें नियुक्त हैं, तबतक किसीकी मृत्यु नहीं होगी। मृत्युसे ग्रस्त मनुष्यलोकके जीव भी भगवान्‌की सुधातुल्य लीला-कथाका पान कर सकें, इसीलिये महर्षियोंने भगवान्‌ यमको यहाँ बुलाया है ॥ ८ ॥ एक तो थोड़ी आयु और दूसरे कम समझ। ऐसी अवस्थामें संसारके मन्दभाग्य विषयी पुरुषोंकी आयु व्यर्थ ही बीती जा रही है—नींदमें रात और व्यर्थके कामोंमें दिन ॥ ९ ॥


  सूतजीने कहा—जिस समय राजा परीक्षित्‌ कुरुजाङ्गल देशमें सम्राट्के रूपमें निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने सुना कि मेरी सेनाद्वारा सुरक्षित साम्राज्यमें कलियुगका प्रवेश हो गया है। इस समाचारसे उन्हें दु:ख तो अवश्य हुआ; परन्तु यह सोचकर कि युद्ध करनेका अवसर हाथ लगा, वे उतने दुखी नहीं हुए। इसके बाद युद्धवीर परीक्षित्‌ने धनुष हाथमें ले लिया ॥ १० ॥ वे श्यामवर्णके घोड़ोंसे जुते हुए, सिंहकी ध्वजावाले, सुसज्जित रथपर सवार होकर दिग्विजय करनेके लिये नगरसे बाहर निकल पड़े। उस समय रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना उनके साथ-साथ चल रही थी ॥ ११ ॥ उन्होंने भद्राश्व, केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु और किम्पुरुष आदि सभी वर्षोंको जीतकर वहाँके राजाओंसे भेंट ली ॥ १२ ॥ उन्हें उन देशोंमें सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओंका सुयश सुननेको मिला। उस यशोगानसे पद-पदपर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी महिमा प्रकट होती थी ॥ १३ ॥ इसके साथ ही उन्हें यह भी सुननेको मिलता था कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रकी ज्वालासे किस प्रकार उनकी रक्षा की थी, यदुवंशी और पाण्डवोंमें परस्पर कितना प्रेम था तथा पाण्डवोंकी भगवान्‌ श्रीकृष्णमें कितनी भक्ति थी ॥ १४ ॥ जो लोग उन्हें ये चरित्र सुनाते, उनपर महामना राजा परीक्षित्‌ बहुत प्रसन्न होते; उनके नेत्र प्रेमसे खिल उठते। वे बड़ी उदारतासे उन्हें बहुमूल्य वस्त्र और मणियोंके हार उपहाररूपमें देते ॥ १५ ॥ वे सुनते कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने प्रेमपरवश होकर पाण्डवोंके सारथिका काम किया, उनके सभासद् बने—यहाँतक कि उनके मनके अनुसार काम करके उनकी सेवा भी की। उनके सखा तो थे ही, दूत भी बने। वे रातको शस्त्र ग्रहण करके वीरासनसे बैठ जाते और शिविरका पहरा देते, उनके पीछे-पीछे चलते, स्तुति करते तथा प्रणाम करते; इतना ही नहीं, अपने प्रेमी पाण्डवोंके चरणोंमें उन्होंने सारे जगत्को झुका दिया। तब परीक्षित्‌की भक्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें और भी बढ़ जाती ॥ १६ ॥ इस प्रकार वे दिन-दिन पाण्डवोंके आचरणका अनुसरण करते हुए दिग्विजय कर रहे थे। उन्हीं दिनों उनके शिविरसे थोड़ी ही दूरपर एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह मैं आपको सुनाता हूँ ॥ १७ ॥ धर्म बैलका रूप धारण करके एक पैरसे घूम रहा था। एक स्थानपर उसे गायके रूपमें पृथ्वी मिली। पुत्रकी मृत्युसे दु:खिनी माताके समान उसके नेत्रोंसे आँसुओंके झरने झर रहे थे। उसका शरीर श्रीहीन हो गया था। धर्म पृथ्वीसे पूछने लगा ॥ १८ ॥


  धर्मने कहा—कल्याणि ! कुशलसे तो हो न ? तुम्हारा मुख कुछ-कुछ मलिन हो रहा है। तुम श्रीहीन हो रही हो, मालूम होता है तुम्हारे हृदयमें कुछ-न-कुछ दु:ख अवश्य है। क्या तुम्हारा कोई सम्बन्धी दूर देशमें चला गया है, जिसके लिये तुम इतनी चिन्ता कर रही हो ? ॥ १९ ॥ कहीं तुम मेरी तो चिन्ता नहीं कर रही हो कि अब इसके तीन पैर टूट गये, एक ही पैर रह गया है ? सम्भव है, तुम अपने लिये शोक कर रही हो कि अब शूद्र तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे। तुम्हें इन देवताओंके लिये भी खेद हो सकता है, जिन्हें अब यज्ञोंमें आहुति नहीं दी जाती, अथवा उस प्रजाके लिये भी, जो वर्षा न होनेके कारण अकाल एवं दुॢभक्षसे पीडि़त हो रही है ॥ २० ॥ देवि ! क्या तुम राक्षस-सरीखे मनुष्योंके द्वारा सतायी हुई अरक्षित स्त्रियों एवं आर्तबालकोंके लिये शोक कर रही हो ? सम्भव है, विद्या अब कुकर्मी ब्राह्मणोंके चंगुलमें पड़ गयी है और ब्राह्मण विप्रद्रोही राजाओंकी सेवा करने लगे हैं, और इसीका तुम्हें दु:ख हो ॥ २१ ॥ आजके नाममात्रके राजा तो सोलहों आने कलियुगी हो गये हैं, उन्होंने बड़े-बड़े देशोंको भी उजाड़ डाला है। क्या तुम उन राजाओं या देशोंके लिये शोक कर रही हो ? आजकी जनता खान-पान, वस्त्र, स्नान और स्त्री-सहवास आदिमें शास्त्रीय नियमोंका पालन न करके स्वेच्छाचार कर रही है; क्या इसके लिये तुम दुखी हो ? ॥ २२ ॥ मा पृथ्वी ! अब समझमें आया, हो-न-हो तुम्हें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी याद आ रही होगी; क्योंकि उन्होंने तुम्हारा भार उतारनेके लिये ही अवतार लिया था और ऐसी लीलाएँ की थीं, जो मोक्षका भी अवलम्बन हैं। अब उनके लीला संवरण कर लेनेपर उनके परित्यागसे तुम दुखी हो रही हो ॥ २३ ॥ देवि ! तुम तो धन-रत्नोंकी खान हो। तुम अपने क्लेशका कारण, जिससे तुम इतनी दुर्बल हो गयी हो, मुझे बतलाओ। मालूम होता है, बड़े-बड़े बलवानोंको भी हरा देनेवाले कालने देवताओंके द्वारा वन्दनीय तुम्हारे सौभाग्यको छीन लिया है ॥ २४ ॥


  पृथ्वीने कहा—धर्म ! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब स्वयं जानते हो। जिन भगवान्‌के सहारे तुम सारे संसारको सुख पहुँचानेवाले अपने चारों चरणोंसे युक्त थे, जिनमें सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा, त्याग, सन्तोष, सरलता, शम, दम, तप, समता, तितिक्षा, उपरति, शास्त्रविचार, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, वीरता, तेज, बल, स्मृति, स्वतन्त्रता, कौशल, कान्ति, धैर्य, कोमलता, निर्भीकता, विनय, शील, साहस, उत्साह, बल, सौभाग्य, गम्भीरता, स्थिरता, आस्तिकता, कीर्ति, गौरव और निरहंकारता—ये उनतालीस अप्राकृत गुण तथा महत्त्वाकांक्षी पुरुषोंके द्वारा वाञ्छनीय (शरणागत- वत्सलता आदि) और भी बहुत-से महान् गुण उनकी सेवा करनेके लिये नित्य-निरन्तर निवास करते हैं, एक क्षणके लिये भी उनसे अलग नहीं होते—उन्हीं समस्त गुणोंके आश्रय, सौन्दर्यधाम भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस समय इस लोकसे अपनी लीला संवरण कर ली और यह संसार पापमय कलियुगकी कुदृष्टिका शिकार हो गया। यही देखकर मुझे बड़ा शोक हो रहा है ॥ २५—३० ॥ अपने लिये, देवताओंमें श्रेष्ठ तुम्हारे लिये, देवता, पितर, ऋषि, साधु और समस्त वर्णों तथा आश्रमोंके मनुष्योंके लिये मैं शोकग्रस्त हो रही हूँ ॥ ३१ ॥ जिनका कृपाकटाक्ष प्राप्त करनेके लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान्‌के शरणागत होकर बहुत दिनोंतक तपस्या करते रहे, वही लक्ष्मीजी अपने निवासस्थान कमलवनका परित्याग करके बड़े प्रेमसे जिनके चरणकमलोंकी सुभग छत्रछायाका सेवन करती हैं, उन्हीं भगवान्‌के कमल, वज्र, अङ्क्ुश, ध्वजा आदि चिह्नोंसे युक्त श्रीचरणोंसे विभूषित होनेके कारण मुझे महान् वैभव प्राप्त हुआ था और मेरी तीनों लोकोंसे बढक़र शोभा हुई थी; परन्तु मेरे सौभाग्यका अब अन्त हो गया ! भगवान्‌ने मुझ अभागिनीको छोड़ दिया। मालूम होता है मुझे अपने सौभाग्यपर गर्व हो गया था, इसीलिये उन्होंने मुझे यह दण्ड दिया है ॥ ३२-३३ ॥


  तुम अपने तीन चरणोंके कम हो जानेसे मन-ही-मन कुढ़ रहे थे; अत: अपने पुरुषार्थसे तुम्हें अपने ही अन्दर पुन: सब अङ्गोंसे पूर्ण एवं स्वस्थ कर देनेके लिये वे अत्यन्त रमणीय श्यामसुन्दर विग्रहसे यदुवंशमें प्रकट हुए और मेरे बड़े भारी भारको, जो असुरवंशी राजाओंकी सैंकड़ों अक्षौहिणियोंके रूपमें था, नष्ट कर डाला। क्योंकि वे परम स्वतन्त्र थे ॥ ३४ ॥ जिन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवन, मनोहर मुसकान और मीठी-मीठी बातोंसे सत्यभामा आदि मधुमयी मानिनियोंके मानके साथ धीरजको भी छीन लिया था और जिनके चरण-कमलोंके स्पर्शसे मैं निरन्तर आनन्दसे पुलकित रहती थी, उन पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णका विरह भला कौन सह सकती है ॥ ३५ ॥


  धर्म और पृथ्वी इस प्रकार आपसमें बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय राजर्षि परीक्षित्‌ पूर्ववाहिनी सरस्वतीके तटपर आ पहुँचे ॥ ३६ ॥


जय श्री हरि जय श्री कृष्ण जय श्री राधे

स्मरण रहे आपकी...

 l भगवान तो मिलते हैं स्मरण से  / सम्पत्ति हो चाहें विपत्ति l


        *भगवान की स्मृति बनी रहे,*

      

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    दुःख-सुख समान हैं यह कह देना तो बड़ा सरल है पर व्यक्ति को ऐसा प्रतीत नहीं होता। अगर व्यक्ति गहराई से विचार करके देखे तो इसका रहस्य स्पष्ट हो जाता है। सुख के लिए तो सभी व्यग्र होते हैं। दुःख की बात सत्संग में कही जाती है तथा यह भी कहा जाता है कि बिना दु:ख के ईश्वर नहीं मिलता। इसके लिए उदाहरण भी पुराणों से दे दिए जाते हैं। एक उदाहरण महाभारत से भी दिया जाता है।

      महाभारत युद्ध के बाद जब भगवान विदा लेने लगे और कुन्ती से पूछा कि तुम क्या चाहती हो? तो उन्होंने कहा -- *"विपदः सन्ति नोसश्वद"*-- मैं चाहती हूँ कि हमारे ऊपर निरन्तर विपत्तियाँ आती रहें। उद्धरण देने में यही कहा जाता है पर फिर वही अधूरा ज्ञान ! क्या सचमुच कुन्ती विपत्तियाँ ही चाहती हैं। ऐसा था तो पहले ही माँग लेती कि आप हमारे लड़कों को वन में उसी तरह से भटकाइए। पर ऐसा नहीं किया। उन्होंने तो लड़ने की प्रेरणा दी, पुत्रों को विजयी होने का आशीर्वाद भी दिया। पर जब आज भगवान से यह कहती हैं कि विपत्ति दीजिए तो सचमुच बड़ी समस्या होती है। बड़े कहे जाने वाले भी यह बात कहते हैं तो उसे काटने में संकोच तो लगता है। पर आप गहराई से विचार करके देखिए क्या वे सचमुच विपत्ति माँग रही हैं ? 

     कुन्ती ने जब भगवान से विपत्ति माँगी तो क्या भगवान ने उन्हें विपत्ति का वरदान दे दिया ? ऐसा तो वर्णन आता नहीं है। वस्तुतः इसका एक सूत्र है जिस पर लोगों की दृष्टि नहीं जाती। और उसका परिणाम होता है कि लोगों के समझने में कुछ भूल हो जाती है।

      *कुन्ती के हृदय की भावना यह है कि भगवान का स्मरण निरन्तर बना रहे। उन्होंने यह जो कहा कि विपत्ति दीजिए इसके पीछे उनका उद्देश्य यह था कि सम्पत्ति पाकर मैं आपको कहीं भूल न जाऊँ, इसलिए वे स्मरण के लिए विपत्ति माँगती हैं। केवल विपत्ति के लिए विपत्ति नहीं माँगती।* दोनों में अन्तर है न! जैसे किसी बालक ने हठपूर्वक बार-बार कहा कि मैं अमुक वस्तु खा लूँ, तो माँ ने कहा “जहर खा ले ! "अब यहाँ जहर खाने का अर्थ सचमुच जहर खाने से नहीं अपित् बालक को उस वस्तु को खाने से रोकना है। इस कथन के पीछे कुन्ती का तात्पर्य इतना ही था कि *अनुकूलता पाकर अगर मैं आपको भूल जाऊँ तो उस अनुकूलता की अपेक्षा प्रतिकूलता अधिक अच्छी है कि जिसमें आप याद रहें। महत्त्व केवल भगवान को याद रखने का है।* अगर विपत्ति में ही भगवान की याद आती हैं तो संसार में अधिकाँश व्यक्ति विपत्ति में ही होते हैं, और उन्हें तो भगवान की बड़ी याद आती होगी। इस संदर्भ में विनोद में एक बात आती है।

     तुलसी जयन्ती के अवसर पर एक कवियित्री ने बड़ी सुन्दर कविता सुनाई, जिसमें उन्होंने कहा कि धन्यवाद तो रत्नावली को देना चाहिए कि जिन्होंने तुलसीदास को तुलसीदास बना दिया। अगर उन्होंने न फटकारा होता तो तुलसीदास, तुलसीदास कैसे बनते ? उस समय मैंने यही कहा कि मैं रत्नावली को तो प्रणाम करता ही हुँ , लेकिन स्त्रियों की फटकार से ही अगर तुलसीदास बनते होते तब तो लगभग प्रत्येक घर में एक-एक तुलसीदास बन जाते। इसका अर्थ यह है कि क्या मात्र विपत्ति से ईश्वर मिल जाता है ? क्या दुःख से ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है ? वस्तुतः *भगवान तो मिलते हैं स्मरण से। सम्पत्ति हो चाहें विपत्ति पर भगवान की स्मृति बनी रहे, यह महत्त्व की बात है।*

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राधास्वामी सतसंग DB सुबह 01/02

 **राधास्वामी!! 01-02-2021- आज सुबह सतसंग में पढे गये पाठ:-                                                                      

 (1) गुरु सोई जो शब्द सनेही। शब्द बिना दूसर नहिं सेई।। ऐसी करनी जा की देखें। आप आय सतगुरु तिस मेले।।-(चरनामृत परशादी लेवे। मान मनी तज तन मन देवे।।) (सारबचन-शब्द पहला-पृ.सं.254,255)

                                                

(2) उमँग कर सुनो शब्द घट सार।।टेक।। यह धुन है धुर लोक की धारा। इसने रचन रचाई झार।।-(राधास्वामी चरन सरन हिये धारो। पहुँचावें तोहि निज घर बार।।) (प्रेमबानी-2-शब्द-45-पृ.सं.398)                                🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

**परम गुरु हुजूर मेहताजी महाराज-**राधास्वामी!! 01-02-2021- आज सुबह सतसंग में पढे गये पाठ:-                                                                        (1) गुरु सोई जो शब्द सनेही। शब्द बिना दूसर नहिं सेई।। ऐसी करनी जा की देखें। आप आय सतगुरु तिस मेले।।-(चरनामृत परशादी लेवे। मान मनी तज तन मन देवे।।) (सारबचन-शब्द पहला-पृ.सं.254,255)                                                

 (2) उमँग कर सुनो शब्द घट सार।।टेक।। यह धुन है धुर लोक की धारा। इसने रचन रचाई झार।।-(राधास्वामी चरन सरन हिये धारो। पहुँचावें तोहि निज घर बार।।) (प्रेमबानी-2-शब्द-45-पृ.सं.398)                               

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


**परम गुरु हुजूर मेहताजी महाराज- भाग 1- 

काल  से आगे:-(20)-

 फरवरी '1940- 'सत्संग के उपदेश' से  एक बचन पढ़ा गया। इसमें इंग्लैंड की बेकारी और बेरोजगारी का जिक्र है और उसको दूर करने के तरीकों का बयान है।   

                                        

     हुजूर मेहताजी महाराज ने इस बचन की तरफ ध्यान दिलाते हुए फरमाया कि सत्संग में मौजूदा प्रोग्राम की जबरदस्त ताईद इस बचन के अंदर मौजूद है। हुजूर साहबजी महाराज सर्वशक्तिमान थे। उन्होंने सत्संग के लिए इस जगह हेडक्वार्टर मुकर्रर करके ऐसी शानदार बुनियाद डाली जिस पर कई किस्म की संस्थाओं की इमारतें बनाईं और फिर उनको बखूबी मजबूत बना दिया ।

 वह यह सब काररवाइयाँ इस वजह से कर सकें कि वह सर्वशक्तिमान थे । लेकिन इस वक्त यह काम कमजोर हाथों में है और यह पॉलिसी वाइस प्रेसिडेंट साहब व दयालबाग के दूसरे कार्यकर्ताओं के हाथ में है। इसलिए एक बुनियाद पर कई इमारतें खड़ी नहीं की जा सकतीं। मौजूदा पॉलिसी यह है कि इस तरह का इंतजाम होना चाहिए कि जो भी इमारत बने इस तरीके से बनाई जाए कि वह अपनी बुनियाद पर खड़ी हो सके। मेरा यह है कि इस तरह का इंतजाम होना चाहिए कि हर आदमी अपने पाँव पर खड़ा हो सके और अपना गुजारा कर सके। क्रमशः                                               

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-

[ भगवद् गीता के उपदेश]

- कल से आगे:

- जो एकाग्रचित्त नहीं है वह निश्चयात्मक बुद्धि से शून्य है , उसे कभी मन की यकसूई हासिल नहीं होती। मन की यकसुई के बगैर किसी को शांति नहीं मिल सकती और जो अशांत हो उसे सुख कैसे प्राप्त हो सकता है?

 जैसे समुद्र पर तैरते हुए जहाज को तेज हवा उड़ा ले जाती है ऐसे ही उसके मन की हर एक तरंग उसकी बुद्धि को उड़ा ले जाती है। इसलिये बार-बार कहना पड़ता है कि सिर्फ इंद्रियों को बस में रखने वाले पुरुष ही की बुद्धि स्थिर होती है। एकाग्रचित्त पुरुषों का दिन संसार के साधारण मनुष्य की रात है और संसार के मनुष्यों का दिन एकाग्रचित्त दृष्टि वाले पुरुषों की रात है।

 जिस पुरुष के अंदर सब ख्वाहिशें दाखिल हो कर ऐसे निश्चल हो जाती है जैसे समुद्र में दाखिल होकर नदियाँ बेहरकत हो जाती है( समुद्र में जल तो भरा है लेकिन बेहरकत है), वही पुरुष शांति को प्राप्त होता है। इच्छाएँ उठाने वाला पुरुष कभी शांति हासिल नहीं करता।। ।70। 

                                                     

पुरुष के मन में न कोई इच्छा है न वासना, जिसमें ममता है न अहंकार, वही शांति को प्राप्त होता है। अर्जुन! यह है हमेशा कायम रहने वाली गति, यह है एक रस रहने वाली हालत। यहाँ पहुँच कर कोई शख्स मोह को प्राप्त नहीं होता। जो मरते दम भी इस मंजिल पर पहुँच जायं वह ब्रह्म- निर्वाण गति को प्राप्त होता है अर्थात् वह मरने पर ब्रह्म की जात ही में लीन हो जाता है। 72। 

क्रमशः 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**


**परम गुरु हुजूर महाराज-

प्रेम पत्र- भाग-1- कल से आगे:-( 14 )

जिस कदर कार्यवाही प्रमार्थ की की जाती है, उस सब का मतलब यही है कि अभ्यासी को गहरी प्रतीति और प्रीति सच्चे मालिक के चरणो में हासिल होवे। तब उसका अभ्यास सुरत के चढ़ाने का सहज और सुख पूर्ण बनता जावेगा । और जब तक की प्रतीति और प्रीति में कसर है, उसी कदर मन और इंद्री भी डावाँडोल रहती है, और अभ्यास भी जैसा चाहिए वैसा दुरुस्ती के साथ नहीं बनता।

इस वास्ते कुल पर परमार्थियों को मुनासिब है कि अंतर और बाहर सत्संग करके अपनी प्रतीति और प्रीति को मजबूत करें और दिन दिन बढ़ाते जावें, तो उनको अभ्यास का भी रस आ जावेगा और मन और इंडियाँ भी सहज में भोगों की तरफ से किसी कदर हट कर अंतर में शब्द और स्वरूप के आसरे उलटती जावेंगीं और राधास्वामी दयाल की दया और रक्षा और कुदरत के परचे मिलते जावेंगे कि जिनसे प्रीति और प्रतीति दिन दिन बढ़ती जावेगी और एक दिन काम पूरा हो जावेगा।                                                     


(15)-अभ्यासी को चाहिए कि मन और माया और काल और कर्म के धोखों और झकोले से होशियार रहें । यह सब अभ्यासी को अपने पदार्थ तमाशे  पेश कर के रास्ते में रोकना और अटकाना चाहते हैं। सो जो कोई सतगुरु राधास्वामी दयाल को रहनुमा करके और उनकी दया का बल लेकर चलेगा,उस पर किसी का जोर या छल पेश नहीं जावेगा और आखिर सब थक कर रास्ते में रह जावेंगे और वह मैदान जीतकर उसके घर से सतगुरु राधास्वामी दयाल की दया से निकल कर बेखौफ अपने निज देश में पहुँच जावेगा। क्रमशः  

                           


🙏🏻राधास्वामी🙏🏻*

* भाग 1- कल से आगे:-(20)-19 फरवरी '1940- 'सत्संग के उपदेश' से  एक बचन पढ़ा गया। इसमें इंग्लैंड की बेकारी और बेरोजगारी का जिक्र है और उसको दूर करने के तरीकों का बयान है।                                                

 हुजूर मेहताजी महाराज ने इस बचन की तरफ ध्यान दिलाते हुए फरमाया कि सत्संग में मौजूदा प्रोग्राम की जबरदस्त ताईद इस बचन के अंदर मौजूद है। हुजूर साहबजी महाराज सर्वशक्तिमान थे। उन्होंने सत्संग के लिए इस जगह हेडक्वार्टर मुकर्रर करके ऐसी शानदार बुनियाद डाली जिस पर कई किस्म की संस्थाओं की इमारतें बनाईं और फिर उनको बखूबी मजबूत बना दिया । वह यह सब काररवाइयाँ इस वजह से कर सकें कि वह सर्वशक्तिमान थे । लेकिन इस वक्त यह काम कमजोर हाथों में है और यह पॉलिसी वाइस प्रेसिडेंट साहब व दयालबाग के दूसरे कार्यकर्ताओं के हाथ में है। इसलिए एक बुनियाद पर कई इमारतें खड़ी नहीं की जा सकतीं। मौजूदा पॉलिसी यह है कि इस तरह का इंतजाम होना चाहिए कि जो भी इमारत बने इस तरीके से बनाई जाए कि वह अपनी बुनियाद पर खड़ी हो सके। मेरा यह है कि इस तरह का इंतजाम होना चाहिए कि हर आदमी अपने पाँव पर खड़ा हो सके और अपना गुजारा कर सके। क्रमशः                                              

  🙏🏻राधास्वामी🙏🏻*

मोह ममता का घेरा / कृष्ण मेहता


मोह माया ममता का चक्कर / कृष्ण मेहता


भगवान् श्री रामजी ने विभीषणजी को कहा है कि नौ जगह मनुष्य की ममता रहती है, माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार में, जहाँ जहाँ हमारा मन डूबता है वहाँ वहाँ हम डूब जाते हैं, इन सब ममता के धांगो को बट कर एक रस्सी बना।


* सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥

जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥


भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (संपूर्ण) जड़-चेतन जगत्‌ का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,॥


* तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥


भावार्थ:-और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार॥


* सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥

समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥


भावार्थ:-इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥


* अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥

तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥


भावार्थ:-ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता॥


हनुमानजी कहते हैं सज्जन कौन है, जो बोलते, उठते, सोते, जागते हरि नाम लेता है, भगवान का सुमिरन करता है वह सज्जन हैं, सागर की तरह दूसरे को बढते हुए देख उमड़ता हो वो सज्जन हैं, जो सबकी ममता प्रभु से जोड दे, प्रभु के चरणों में छोड़ दे "सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणंब्रज" वह सज्जन हैं, भगवान् बोले ऐसे सज्जन से हनुमानजी हठपूर्वक मित्रता करते हैं।


#एहि सन हठि करिहउँ पहिचानि।

साधु ते होइ न कारज हानी।।


ऐसे तो हनुमानजी "जय हनुमान ज्ञान गुण सागर जय कपीस तिहुँ लोक उजागर" हनुमानजी वानरों के रक्षक हैं, "राखेहू सकल कपिन के प्राणा" यह कपियों के वास्तव में ईश्वर है, रक्षक हैं, "जय कपीस तिहुँ लोक उजागर" श्री हनुमानजी का यश तीनों लोकों में हैं, सज्जनों! स्वर्ग में देवता इनका यशोगान करते हैं, 


मृत्युलोक में राम-रावण संग्राम में सारे ऋषि-मुनि, सारे मानव एवं दानव सभी ने यहां तक की दानवराज रावण ने भी हनुमानजी की प्रशंसा की है, पाताललोक में अहिरावण व महिरावण ने भगवान् को हरण करके ले गए थे तो जाकर देवी की प्रतिमा में विराजमान होकर श्री हनुमानजी ने भगवान् की रक्षा की है, बडा मार्मिक प्रसंग है, हनुमानजी देवी की प्रतिमा में प्रवेश कर गयें।


अहिरावण, महिरावण ने देवीजी को प्रसन्न करने के लिए 56 भोग लगायें और हनुमानजी युद्ध में बहुत दिनों तक भोजन नहीं कर पाए थे, टोकरी पे टोकरी चढाये जा रहे हैं, हनुमानजी कह रहे हैं चले आओ और हनुमानजी लडडू खा-खा कर बहुत प्रसन्न हैं, अहिरावण और महिरावण देखकर मन ही मन बहुत प्रसन्न, कि आज देवीजी बहुत प्रसन्न हैं।


हनुमानजी सोच रहे हैं कि बेटा चिंता मत कर, एक साथ इसका फल दूंगा, पाताललोक में और नागलोक में अहिरावण, महिरावण, भूलोक में ऋषि व मुनि, मृत्युलोक में देवता, "लोकउजागर" ऐसे हैं श्री हनुमानजी, जिनका यश सर्वत्र व्याप्त है।


श्री हनुमानजी महाराज जब भगवान् श्रीरामजी के दूत बन कर जानकीजी के पास में गयें तो माँ ने यही प्रश्न किया, तुम हो कौन? अपना पत्ता व परिचय दो, तो हनुमानजी ने अपने परिचय में इतना ही कहा "रामदूतमैं मातु जानकी, सत्य सपथ करूणा निधान की" अपने परिचय में हनुमानजी यहीं बोले माँ मैं भगवान् श्रीरामजी का दूत हूँ।


#हनुमानजी की वाणी सुनकर माँ ने कहा दूत बन कर क्यो आये हो भैया तुम तो पूत बनने के योग्य हो, पूत बन कर क्यो नही आयें? हनुमानजी बोले पूत तो आप बनाओगी तभी तो बनूँगा, हनुमानजी ने इतना कहा तो जानकीजी आगे जब भी बोली हमेशा पूत शब्द का ही प्रयोग किया है, "सुत कपि सब तुमहि समाना" जब-जब बोली है जानकीजी पुत्र बोलकर सम्बोधित किया। 


इसके बाद भगवान् भी बोले हैं "सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाही" क्योंकि पुत्र का जो प्रमाण पत्र है वह माँ देती है, भगवान् अगर पहले पुत्र कह कर संबोधित करते तो जगत की व्यवहारिक कठिनाई खडी हो जाती, क्योंकि पुत्र तो माँ के द्वारा प्रमाणित होता है, क्योंकि माँ जो बोलेगी, माँ ही तो बोलेगी कि मैने जन्म दिया है।



🙏जय जय सियाराम🙏

सतसंग शाम DB 31/01

 **राधास्वामी!! 31-01-2021- आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-    

                                   

 (1) मनुआँ अनाडी को समझाओ। क्यों करे हमारी (आपनी) हान।।-(हम पहुँचे जहँ राधास्वामी धामा। धर उन चरनन ध्यान ) (प्रेमबानी-4-शब्द-10-पृ.सं.97,98)                                                     

 (2) मन माधो अरु मसखरा जिस दम हुआ कठोर। राग द्वेष के बस पडा सहे ईरषा जोर।।-(हे सतगुरु किरपा करो परम पुरूष दातार। बिन मन की दुर्मति हरे जीव न होत्र उबार।। ) ( प्रेमबिलास-शब्द-134 दोहे,पृ.सं.199,200)                                                     

 (3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।                                🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

सतसंग सुबह DB 31/01

 **राधास्वामी!! 31-01-2021-(रविवार) आज सुबह सतसंग में पढे गये पाठ:-   

                      

 (1) आरत गाउँ स्वामी अगम अनामी। सत्तपुरुष सतगुरु राधास्वामी।।-(सब हंसन मिल आरत गाई। समरथ सब को लिया अपनाई।।(सारबचन-शब्द-पहला-पृ.सं.566)                                                         

(2) अचरज आरत गुरु की धारुँ।उमँग नई हिये छाय रहे री।।टेक।। सतसंगी सब हरषत आये। सतसंगिन उमँगाय रही री।।-(राधास्वामी मेहर से हिये मे सबके। छिन छिन प्रेम बढाय रहे री।।) (प्रेमबानी-4-शब्द-9-पृ.सं.36)                                                            

सतसंग के बाद विद्यार्थियों द्वारा पढे गये पाठ:-

(1) गगन में बाजत आज बधाई।।टेक।। कुल मालिक राधास्वामी प्यारे। संत रूप धर आए। जगत में भक्ति रीति चलाई।।(प्रेमबानी-3-शब्द-3-पृ.सं.270)                                                                   

(2) गुरु धरा सीस पर हाथ। मन क्यों सोच करे।।(प्रेमबानी-3-शब्द-3-पृ.सं.272,273)  

                                              

(3) देव री सखी मोहि उमँग बधाई। अब मेरे आनँद उर न समाई।।-(सारबचन-शब्द-पहला-पृ.सं.84,75)                                                            

 (4) सूरतिया धार बहाय रही। सतगुरु का दर्शन पाय।।टेक।।-(प्रेमबिलास-शब्द-94-पृ.सं.135,136)                                                     

(5) तमन्ना यही है कि जब तक जिऊँ। चलूँ या फिरूँ या कि मेहनत करूँ।। पढूँ या लिखूँ मुहँ से बोलूँ कलाम। न बन आये मुझसे कोई ऐसा काम।। जो मर्जी तेरी के मुआफिक न हो। रजा के तेरी कुछ मुखालिफ जो हो।।।   

फाउंडर डे के अवसर पर पढा गया पाठ:-             

  (1) गगन में बाजत आज बधाई।। (प्रेमबानी-3-शब्द-3-पृ.सं.272)                           

तत्पश्चात साँसकृतिक कार्यक्रम संत सू बच्चो के द्वारा।।                            

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**


हुजूर डॉ. लाल साहब जी महाराज का जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो

*30-01-2021*  शाम  के  सतसंग  के  बाद  हुई  अनाउंसमेंट


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परम  गुरु  हुज़ूर  डॉ  एम. बी.  लाल  साहब  के  जन्मदिन  के  अवसर  पर  दयालबाग  शिक्षा  संस्थान  ३१  जनवरी, २०२१  को   संस्थापक  दिवस  अत्यंत  हर्षोल्लास  से  मना  रहा  है। इस  अवसर  पर  भक्ति  संगीत  एवं  एक  भव्य  प्रदर्शनी  का  आयोजन  किया  जा  रहा  है।  आप  सभी  इस  प्रदर्शनी  को  देखने  के  लिए  सादर  आमन्त्रित  हैं। प्रदर्शनी  का  समय  प्रात:  ९  बजे  से  सांय: ३  बजे  तक  रहेगा।  यह  प्रदर्शनी  साइंस  फेकल्टी  ग्राउंड  पर  लगी  हैं, इसके  साथ  लैब  और  लैंड  एग्रीकल्चर  फार्म  गौशाला, डेयरी, हर्बल  गार्डन, डेयरी  कॉम्प्लेक्स  में  हैं। ग्रीन  हाउस  एंड  फ्रूट  फ्लॉवर  एंड  नर्सरी,  शांति  नगर, प्लॉट  नंबर  ३५९  पर  और  फुटवियर  डिजाइन  एंड   कार्ट, टैनरी  कॉम्प्लेक्स  में, इसके साथ साथ  दयालबाग  शोरूम  के  अंदर  भी   दयालबाग  प्रॉडक्ट  की  एग्जिबिशन  भी  लगी  हुई  है। आप  सभी  लोग  इसमें  जाकर  मौके  का  फायदा  उठाएं।

  

*राधास्वामी*


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 परम गुरु परम पितु परम प्रिय हुजूर डा० एम०बी०लाल साहब जी का पावन जन्मदिन समस्त सतसंग जगत व प्राणी मात्र को बहुत बहुत मुबारक

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**कस जायँ सकी मेरे मन के बिकार।।टेक।।

यह मन चोर चुगल मदमाता। भोगन रस पी रहे मतवार।।

 झूठा कपटी लंपट पाजी। दुष्ट विरोधी नीच नकार ।।

अपने सुख के कारण पापी।पाप करत नहीं लावे आर।।

आदर मान का सदा चटोरा। रगन रगन में भरा अहंकार।।

जो कोई कसर जनावे इसकी। भड़क उठे और करे तकरार।।

 सतगुरु संत में दोष निकाले । अपने को समझे हुशियार ।।

 कड़ुवे वचन बिना नहीं बोले। ठानत रहे हर इक से रार।।

अस अस रोग भरे मन मेरे । क्या कहुँ मुख से नाहि शुमार।।

 अपनी सी मैं बहुत कराऊं। पर कुछ नाही बसावे पार।।

 झुरत रहूँ निसदिन अंतर में । भेजत रहूँ मन पर धिक्कार।।

 समय पड़े पर पेश न जावे।  बार-बार में बैठूँ हार ।।

 दया मेहर जो गुरु सुनाया। सहज सहज तोही लेह सुधार ।।

 इसी बचन के बल पर जीऊँ। यही बचन मेरा जीव अधार।।

 राधास्वामी सतगुरु ओर निहारू। दूर करें कब मन के विकार।।

                                                    

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

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परम गुरु हुजूर डा० लाल साहबजी के संदेश]:-

अगर सहयोग हो ,संगठन हो, तो सफलता अवश्य होगी।

 तो सहयोग, संगठन और सफलता- ये तीन शब्द जो हैं- हमें याद रखने हैं।।

हुजूर राधास्वामी दयाल हम सबको, अधिक सुमति प्रदान करें, और हमारा आपस में पारस्परिक प्रेम बढ़े, हम सत्संग की सेवा अधिक लगन से निरंतर करते रहें, और हमारी प्रीति और प्रतीति हुजूर हुजूरी चरणों में दिन दिन बढ़े और पक्की हो।

हम हुजूर राधास्वामी दयाल के चरणों में प्रार्थना करते हैं कि हमें सुमति दे जिससे जो सेवा हमको मिली है उसको हम दीन ता पूर्वक और पूरी लगन और बड़े उत्साह व उमंग के साथ पूरा करने की कोशिश करें ।।

स्वतंत्रतापूर्वक विचार कीजिए, विनम्र व विवेकशील व्यवहार कीजिए, और स्वेच्छा व तत्परता से आज्ञा का पालन कीजिए ।राधास्वामी!     🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏✌️🙏🙏

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राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय परम गुरु परम प्रिय नाथ डॉ  मुकुंद बिहारी लाल साहब जी का पावन जन्मदिन समस्त सत्संग जगत व प्राणी मात्र को बहुत-बहुत मुबारक राधास्वामी!

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परम गुरु हुजूर डा० मकुन्द बिहारी लाल साहबजी-

(31जनवरी,1907)]

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17 फरवरी 1975 को हुजूर मेहताजी महाराज ने बिना अपने उत्तराधिकारी का संकेत दिए हुए अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया। परंतु 1 सप्ताह में ही दृढ और समर्पित सतसंगियो को यह आध्यात्मिक अनुभव होने लगे कि निजधार हुजूर डॉक्टर लाल साहब में सुस्थिर हो गई हैं और क्रियाशील है । धीरे-धीरे ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती गई जिनका विश्वास हुजूर  डॉक्टर लाल साहब में हो गया था ।

राधास्वामी स्वामी सत्संग सभा ने अपने संविधान के अनुसरण में 15 मार्च 1976 को सत्संगियों की एक सभा आहूत की जिसमें 15000 से अधिक सतसंगी  उपस्थित हुए।

एक के बाद एक उन सभी व्यक्तियों के नाम पढ़े गए जिनके बारे में किसी ने भी सभा को लिखा था । कई लोगों ने जोरदार शब्दों में इस बात का खंडन किया कि वह संत सतगुरु है। देश के विभिन्न भागों से आये हुए 75 सत्संगियों ने जिनमें महिलाएं भी थी, अपने आध्यात्मिक अनुभवों को बताया जिनसे यह स्पष्ट हो गया कि हुजूर मेहताजी साहब के उत्तराधिकारी हुजूर डॉक्टर लाल साहब ही हैं।

जब सभा के प्रेसिडेंट ने हुजूर डॉक्टर लाल साहब का नाम पुकारा तो पूरा सभागार एक स्वर में राधास्वामी नाम से गूंज उठा और वह जय जयकार से राधास्वामी मत के साथ वे संसद्गुरु घोषित किए गये और सभा के प्रेसिडेंट साहब ने उनको माल्यार्पित किया।।

हुजूर डॉक्टर लाल साहब का जन्म 31 जनवरी 1907 को बिस्वां, जिला सीतापुर में हुआ था। उस समय के रीति रिवाज के अनुसार उनका जन्म उनके नाना के घर में हुआ था, जो बिस्वां कस्बे के कैंथी टोला मोहल्ले में रहते थे।

हुजूर के पिता श्री बांके बिहारी लाल जी अपने पैतृक मकान , सीतापुर में मोहल्ला तरिनपुर ,में रहते थे। श्री बांके बिहारी लाल जी एम. ए. एल .टी. उपाधि युक्त अध्यापक थे और उन्होंने फैजाबाद में और कुछ वर्षों तक इलाहाबाद में घोष मॉडर्न कॉलेज में पढ़ाया भी था।

 उनके स्थानांतरण पर उनका परिवार उनके साथ चला जाता था। अंत में परिवार लखनऊ में बस गया। शुरू में वह मोहल्ला वैरूमी खंदक में रहते थे जहां अब मॉडल हाऊसिज है।

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(3)-श्री बांके बिहारी जी के छोटे भाई,श्री कुंज बिहारी लाल, कानपुर के एक म्यूनिसिपल स्कूल में हेड मास्टर थे। ग्रैशस हुजूर की माता जी के भाई श्री गिरिजा प्रसाद श्रीवास्तव ने स्वंतत्रता आन्दोलन में भाग लिया और स्वतंत्रता सेनानी बने, दूसरे भाई मंशी काली प्रसाद जी मल्लपुर ऐस्टेट के मैनेजर थे।।

(4)-ग्रेशस हुजूर ने 1992 में स्कूल लिविंग सर्टिफिकेट की परीक्षा विज्ञान, गणित ,हिंदी, इतिहास और भूगोल में गवर्नमेंट हाई स्कूल सीतापुर से पास की, इसके बाद 1924 में उन्होंने क्रिश्चियन इंटरमीडिएट कॉलेज, लखनऊ से जीव विज्ञान भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान में यू.पी. बोर्ड आफ हाई स्कूल एंड इंटरमीडिएट एजुकेशन की इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की ।

1926 में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. की उपाधि प्राणी विज्ञान, वनस्पति विज्ञान रसायन विज्ञान में प्राप्त की। 1928 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में प्राणी विज्ञान में एम.एस.सी. की डिग्री प्राप्त की ।

1929 में वे लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राणी विज्ञान  विभाग से डिमांस्ट्रेटर के रुप में संम्बद्ध हो गए और 27 मार्च 1931 को इस पद पर उनकी स्थाई नियुक्ति हो गई ।


अध्यापन कार्य के अतिरिक्त वह अपना शोध कार्य भी करते रहे। दिसंबर 1937 में विश्वविद्यालय विद्यालय के दीक्षांत समारोह में उन्हें डी. एस. सी. की उपाधि से अलंकृत किया गया।।

(5)-हुजूर 1 प्रखर शोधकर्ता थे। 1946 के शुरू में उन्हे उच्च शिक्षा हेतु सेंट्रल गवर्नमेंट स्कॉलरशिप प्रदान की गई और जीव विज्ञान विभाग में एडिनबरा  विश्वविद्यालय में मार्च 1946 में डी.एस.सी. की डिग्री के लिए शोध कार्य  हेतु प्रवेश लेकर मई ,1946 में उन्होंने कार्य शुरू किया।।

(6)- शिक्षा जगत में प्रगति के अपूर्व स्वरूप से समर्पित, हुजूर डा. लाल साहब अपने में एक प्रमुख शिक्षक , वैज्ञानिक और आध्यात्मिक अग्रणी का एक अतुल्य सामंजस्य  थे। जिस किसी को उनका शिक्षार्थी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ उनको अत्यंत श्रद्धा और प्रेम से स्मरण करते हैं। वह एक अद्यतन शिक्षक थे और अपने विषय को पूर्ण समग्रता व स्पष्टता से पढ़ाते थे। वह अपने विचारों में प्रगतिशील थे।

ऐसे शिक्षार्थियों के लिए जो और अधिक ज्ञानार्जन करना चाहते थे, उनको प्रेरणा देने, उन्हें प्रोत्साहित करने और त उनसे विचार विनिमय के लिए उनके पास सदैव समय था।  जिनको सौभाग्य से उनसे पारस्परिक संपर्क में रहने का अवसर मिला l 

उन्होंने हुजूर से अनुशासन और समय निष्ठा काम का अनुभव किया। उनकी विनम्रता, दया और प्रेम के अद्भुत संगम से अद्भुत किरणें उनके विद्यार्थियों और अनुयायियों अमिट छाप डाल देती थी।वह अपने व्यक्तिगत जीवन में बहुत सादे और मितव्ययी थे, परंतु किसी अच्छे निमित्त अत्यंत उदार थे।

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डा. एम. बी. लाल साहब के दो भाई थे, एक बड़े और एक छोटे। बड़े भाई श्री मुकुट बिहारी लाल सिंचाई विभाग में अकाउंटेंट थे। उन्नाव और तदुपरांत इलाहाnबाद में सेवा करने के बाद वह मिर्जापुर से सेवानिवृत्त हुए। उनके चार पुत्र और एक पुत्री थी।

छोटे भाई डा. बिजन बिहारी   जी लखनऊ विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में डायरेक्टरेट की डिग्री प्राप्त की और कुछ समय तक सेंट जॉन्स कॉलेज आगरा में सेवा करने के बाद उन्होंने भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में सेवा की।वह कालांतर में विभाग में मुख्य पुरातत्व विभाग में सेवा की। वह कालांतर में उस विभाग में मुख्य पुरात्तव रसायनिक के पद तक प्रोन्नत हुए औ र उसी पद से सेवानिवृत्त हुए। उनके 2 पुत्र और चार पुत्रियाँ थीl 

 डा० बिजन बिहारी लाल जी विद्यार्थी ही थे जब उनके पिता का देहांत हो गया। हुजूर ने ही उनके उच्च शिक्षा की देखभाल की और उनकी हर प्रकार से सहायता की।। डॉक्टर एम. बी.लाल साहब का विवाह 9 जुलाई 1932 को (स्वर्गीय) शंभू नाथ जी की सुपुत्री प्रेमी बहन सूरत कुमारी जी से संपन्न हुई था।

प्रेमी भाई शंभू नाथ जी की मृत्यु कम आयु में हो गई। संयुक्त परिवार था जिसके मुख्य सबसे बड़े भाई रायब हादुर भोला नाथ जी थे जिन्होंने फिर परिवार की देखभाल की।

रायबहादुर गोरखनाथ जी हुजूर डॉक्टर प्रेमसरन सत्संगी साहब के नाना थे। वह बनारस राज्य महालेखाकार के पद तक पहुंच गये थे। वह सतसंग से सन्निहित थे और** **महालेखाकार के पद तक पहुंच गए थे। वैसे सतसंग में सन्निहित थे और हुजूर साहबजी महाराज के निकट थे रायबहादुर भोला नाथ जी राधास्वामी सत्संग सभा के ज्ञापन पत्र के प्रारंभिक हस्ताक्षर कर्ताओं में से थे जब 1921 में सभा पंजीकरण हुआ था तब हुजूर लाल साहब जी की शादी तय हो रही थी- उनकी माता जी से (उनके पिता का देहांत पहले ही हो चुका था) पूछा गया कि क्या उनका विवाह ऐसे परिवार में करना उचित होगा जिसमें भावी वधू के भाई,प्रेमी भाई सोम प्रकाश जी, का विवाह कायस्त जाति के बाहर किया गया हो।

 प्रेमी भाई सोम प्रकाश जी का विवाह परम गुरु हजूर साहिबजी महाराज की सुपुत्री प्रेमिन बहन प्रेम सखी जी की और उनका संकेत था। जब यह मामला परिवार के प्रमुख हुजूर के चाचा जी के सामने पेश किया गया तो उन्होंने कहा कि "कर लो"  गुरु की कोई जात नहीं होती"। 

प्रेमी बहन सुरत कुमारी जी की माता जी रायबरेली रहती थी और वही उनके मेरे भाई बाबू अमृतराय जी एडवोकेट के घर से विवाह हुआ।

रायबहादुर भोलानाथ जी ने कन्यादान किया। घर के कामकाज में निपुण, प्रेमिन बहिन सुरत कुमारी जी एक प्रतिभावान महिला थी जिनकी मुख्य अभिरुचि घर को चलाने में थी। वह एक समर्पित सत्संगी थी।

उनके कोई संतान नहीं हुई ।उनका देहांत 23 मई 1969 को लखनऊ में हो गया था । उनके चार भाई थे एक प्रेमी भाई सूरज प्रकाश जो कम आयु में नहीं रहे। दूसरे भाई प्रेमी भाई सोमप्रकाश जी दयालबाग में पढ़े और आर. ई. आई. कॉलेज दयालबाग में शिक्षक के रूप में सेवा की। वह लीग आफ सर्विस तथा सभा के सदस्य थे।

उनका विवाह हुजूर साहबजी महाराज की सबसे बड़ी पुत्री प्रेम सखी से हुआ ।उनके छोटे भाई प्रेमी भाई भक्त प्रसाद जी बनारस स्टेट में सेवा करते थे और उनके सबसे छोटे भाई प्रेम भाई आनंद प्रकाश जी की शिक्षा विभाग में हुई। बाद में वह भी बी.एन.एस.डी.  कॉलेज कानपुर में अध्यापक हो गये और तदुपरांत वह के. पी. ट्रेनिंग कालेज इलाहाबाद में शिक्षक नियुक्त हुए जहां से प्रिंसिपल पद से सेवानिवृत्त हुए ।।

विवाह के बाद से डॉक्टर लाल साहब नियमित रूप से विशेष कर भंडारों के अवसर पर दयालबाग आने लगे थे । पहली बार 1934 में जब उन्हे साहबजी महाराज के समक्ष  प्रस्तुत किया गया तो सासबजी महाराज ने टीका लगाया और चार लड्डू का प्रसाद दिया।

 कई साल बाद जब हुजूर डा. लाल साहब से पूछा गया कि क्या उन्हे इस अवसर का स्मरण है तो उन्होने कहा कि "क्या मैं उसको भूल सकता हूंँ।" लखनऊ में डॉक्टर लाल साहब सत्संग कार्यक्रमों और दयालबाग से सम्बन्धित मामलों को राज्य सरकार से अनुसरण करने में सक्रिय रूप से सन्निहित थे।

38 वर्ष की आयु में 1945 को उपदेश लिया यह कहा जाता है कि तब हुजूर मेहताजी महाराज ने कहा था कि "तुम बीमा करा कर सुरक्षा चाहते हो "इस कथन का महत्व तब स्पष्ट हुआ डॉक्टर लाल साहब जिस ट्रेन से एडिनबरा से लंदन वापिस आ रहे थे वह गाडी दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी ।इस घटना के उल्लेख पहले किया जा चुका है ।

लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति का कार्यकाल समाप्त होने पर अंत में दयालबाग रहने आ गए। उनकी संस्तुति पर 1971 में दयालबाग शिक्षण संस्था संगठित हुआ और वह उसके अवैतनिक निदेशक हुए।।  

                                             

बसंत 1973 की बात है।ग्रैशस हुजूर अपने निवास 4 / 99 में गहरी नींद से सो रहे थे। लगभग 3:00 बजे रात को चोर आए और उन्होंने हुजूर के मकान के अगले मकान 4 / 100-101 का:-***ताला तोड़ने की कोशिश की आवाज सुनकर डॉक्टर लाल साहब ने  बाहर आकर बत्ती जला दी और आवाज दी कि कौन है।

चोर घूमकर छर्रा वाली देसी पिस्तौल चलाते हुए भाग गये। शोर सुनकर आसपास के घरों से लोग निकल आए उनके मकान से अगले मकान की एक महिला ने हुजूर की ओर इशारा करते हुए कहा कि उन पर चोरों ने गोली चलाई है और घायल हो गए और अपने हाथ से अपना सिर पकड़े हुए थे और सिर से खून बह रहा था। परंतु हुजूर ने कहा कि पहले चोरों का पीछा करो जो गली में भाग गए थे और फिर प्रोफेसर वी.जी. शास्त्री प्रिंसिपल इंजीनियर कॉलेज और प्रेमी भाई भटनागर साहब जगाये जायें।  उनके आने पर चोट की प्राथमिक चिकित्सा की गई।

उस समय लगभग 4 बज चुके थे और सभी लोग खेतों की सेवा के लिए डेरी गये जहां उन दिनों काम चल रहा था परम गुरु हुजूर मेहताजी महाराज डेरी में कुछ सतसंगियो के साथ एक कमरे में बैठे थे और नाश्ता कर रहे थे ।डा. लाल साहब भी अंदर  जाकर एक कोने में बैठ गये।डा. लाल साहब की ओर मुखातिब होकर हुजूर मेहताजी महाराज ने कहा कि "तुमने बहुत बहादुरी का काम किया है लेकिन ऐसी परिस्थिति में तुम्हारा अकेले जाना ठीक नहीं था।"  फिर हुजूर मेहताजी साहब ने  डॉक्टर लाल साहब को मिठाइयों का डिब्बा दिया और कहा दिल्ली जाकर उसे बसंत के उपहार स्वरूप राष्ट्रपति श्री वी .वी. गिरी को दें।

राष्ट्रपति दयालबाग और हुजूर मेहताजी महाराज से भलीभांति परिचित थे।डॉक्टर लाल साहब फौरन ही दिल्ली के लिए प्रस्थान कर गए और वहां प्रेमी भाई टी. सत्यनारायण जी के साथ वे राष्ट्रपति भवन गये और राष्ट्रपति गिरी को मिठाई देकर वापस आए।

बसंत का दिन था हुजूर मेहताजी महाराज ने सभा के सदस्यों को टीका लगाया। जब डॉक्टर लाल साहब की बारी आई तो उन्हें भी सब की तरह टीका लगा। परंतु मेहताजी महाराज ने डा. लाल साहब को फिर अपने सामने बुलाया।।हुजूर मेहताजी महाराज ने ढेर सा गुलाल लिया और डा. लाल साहब के मस्तक पर गुलाल ऊपर की ओर लगाया जिससे उनके सिर के घाव पर भी गुलाल लग गया।

बसंत के समारोह के बाद ही डा. लाल साहब घाव की पट्टी कराने डाक्टर के पास गये। डाक्टर ने घाव से छर्रे निकाल कर पट्टी बांध दी। कुछ दिनों में घाव अच्छा हो गया।

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ग्रेशस हुजूर ने एक बार यह फरमाया था कि मुरार में भंडारा इसलिए मनाया था कि हम सबको बता दें कि हम सरकार साहब के अनुयाई हैं ।यह तो हर कोई जानता है कि हम स्वामीजी महाराज, हुजूर महाराज व महाराज साहब के अनुयाई हैं, यह भी जानते हैं कि हम साहबजी महाराज और मेहताजी महाराज के अनुयाई हैं ।हम उनको बताना चाहते थे कि हम सरकार साहब के भी अनुयाई हैं ।।

 अधिक नहीं तो कम से कम दो अवसरों पर हुजूर ने मौज से यह फरमाया था कि वह पवित्र कुलों की पीढ़ियों की क्रमिक गणना निम्नवत करते हैं:-**


*[परम पुरुष पूरन धनी हुजूर स्वामीजी महाराज कुल मालिक (पितामह)]- [परम गुरु हुजूर महाराज (या परम गुरु महाराज साहब) ( पिता)]-[परम गुरु महाराज साहब (या परम गुरु सरकार साहब ) (पुत्र)]-[ परम गुरु  सरकार साहब (या परम गुरु साहब जी महाराज) ( पौत्र)]-[परम गुरु  साहब जी महाराज (या परम गुरु  मेहता जी महाराज) ( प्रपौत्र)]- एक बार जब खेतों में हुजूर विराजमान थे तो उन्होंने सत्संगियों के  मिलने और इंटरव्यू की प्रार्थना करने के कार्यक्रम का जिक्र करते हुए फरमाया था कि परम गुरु हुजूर मेहताजी महाराज ने इस सिलसिले में कहा था कि उन्होंने सत्संग की बाढ़ का द्वार खोल दिया है । खेतों पर हुजूर का खुला दरबार था जहाँ हर कोई छोटा व बड़ा सभी अपनी अपनी आध्यात्मिक व सांसारिक समस्याओं को उनके सामने रखकर उनका सीधा मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते थे। बच्चे भी अपने परीक्षाफल को दिखा कर उनका आशीर्वाद लेने को उत्सुक रहते थे। इस शुभ अवसर के लिए देश के हर कोने से आये हुए लोगों की लंबी कतारें खेतों पर एक सामान्य दृश्य थी।

🙏🏻राधास्वामी!🙏🏻🌹🌹🌹🌹**



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परम गुरु हुजूर डा० लाल साहबजी के संदेश]:-

अगर सहयोग हो ,संगठन हो, तो सफलता अवश्य होगी। तो सहयोग, संगठन और सफलता- ये तीन शब्द जो हैं- हमें याद रखने हैं।। हुजूर राधास्वामी दयाल हम सबको, अधिक सुमति प्रदान करें, और हमारा आपस में पारस्परिक प्रेम बढ़े, हम सत्संग की सेवा अधिक लगन से निरंतर करते रहें, और हमारी प्रीति और प्रतीति हुजूर हुजूरी चरणों में दिन दिन बढ़े और पक्की हो। हम हुजूर राधास्वामी दयाल के चरणों में प्रार्थना करते हैं कि हमें सुमति दे जिससे जो सेवा हमको मिली है उसको हम दीन ता पूर्वक और पूरी लगन और बड़े उत्साह व उमंग के साथ पूरा करने की कोशिश करें ।। स्वतंत्रतापूर्वक विचार कीजिए, विनम्र व विवेकशील व्यवहार कीजिए, और स्वेच्छा व तत्परता से आज्ञा का पालन कीजिए ।राधास्वामी!                                

राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय परम गुरु परम प्रिय नाथ डॉ  मुकुंद बिहारी लाल साहब जी का पावन जन्मदिन समस्त सत्संग जगत व प्राणी मात्र को बहुत-बहुत मुबारक राधास्वामी!🙏🏻🙏🏻

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परम गुरु परम पितु परम प्रिय नाथ हुजूर डा०एम०बी०लाल साहबजी का पावन जन्मदिन समस्त सतसंग जगत् व प्राणी मात्र को बहुत बहुत मुबारक।! 

🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌹🌹🌹🌹🌹**


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

राधास्वामी

 कोटि कोटि करूँ बन्दना अरब खरब दंडौत  ।

राधास्वामी मिल गये खुला भक्ति का सोत  ।।

कोटि कोटि करूँ बन्दना अरब खरब परनाम  ।

चरन कमल बल जावती, यह चेरी बिन दाम  ।।

🤗💞💚🙏राधास्वामी 🙏💚💞🤗

Saturday, January 30, 2021

राधास्वामी सतसंग DB शाम /30/01

 **राधास्वामी!! 30-01-2021- आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-                                    

(1) मनुआँ अनाडी से कह दीजो। जाव बसो चौरासी देश।।-(नित गुन गाओ नाम पुकारो। राधास्वामी पूरन धनी धनेश।।) (प्रेमबानी-4-शब्द-9-पृ.सं.96,97)                        

(2) जब लग जिव जग रस चहे सहे दुक्ख बहु ताप। नीच ऊँच जोनी फिरे काल करम संताप।। मन मैला अति बलवता सब जग को दुख देय।। निर्मल अरु सीतल भया सरन गुरु की लेय।।(नारि पुरुष सबही सुनो बहुमूल्य यह भेद। प्रेम सहित गुरु दरस से मिटें सकल जिव खेद।।)  (प्रेमबिलास-शब्द-133-पृ.सं.198,199)

                                                     

(3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।।  

                          

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**


**राधास्वामी!! 30- 01- 2021

- आज शाम सत्संग में पढ़ा गया बचन-

 कल से आगे -(136)-


 यदि आत्मदर्शन की महिमा समझकर याज्ञवल्क्य जी ने गृहस्थाश्रम से अलग होना उचित समझा और यदि सचमुच संसार के सब संबंधों की प्रीति अपनी आत्मा की कामना के लिए होती है तो जो मनुष्य परमात्मा से प्रेम और परमात्मा का दर्शन किया चाहता है और उसे यह सुधि नहीं है कि जब तक उसके मन में स्त्री, पुत्र आदि की प्रीति प्रबल है वह अपने संकल्प में सफल नहीं हो सकता क्योंकि मनुष्य का मन बार-बार उसी और जाता है जिधर उसका प्रेम है। और अंतर में मालिक के चरणो की ओर ध्यान तभी जुड़ सकता है जब मन  संसार के पदार्थों और कुटुंब की प्रीति कम कर दें।

तो क्या सतगुरु का यह कर्तव्य नहीं है कि उसे उपदेश करें कि उसके लिए कुल- कुटुम्ब का मोह हलाहल विष के तुल्य है? और यदि सतगुरु याज्ञवल्क्य जी की तरह सांसारिक प्रीति की असलियत दिखा प्रेमीजन को जंगल में भेजने के बदले कुल-कुटुम्ब से प्रीति कम करके कार्यमात्र बर्ताव करने के लिए शिक्षा दे तो क्या उसका यह अभिप्राय होगा कि स्त्रियाँ अपने पतियों को छोड़कर सतगुरु की सेवा में आ जायँ?

क्या राधास्वामी दयाल उपदेश सुना कर संसार भर की स्त्रियों और संसार भर के मनुष्यों से निजी सेवा कराया चाहते हैं? नहीं,नहीं; यह उपदेश परमार्थ के सच्चे अभिलाषियों के लिए है और वे ही इसका महत्व समझेंगे।

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻

 यथार्थ प्रकाश- भाग दूसरा


- परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!**


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बजरंग बाण / गोस्वामी तुलसीदास

 जो बजरंग बाण तुलसीदास जी कृत है ! आजकल पुस्तको में उसकी भी कुछ चौपाइयां अधूरी है! सभी के सम्मुख यह पूर्ण बजरंग बाण 


यह बजरंग बाण प्राचीन पाण्डुलिपियों के आधार पर पाठ

संशोधनपूर्वक प्रस्तुत किया जा रहा है । साधकों मेंप्रसिद्ध

गोकुलभवन अयोध्या के श्रीराममंगलदास जी महाराज के यहाँ

से प्रकाशित पुस्तक तथा बीकानेर लाइब्रेरीकी

पाण्डुलिपियों का सहयोग इसके स्वरूप प्रस्तुति में मूल कारण है

। बाज़ार में उपलब्ध बजरंगबाण में २१चौपाइयांछूटी हुई हैं । जिनमें

दैन्यभाव की झलक के साथ इसके अनुष्ठान का दिग्दर्शन होता

है ।-- TulasiDas जी महlराज

बजरंगबाण का यह पाठक्रम प्रामाणिकऔर अनुभूत है । उपलब्ध

पुस्तकों में लगभग २१ चौपाइयाँ छूटी हुई हैं ।


निश्चय प्रेम प्रतीति ते,

विनय करैं सनमान ।

तेहि के कारज सकल शुभ,

सिद्ध करैं हनुमान ।।

जय हनुमन्त सन्त हितकारी ।

सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी ।।

जन के काज विलम्ब न कीजै ।

आतुर दौरि महा सुख दीजै

।।२।।

जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा ।

सुरसा बदन पैठि विस्तारा ।।

आगे जाय लंकिनी रोका ।

मारेहु लात गई सुर लोका

।।४।।

जाय विभीषण को सुख दीन्हा ।

सीता निरखि परम पद लीन्हा

।।बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा ।

अति आतुर यम कातर तोरा

।।६।।

अक्षय कुमार को मारिसंहारा ।

लूम लपेटि लंक को जारा ।।

लाह समान लंक जरि गई ।

जै जै धुनि सुर पुर में भई ।।८।।

अब विलंब केहि कारण स्वामी ।

कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी ।।

जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता ।

आतुरहोई दुख करहु निपाता ।।१०।।

जै गिरधर जै जै सुख सागर ।

सुर समूह समरथ भट नागर ।।

ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले ।

बैिरहिं मारू बज्र के कीलै ।।१२।।

गदा बज्र तै बैरिहीं मारो ।

महाराज निज दास उबारो ।।

सुनि हंकार हुंकार दै धावो ।

बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो

।।१४।।

ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा ।

ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीशा ।।

सत्य होहु हरि शपथ पायके ।

राम दुत धरू मारू धायके ।।१६।।

जै हनुमन्त अनन्त अगाधा ।

दुःख पावत जन केहि अपराधा ।।

पूजा जप तप नेम अचारा ।

नहिं जानत कछु दास तुम्हारा ।।१८।।

वन उपवन मग गिरि गृह माहीं

। तुम्हरे बल हौं डरपत नाहीं ।।

पाँय परौं कर जोरि मनावौं । अपने काज लागि गुण गावौं ।।

२०।

।जय अंजनि कुमार बलवन्ता

। शंकर सुवन वीर हनुमन्ता ।।

बदन कराल काल कुल घालक ।

राम सहाय सदा प्रतिपालक ।।२२।

।भूत प्रेत पिशाच निशाचर

। अग्नि बैताल काल मारी

मर ।।

इन्हें मारु तोहि शपथ राम की ।

राखुनाथ मर्जाद नाम की ।।२४।

।जनकसुतापति-दास कहावौ ।

ताकी शपथ विलम्ब न लावौ ।

।जय जय जय धुनि होत अकाशा ।

सुमिरत होत दुसहु दुःख नाशा ।।२६।

।चरन पकरि कर जोरि मनावौं |

एहि अवसर अब केहि गोहरावौं ।

।उठु-उठु चलु तोहि राम दोहाई

पाँय परौं कर जोरि मनाई ।।२८।

।ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता

। ॐ हनु हनुहनु हनु हनु हनुमंता ।

।ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल ।

ॐ सं सं सहमि पराने खलदल ।।३०।।

अपने जन को तुरत उबारौ ।

सुमिरत होतअनन्द हमारौ ।

।ताते विनती करौं पुकारी ।

हरहु सकल प्रभु विपति हमारी ।।३२।

।ऐसो प्रबल प्रभाव प्रभु तोरा ।

कस नहरहु दुःख संकट मोरा ।।

हे बजरंग, बाण सम धावो ।

मेटि सकल दुःख दरस दिखावो ।।३४।।

हे कपिराज काज कब ऐहौ ।

अवसर चूकि अन्त पछितैहौ ।।

जन की लाज जात ऐहि बारा ।

धावहु हे कपि पवन कुमारा ।।३६।।

जयति जयति जय जय हनुमाना ।

जयति जयति गुणज्ञान निधाना ।।

जयति जयति जय जय कपिराई ।

जयति जयतिजय जय सुखदाई ।।३८।।

जयति जयति जय राम पियारे ।

जयति जयति जय सिया दुलारे ।।

जयति जयति मुद मंगलदाता ।।

जयति जयति त्रिभुवन विख्याता ।।४०।।

यहि प्रकार गावत गुण शेषा ।

पावत पार नहीं लवलेषा ।।

राम रूप सर्वत्र समाना ।

देखत रहत सदा हर्षाना ।।४२।।

विधि शारदा सहित दिनराती ।

गावत कपि के गुण गण पांती ।।

तुम सम नही जगत् बलवाना ।

करि विचारदेखेउं विधि नाना ।।४४।।

यह जिय जानि शरण तव आई ।

ताते विनय करौं चित लाई ।।

सुनि कपि आरत वचन हमारे ।

मेटहु सकलदुःख भ्रम सारे ।।४६।।

यहि प्रकार विनती कपि केरी ।

जो जन करै लहै सुख ढेरी ।।

याके पढ़त वीर हनुमाना ।

धावत बाण तुल्य बलवाना ।।४८।।

मेटत आय दुःख क्षण मांहीं ।

दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं ।।

पाठ करै बजरंग बाण की ।

हनुमत रक्षाकरै प्राण की ।।५०।।

डीठ, मूठ, टोनादिक नासै ।

परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे ।।

भैरवादि सुर करै मिताई ।

आयसु मानि करैं सेवकाई ।।५२।।

प्रण करि पाठ करैं मन लाई ।

अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई ।।

आवृति ग्यारह प्रतिदिन जापै ।

ताकी छाँह काल नहिं चांपै ।।५४।।

दै गूगल की धूप हमेशा।

करै पाठ तन मिटै कलेशा ।।

यह बजरंग बाण जेहि मारै ।

ताहि कहौ फिर कौन उबारै ।।५६।।

शत्रु समूह मिटै सब आपै ।

देखत ताहिसुरासुर काँपै ।।

तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई ।

रहै सदा कपिराज सहाई ।।५८।।

प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै।

सदा धरैं उर ध्यान ।।

तेहि के कारज तुरत ही,

सिद्ध करैं हनुमान ।।


इति श्रीगोस्वामितुलसीदासविरचितः बजरंगबाणः

रामचरित्र मानस महिमा

रामायण महिमा


हिंदू धर्म में ऐसे बहुत से ग्रंथ हैं, जोकि मनुष्य जीवन में बहुत ही अहम होते हैं वहीं गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें जीवन में आगे बढ़ने की प्ररेणा मिलती है। कहते हैं कि उसे पढ़कर व्यक्ति अपने जीवन की जुड़ी हर समस्या का समाधान कर सकता है। जीवन में ऐसी बहुत सी समस्याएं होती हैं, जिससे पार निकल पाना बेहद कठिन लगता है, लेकिन वहीं मुसीबतों से निकलने के लिए यहीं ग्रंथ काम आते हैं। इसी के साथ आज हम आपको बताे जा रहे हैं तुलसीदास के जीवन से जुड़ी कुछ ऐसी बातें जिन्हें अपनाकर व्यक्ति अपने जीवन को साकार कर सकता है। 



कर्म


तुलसीदास जी कहते हैं ईश्वर ने इस संसार को कर्म प्रधान बना रखा है। जो मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसका फल भी उसे वैसा ही मिलता है। इसलिए हमें अपने कर्म पर भरोसा रखना चाहिए। यहीं हमारे जीवन में आगे बढ़ने का मार्ग तय करेगा।


नम्रता


तुलसीदास के अनुसार जैसे पौधे में फल लगने से वह झुक जाते हैं और वर्षा के आने से बादल झुक जाता हैं, ठीक वैसे ही मुनष्य के पास धन आ जाने पर उसके अंदर नम्रता का वास हो जाना चाहिए। जिन मनुष्यों के मन में ये भावना नहीं आती, उनके पास कभी सफलता नहीं टिकती।


सुख


तुलसीदास के अनुसार सही मनुष्य वही होता है, जो खुद परेशानी सहकर दूसरों को सुख देता है। जैसे वृक्ष खुद ताप सहकर दूसरों को छांव देता है। वैसे ही हर इंसान को दूसरों को ठंडीं छांव में रखना चाहिए।




सपने देखना


तुलसीदास जी कहते हैं, हमें अपने कद से ज्यादा पांव नहीं फैलाना चाहिए। वहीं सपना देखो, जिसे पूरा कर सको, वरना उलझने कभी खत्म नहीं होगी।




धैर्य- किसी भी मुश्किल परिस्थिति में भगवान राम ने अपना धैर्य नहीं खोया है। उन्होनें हर परेशानी में धैर्य से काम लिया है इसलिए हमें भगवान राम जी तरह जीवन की हर तकलीफ मेंं शांति से कार्य करना चाहिए।


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*हेमन्त किगंर (समाजसेवी) 9915470001*

हिंदू धर्म में ऐसे बहुत से ग्रंथ हैं, जोकि मनुष्य जीवन में बहुत ही अहम होते हैं वहीं गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें जीवन में आगे बढ़ने की प्ररेणा मिलती है। कहते हैं कि उसे पढ़कर व्यक्ति अपने जीवन की जुड़ी हर समस्या का समाधान कर सकता है। जीवन में ऐसी बहुत सी समस्याएं होती हैं, जिससे पार निकल पाना बेहद कठिन लगता है, लेकिन वहीं मुसीबतों से निकलने के लिए यहीं ग्रंथ काम आते हैं। इसी के साथ आज हम आपको बताे जा रहे हैं तुलसीदास के जीवन से जुड़ी कुछ ऐसी बातें जिन्हें अपनाकर व्यक्ति अपने जीवन को साकार कर सकता है। 



कर्म


तुलसीदास जी कहते हैं ईश्वर ने इस संसार को कर्म प्रधान बना रखा है। जो मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसका फल भी उसे वैसा ही मिलता है। इसलिए हमें अपने कर्म पर भरोसा रखना चाहिए। यहीं हमारे जीवन में आगे बढ़ने का मार्ग तय करेगा।


नम्रता


तुलसीदास के अनुसार जैसे पौधे में फल लगने से वह झुक जाते हैं और वर्षा के आने से बादल झुक जाता हैं, ठीक वैसे ही मुनष्य के पास धन आ जाने पर उसके अंदर नम्रता का वास हो जाना चाहिए। जिन मनुष्यों के मन में ये भावना नहीं आती, उनके पास कभी सफलता नहीं टिकती।


सुख


तुलसीदास के अनुसार सही मनुष्य वही होता है, जो खुद परेशानी सहकर दूसरों को सुख देता है। जैसे वृक्ष खुद ताप सहकर दूसरों को छांव देता है। वैसे ही हर इंसान को दूसरों को ठंडीं छांव में रखना चाहिए।




सपने देखना


तुलसीदास जी कहते हैं, हमें अपने कद से ज्यादा पांव नहीं फैलाना चाहिए। वहीं सपना देखो, जिसे पूरा कर सको, वरना उलझने कभी खत्म नहीं होगी।




धैर्य- किसी भी मुश्किल परिस्थिति में भगवान राम ने अपना धैर्य नहीं खोया है। उन्होनें हर परेशानी में धैर्य से काम लिया है इसलिए हमें भगवान राम जी तरह जीवन की हर तकलीफ मेंं शांति से कार्य करना चाहते  है l  

*हेमन्त किगंर (समाजसेवी) 9915470001*

राजा जनक का आत्मज्ञान

🌲🍒🍒🌲/ राजा जनक को आत्म ज्ञान की प्राप्ति



मिथिला नामक देश में एक महाप्रतापी राजा हुए । उनका नाम महाराज जनक था । महाराज जनक को आत्मज्ञान के बारे में बहुत जिज्ञासा थी । और इस पर चर्चा के लिए उनके दरबार में हमेशा विद्वानों की महफ़िल बनी रहती थी ।


 पर राजा जनक को जिस आत्मज्ञान की तलाश थी । उसके बारे में कोई विद्वान उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाता था । उन्हीं दिनों की बात है राजा जनक ने एक रात में सोते हुए एक सपना देखा कि वो अपने बहुत सारी सेना के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए हैं । 


एक जंगली सूअर का पीछा करते करते राजा जनक बहुत दूर तक निकल गए । उनकी सारी सेना पीछे छूट गयी । और वह सूअर घने जंगल में बहुत दूर जाकर अदृश्य हो गया । राजा जनक थककर चूर हो चूका थे । उनकी पूरी सेना का कोई पता नहीं था । अब राजा को बहुत तेज भूख प्यास लगने लगी थी । 


बेचैन होकर राजा ने इधर उधर नजर दौड़ाई । तो कुछ ही दूर पर उन्हें एक झोपड़ी नजर आई । जिसमें से धुआं उठ रहा था । राजा ने सोचा कि वहां कुछ खाने पीने के लिए मिल जायेगा । वो झोपड़ी में गये । तो देखा कि झोपड़ी के अन्दर एक बुढ़िया औरत बैठी हुई थी । राजा ने कहा ।


 मैं एक राजा हूँ । और मुझे खाने की लिए कुछ दो । मैं बहुत भूखा हूँ । बुढिया ने कहा कि इस समय खाने के लिए कुछ नहीं है । और मुझसे काम नहीं होता । लेकिन यदि तुम चाहो तो वहां थोड़े से चावल रखे है । तुम उनको पकाकर खा सकते हो ।


 राजा ने सोचा । इस समय इसके अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं है । राजा ने बड़ी मुश्किल से चूल्हा जलाकर किसी तरह भात को पकाया । फिर जैसे ही राजा एक केले के पत्ते पर रखकर उस भात को खाने लगा । तभी तेजी से दौड़ता हुआ एक सांड आया । 


और पूरे भात पर धूल गिर गई । उसी समय राजा की आँख खुल गई । और वो राजा आश्चर्यचकित होकर चारों और देखने लगा । उसके मन में ख्याल आया कि मैंने एक राजा होकर इस तरह का स्वप्न क्यों देखा ?? यही सोचते हुए राजा को पूरी रात नींद नहीं आई ।

दूसरी सुबह राजा ने दो सिंहासन बनवाये और एक एलान अपने राज्य में कर दिया कि मेरे दो प्रश्न हैं । जो कोई मेरे पहले प्रश्न का जवाब देगा । उसे मैं अपना आधा राज्य दूंगा । और यदि नहीं दे पाया । तो बदले में आजीवन कारावास मिलेगा ।


 तथा जो मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर देगा । उसे मैं पूरा राज्य दूंगा । और यदि नहीं दे पाया तो उसे फांसी की सजा होगी । राजा ने ये दोनों सजाएँ इसलिए तय कर दी थी कि वही लोग उसका उत्तर देने आये जिनको वास्तविक ज्ञान हो । ऐसा न करने पर फालतू लोगों की काफी भीड़ हो सकती थी ।


.. आगे की कहानी जानने से पहले हमें महान संत अष्टावक्र के बारे में जानना होगा । अष्टावक्र जी उन दिनों मां के गर्भ में थे । और संत होने के कारण उन्हें गर्भ में भी ज्ञान था । एक दिन की बात है । जब अष्टावक्र के पिता शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे ।


 अष्टावक्र ने कहा । पिताजी । जिस परमात्मा को तुम खोज रहे हो । वो शास्त्रों में नहीं है । अष्टावक्र के पिता शास्त्रों के ज्ञाता थे । उन्हें अपने गर्भ स्थिति पुत्र की बात सुनकर बहुत क्रोध आया । उन्होंने कहा । तू मुझ जैसे ज्ञानी से ऐसी बात कहता है । जा मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू आठ जगह से टेढा पैदा होगा । इस तरह ज्ञानी अष्टावक्र विकृत शरीर के साथ पैदा हुए थे ।


 उधर क्या हुआ कि अष्टावक्र के पिता को धन की कमी हो गई । तो वे राजा जनक के आधे राज्य के इनाम वाला उत्तर देने चले गए । और उत्तर ठीक से नहीं दे पाए । अतः आजीवन कारावास में डाल दिए गए । इस तरह 12 साल गुजर गए । अष्टावक्र अब 12 साल की आयु के हो गए थे ।


 और लगभग विकलांग जैसे थे । एक दिन जब अष्टावक्र अपने साथियों के साथ खेल रहे थे । सब अपने अपने पिता के बारे में बात करने लगे । तो अष्टावक्र भी करने लगे । अब क्योंकि बच्चों ने उनके पिता को जेल मैं पड़े होने के कारण कभी देखा नहीं था । इसलिए सब बच्चों ने उन्हें झिड़क दिया कि झूठ बोलता है । तेरा पिता तो कोई है ही नहीं । हमने उन्हें कभी नहीं देखा

अष्टावक्र जी अपनी माँ के पास आये । और बोले कि माँ आज तुम्हे बताना ही होगा कि मेरे पिता कहाँ गए हैं ?? वास्तव में जब भी बालक अष्टावक्र अपने पिता के बारे में पूछता । 


तो उसकी माँ जवाव देती कि वे धन कमाने बाहर गए हुए है । आज अष्टावक्र जी जिद पकड़ गए कि उन्हें सच बताना ही होगा कि उनके पिता कहाँ हैं ?? तब हारकर उनकी माँ ने उन्हें बताया कि वे राजा जनक की जेल में पड़े हुए है । बालक अष्टावक्र ने कहा कि वे अपने पिता को छुडाने जायेंगे ।


 और राजा के दोनों प्रश्नों का जवाव भी देंगे । उनकी माँ ने बहुत कहा कि यदि राजा ने तुझे भी जेल में डाल दिया । तो फिर मेरा कोई सहारा नहीं रहेगा । लेकिन अष्टावक्र जी ने उनकी एक न सुनी । और वे कुछ बालकों के साथ राजा जनक के महल के सामने पहुँच गए । एक बालक को महल की तरफ घुसते हुए देखकर दरबान ने उन्हें झिड़का । ऐ बालक कहाँ जाता है ?? वक्र जी बोले । मैं राजा जनक के प्रश्नों का उत्तर देने आया हूँ । मुझे अन्दर जाने दो ।


 दरबान ने बालक जानकर उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की । तब अष्टावक्र ने कहा कि वो राजा से उसकी शिकायत करेंगे । क्योंकि राजा ने ये घोषणा कराइ है कि कोई भी उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकता है । ये सुनकर दरबान डर गया । वो समझ गया कि ये बालक तेज है । 


यदि इसने मेरी शिकायत कर दी । तो राजा मुझे दंड दे सकता है । क्योंकि ये बालक सच कह रहा है । उसने अष्टावक्र को अन्दर जाने दिया । अन्दर राजा की सभा जमी हुई थी । अष्टावक्र जी जाकर सीधे उस सिंहासन पर बैठ गए । जिस पर बैठने बाले को राजा के दुसरे प्रश्न का जवाव देना था । और इनाम में पूरा राज्य मिलता । 


तथा जवाव न दे पाने की दशा में उन्हें फांसी की सजा मिलती । एक विकलांग बालक को ऐसा करते देखकर सब आश्चर्यचकित रह गए । और फिर पूरी सभा जोर जोर से हंसी । उनके चुप हो जाने के बाद अष्टावक्र जोर से हँसे । राजा जनक ने कहा कि सभा के विद्वान क्यों हँसे ? ये तो मेरी समझ में आया । पर तुम क्यों हँसे ? ये मेरी समझ में नहीं आया ।


अष्टावक्र ने कहा । राजा मैं इसलिए हंसा कि मैंने सुना था कि आपके यहाँ विद्वानों की सभा होती है, पर मुझे तो इनमें एक भी विद्वान नजर नहीं आ रहा । ये सब तो चमड़े की पारख करने वाले चर्मकार मालूम होतें हैं । अष्टावक्र के ये कहते ही राजा जनक समझ गए कि ये बालक कोई साधारण बालक नहीं हैं । लेकिन अष्टावक्र के द्वारा विद्वानों को चर्मकार कहते ही सभा में मौजूद विद्वान भड़क उठे । उन्होंने कहा ।


 ये चपल बालक हमारा अपमान करता है । अष्टावक्र ने कहा । मैं किसी का अपमान नहीं करता । पर आप लोगों को मेरा विकलांग शरीर दिखाई देता है । विकलांग शरीर होने से क्या इसमें विराजमान आत्मा भी विकलांग हो गयी । क्या किसी भी ज्ञान का शरीर से कोई सम्बन्ध है ? उनकी ये बात सुनकर पूरी सभा में सन्नाटा हो गया । राजा जनक ने उनकी बात का समर्थन किया । राजा जनक समझ गए कि बालक के रूप में ये कोई महान ज्ञानी आया है । ये बोध होते ही जनक अपने सिंहासन से उठकर कायदे से अष्टावक्र के पास पहुंचे । 


और उन्हें दंडवत प्रणाम किया । अष्टावक्र बोले । पूछो क्या पूछना है ?? जनक ने अपना पहला प्रश्न किया । उन्होंने अपने सूअर के शिकार वाला स्वप्न सुनाया । और कहा कि स्वप्न व्यक्ति की दशा और सोच पर आधारित होते हैं । कहाँ मैं एक चक्रवर्ती राजा । और कहाँ वो दीनदशा दर्शाता मेरा स्वप्न ? जिसमें मैं लाचारों की तरह परेशान था । इनमें क्या सच है ? एक चक्रवर्ती राजा या वो स्वप्न .. ? अष्टावक्र हंसकर बोले । न ये सच है । न वो स्वप्न सच था । 


वो स्वप्न 15 मिनट का था । और जो ये तू राजा है । ये स्वप्न 100 या 125 साल का है । इन दोनों में कोई सच्चाई नहीं है । वो भी सपना था । ये जो तू राजा है । ये भी एक सपना ही है । क्योंकि तेरे मरते ही ये सपना भी टूट जायेगा.. ?? इस उत्तर से पूरी सभा दंग रह गई । इस उत्तर ने सीधे राजा की आत्मा को हिला दिया । और वे संतुष्ट हो गए । आधा राज्य अष्टावक्र जी को दे दिया गया । पर क्योंकि अष्टावक्र जी पूरे राज्य के इनाम वाली कुर्सी पर बैठे थे । 


इसलिए बोले बताओ । राजन तुम्हारा दूसरा प्रश्न क्या है

?? जनक ने कहा । मैंने शास्त्रों में पढा है । और बहुतों से सुना है कि यदि कोई सच्चा संत मिल जाय । तो परमात्मा का ज्ञान इतनी देर में हो जाता है । जितना घोड़े की एक रकाब से दूसरी रकाब में पैर रखने में समय लगता है । अष्टावक्र बोले । बिलकुल सही सुना है । राजा बोले ठीक है । फिर मुझे इतने समय में परमात्मा का अनुभव कराओ । अष्टावक्र जी बोले । 


राजन तैयार हो जाओ । लेकिन इसके बदले में मुझे क्या दोगे ? जनक बोले- मेरा सारा राज्य आपका । अष्टावक्र जी बोले । राज्य तो तुझे भगवान का दिया है । इसमें तेरा क्या है ? जनक बोले- मेरा ये शरीर भी आपका । अष्टावक्र जी बोले । तूने तन तो मुझे दे दिया । लेकिन तेरा मन अपनी चलाएगा । तब जनक बोले- मेरा ये मन भी आपका हुआ । अष्टावक्र जी बोले – देख राजन, तुम मुझे अपना तन मन धन सब दे चुके हो अब मैं इसका मालिक हूँ, तुम नहीं | तो मैं हुक्म करता हूँ कि तुम सबके जूतों में जाकर बैठ जाओ | यह बात सुनकर दरबार में सन्नाटा छा गया | मगर राजा जनक समझदार थे जरा भी नहीं झुंझलाये | और जूतियों में जाकर बैठ गये | अष्टावक्र ने ऐसा इस लिए किया कि राजा से लोक-लाज छुट जाये | लोक- लाज रूकावट है बड़े-बड़े लोग यहाँ आकर रुक जाते है |


फिर अष्टावक्र ने कहा कि यह धन मेरे है मेरे धन में मन न लगाना | राजा का ध्यान बार-बार अपने राज,धन की और जाता और वापस आ जाता कि नहीं यह तो अब अष्टावक्र जी का हो चूका है | मन की आदत है, वह बेकार और चुप नहीं बैठता, कुछ न कुछ सोचता ही रहता है | राजा के मन का यह खेल अष्टावक्र देख रहे थे | आखिर राजा आँखे बंद करके बैठ गया कि मैं बाहर न देखूं,न मेरा मन वैभवो में भागे | अष्टावक्र जी यही चाहते थे उन्होंने राजा जनक से कहा तुम कहाँ हो | राजा जनक बोले मैं यहाँ हूँ | इस पर अष्टावक्र बोले- तुम मुझे मन भी दे चुके हो, खबरदार जो उसमे कोई ख्याल भी उठाया तो | राजा जनक समझदार थे समझ गये कि अब मेरे अपने मन पर भी मेरा कोई अधिकार नहीं है | समझने की देर थी कि मन रुक गया | जब ख्याल बंद हुआ तो अष्टावक्र ने अपनी अनुग्रह दृष्टी दे दी | रूह अंदर की यात्रा पर चल पड़ी रूहानी मंजिल की सैर करने | 


राजा को अंतर का आनंद होने लगा | घंटे भर पश्चात राजा जनक को अष्टावक्र ने आवाज दी | राजा ने अपनी आंखे खोली तो अष्टावक्र ने पुछा – क्या तुम्हे ज्ञान हो गया | राजा जनक ने जवाब दिया - हाँ हो गया | तब अष्टावक्र ने कहा मैं तुम्हे तन,मन,धन वापिस देता हूँ इसे अपना न समझना | अब तुम राज्य भी करो और आत्म ज्ञान का आनंद लो | इस तरह अष्टावक्र ने एक सेकंड में मुक्ति और जीवनमुक्ति पाने की विधि बताई और ज्ञान दिया | राजा जनक ने अष्टावक्र जी के पिता और सभी कैदियों को रिहा करवा दिया । राजा जनक ने उन्हे गुरु का स्थान दिया । 


और आत्मज्ञान प्राप्त किया

आध्यात्मिक भाव.......

*********

जीवनमुक्त स्तिथि माना जीते जी सब आकर्षण, बंधन, वैभवो के प्रभाव ससे मुक्त रहना | इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ छोडकर सभी से दूर रहना परन्तु सबके बीच रहते हुए, सभी जिम्मेवारियों को निभाते हुए भी किसे भी बंधन में नहीं फँसना सुख और दुख: के बंधन में भी नहीं फँसना – यही सच्ची जीवनमुक्त स्तिथि है।


जय सीता राम

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रामायण शब्दार्थ

 l *श्रीरामचरितमानस* ☀️l 


                   

  *सप्तम सोपान*/ उतर  कांड 

                         *दोहा सं० ५५*

                 *(चौपाई सं० १ से ५ तक)*


*यह   प्रभु   चरित    पवित्र    सुहावा ।*

*कहहु   कृपाल   काग    कहँ    पावा ।।१।।*

*तुम्ह   केहि   भाँति   सुना    मदनारी ।*

*कहहु   मोहि   अति   कौतुक   भारी ।।२।।*

*गरुड़     महाग्यानी      गुन      रासी ।*

*हरि   सेवक  अति   निकट   निवासी ।।३।।*

*तेहिं   केहि   हेतु   काग   सन   जाई ।*

*सुनी   कथा   मुनि    निकर    बिहाई ।।४।।*

*कहहु    कवन    बिधि   भा   संबादा ।*

*दोउ      हरिभगत     काग    उरगादा ।।५।।*

अर्थ –हे कृपालु ! बताइये, उस कौए ने प्रभु का यह पवित्र और सुन्दर चरित्र कहाँ पाया ? और हे कामदेव के शत्रु ! यह भी बताइये, आपने इसे किस प्रकार सुना ? मुझे बड़ा भारी कौतूहल (आश्चर्य) हो रहा है । गरुड़जी तो महान्‌ ज्ञानी, सद्गुणों की राशि, श्रीहरि के सेवक और उनके अत्यन्त निकट रहनेवाले (उनके वाहन ही) हैं । (ऐसे महाज्ञानी) गरुड़जी ने मुनियों के समूह को छोड़कर, कौए से जाकर हरिकथा किस कारण सुनी ? कहिये, काकभुशुण्डि और गरुड़ इन दोनों हरिभक्तों की बातचीत किस प्रकार हुई ? (भाव यह है कि दोनों हरिभक्त हैं, उनका संवाद अवश्य सुनने योग्य होगा)

👉 *'पवित्र सुहावा'* (शोभायमान) कहकर दर्शाया है कि ऐसा चरित्र किसी प्रकार भी चाण्डाल, अपवित्र, अशोभित पक्षी कौवे के योग्य नहीं हो सकता अर्थात् काक शरीर में रामचरितमानस का मिलना असम्भव है ।

👉 _*काग कहँ पावा'*_ का भाव यह है कि जो मुनियों को भी दुर्लभ है, तब भला काक कैसे पा सकता है ?

👉 _*'केहि भाँति'*_ का भाव यह है कि मैं तो सदा साथ रहती हूंँ, उस समय मैं कहांँ थी ?

👉 _*'गरुड़ महाज्ञानी गुनरासी ।....'*_  श्रीपार्वतीजी ने पूर्व में काकभुशुण्डिजी के गुण बताये थे कि वे रामपरायण, ज्ञानरत, गुणागार और मतिधीर हैं और यहांँ गरुड़जी के विषय में कहती हैं कि ये महाज्ञानी, गुणराशि, हरी सेवक और हरि के अत्यन्त निकट निवासी हैं । काकभुशुण्डिजी के चार विशेषताएंँ बताकर गरुड़जी की भी चार विशेषताएं बतायी हैं । इससे दर्शाया है कि गरुड़जी भुशुण्डिजी से किसी बात में कम नहीं हैं । जैसे कि – भुशुण्डिजी ज्ञानरत हैं तो गरुड़जी महाज्ञानी हैंं, वे गुणागार हैं तो ये भी गुणराशि हैं, वे रामपरायण हैं तो ये भी हरिसेवक हैं और वे मतिधीर हैं तो ये हरि के अति निकट निवासी हैं । अतः दोनों ही मोह आदि विकारों से रहित हैं । मोह नहीं हो सकता और हरि से अलग हो नहीं सकते तब इतनी दूर कैसे जायेंगे और कथा क्यों जाकर सुनेंगे ? तब गरुड़जी किस कारण काक से कथा सुनने गये ?

👉 इस प्रकार श्रीपार्वतीजी ने महादेवजी से छः प्रश्न किये हैं –

(१) भक्ति की प्राप्ति। (२) काक शरीर की प्राप्ति। (३) रामचरित की प्राप्ति (४) भुशुण्डिजी  से शिवजी का कथा सुनना । (५) भुसुण्डिजी से गरुड़ का जाकर कथा सुनना । (६)भुशुण्डिजी-गरुड़जी संवाद

👉👉 श्रीपार्वतीजी के प्रश्न यहाँ समाप्त हुए ।ll  

Friday, January 29, 2021

2021 के व्रत त्यौहार

 *2021: हिन्दू व्रत, त्यौहार और तिथियाँ*



 

 

*जनवरी 2021*

2 जनवरी शनिवार संकष्टी चतुर्थी

9 जनवरी शनिवार सफल एकादशी

10 जनवरी रविवार प्रदोष व्रत (कृष्ण)

11 जनवरी सोमवार मासिक शिवरात्री

13 जनवरी बुधवार पौष अमावस्या

14 जनवरी गुरूवार पोंगल, उत्तरायण, मकर संक्रांति

24 जनवरी रविवार पौष- पुत्रदा एकादशी

26 जनवरी मंगलवार प्रदोष व्रत (शुक्ल)

28 जनवरी गुरूवार पौष पूर्णिमा व्रत

31 जनवरी रविवार संकष्टी चतुर्थी

 

*फरवरी 2021*

7 फरवरी रविवार षटतिला एकादशी

9 फरवरी मंगलवार प्रदोष व्रत (कृष्ण)

10 फरवरी बुधवार मासिक शिवरात्रि

11 फरवरी गुरूवार माघ अमावस्या

12 फरवरी शुक्रवार कुंभ संक्रांति

16 फरवरी मंगलवार बसंत पंचमी, सरस्वती पूजा

23 फरवरी मंगलवार जया एकादशी

24 फरवरी बुधवार प्रदोष व्रत (शुक्ल)

27 फरवरी शनिवार माघ पूर्णिमा व्रत

 

*मार्च 2021*  

2 मार्च मंगलवार संकष्टी चतुर्थी

9 मार्च मंगलवार विजया एकादशी

10 मार्च बुधवार प्रदोष व्रत (कृष्ण)

11 मार्च गुरूवार मासिक शिवरात्रि, महाशिवरात्रि

13 मार्च शनिवार फाल्गुन अमावस्या

14 मार्च रविवार मीन संक्रांति

25 मार्च गुरूवार आमलकी एकादशी

26 मार्च शुक्रवार प्रदोष व्रत (शुक्ल)

28 मार्च रविवार फाल्गुन पूर्णिमा, होलिका दहन

29 मार्च सोमवार होली

31 मार्च बुधवार संकष्टी चतुर्थी

 

*अप्रैल 2021*

7 अप्रैल बुधवार पापमोचिनी एकादशी

9 अप्रैल शुक्रवार प्रदोष व्रत (कृष्ण)

10 अप्रैल शनिवार मासिक शिवरात्रि

12 अप्रैल सोमवार चैत्र अमावस्या

13 अप्रैल मंगलवार घटस्थापना, गुढ़ी पाडवा, चैत्र नवरात्री, उगाडी

14 अप्रैल बुधवार चेटी चंड, मेष संक्रांति

21 अप्रैल बुधवार राम नवमी

22 अप्रैल गुरूवार चैत्र नवरात्रि पारणा

23 अप्रैल शुक्रवार कामदा एकादशी

24 अप्रैल शनिवार प्रदोष व्रत (शुक्ल)

27 अप्रैल मंगलवार चैत्र पूर्णिमा व्रत, हनुमान जयंती

30 अप्रैल शुक्रवार संकष्टी चतुर्थी

 

*मई 2021*

7 मई शुक्रवार वरुथिनी एकादशी

8 मई शानिवार प्रदोष व्रत (कृष्ण)

9 मई रविवार मासिक शिवरात्रि

11 मई मंगलवार वैशाख अमावस्या

14 मई शुक्रवार अक्षय तृतीया, वृष संक्रांति

23 मई रविवार मोहिनी एकादशी

24 मई सोमवार प्रदोष व्रत (शुक्ल)

26 मई बुधवार वैशाख पूर्णिमा व्रत

29 मई शनिवार संकष्टी चतुर्थी

 

*जून 2021*

6 जून रविवार अपरा एकादशी

7 जून सोमवार प्रदोष व्रत (कृष्ण)

8 जून मंगलवार मासिक शिवरात्रि

10 जून गुरुवार जेष्ठ अमावस्या

15 जून मंगलवार मिथुन संक्रांति

21 जून सोमवार निर्जला एकादशी

22 जून मंगलवार प्रदोष व्रत (शुक्ल)

24 जून गुरूवार जेष्ठ पूर्णिमा व्रत

27 जून रविवार संकष्टी चतुर्थी

 

*जुलाई  2021*

5 जुलाई सोमवार योगिनी एकादशी

7 जुलाई बुधवार प्रदोष व्रत (कृष्ण)

8 जुलाई गुरुवार मासिक शिवरात्रि

9 जुलाई शुक्रवार आषाढ़ अमावस्या

12 जुलाई सोमवार जगन्नाथ रथ यात्रा

16 जुलाई शुक्रवार कर्क संक्रांति

20 जुलाई मंगलवार आषाढ़ी, देवशयनी एकादशी

21 जुलाई बुधवार प्रदोष व्रत (शुक्ल)

24 जुलाई शनिवार गुरु पूर्णिमा, आषाढ़ पूर्णिमा व्रत

27 जुलाई मंगलवार संकष्टी चतुर्थी

 

*अगस्त 2021*

4 अगस्त बुधवार कामिका एकादशी

5 अगस्त गुरूवार प्रदोष व्रत (कृष्ण)

6 अगस्त शुक्रवार मासिक शिवरात्रि 

8 अगस्त रविवार श्रावण अमावस्या

11 अगस्त बुधवार हरियाली तीज

13 अगस्त शुक्रवार नाग पंचमी

17 अगस्त मंगलवार सिंह संक्रांति

18 अगस्त बुधवार श्रावण पुत्रदा एकादशी

20 अगस्त शुक्रवार प्रदोष व्रत (शुक्ल)

21 अगस्त शनिवार ओणम/थिरूवोणम

22 अगस्त रविवार श्रावण पूर्णिमा व्रत, रक्षाबंधन

25 अगस्त बुधवार कजरी तीज, संकष्टी चतुर्थी

30 अगस्त सोमवार जन्माष्टमी

 

*सितंबर 2021*

3 सितंबर शुक्रवार अजा एकादशी

4 सितंबर शनिवार प्रदोष व्रत (कृष्ण)

5 सितंबर रविवार मासिक शिवरात्रि 

7 सितंबर मंगलवार भाद्रपद अमावस्या

9 सितंबर गुरुवार हरतालिका तीज

10 सितंबर शुक्रवार गणेश चतुर्थी

17 सितंबर शुक्रवार परिवर्तिनी एकादशी, कन्या संक्रांति

18 सितंबर शनिवार प्रदोष व्रत (शुक्ल)

19 सितंबर रविवार अनंत चतुर्दशी

20 सितंबर सोमवार भाद्रपद पूर्णिमा व्रत

24 सितंबर शुक्रवार संकष्टी चतुर्थी

 

*अक्टूबर 2021*

2 अक्टूबर शनिवार इंदिरा एकादशी

4 अक्टूबर सोमवार मासिक शिवरात्री, प्रदोष व्रत (कृष्ण)

6 अक्टूबर बुधवार अश्विन अमावस्या

7 अक्टूबर गुरूवार शरद नवरात्री, घटस्थापना

11 अक्टूबर सोमवार कल्परंभ

12 अक्टूबर मंगलवार नवपत्रिका पूजा

13 अक्टूबर बुधवार दुर्गा महा अष्टमी पूजा

14 अक्टूबर गुरुवार दुर्गा महा नवमी पूजा

15 अक्टूबर शुक्रवार दशहरा, शरद नवरात्रि पारणा, दुर्गा विसर्जन

16 अक्टूबर शनिवार पापांकुशा एकादशी

17 अक्टूबर रविवार प्रदोष व्रत (शुक्ल), तुला संक्रांति

20 अक्टूबर बुधवार अश्विन पूर्णिमा व्रत

24 अक्टूबर रविवार संकष्टी चतुर्थी, करवा चौथ

 

*नवंबर 2021*

1 नवंबर सोमवार रमा एकादशी

2 नवंबर मंगलवार धनतेरस, प्रदोष व्रत (कृष्ण)

3 नवंबर बुधवार मासिक शिवरात्री

4 नवंबर गुरुवार दिवाली, नरक चतुर्दशी, कार्तिक अमावस्या,

5 नवंबर शुक्रवार गोवर्धन पूजा

6 नवंबर शनिवार भाई दूज

10 नवंबर बुधवार छठ पूजा

14 नवंबर रविवार देवउठनी एकादशी

16 नवंबर मंगलवार प्रदोष व्रत (शुक्ल), वृश्चिक संक्रांति

19 नवंबर शुक्रवार कार्तिक पूर्णिमा व्रत

23 नवंबर मंगलवार संकष्टी चतुर्थी

30 नवंबर मंगलवार उत्पन्ना एकादशी

 

*दिसंबर 2021*

2 दिसंबर गुरुवार मासिक शिवरात्री, प्रदोष व्रत (कृष्ण)

4 दिसंबर शनिवार मार्गशीर्ष अमावस्या

14 दिसंबर मंगलवार मोक्षदा एकादशी

16 दिसंबर गुरुवार प्रदोष व्रत (शुक्ल), धनु संक्रांति

19 दिसंबर रविवार मार्गशीर्ष पूर्णिमा व्रत

22 दिसंबर बुधवार संकष्टी चतुर्थी

30 दिसंबर गुरुवार सफला एकादशी

31 दिसंबर शुक्रवार प्रदोष व्रत (कृष्ण)

करो विचार

 👉 *अपनी स्थिति पर विचार करें?*


*एक सेठ बड़ा धनवान था। उसे अपने ऐश्वर्य धन सम्पत्ति का बड़ा अभिमान था।* अपने को बड़ा दानी धर्मात्मा सिद्ध करने के लिए घर पर नित्य एक साधु को भोजन कराता था। एक दिन एक ज्ञानी महात्मा आये उसके यहाँ भोजन करने को। सेठजी ने उनकी सेवा पूजा करने का तो ध्यान नहीं रखा और उनसे अपने अभिमान की बातें करने लगा “देखो महाराज वहाँ से लेकर इधर तक यह अपनी बड़ी कोठी है, पीछे भी इतना ही बड़ा बगीचा है। पास ही दो बड़ी मीलें हैं। *अमुक−अमुक शहर में भी मीलें हैं। इतनी धर्मशालायें, कुँए बनाये हुए हैं। दो लड़के विलायत पढ़ने जा रहे हैं आप जैसे साधु संन्यासियों के पेट पालन के लिए यह रोजाना का सदावर्त लगा रखा है।”* सेठ अपनी बातें कहता ही जा रहा था। महात्मा जी ने सोचा इसको अभिमान हो गया है इसलिए इसका अभिमान दूर करना चाहिए। बीच में रोककर सेठ जी से कहा आपके यहाँ दुनियाँ का नक्शा है। *सेठ ने कहा “महाराज बहुत बड़ा नक्शा है।” महात्मा जी ने नक्शा मंगाया। उसमें सेठ से पूछा “इस दुनियाँ के नक्शे में भारत कहाँ है।” सेठ ने बताया। “अच्छा इसमें बम्बई कहाँ है” सेठ ने हाथ रखकर बताया।* महात्मा जी ने फिर पूछा “अच्छा इसमें तुम्हारी काठी, बगीचे, मीलें बताओ कहाँ हैं।” सेठ बोला महाराज दुनियाँ के नक्शे में इतनी छोटी चीजें कहाँ से आई। *महात्मा ने कहा “सेठजी अब इस दुनियाँ के नक्शे में तुम्हारी कोठी बगीचे महल का कोई पता नहीं तो विश्व ब्रह्माण्ड जो भगवान के लीला ऐश्वर्य का एक खेल मात्र है* उनके यहाँ तुम्हारे ऐश्वर्य का क्या स्थान होगा?” सेठ समझ गया और उसका अभिमान नष्ट हुआ। वह साधु के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा।


थोड़ी−सी समृद्धि ऐश्वर्य पाकर मनुष्य इतना अभिमानी और अहंकारी बन जाता है। *यदि वह अपनी स्थिति की तुलना अन्य लोगों से, फिर भगवान के अनन्त ऐश्वर्य से करे तो उसे अपनी स्थिति का पता चले।* धन सम्पत्ति ऐश्वर्य का अभिमान वृथा है। मूर्खता ही है। प्रथम तो यहाँ की सम्पदा पर मनुष्य का अपना अधिकार जताना अज्ञान है क्योंकि यह सदा यहीं की धरोहर है और यहीं रहती है। *यह भगवान की सम्पदायें हैं, कोई भी व्यक्ति इन्हें नहीं ले जा सकता। तिस पर भी अपनापन मानकर थोड़े से धन ऐश्वर्य पर बौरा जाना पागलपन, अज्ञान ही है।*

श्री राम कथा

 श्री रामकथा में आज /  30012021


चौपाई :


*नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥


सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥1॥


भावार्थ:-नाम ही के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं और अमंगल वेष वाले होने पर भी मंगल की राशि हैं। शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगी गण नाम के ही प्रसाद से ब्रह्मानन्द को भोगते हैं॥1॥


 


*नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥


नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥2॥


भावार्थ:-नारदजी ने नाम के प्रताप को जाना है। हरि सारे संसार को प्यारे हैं, (हरि को हर प्यारे हैं) और आप (श्री नारदजी) हरि और हर दोनों को प्रिय हैं। नाम के जपने से प्रभु ने कृपा की, जिससे प्रह्लाद, भक्त शिरोमणि हो गए॥2॥


 


*ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥


सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥3॥


भावार्थ:-ध्रुवजी ने ग्लानि से (विमाता के वचनों से दुःखी होकर सकाम भाव से) हरि नाम को जपा और उसके प्रताप से अचल अनुपम स्थान (ध्रुवलोक) प्राप्त किया। हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है॥3॥


 


*अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥


कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥4॥


भावार्थ:-नीच अजामिल, गज और गणिका (वेश्या) भी श्री हरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गए। मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते॥4॥


 


दोहा :


*नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।


जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥26॥


भावार्थ:-कलियुग में राम का नाम कल्पतरु (मन चाहा पदार्थ देने वाला) और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर) है, जिसको स्मरण करने से भाँग सा (निकृष्ट) तुलसीदास तुलसी के समान (पवित्र) हो गया॥26॥


 


चौपाई :


*चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥


बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥1॥


भावार्थ:-(केवल कलियुग की ही बात नहीं है,) चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं। वेद, पुराण और संतों का मत यही है कि समस्त पुण्यों का फल श्री रामजी में (या राम नाम में) प्रेम होना है॥1॥


 


*ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥


कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥2॥


भावार्थ:-पहले (सत्य) युग में ध्यान से, दूसरे (त्रेता) युग में यज्ञ से और द्वापर में पूजन से भगवान प्रसन्न होते हैं, परन्तु कलियुग केवल पाप की जड़ और मलिन है, इसमें मनुष्यों का मन पाप रूपी समुद्र में मछली बना हुआ है (अर्थात पाप से कभी अलग होना ही नहीं चाहता, इससे ध्यान, यज्ञ और पूजन नहीं बन सकते)॥2॥


 


*नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥


राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥3॥


भावार्थ:-ऐसे कराल (कलियुग के) काल में तो नाम ही कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसार के सब जंजालों को नाश कर देने वाला है। कलियुग में यह राम नाम मनोवांछित फल देने वाला है, परलोक का परम हितैषी और इस लोक का माता-पिता है (अर्थात परलोक में भगवान का परमधाम देता है और इस लोक में माता-पिता के समान सब प्रकार से पालन और रक्षण करता है।)॥3॥


 


*नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥


कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥4॥


भावार्थ:-कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्‌जी हैं॥4॥


 


दोहा :


*राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।


जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥27॥


भावार्थ:-राम नाम श्री नृसिंह भगवान है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करने वाले जन प्रह्लाद के समान हैं, यह राम नाम देवताओं के शत्रु (कलियुग रूपी दैत्य) को मारकर जप करने वालों की रक्षा करेगा॥27॥


 


चौपाई :


*भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥


सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥


भावार्थ:-अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। उसी (परम कल्याणकारी) राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ॥1॥


 


श्री रामगुण और श्री रामचरित्‌ की महिमा


*मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥


राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥2॥


भावार्थ:-वे (श्री रामजी) मेरी (बिगड़ी) सब तरह से सुधार लेंगे, जिनकी कृपा कृपा करने से नहीं अघाती। राम से उत्तम स्वामी और मुझ सरीखा बुरा सेवक! इतने पर भी उन दयानिधि ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है॥2॥


 


*लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥


गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥3॥


भावार्थ:-लोक और वेद में भी अच्छे स्वामी की यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेम को पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गँवार-नगर निवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी॥3॥


 


*सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥


साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥4॥


भावार्थ:-सुकवि-कुकवि, सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार राजा की सराहना करते हैं और साधु, बुद्धिमान, सुशील, ईश्वर के अंश से उत्पन्न कृपालु राजा-॥4॥


 


*सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥


यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥5॥


भावार्थ:-सबकी सुनकर और उनकी वाणी, भक्ति, विनय और चाल को पहचानकर सुंदर (मीठी) वाणी से सबका यथायोग्य सम्मान करते हैं। यह स्वभाव तो संसारी राजाओं का है, कोसलनाथ श्री रामचन्द्रजी तो चतुरशिरोमणि हैं॥5॥


 


*रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥6॥


भावार्थ:-श्री रामजी तो विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं, पर जगत में मुझसे बढ़कर मूर्ख और मलिन बुद्धि और कौन होगा?॥6॥


 


दोहा :


*सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।


उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥28 क॥


भावार्थ:-तथापि कृपालु श्री रामचन्द्रजी मुझ दुष्ट सेवक की प्रीति और रुचि को अवश्य रखेंगे, जिन्होंने पत्थरों को जहाज और बंदर-भालुओं को बुद्धिमान मंत्री बना लिया॥28 (क)॥


 


*हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।


साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥28 ख॥


भावार्थ:-सब लोग मुझे श्री रामजी का सेवक कहते हैं और मैं भी (बिना लज्जा-संकोच के) कहलाता हूँ (कहने वालों का विरोध नहीं करता), कृपालु श्री रामजी इस निन्दा को सहते हैं कि श्री सीतानाथजी, जैसे स्वामी का तुलसीदास सा सेवक है॥28 (ख)॥


 


चौपाई :


*अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥


समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥1॥


भावार्थ:-यह मेरी बहुत बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी नाक सिकोड़ ली है (अर्थात नरक में भी मेरे लिए ठौर नहीं है)। यह समझकर मुझे अपने ही कल्पित डर से डर हो रहा है, किन्तु भगवान श्री रामचन्द्रजी ने तो स्वप्न में भी इस पर (मेरी इस ढिठाई और दोष पर) ध्यान नहीं दिया॥1॥


 


*सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥


कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥2॥


भावार्थ:-वरन मेरे प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने तो इस बात को सुनकर, देखकर और अपने सुचित्त रूपी चक्षु से निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धि की (उलटे) सराहना की, क्योंकि कहने में चाहे बिगड़ जाए (अर्थात्‌ मैं चाहे अपने को भगवान का सेवक कहता-कहलाता रहूँ), परन्तु हृदय में अच्छापन होना चाहिए। (हृदय में तो अपने को उनका सेवक बनने योग्य नहीं मानकर पापी और दीन ही मानता हूँ, यह अच्छापन है।) श्री रामचन्द्रजी भी दास के हृदय की (अच्छी) स्थिति जानकर रीझ जाते हैं॥2॥


 


*रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥


जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली॥3॥


भावार्थ:-प्रभु के चित्त में अपने भक्तों की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती (वे उसे भूल जाते हैं) और उनके हृदय (की अच्छाई-नेकी) को सौ-सौ बार याद करते रहते हैं। जिस पाप के कारण उन्होंने बालि को व्याध की तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीव ने चली॥3॥


 


*सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी॥


ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥4॥


भावार्थ:-वही करनी विभीषण की थी, परन्तु श्री रामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी उसका मन में विचार नहीं किया। उलटे भरतजी से मिलने के समय श्री रघुनाथजी ने उनका सम्मान किया और राजसभा में भी उनके गुणों का बखान किया॥4॥


 


दोहा :


*प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।


तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान॥29 क॥


भावार्थ:-प्रभु (श्री रामचन्द्रजी) तो वृक्ष के नीचे और बंदर डाली पर (अर्थात कहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्री रामजी और कहाँ पेड़ों की शाखाओं पर कूदने वाले बंदर), परन्तु ऐसे बंदरों को भी उन्होंने अपने समान बना लिया। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रामचन्द्रजी सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं हैं॥29 (क)॥


 


*राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।


जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥29 ख॥


भावार्थ:-हे श्री रामजी! आपकी अच्छाई से सभी का भला है (अर्थात आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण करने वाला है) यदि यह बात सच है तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही होगा॥29 (ख)॥


 


*एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।


बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥29 ग॥


भावार्थ:-इस प्रकार अपने गुण-दोषों को कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करता हूँ, जिसके सुनने से कलियुग के पाप नष्ट हो जाते हैं॥29 (ग)॥


 


चौपाई :


*जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥


कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥1॥


भावार्थ:-मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी को सुनाई थी, उसी संवाद को मैं बखानकर कहूँगा, सब सज्जन सुख का अनुभव करते हुए उसे सुनें॥1॥


 


*संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥


सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥2॥


भावार्थ:-शिवजी ने पहले इस सुहावने चरित्र को रचा, फिर कृपा करके पार्वतीजी को सुनाया। वही चरित्र शिवजी ने काकभुशुण्डिजी को रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया॥2॥


 


*तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥


ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥3॥


भावार्थ:-उन काकभुशुण्डिजी से फिर याज्ञवल्क्यजी ने पाया और उन्होंने फिर उसे भरद्वाजजी को गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता (याज्ञवल्क्य और भरद्वाज) समान शील वाले और समदर्शी हैं और श्री हरि की लीला को जानते हैं॥3॥


 


*जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥


औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥4॥


भावार्थ:-वे अपने ज्ञान से तीनों कालों की बातों को हथेली पर रखे हुए आँवले के समान (प्रत्यक्ष) जानते हैं। और भी जो सुजान (भगवान की लीलाओं का रहस्य जानने वाले) हरि भक्त हैं, वे इस चरित्र को नाना प्रकार से कहते, सुनते और समझते हैं॥4॥


 


दोहा :


*मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।


समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥30 क॥


भावार्थ:-फिर वही कथा मैंने वाराह क्षेत्र में अपने गुरुजी से सुनी, परन्तु उस समय मैं लड़कपन के कारण बहुत बेसमझ था, इससे उसको उस प्रकार (अच्छी तरह) समझा नहीं॥30 (क)॥


 


*श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।


किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30ख॥


भावार्थ:-श्री रामजी की गूढ़ कथा के वक्ता (कहने वाले) और श्रोता (सुनने वाले) दोनों ज्ञान के खजाने (पूरे ज्ञानी) होते हैं। मैं कलियुग के पापों से ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था?॥30 ख॥


 


चौपाई :


*तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥


भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥


भावार्थ:-तो भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे मन को संतोष हो॥1॥


 


*जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥


निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥2॥


भावार्थ:-जैसा कुछ मुझमें बुद्धि और विवेक का बल है, मैं हृदय में हरि की प्रेरणा से उसी के अनुसार कहूँगा। मैं अपने संदेह, अज्ञान और भ्रम को हरने वाली कथा रचता हूँ, जो संसार रूपी नदी के पार करने के लिए नाव है॥2॥


 


*बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥


रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥


भावार्थ:-रामकथा पण्डितों को विश्राम देने वाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली और कलियुग के पापों का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुग रूपी साँप के लिए मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि के प्रकट करने के लिए अरणि (मंथन की जाने वाली लकड़ी) है, (अर्थात इस कथा से ज्ञान की प्राप्ति होती है)॥3॥


 


*रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥


सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥4॥


भावार्थ:-रामकथा कलियुग में सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु गौ है और सज्जनों के लिए सुंदर संजीवनी जड़ी है। पृथ्वी पर यही अमृत की नदी है, जन्म-मरण रूपी भय का नाश करने वाली और भ्रम रूपी मेंढकों को खाने के लिए सर्पिणी है॥4॥


 


*असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥


संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥5॥


भावार्थ:-यह रामकथा असुरों की सेना के समान नरकों का नाश करने वाली और साधु रूप देवताओं के कुल का हित करने वाली पार्वती (दुर्गा) है। यह संत-समाज रूपी क्षीर समुद्र के लिए लक्ष्मीजी के समान है और सम्पूर्ण विश्व का भार उठाने में अचल पृथ्वी के समान है॥5॥


 


*जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥


रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥6॥


भावार्थ:-यमदूतों के मुख पर कालिख लगाने के लिए यह जगत में यमुनाजी के समान है और जीवों को मुक्ति देने के लिए मानो काशी ही है। यह श्री रामजी को पवित्र तुलसी के समान प्रिय है और तुलसीदास के लिए हुलसी (तुलसीदासजी की माता) के समान हृदय से हित करने वाली है॥6॥


 


*सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥


सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥


भावार्थ:-यह रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सद्गुण रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है। श्री रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है॥7॥


 


दोहा :


*रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।


तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥


भावार्थ:-तुलसीदासजी कहते हैं कि रामकथा मंदाकिनी नदी है, सुंदर (निर्मल) चित्त चित्रकूट है और सुंदर स्नेह ही वन है, जिसमें श्री सीतारामजी विहार करते हैं॥31॥


 


चौपाई :


*रामचरित चिंतामति चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥


जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥1॥


भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी का चरित्र सुंदर चिन्तामणि है और संतों की सुबुद्धि रूपी स्त्री का सुंदर श्रंगार है। श्री रामचन्द्रजी के गुण-समूह जगत्‌ का कल्याण करने वाले और मुक्ति, धन, धर्म और परमधाम के देने वाले हैं॥1॥


 


*सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥


जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥


भावार्थ:-ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं॥2॥


 


*समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥


सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥3॥


भावार्थ:-पाप, संताप और शोक का नाश करने वाले तथा इस लोक और परलोक के प्रिय पालन करने वाले हैं। विचार (ज्ञान) रूपी राजा के शूरवीर मंत्री और लोभ रूपी अपार समुद्र के सोखने के लिए अगस्त्य मुनि हैं॥3॥


 


*काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥


अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥4॥


भावार्थ:-भक्तों के मन रूपी वन में बसने वाले काम, क्रोध और कलियुग के पाप रूपी हाथियों को मारने के लिए सिंह के बच्चे हैं। शिवजी के पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं और दरिद्रता रूपी दावानल के बुझाने के लिए कामना पूर्ण करने वाले मेघ हैं॥4॥


 


*मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥


हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥5॥


भावार्थ:-विषय रूपी साँप का जहर उतारने के लिए मन्त्र और महामणि हैं। ये ललाट पर लिखे हुए कठिनता से मिटने वाले बुरे लेखों (मंद प्रारब्ध) को मिटा देने वाले हैं। अज्ञान रूपी अन्धकार को हरण करने के लिए सूर्य किरणों के समान और सेवक रूपी धान के पालन करने में मेघ के समान हैं॥5॥


 


*अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥


सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥6॥


भावार्थ:-मनोवांछित वस्तु देने में श्रेष्ठ कल्पवृक्ष के समान हैं और सेवा करने में हरि-हर के समान सुलभ और सुख देने वाले हैं। सुकवि रूपी शरद् ऋतु के मन रूपी आकाश को सुशोभित करने के लिए तारागण के समान और श्री रामजी के भक्तों के तो जीवन धन ही हैं॥6॥


 


*सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥


सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से॥7॥


भावार्थ:-सम्पूर्ण पुण्यों के फल महान भोगों के समान हैं। जगत का छलरहित (यथार्थ) हित करने में साधु-संतों के समान हैं। सेवकों के मन रूपी मानसरोवर के लिए हंस के समान और पवित्र करने में गंगाजी की तरंगमालाओं के समान हैं॥7॥


 


दोहा :


*कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।


दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥32 क॥


भावार्थ:-श्री रामजी के गुणों के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुग के कपट, दम्भ और पाखण्ड को जलाने के लिए वैसे ही हैं, जैसे ईंधन के लिए प्रचण्ड अग्नि॥32 (क)॥


 


*रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।


सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥32 ख॥


भावार्थ:-रामचरित्र पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों के समान सभी को सुख देने वाले हैं, परन्तु सज्जन रूपी कुमुदिनी और चकोर के चित्त के लिए तो विशेष हितकारी और महान लाभदायक हैं॥32 (ख)॥


 


चौपाई :


*कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥


सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥1॥


भावार्थ:-जिस प्रकार श्री पार्वतीजी ने श्री शिवजी से प्रश्न किया और जिस प्रकार से श्री शिवजी ने विस्तार से उसका उत्तर कहा, वह सब कारण मैं विचित्र कथा की रचना करके गाकर कहूँगा॥1॥


 


*जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई॥


कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥2॥


रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥


नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥3॥


भावार्थ:-जिसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथा को सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसार में रामकथा की कोई सीमा नहीं है (रामकथा अनंत है)। उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रकार से श्री रामचन्द्रजी के अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायण हैं॥2-3॥


 


*कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥


करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी॥4॥


भावार्थ:-कल्पभेद के अनुसार श्री हरि के सुंदर चरित्रों को मुनीश्वरों ने अनेकों प्रकार से गया है। हृदय में ऐसा विचार कर संदेह न कीजिए और आदर सहित प्रेम से इस कथा को सुनिए॥4॥


 


दोहा :


*राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।


सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥33॥


भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उनके गुण भी अनन्त हैं और उनकी कथाओं का विस्तार भी असीम है। अतएव जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथा को सुनकर आश्चर्य नहीं मानेंगे॥3॥


 


चौपाई :


*एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥


पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥1॥


भावार्थ:-इस प्रकार सब संदेहों को दूर करके और श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी विनती करता हूँ, जिससे कथा की रचना में कोई दोष स्पर्श न करने पावे॥1॥


*🙏🌹जय सियाराम जी की🌹🙏*

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