Sunday, July 31, 2022

देवराज इंद्र और धर्मात्मा तोते की कथा*/ कृष्ण मेहता /l

 *प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 

🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸

देवराज इंद्र और धर्मात्मा तोते की यह कथा महाभारत से है। कहानी कहती है, अगर किसी के साथ ने अच्छा वक्त दिखाया है तो बुरे वक्त में उसका साथ छोड़ देना ठीक नहीं। एक शिकारी ने शिकार पर तीर चलाया। तीर पर सबसे खतरनाक जहर लगा हुआ था। पर निशाना चूक गया। तीर हिरण की जगह एक फले-फूले पेड़ में जा लगा। पेड़ में जहर फैला। वह सूखने लगा। उस पर रहने वाले सभी पक्षी एक-एक कर उसे छोड़ गए। पेड़ के कोटर में एक धर्मात्मा तोता बहुत बरसों से रहा करता था। तोता पेड़ छोड़ कर नहीं गया, बल्कि अब तो वह ज्यादातर समय पेड़ पर ही रहता। दाना-पानी न मिलने से तोता भी सूख कर कांटा हुआ जा रहा था। बात देवराज इंद्र तक पहुंची। मरते वृक्ष के लिए अपने प्राण दे रहे तोते को देखने के लिए इंद्र स्वयं वहां आए।


धर्मात्मा तोते ने उन्हें पहली नजर में ही पहचान लिया। इंद्र ने कहा, 'देखो भाई इस पेड़ पर न पत्ते हैं, न फूल, न फल। अब इसके दोबारा हरे होने की कौन कहे, बचने की भी कोई उम्मीद नहीं है। जंगल में कई ऐसे पेड़ हैं, जिनके बड़े-बड़े कोटर पत्तों से ढके हैं। पेड़ फल-फूल से भी लदे हैं। वहां से सरोवर भी पास है। तुम इस पेड़ पर क्या कर रहे हो, वहां क्यों नहीं चले जाते?' तोते ने जवाब दिया, 'देवराज, मैं इसी पर जन्मा, इसी पर बढ़ा, इसके मीठे फल खाए। इसने मुझे दुश्मनों से कई बार बचाया। इसके साथ मैंने सुख भोगे हैं। आज इस पर बुरा वक्त आया तो मैं अपने सुख के लिए इसे त्याग दूं?

जिसके साथ सुख भोगे, दुख भी उसके साथ भोगूंगा, मुझे इसमें आनंद है। आप देवता होकर भी मुझे ऐसी बुरी सलाह क्यों दे रहे हैं?' यह कह कर तोते ने तो जैसे इंद्र की बोलती ही बंद कर दी। तोते की दो-टूक सुन कर इंद्र प्रसन्न हुए, बोल, 'मैं तुमसे प्रसन्न हूं, कोई वर मांग लो।' तोता बोला, 'मेरे इस प्यारे पेड़ को पहले की तरह ही हरा-भरा कर दीजिए।'

देवराज ने पेड़ को न सिर्फ अमृत से सींच दिया, बल्कि उस पर अमृत बरसाया भी। पेड़ में नई कोंपलें फूटीं। वह पहले की तरह हरा हो गया, उसमें खूब फल भी लग गए। तोता उस पर बहुत दिनों तक रहा, मरने के बाद देवलोक को चला गया। युधिष्ठिर को यह कथा सुना कर भीष्म बोले, 'अपने आश्रयदाता के दुख को जो अपना दुख समझता है, उसके कष्ट मिटाने स्वयं ईश्वर आते हैं। बुरे वक्त में व्यक्ति भावनात्मक रूप से कमजोर हो जाता है। जो उस समय उसका साथ देता है, उसके लिए वह अपने प्राणों की बाजी लगा देता है। किसी के सुख के साथी बनो न बनो, दुख के साथी जरूर बनो। यही धर्मनीति है और कूटनीति भी।

*🌹*

जरूरी सूचना

 रा धा स्वा मी!  


 31-07-22-आज शाम खेतों में हुई महत्वपूर्ण एनाऊंसमेंट :-                              

   देखिए आपसे पहले भी कहा गया है sunday को maximum attendance होनी चाहिए छुट्टी का दिन है ऑडियो mode में attendance 3000 से भी कम है।

 Combine prayer ka फायदा होता है। Global Superman का नंबर ठीक है।


आप लोग  sunday छुट्टी के दिन ज्यादा से ज्यादा वीडियो और ऑडियो mode में कनेक्ट हों अगर यहांँ कुछ activity नहीं हो रही {रा धा स्व आ मी} नाम की chantting सुनिए।


राधास्वामी🙏🏻🙏🏻🙏🏿🙏🏿🙏🏿

Saturday, July 30, 2022

भाग्य और करम

प्रस्तुति सत्यनारायण प्रसाद अनंत



एक बार एक धनिक शिव-भक्त शिवालय जाता है। पैरों में महँगे और नये जूते होने पर सोचता है कि क्या करूँ ?


यदि बाहर उतार कर जाता हूँ तो कोई उठा न ले जाये और अंदर पूजा में मन भी नहीं लगेगा। सारा ध्यान जूतों पर ही रहेगा। उसे बाहर एक भिखारी बैठा दिखाई देता है।


वह धनिक भिखारी से कहता है: भाई मेरे जूतों का ध्यान रखोगे? जब तक मैं पूजा करके वापस न आ जाऊँ। भिखारी: हाँ कर देता है।


अंदर पूजा करते समय धनिक सोचता है कि- 

हे प्रभु ! आपने यह कैसा असंतुलित संसार बनाया है ? किसी को इतना धन दिया है कि वह पैरों तक में महँगे जूते पहनता है तो किसी को अपना पेट भरने के लिये भीख😪 तक माँगनी पड़ती है! कितना अच्छा हो कि सभी एक समान हो जायें।

वह धनिक निश्चय करता है कि वह बाहर आकर भिखारी को 100 का एक नोट देगा।


बाहर आकर वह धनिक देखता है कि वहाँ न तो वह भिखारी है और न ही उसके जूते है। धनिक ठगा सा रह जाता है। वह कुछ देर भिखारी का इंतजार करता है कि शायद भिखारी किसी काम से कहीं चला गया हो। पर वह नहीं आया। धनिक दुखी मन से नंगे पैर घर के लिये चल देता है।


रास्ते में फुटपाथ पर देखता है कि एक आदमी जूते चप्पल बेच रहा है। धनिक चप्पल खरीदने के उद्देश्य से वहाँ पहुँचता है,पर क्या देखता है कि उसके जूते भी वहाँ रखे हैं।जब धनिक दबाव डालकर उससे जूतों के बारे में पूछता है तो वह आदमी बताता है कि एक भिखारी उन जूतों को 100 रु. में बेच गया है। धनिक वहीं खड़े होकर कुछ सोचता है और मुस्कराते हुये नंगे पैर ही घर के लिये चल देता है। उस दिन धनिक को उसके सवालों के जवाब मिल गये थे।


समाज में कभी एकरूपता नहीं आ सकती, क्योंकि हमारे कर्म कभी भी एक समान नहीं हो सकते। और जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन समाज-संसार की सारी विषमतायें समाप्त हो जायेंगी। ईश्वर ने हर एक मनुष्य के भाग्य में लिख दिया है कि किसको कब और क्या और कहाँ मिलेगा।पर यह नहीं लिखा होता है कि वह कैसे मिलेगा। यह हमारे कर्म तय करते हैं।


जैसे कि भिखारी के लिये उस दिन तय था कि उसे 100 रु. मिलेंगे,पर कैसे मिलेंगे यह उस भिखारी ने तय किया। हमारे कर्म ही हमारा भाग्य, यश-अपयश,लाभ-हानि, जय-पराजय,शोक-हर्ष, लोक-परलोक तय करते हैं। हम इसके लिये ईश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं !!

*संपूर्ण समर्पण* / कृष्ण मेहता


प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 


एक बुढ़िया थी उसके पास जो कुछ था वह सबकुछ परमात्मा को अर्पण कर दी थी।

इसके अलावा भी उसके पास जो भी होता सभी परमात्मा पर चढ़ा देती !

चाहे वह भोतिक हो चाहे वह दिल के उदगार हो या मन बिचार 

यहां तक कि सुबह वह जो घर का कचरा वगैरह फेंकती, वह भी घूरे पर जाकर कहती यह भी तुझको ही समर्पित !

लोगों ने जब यह सुना तो उन्होंने कहा - यह तो हद हो गई !

फूल चढ़ाओ, मिष्ठान चढ़ाओ ! कचरा ? कचरा तो कोई भी नही चढाते

एक फकीर गुजर रहा था, उसने देखा कि वह बुढ़िया गई घूरे पर, उसने जाकर सारा कचरा फेंका और कहा -हे प्रभु, तुझको ही समर्पित !

उस फकीर ने कहा - माई , ठहर ! मैंने बड़े—बड़े संत देखे ! पर तू यह क्या कह रही है ?

उसने कहा --मुझसे मत पूछो उससे ही पूछो ! जब सब कुछ प्रभु को दे दिया तो कचरा भी मैं क्यों बचाऊं ? फकीर चला गया 

उस फकीर ने उस रात एक स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग ले जाया गया है। परमात्मा के सामने खड़ा है

स्वर्ण सिंहासन पर परमात्मा विराजमान है !

सुबह हो रही है, सूरज ऊग रहा है, पक्षी गीत गाने लगे सपना देख रहा है और तभी अचानक एक टोकरी भर कचरा आ कर परमात्मा के सिर पर पड़ा और प्रभू ने कहा -  यह माई भी एक दिन नहीं चूकती !

फकीर ने कहा --  मैं जानता हूं इस माई को कल ही तो मैंने इसे देखा था और कल ही मैंने उससे कहा था कि यह तू क्या करती है ?

घंटे भर वहां रहा फकीर, बहुत से लोगों को जानता था जो फूल मिष्ठान चढ़ाते हैं , लेकिन उनका चढ़ावा तो कंही नजर नहीं आया !

उसने परमात्मा से पूछा -प्रभु फूल चढ़ाने वाले लोग भी तो हैं जो सुबह से ही फूल तोड़ते हैं, आसपास से फूल तोड़कर चढ़ाते हैं उनके फूल तो कहीं गिरते नहीं दिखते ?

परमात्मा ने उस फकीर को कहा - जो आधाआधूरा चढ़ाता है, उसका यहां पहुंचता नहीं ! इस माई ने सब कुछ चढ़ा दिया है, कुछ नहीं बचाती, जो है सब चढ़ा दिया है !

हे फकीर समर्पण का अर्थ है सम  + अर्पण = समर्पण का अर्थ हुआ अपने मन का अर्पण कर देना यही है समर्पण  की परिभाषा मन का मतलब चाहतें, आकांशायें, इच्छाओं का परित्याग = समर्पण का मतलब होता है अपने अहंकार का त्याग करे  जिसके समक्ष हमनें समर्पण किया है उसके कहे अनुसार जीवन गुज़र करना

आत्मसमर्पण का भी अध्यातम में यही अर्थ होता है कि अपनी आत्मा का समर्पण कर देना 

अपना जो सब कुछ चढ़ाता है, उसका ही मेरे पास पहुंचता है.

सारी उम्र भर हम अपने अहंकार को ही नहीं छोड़ पाते  हम दूसरों को बिना लोभ कुछ अर्पण भी नहीं कर पाते थ भगवान् को भी कुछ पाने की लालसा से ही प्रसाद चढाते हैं, लालसा पूर्ण नहीं होती तो भगवान् बदल लेते हैं जबकि भगवान् तो एक ही है.


घबराहट में फकीर की नींद खुल गई जो पसीने पसीने हो रहा था क्योंकि अब तक की गयी मेहनत, उसे याद आयी कि वह सब व्यर्थ गई  मैं भी तो छांटछांट कर चढ़ाता रहा हूँ !!

समर्पण सम्पूर्ण ही हो सकता है अधूरा नही !!


        

,

🌹🕉️ ऋषि अष्टावक्र 🕉️🌹/ कृष्ण मेहता


प्रस्तुति -:रेणु दत्ता / आशा सिन्हा


उद्दालक ऋषि को अपने शिष्य कहोड़ की प्रतिभा से बेहद प्रसन्नता थी। कहोड़ जब सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान हासिल करने में सफल रहे तो उन्होंने अपनी रूपवती एवं गुणवती कन्या सुजाता का विवाह उनसे कर दिया।


समय बीता और नया जोड़ा नये संतति को जन्म देने वाला था। उन्हीं दिनों एक दिन कहोड़ वेदपाठ कर रहे थे। तभी सुजाता के गर्भ में पल रहा बालक बोल उठा– ‘पिताजी! आप वेद का गलत पाठ कर रहे हैं।’


इतना सुनते ही कहोड़ गुस्से से लाल हो उठे और बोले,  ‘गर्भ से ही तुम्हारी बुद्धि वक्र है और तुमने मेरा अपमान किया है। इसलिये तू आठ स्थानों से वक्र (टेढ़ा) हो जायेगा।’


इस घटना के कुछ दिन बाद कहोड़ मिथिला के राजा जनक के दरबार में एक बंदी से शास्त्रार्थ करने गए, जहां उनकी हार हो गई। नियम के अनुसार, कहोड़ को जल में डुबा दिया गया। ठीक इस घटना के बाद अष्टावक्र का जन्म होता है।


टेढ़े अंगों वाला बालक पिता को न देख सका था लिहाजा नाना उद्दालक को ही पिता समझता रहा और अपने मामा श्वेातकेतु को बड़ा भाई। एक दिन वह अपने नाना की गोद में था तभी श्वेतकेतु ने उन्हें बताया कि उद्दालक उनके पिता नहीं हैं। अष्टावक्र को गहरा धक्का लगा और उसने अपनी माता से पिता के विषय में पूछा। माता ने उन्हें पूरी सच्चाई बता दी।


इसके बाद अष्टावक्र अविलंब अपने मामा श्वेतकेतु को साथ लेकर मिथिला रवाना हो गए। वह बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिये सीधे राजा जनक के यज्ञशाला में पहुंचे। द्वारपालों ने उन्हें बच्चा समझकर रोका तो उनका कहना था कि केवल बाल सफेद हो जाने या उम्र अधिक होने से कोई बड़ा आदमी नहीं बन जाता। जिसे वेदों का ज्ञान हो और जो बुद्धिमान हो, वही बड़ा होता है।


ये कहते हुए वे राजा जनक की सभा में दाखिल हुए और बंदी को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। लेकिन बालक अष्टावक्र को देखकर सभी सभासद जोर-जोर से हंसने लगे।


अष्टावक्र को देखकर सभासद की हंसी रुक नहीं रही थी। असल में आठ जगह से टेढ़े अष्टावक्र को चलते देखकर किसी की भी हंसी छूट जाती थी। लोगों को हंसते देखकर अष्टावक्र भी हंसने लगे। दरअसल उन्होंने अपनी विकलांगता पर तनिक भी मन छोटा नहीं किया था। उन्होंने ऐसी विद्वता हासिल की थी कि इस पर सोचना और दुखी होना उनके लिए शोभा नहीं देती थी।


सभासद अष्टावक्र को देखकर हंस रहे थे तो अष्टावक्र सभासदों पर। ऐसी विचित्र स्थिति में राजा जनक ने अष्टावक्र को पूछा - ‘हे बालक! सभासद की हंसी तो समझ आती है, लेकिन तुम क्यों हंस रहे हो?


मात्र बारह वर्ष के बालक अष्टावक्र का जवाब सुनकर सभी दंग रह गए। अष्टावक्र ने कहा– ‘मेरे हाड़-मांस की वक्रता पर हंसने वालों की वक्र-बुद्धि पर मैं हंस रहा हूं। ये सभी लोग मानसिकता वक्रता से पीड़ित हैं और ये विद्वान् तो कतई नहीं हो सकते। इसीलिए मुझे हंसी आ रही है!


राजा जनक ने धैर्य पूर्वक अष्टावक्र से कहा, ‘धृष्ट बालक! तुम्हारा अभिप्राय क्या है...


अष्टावक्र ने इस पर जवाब दिया, ‘ये सभी चमड़े के पारखी हैं, बुद्धि के नहीं। मन्दिर के टेढ़े होने से आकाश टेढ़ा नहीं होता है और घड़े के फूटे होने से आकाश नहीं फूटता है।


वह तो निर्विकार है और ज्ञानी पुरुष आकाश सदृश ही निर्विकार होते हैं। बालक के मुख से इस ज्ञानपूर्ण बात को सुनकर सभी सभासद आश्चर्यचकित तो हुए ही, लज्जित भी हुए। उन्हें अपनी मूर्खता पर बेहद पश्चाताप हुआ।


इस प्रकरण के बाद राजा जनक ने अष्टावक्र की खुद परीक्षा ली। अष्टावक्र ने सभी प्रश्नों का बेहद चतुरता से जवाब दिया। इतना ही नहीं, बंदी भी उनकी विद्वता से चकित होकर नतमस्तक हो गया।


शास्त्रार्थ में बंदी की हार होने अष्टावक्र ने बंदी को जल में डुबोने का आग्रह किया।


बंदी ने हंसते हुए कहा कि वह वरुण का पुत्र है और उसने सब हारे ब्राह्मणों को पिता के पास भेजा है। उन्हें अभी वापस बुला लेगा। ऐसा ही हुआ और सभी हारे हुए ब्राह्मण वापस आ गए। उन्हीं में अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे। अष्टावक्र पिता को पाकर बेहद हर्षित हुए।

अष्टावक्र के पिता कहोड़ बेहद प्रसन्न होकर उन्हें समंगा नदी में स्नान करने की सलाह देते हैं। अपने पिता की शाप से मुक्त होने के लिए वे समंगा नदी में स्नान करते हैं और उनका सभी वक्र अंग सीधा हो जाता है।

अष्टावक्र की कथा हमें धैर्यवान बनने के साथ-साथ गुण-आग्रही बनने की सीख देती है।

Friday, July 29, 2022

मेरे प्यारे बहन और भाई।

 *रा धा स्व आ मी!                                       

30-07-22-

आज सुबह सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा शब्द पाठ:-                                                                                             

   मेरे प्यारे बहन और भाई।

क्यों ग़फ़लत में रहो सोते।

 गुरु लेव सम्हारी।।टेक।।                                     

  या जग में नित रहना नाहीं।

इक दिन तन तज जाना।

 टुक वहँ की बात बिचारी॥१॥                                                                          


सतगुरु वहँ के भेदी कहियन।

मिल उनसे लेव समझौती।

 निज घर वे देहिं लखा री॥२॥                                                               

 सतसँग उनका करो चित लाई।

 बचन अमोल हिये बिच धारो।

तोहि कर दें जग मे न्यारी॥३॥                                                              

 कुल मालिक रा धा स्व आ मी प्यारे।

 भेद उनका दें घट में सारा।

स्रुत शब्द की जुगती धारी॥४॥                                                                

मन और सुरत अधर नित धावें।

सुन धुन घट भनकारी।

पावे रस आनँद भारी॥५॥                                                                              

गुरु पद परस गई सतपुर में।

मधुर बीन धुन सुनी सारी।

 पद अलख अगम निरखा री॥६॥                                                                          

वहाँ से चल पहुँची निज धामा।

 प्यारे रा धा स्व आ मी दरश लखा री।

उन चरनन पर बलिहारी।।७।।


(प्रेमबानी-4-शब्द-2- पृ.सं.53,54)



खेतो में आज वचन

 खेतों मेँ आज के ग्रेशस हुज़ूर के बचन :


स्त्री और पुरुष चाहे किसी भी religion के हों, उनका उद्धार होगा l सतगुरू की कांटों की सेज है दूसरों के उद्धार के लिये उनके कर्म और रोग अपने ऊपर लेते हैं,  तो उनको बीमार भी होना पड़ता है l Superman generation की आगे जाकर ये duties होंगी जब दुनिया मेँ मारकाट होगी😎 तो संसार भर मेँ फैल कर peace और world order कायम करेंगे


राधास्वामी 🙏🏻🙏🏻

Tuesday, July 26, 2022

राधा स्व आ मी का भावार्थ

. राधास्वामी (’रा-धा-स्व-आ-मी’) नाम का तथ्य (असलियत)

(परम पूज्य हुज़ूर प्रो. प्रेम सरन सतसंगी साहब द्वारा की गई व्याख्याः- रा-सहस्त्रदल कमल (निरंजन), 

धा- त्रिकुटी (ओम), 

स्व-सुन्न/महासुन्न मानसरोवर, झील, 

आ-विशुद्ध परमार्थिक गति, 

मी-अनामी पुरुष द्वारा संचालित अन्तिम परमार्थी यथार्थ (गतिशील परमार्थी लाभ से सुज्जित अलख पुरुष-अगम पुरुष एवं अतीव गतिशील निज-धाम राधास्वामी  दरबार )


🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿

Monday, July 25, 2022

स्वामी जी महाराज भंडारा 2022

 *परम  पुरुष  पूरन  धनी  हुज़ूर  स्वामीजी  महाराज  का  भण्डारा  मनाए  जाने  के  सम्बन्ध  में  परामर्श -  अगस्त,  २०२२


परम  पुरुष  पूरन  धनी  हुज़ूर  स्वामीजी  महाराज  का  भण्डारा  भारत  व  विदेशों  की  विभिन्न  ब्रांचों  में  शुक्रवार,  19  अगस्त,  2022  को  दोपहर  बाद  के  सत्र  में  खेतों  में  (सुपरवाइज़्ड  वीडियो  ट्रांस्मिशन  के  साथ)  मनाया  जाएगा।  दयालबाग़  में  भण्डारा  सप्ताह  17.08.2022  से  22.08.2022  तक  मनाया  जाएगा।


अनुमति  प्राप्त  क्षेत्रों  के  सभी  सतसंगी  तथा  रजिस्टर्ड  जिज्ञासु  (बायोमेट्रिक  कार्ड  तथा  UID  के  साथ)  जो  शारीरिक  रूप  से  स्वस्थ  तथा  खाँसी,  ज़ुकाम  व  बुख़ार  के  लक्षणों  से  रहित  हैं  तथा  मार्डन  मेडिसन  के  रजिस्टर्ड  डॉक्टर  तथा /  या  आयुष  (रजिस्ट्रेशन  नम्बर  के  साथ)  द्वारा  प्रमाणित  हैं  और  इसके  अतिरिक्त  सरन  आश्रम  हॉस्पिटल  द्वारा  जिनकी  जाँच  कर  ली  गई  है,  वे  19  अगस्त,  2022  के  भण्डारे  के  अवसर  पर  दयालबाग़  में  सेवा  के  लिए  आ  सकते  हैं।  खाँसी,  ज़ुकाम  व  बुख़ार  के  लक्षण  वाले  लोग  दयालबाग़  में  बिल्कुल  नहीं  आएंगे। (जैसा  कि  सभा  द्वारा  जारी  किए  गए  पत्र  दिनांक  18.04.2022  में  परामर्श  दिया  गया  है,  कि  यदि  कोई  भी  इन  लक्षणों  से  पीड़ित  पाया  गया  तो  उसे  तत्काल  वापस  भेज  दिया  जाएगा  तथा  उस  ब्रांच  विशेष  के  सभी  सतसंगियों  को  अग्रिम  आदेश  तक  दयालबाग़  आने  से  वंचित  कर  दिया  जाएगा)।

 

यात्रा  से  पूर्व,  यात्रा  के  दौरान  तथा  यात्रा  के  बाद  वे  सभी  सावधानियों  जैसे - मास्क  व  हैलमेट  का  प्रयोग  तथा  हाथों  की  सफ़ाई  व  सामाजिक  दूरी  के  मानकों  का  पालन  करेंगे। वे  अपना  बायोमेट्रिक  पहचान  कार्ड  अवश्य  लेकर  आएँ  अन्यथा  उन्हें  दयालबाग़  में  प्रवेश  करने  की  अनुमति  नहीं  दी  जावेगी।


इस  अवसर  पर  दयालबाग़  उत्पादों  की  प्रदर्शनी  दयालबाग़  में  आयोजित  नहीं  की  जाएगी।

 

*रा धा स्व आ मी*

Saturday, July 23, 2022

यथार्थ प्रकाश

 

राधास्वामी सम्वत् 204

अर्ध-शतक 101       सोमवार  जुलाई 25, 2022     अंक 37       दिवस 1-7




यथार्थ-प्रकाश


भाग पहला


परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज


(प्रेम प्रचारक दिनांक 18 जुलाई, 2022 से आगे)


राधास्वामी (’रा-धा-स्व-आ-मी’) नाम का तथ्य (असलियत)


         परम पूज्य हुज़ूर प्रो. प्रेम सरन सतसंगी साहब द्वारा की गई व्याख्याः- रा-सहस्त्रदल कमल (निरंजन), धा- त्रिकुटी (ओम), स्व-सुन्न/महासुन्न मानसरोवर, झील, आ-विशुद्ध परमार्थिक गति, मी-अनामी पुरुष द्वारा संचालित अन्तिम परमार्थी यथार्थ (गतिशील परमार्थी लाभ से सुसज्जित अलख पुरुष-अगम पुरुष एवं अतीव गतिशील निज-धाम राधास्वामी दर्बार)


            40. राधास्वामी-मत की जान राधास्वामी (’रा-धा-स्व-आ-मी’) नाम है। यह वह नाम है जो रचना के आदि में प्रकट हुआ और जिसकी ध्वनि चेतनता के प्रत्येक केन्द्र अर्थात् रचना के प्रत्येक पुरुष के अन्तर के अन्तर निरन्तर हो रही है, या यों कहो कि जहाँ कहीं आत्मा अर्थात् सुरत-शक्ति क्रियावान् है वहाँ इस नाम की ध्वनि विद्यमान है। वर्तमान अवस्था में मनुष्य की सुरत तन तथा मन के कोशों के भीतर गुप्त है, आत्मा की शक्ति से जान पाकर उसके तन तथा मन क्रियावान् हो रहे हैं और उनके क्रियावान् होने से उनके गुण अर्थात् स्वभाव का प्रादुर्भाव हो रहा है परन्तु उनके अन्तर के अन्तर चैतन्य मण्डल अर्थात् घाट पर, जहाँ सुरत की धारें प्रकट हैं, राधास्वामी (’रा-धा-स्व-आ-मी’) नाम की ध्वनि हो रही है। इसी प्रकार ओ3म्, सोहम् तथा सत्यपुरुष आदि के अन्तर के अन्तर इस नाम की ध्वनि विद्यमान है और राधास्वामी-धाम में, जो रचना का सबसे ऊँचा स्थान है, गति प्राप्त होने पर प्रत्येक अभ्यासी को इस नाम की ध्वनि सुनाई देती है। इसलिए इस नाम या शब्द को समस्त रचना की जान कहते हैं।


            41. रचना से पहले ये सब पदार्थ, जो अब दृष्टिगोचर हो रहे हैं, गुप्त अवस्था में थे अर्थात् पिण्ड, ब्रह्माण्ड, चन्द्र, सूर्य आदि कुछ भी प्रकट न थे, एक कुलमालिक ही था और उसकी शक्ति अपने केन्द्र में समाई हुई थी। संसार में प्रत्येक शक्ति की दो अवस्थाएँ होती हैं- एक गुप्त, दूसरी प्रकट। साधारण रूप से पत्थर के कोयले में अग्नि गुप्त है और प्रज्ज्वलित करने पर वह प्रकट हो जाती है और ताँबे तथा जस्ते में बिजली गुप्त है पर उचित सम्बन्ध स्थापित करने पर उसकी धार जारी होकर विद्युत्-शक्ति का विकास हो जाता है, इसी प्रकार चैतन्य शक्ति की भी दो अवस्थाएँ हैं- एक गुप्त, दूसरी प्रकट। रचना से पहले चैतन्य शक्ति अपने केन्द्र में गुप्त थी। इसी को शून्यसमाधि की अवस्था कहते हैं। धीरे धीरे एक समय आया जब कुलमालिक अर्थात् चैतन्य शक्ति के भण्डार में क्षोभ (हिलोर) होने पर आदि चैतन्य धार प्रकट हुई और जोकि शक्ति के प्रत्येक आविर्भाव के साथ साथ एक शब्द (-समूह) प्रकट होता है इसलिए भण्डार की हिलोर से ‘स्वामी’ शब्द स्व-आ-मी (3 शब्द) और आदि चैतन्य धार से ‘राधा’ (रा-धा) दो शब्द-समूह प्रकट हुआ।

दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि रचना का कार्य आरम्भ होने पर (अर्थात् चैतन्य शक्ति के गुप्त अवस्था से प्रकट रूप धारण करने पर) कुलमालिक से आदिशब्द प्रकट हुआ जिसे मनुष्य की बोली में उच्चारण करने पर ‘राधास्वामी’ (’रा-धा-स्व-आ-मी’) पाँच शब्द-समूह बनता है। इसी कारण यह नाम कुलमालिक का निजनाम माना जाता है।


(क्रमशः)

Friday, July 22, 2022

बचन

 *रा धा स्व आ मी                  

 21-07-22- शाम सतसंग में पढ़ा गया बचन :-

 रात के सतसंग में उपदेश हुआ कि सतसंगियों को मरने से क़तई ( बिल्कुल ) घबराना नहीं चाहिये । घबरावे वह जिसे यह शुबह हो कि मरने के बाद आयन्दा जिन्दगी रहेगी या नहीं और अगर रहेगी तो न मालूम कि किस योनि में जाना पड़े या क्या दुःख क्लेश सहना पड़े मगर जबकि सतसंगी को विश्वास है कि सुरत अमर है और सुरत शब्द - अभ्यास करने से या नेकचलनी की जिन्दगी बसर करने व सच्चे दिल से मालिक के चरणों में प्रेम - प्रीति बढ़ाने से आयन्दा जन्म जरूर अब से बेहतर होता है और नीज़ अन्त समय पर गुरु महाराज सहायक होते हैं तो फिर घबराना कैसा ? यह घबराहट राग द्वेश की वजह से होती है यानी दौराने ज़िन्दगी में इन्सान अनेक चीज़ों व जीवों से मोहब्बत या मोह पैदा कर लेता है और अनेक से नफरत , इसलिये यहाँ से कूच करते वक्त रगबत व नफ़रत के ख़यालात गलबा पा कर मरने वालो को परेशान करते हैं । अगर हम यह चाहते हैं कि मरने के बाद हमारी सुरत सीधी सच्चे मालिक के चरणों में दाखिल हो तो हमारे ऊपर फ़र्ज हो जाता है कि दौराने जिन्दगी में हम एहतियात के साथ बर्ताव करें । जिस माद्दी शै या माद्दी जिस्म के साथ हम मोह पैदा करेंगे वह मौक़ा मिलने पर जरूर हमको अपनी जानिब खींचेगा और चूँकि वह माद्दी है इसलिये हमारी सुरत को माद्दा के साथ तअल्लुक़ क़ायम करना पड़ेगा यानी माद्दी दुनिया में जन्म लेना पड़ेगा और माद्दी दुनिया में जन्म लेने का नतीजा यह होगा कि हमारी चाल का रुख सच्चे मालिक के चरणों की तरफ़ के बजाय माद्दी दुनिया की जानिब रहेगा इसलिये अक्लमन्दी इसी में है कि हम दौराने जिन्दगी में एहतियात से बर्ताव करें , अपने सब काम काज करें , किसी से झगड़ा या बिगाड़ न करें , हर एक की यथायोग्य इज्जत करें , लेकिन अपना चित्त अपने परम पिता के चरणों में भेंट करें।         

         

  🙏🏻रा धा स्व आ मी🙏🏻    

 - रोजाना वाकिआत-1-

परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज!*



Tuesday, July 19, 2022

आत्मविश्वास / ओशो


कोई दो सौ वर्ष पहले, जापान में दो राज्यों में युद्ध छिड़ गया था। छोटा जो राज्य था, भयभीत था; हार जाना उसका निश्चित था। उसके पास सैनिकों की संख्या कम थी। थोड़ी कम नहीं थी, बहुत कम थी। दुश्मन के पास दस सैनिक थे, तो उसके पास एक सैनिक था। उस राज्य के सेनापतियों ने युद्ध पर जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह तो सीधी मूढ़ता होगी; हम अपने आदमियों को व्यर्थ ही कटवाने ले जाएं। हार तो निश्चित है।


और जब सेनापतियों ने इनकार कर दिया युद्ध पर जाने से उन्होंने कहा कि यह हार निश्चित है, तो हम अपना मुंह पराजय की कालिख से पोतने जाने को तैयार नहीं; और अपने सैनिकों को भी व्यर्थ कटवाने के लिए हमारी मर्जी नहीं। मरने की बजाय हार जाना उचित है। मर कर भी हारना है, जीत की तो कोई संभावना मानी नहीं जा सकती।


सम्राट भी कुछ नहीं कह सकता था, बात सत्य थी, आंकड़े सही थे। तब उसने गांव में बसे एक फकीर से जाकर प्रार्थना की कि क्या आप मेरी फौजों के सेनापति बन कर जा सकते हैं? 


यह उसके सेनापतियों को समझ में ही नहीं आई बात। सेनापति जब इनकार करते हों, तो एक फकीर को--जिसे युद्ध का कोई अनुभव नहीं, जो कभी युद्ध पर गया नहीं, जिसने कभी कोई युद्ध किया नहीं, जिसने कभी युद्ध की कोई बात नहीं की--यह बिलकुल अव्यावहारिक आदमी को आगे करने का क्या प्रयोजन है?


लेकिन वह फकीर राजी हो गया। जहां बहुत से व्यावहारिक लोग राजी नहीं होते वहां अव्यावहारिक लोग राजी हो जाते हैं। जहां समझदार पीछे हट जाते हैं, वहां जिन्हें कोई अनुभव नहीं है, वे आगे खड़े हो जाते हैं। वह फकीर राजी हो गया। सम्राट भी डरा मन में, लेकिन फिर भी ठीक था। हारना भी था तो मर कर हारना ही ठीक था।फकीर के साथ सैनिकों को जाने में बड़ी घबड़ाहट हुई: यह आदमी कुछ जानता नहीं! लेकिन फकीर इतने जोश से भरा था, सैनिकों को जाना पड़ा। सेनापति भी सैनिकों के पीछे हो लिए कि देखें, होता क्या है?


जहां दुश्मन के पड़ाव पड़े थे उससे थोड़ी ही दूर उस फकीर ने एक छोटे से मंदिर में सारे सैनिकों को रोका, और उसने कहा कि इसके पहले कि हम चलें, कम से कम भगवान को कह दें कि हम लड़ने जाते हैं और उनसे पूछ भी लें कि तुम्हारी मर्जी क्या है? अगर हराना ही हो तो हम वापस लौट जाएं और अगर जिताना हो तो ठीक।सैनिक बड़ी आशा से मंदिर के बाहर खड़े हो गए। उस आदमी ने हाथ जोड़ कर आंख बंद करके भगवान से प्रार्थना की, फिर खीसे से एक रुपया निकाला और भगवान से कहा कि मैं इस रुपए को फेंकता हूं, अगर यह सीधा गिरा तो हम समझ लेंगे कि जीत हमारी होनी है और हम बढ़ जाएंगे आगे, और अगर यह उलटा गिरा तो हम मान लेंगे कि हम हार गए, हम वापस लौट जाएंगे, राजा से कह देंगे, व्यर्थ मरने की व्यवस्था मत करो; हमारी हार निश्चित है, भगवान की भी मर्जी यही है।


सैनिकों ने गौर से देखा, उसने रुपया फेंका। चमकती धूप में रुपया चमका और नीचे गिरा। वह सिर के बल गिरा था; वह सीधा गिरा था। उसने सैनिकों से कहा, अब फिकर छोड़ दो। अब खयाल ही छोड़ दो कि तुम हार सकते हो। अब इस जमीन पर कोई तुम्हें हरा नहीं सकता। रुपया सीधा गिरा था। भगवान साथ थे। वे सैनिक जाकर जूझ गए। सात दिन में उन्होंने दुश्मन को परास्त कर दिया। वे जीते हुए वापस लौटे। उस मंदिर के पास उस फकीर ने कहा, अब लौट कर हम धन्यवाद तो दे दें! वे सारे सैनिक रुके, उन सबने हाथ जोड़ कर भगवान से प्रार्थना की और कहा, तेरा बहुत धन्यवाद कि तू अगर हमें इशारा न करता जीतने का, तो हम तो हार ही चुके थे। तेरी कृपा और तेरे इशारे से हम जीते हैं।


उस फकीर ने कहा, इसके पहले कि भगवान को धन्यवाद दो, मेरे खीसे में जो सिक्का पड़ा है, उसे गौर से देख लो। उसने सिक्का निकाल कर बताया, वह सिक्का दोनों तरफ सीधा था, उसमें कोई उलटा हिस्सा था ही नहीं। वह सिक्का बनावटी था, वह दोनों तरफ सीधा था, वह उलटा गिर ही नहीं सकता था! उसने कहा, भगवान को धन्यवाद मत दो। तुम आशा से भर गए जीत की, इसलिए जीत गए। तुम हार भी सकते थे, क्योंकि तुम निराश थे और हारने की कामना से भरे थे। तुम जानते थे कि हारना ही है।


जीवन में सारे कामों की सफलताएं इस बात पर निर्भर करती हैं कि हम उनकी जीत की आशा से भरे हुए हैं या हार के खयाल से डरे हुए हैं। और बहुत आशा से भरे हुए लोग थोड़ी सी सामर्थ्य से इतना कर पाते हैं, जितना कि बहुत सामर्थ्य के रहते हुए भी निराशा से भरे हुए लोग नहीं कर पाते हैं। सामर्थ्य मूल्यवान नहीं है। सामर्थ्य असली संपत्ति नहीं है। असली संपत्ति तो आशा है--और यह खयाल है कि कोई काम है जो होना चाहिए; जो होगा; और जिसे करने में हम कुछ भी नहीं छोड़ रखेंगे।


                            ओशो,

Monday, July 18, 2022

गुरू मोहिं दीना भेद अपारी।

 *रा धा स्व आ मी!                                     


18-07-22-आज शाम सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा शब्द पाठ:-                                                                


गुरू मोहिं दीना भेद अपारी।

शब्द धन सुन हुआ आनँद भारी॥१॥                                                                   

सुरत की लागी घट में ताड़ी।

घनन की होत जहाँ झनकारी॥२॥                                 


चरन में निस दिन प्रेम बढ़ा री।

मेहर गुरु कीनी मनुआँ हारी॥३॥                                                                 

थकित होय बैठी माया नारी।

 सुरत रही पियत अमी रस सारी॥४॥                                  

छोड़ नभ चढ़ गई गगन अटारी।

 चंद्र लख सेत सूर निरखा री॥५॥                                                                 

अमरपुर दर्शन पुरुष निहारी।

 सुनत रही मधुर बीन धुन सारी॥६॥                                                                                               

अलख और अगम प्यार कीना री।

 हुई मैं रा धा स्व आ मी चरन दुलारी॥७॥                                                       

संत मोपै मेहर करी अति भारी।

दई मोहिं परशादी कर प्यारी॥८॥


  (प्रेमबानी-2- शब्द-5- पृ.सं.8)*

Sunday, July 17, 2022

संत परामर्श

 *एक व्यक्ति ने अपने गुरु से पूछा?मेरे कर्मचारी,मेरी पत्नी,मेरे बच्चे और सभी लोग मतलबी हैं।कोई भी सही नहीं हैं क्या करूं ?*

*गुरु थोडा मुस्कुराये और उसे एक कहानी सुनाई।*

*एक गाँव में एक विशेष कमरा था जिसमे 1000 शीशे लगे थे।एक छोटी लड़की उस कमरे में गई और खेलने लगी।उसने देखा 1000 बच्चे उसके साथ खेल रहे हैं और वो उन प्रतिबिम्ब बच्चो के साथ खुश रहने लगी।जैसे ही वो अपने हाथ से ताली बजाती सभी बच्चे उसके साथ ताली बजाते।उसने सोचा यह दुनिया की सबसे अच्छी जगह है और यहां बार बार आना चाहेगी।*

*थोड़ी देर बाद इसी जगह पर एक उदास आदमी कहीं से आया।उसने अपने चारो तरफ हजारों दु:ख से भरे चेहरे देखे।वह बहुत दु:खी हुआ।उसने हाथ उठा कर सभी को धक्का लगाकर हटाना चाहा तो उसने देखा हजारों हाथ उसे धक्का मार रहे है।उसने कहा यह दुनिया की सबसे खराब जगह है वह यहां दोबारा कभी नहीं आएगा और उसने वो जगह छोड़ दी।*

*इसी तरह यह दुनिया एक कमरा है जिसमें हजारों शीशे लगे है।जो कुछ भी हमारे अंदर भरा होता है वो ही प्रकृति हमें लौटा देती है।अपने मन और दिल को साफ़ रखें तब यह दुनिया आपके लिए स्वर्ग की तरह ही है।*🙏🙏

Thursday, July 14, 2022

प्रेमी जइयो रे सतसँग में ।

 *रा धा स्वा आ मी!                               

 13-07-22-आज सुबह सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा शब्द पाठ:-                                                                                         


प्रेमी जइयो रे सतसँग में ।

 लीजो सुरत जगिय।।टेक।।                                        

बिन सतसँग मन चेते नाहीं।

 सतगुरु प्यारे की सरनाय॥१॥                                          

अमृत रूपी बचन गुरू के।

सुन सुन रहे चरन लौ लाय॥२॥                                           

शब्द भेद लेकर सतगुरु से।

 मन और सूरत अधर चढ़ाय॥३॥                                     

सुन सुन धुन सूरत मगनानी।

 मन से लीना खूँट छुड़ाय॥४॥                                   

सतगुरु लार चली फिर प्यारी।

सत्तलोक किया आसन जाय॥५॥                                                

सत्तपुरुष का दरशन पाया।

हंसन सँग लिया मेल मिलाय॥६॥                                                                                                 

वहाँ से रा धा स्व आ मी धाम सिधारी।

मगन होय निज भाग सराय॥७॥


(प्रेमबानी-4-शब्द-1-भाग-3- पृ.सं.38,39)*


प्रेमी भागो रे जगत से।......

 *रा धा स्व आ मी!                                   

 15-07-22-आज सुबह सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा शब्द पाठ:-                                                                                             

प्रेमी भागो रे जगत से।.

 या सँग क्यों तू धोखा खाय॥टेक॥                                             

  यह दुनिया काहू की नाहीं।

भोग दिखा लिया जीव फँसाय॥१॥                                       

याते छूटन कठिन बिचारों।

सब ही या सँग गये लुभाय॥२॥                                              

बिन सतगुरु कोइ छूटे नाहीं।

उनका सतसँग करो बनाय॥३॥                                               

बचन सुनो और चित में धारो।

सूरत घट धुन संग लगाय॥४॥                                              

प्रीति प्रतीति चरन में धारो।

 रा धा स्व आ मी इक दिन काज बनाय॥५॥

 (प्रेमबानी-4-शब्द-3- पृ.सं.40,41)*


Tuesday, July 12, 2022

धीरे धीरे

 🌺🙏🙏🌺

  🌼🌼🌼🌼🌼


चली जा रही है

ऊमर धीरे धीरे, 

योंही आठों पहर

धीरे धीरे, 


🌼 ताते सुमिरन भजन करले, 

धीरे धीरे, 


🌼 बचपन बीता जवानी बीती, 

बुढापा आ रहा है, 

धीरे धीरे, 


🌼 ताते सुमिरन भजन करले, 

धीरे धीरे, 


🌼चली जा रही है

ऊमर धीरे धीरे, 

आठों पहर धीरे धीरे, 


🌼हाथ पैरों में बल न रहेगा, 

कमर झुक जायेगी, 

धीरे धीरे, 🌼


ताते अभी सेवा सतसंग, 

करले, 

धीरे धीरे, 🌼


🌼 सुमिरन भजन करले, 

धीरे धीरे, 🌼


🌼 चली जा रही है, 

ऊमर धीरे धीरे, 

योंही आठों पहर 

धीरे धीरे, 🌼


🌼मन को दुनिया के मोह माया से, 

हटाले धीरे धीरे, 🌼


सतगुरु के चरणों में 

मन को लगाले

धीरे धीरे, 🌼


🌼 उमर बीती जा रही है, 

धीरे धीरे, 🌼


🌼 बेटा बेटी नाती

कुटम परिवार ठाठ हवेली, 

तुझसे अलग हो जायेंगे, 

धीरे धीरे, 🌼


🌼ताते सुमिरन भजन करले, 

धीरे धीरे, 🌼


🌼उमर बीती जा रही है, 

धीरे धीरे, 

आठों पहर धीरे धीरे 🌼


🌼रात दिन मेहनत करके, जो दौलत कमाई तुने, 

यही खर्च हो जायेगी 

धीरे धीरे, 🌼


ताते सतसंग , सेवा, सुमिरन, ध्यान, भजन कर परमारथ की दौलत कमाले, 

जमा हो जायेगी, 

धीरे धीरे, 🌼


🌼ऊमर बीती जा रही है, 

धीरे धीरे, 

आठों पहर धीरे धीरे,


🌼कहन सतगुरु की मान, 

धीरे धीरे, 

धुन नाम की सुन, 

धीरे धीरे, 

निज रुप का दर्शन हो जायेगा, 

धीरे धीरे, 🌼

🙏🙏🙏🙏🙏

🌹🌹🌹🌹🌹

सतगुरु सेवक

    पाठक

Saturday, July 9, 2022

विट्ठल विट्ठल विट्ठल विट्ठल विट्ठल / कृष्ण मेहता

 *॥ 


श्री हरि के अवतार थे। उन्होंने यह अवतार क्यों लिया इसके बारे में एक पौराणिक कहानी में उल्लेख मिलता है। हुआ यूं था कि 6वीं सदी में संत पुंडलिक माता-पिता के परम भक्त थे।


एक दिन वे अपने माता-पिता के पैर दबा रहे थे कि श्रीकृष्ण रुक्मिणी के साथ वहां प्रकट हो गए। वे पैर दबाने में इतने लीन थे कि अपने इष्टदेव की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया।


तब प्रभु ने उन्हें स्नेह से पुकार कर कहा, 'पुंडलिक, हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं।' पुंडलिक ने जब उस तरफ देखा, तो भगवान के दर्शन हुए। उन्होंने कहा कि मेरे पिताजी शयन कर रहे हैं, इसलिए आप इस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा कीजिए और वे पुन: पैर दबाने में लीन हो गए।


भगवान पुंडलिक की सेवा और शुद्ध भाव देखकर प्रसन्न हो गए और कमर पर दोनों हाथ धरकर और पैरों को जोड़कर ईंटों पर खड़े हो गए। कुछ देर बाद पुंडलिक ने फिर भगवान से कह दिया कि आप इसी मुद्रा में थोड़ी देर और इंतजार करें।


भगवान को पुंडलिक द्वारा दिए गए स्थान से भी बहुत प्रेम हो गया। उनकी कृपा से पुंडलिक को अपने माता-पिता के साथ ही ईश्वर से साक्षात्कार हो गया। ईंट पर खड़े होने के कारण श्री विट्ठल के विग्रह रूप में भगवान आज भी धरती पर विराजमान हैं। यही स्थान पुंडलिकपुर या अपभ्रंश रूप में पंढरपुर कहलाया।





                   

...

Friday, July 8, 2022

विश्वास / कृष्ण मेहता

 *🌹 ईश्वर पर भरोसा 🌹*


प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 


*एक सन्त कुएँ पर स्वयं को जंजीर से लटका कर ध्यान करता था और कहता था जिस दिन यह जंजीर टूटेगी मुझे ईश्वर मिल जायेंगे।*


*उनसे पूरा गांव प्रभावित था सभी उनकी भक्ति, उनके तप की तारीफें करते थे।*


*एक व्यक्ति के मन में इच्छा हुई कि मैं भी ईश्वर के दर्शन करूँ।*


*वह भी कुएँ पर रस्सी से पैर को बाँधकर कुएँ में लटक गया और कृष्ण जी का ध्यान करने लगा।*


*थोडे समय बाद जब रस्सी टूटी वो कुवें में गिरा पर उसे कृष्ण अपनी गोद में उठा लिए और दर्शन भी दिए।*


*तब उस व्यक्ति ने पूछा आप इतनी जल्दी मुझे दर्शन देने क्यों चले आये जबकि वे संत , तो वर्षों से आपको बुला रहे हैं।*


 *कृष्ण जी बोले, "वो कुएँ पर लटकते जरूर हैं किन्तु पैर को लोहे की जंजीर से बाँधकर।*



 *उन्हें मुझसे ज्यादा जंजीर पर विश्वास है। तुमने खुद से ज्यादा मुझ पर विश्वास किया इसलिए मैं आ गया।"*


*आवश्यक नहीं कि दर्शन में वर्षों लगें आपकी शरणागति आपको ईश्वर के दर्शन अवश्य कराएगी और शीघ्र ही कराएगी।*


*प्रश्न केवल इतना है आप उन पर  विश्वास कितना करते हैं।*

Friday, July 1, 2022

क्यों अटक रही जग प्यारी

 *रा धा स्व आ मी!      


                          

  01-07-22-आज सुबह सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा शब्द पाठ:-                                                                                            

  क्यों अटक रही जग प्यारी ।

 यामें दुख भोगे भारी।।टेक।।                                            

कोई यहाँ तेरा संग न साथी।

 स्वारथ सँग सब मिल रहते ॥

क्यों धोखा खाओ इन में।

 क्यों भोगन सँग नित बहते॥

जम दंड सहो सरकारी॥१।।                                                     

सतसँग में मेल मिलाना।

गुरु चरनन भाव बढ़ाना।।

 सुन सुन निज बचन कमाना।

 घट में गुरु रूप धियाना।।

 गुरुभक्ती रीत सम्हारी॥२॥                                                                    

  स्रुत शब्द जुगत ले गुरु से।

नित नेम से कर अभ्यासा॥

मन इंद्री सुरत समेटो।

फिर घट में देख बिलासा।।

ले गुरु की मेहर करारी।।३।।                                                                 

गुरु करम भरम सब टारें।

मन के करें दूर बिकारा।।

 सब पिछली टेक निकारें।

 दरसावें फिर घर न्यारा।।

लख उनकी गत मत न्यारी॥४॥                                                             

  रा धा स्व आ मी सरन सम्हारो।

गुरु के सँग अधर सिधारो॥

लख जोत सूर और चंदा।

 सत अलख अगम को धारो॥

 हुई रा धा स्व आ मी चरन दुलारी॥५।।

 (प्रेमबानी-4-शब्द-7- पृ.सं.28,29)*



सूर्य को जल चढ़ाने का अर्थ

  प्रस्तुति - रामरूप यादव  सूर्य को सभी ग्रहों में श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि सभी ग्रह सूर्य के ही चक्कर लगाते है इसलिए सभी ग्रहो में सूर्...