Friday, January 27, 2023

नाभि में तेल

 नाभि शरीर का केंद्र बिंदु होता है। हर रात सोने से पहले अगर आप मात्र दो बूंद तेल भी नाभि में डालते हैं तो सेहत के कई आश्चर्यजनक फायदे मिल सकते हैं।.....


आयुर्वेद से ईलाज....


यह त्वचा, प्रजनन, आंखों और मस्तिष्क के लिए अत्यंत उपयोगी है। आइए जानते हैं नाभि में तेल डालने से क्या और कौन से फायदे मिलते हैं... 

 

नाभि में रोजाना तेल लगाने से फटे हुए होंठ नर्म और गुलाबी हो जाते हैं।

 

इससे आंखों की जलन, खुजली और सूखापन भी ठीक हो जाता है।

 

नाभि में तेल लगाने से शरीर के किसी भी भाग में सूजन की समस्या खत्म हो जाती है। 

 

सरसों का तेल नाभि पर लगाने से घुटने के दर्द में राहत मिलती है।

 

नाभि पर सरसो तेल लगाने से हमारे चेहरे की रंगत बढ़ जाती है, इसलिए आपको रोजाना नाभि पर सरसो तेल लगाना चाहिए।


 

नाभि पर सरसो तेल लगाने से पिंपल्स और दाग-धब्बे ठीक होते है।

 

नाभि पर सरसो तेल लगाने से हमारा पाचन तंत्र भी मजबूत होता है।

 

बादाम का तेल लगाने से त्वचा की रंगत निखर जाती है। 

 

नाभि में तेल लगाने से पेट का दर्द कम होता है। 

 

इससे अपच, फ़ूड पॉइजनिंग, दस्त, मतली जैसी बीमारियों से भी राहत मिलती है। 

 

इस तरह की समस्याओं के लिए पिपरमिंट आइल और जिंजर आइल को किसी अन्य तेल के साथ पतला करके नाभि में लगाना चाहिए। 


 

 अगर आप मुहांसों की समस्या से परेशान हैं तो आपको नीम के तेल को नाभि में लगाना चाहिए। इससे आपके कील-मुहांसे दूर होने लगेंगे। 

 

अगर आपके चेहरे पर कई तरह के दाग की समस्या है तो नीम का तेल नाभि में डालने से ये दाग दूर होंगे। नाभि में लेमन आयल लगाने से भी दाग धब्बे भी दूर होते हैं। 

 

नाभि प्रजनन तंत्र से जुड़ी हुई होती है। इसलिए नाभि में तेल लगाने से प्रजनन क्षमता विकसित होती है। 


 

 कोकोनट या ऑलिव आइल को नाभि में लगाने से महिलाओं के हार्मोन संतुलित होते हैं और गर्भधारण की संभावना बढ़ती है। 

 

नाभि में तेल लगाने से पुरुषों के शरीर में शुक्राणुओं की वृद्धि और सुरक्षा होती है। 

 

माहवारी से संबंधित समस्याओं से आजकल हर दूसरी-तीसरी महिला ग्रस्त मिलती है। अगर पीरियड्स के दौरान ज्यादा दर्द हो तो रूई के फाहे में थोड़ी सी ब्रांडी लगाकर नाभि में लगाने से ये दर्द तुरंत दूर हो जाता है।

Thursday, January 26, 2023

आग का पेट बड़ा है / गुलज़ार




 आग का पेट बड़ा है 

#रात_पश्मीने_की❤️

आग को चाहिए हर लहज़ा चबाने के लिये 

ख़ुश्क करारे पत्ते, 

आग कर लेती है तिनकों में गुजारा लेकिन 

आशियानों को निगलती है निवालों की तरह, 

आग को सब्ज़ हरी टहनियाँ अच्छी नहीं लगती, 

ढूंढती है, कि कहीं सूखे हुये जिस्म मिलें!


उसको जंगल की हवा रास बहुत है फिर भी, 

अब गरीबों की कई बस्तियों पर देखा है हमला करते, 

आग अब मंदिरों-मस्जिद की ग़ज़ा खाती है


लोगों के हाथों में अब आग नहीं- 

आग के हाथों में कुछ लोग हैं अब...

           

                                       ◆गुलज़ार


#रात_पश्मीने_की❤️

Wednesday, January 25, 2023

गया ब्रांच के सत्संगियों (की सक्रियता ) के सूचनार्थ


: मार्चपास्ट  में  केवल  उनको  आना  चाहिए, जो  समय  से  (3.45  बजे) आए  थे।


अगर  आप  लोग  सोचते  हैं  कि  ग्रेशस  हुजूर  को  पता  नहीं  लगता,  तो  उनका  दयालबाग  में  सतसंग  में  रहने  का  कोई  मतलब  

 सूचना :-


इन्द्रधनुषी रंगों में लिपटी हुई , वसंतागम 2023 की यह मधु बेला अकेले नहीं अपितु गणतंत्र दिवस को भी साथ - साथ लाई है | इस दोगुनी खुशी में सारा सतसंग - जगत खुशी से झूम रहा है जो , प्रातः भोरे आरती के पश्चात दोबारा सतसंग - स्थल पर आने के लिए उत्सुक रहेगें ( प्रीति भोज के प्रसाद के साथ ) |

इस पावन घड़ी में गणतंत्र दिवस का समारोह कहीं पीछे न छूट जाय , इसलिये इस बार झन्‍डोत्‍तोलन का समय 10:30 बजे सुबह रखा गया है |

अतः , दयाल गृह निर्माण समिति के सभी मेम्बरों , कालोनी निवासियों , तथा सभी भाई बहनों को इस स्‍वणिॅम झन्‍डोत्‍तोलन में भाग लेने हेतु आमंत्रित किया जाता है | अनुरोध है कि आप सभी 26 जनवरी को सुबह 10:30 से पहले सतसंग कालोनी में झन्‍डोत्‍तोलन एवं वसंतोत्सव में  जरुर शामिल होंगे |

{ इन्द्रधनुषी रंग }.       .          

     

रा धा स्व आ मी

       

दयाल गृह निर्माण समिति

        

सतसंग कालोनी , 

गया  बिहार 


 यदि कोई सतसंगी भाई या बहन आज या एक दो दिन में पटना जा रहे हों या पटना से आ रहे हों , तो वे अविलम्ब मुझसे सम्पर्क करें , क्योंकि रिजन से बायोमेट्रीक कार्ड लाने की सेवा है |

रा धा स्व आ मी

9431000151

ब्राॕच सेक्र॓टरी , गया ब्राॕच


 बसंत के मौके पर प्रीति भोज के पैकेट अपने अपने घरों से ले कर आयेंगे |

जोनल सतसंग 29 जनवरी को होगा , इसमें भी प्रीति भोज के पैकेट अपने अपने घरों से ले कर आयेंगे |

जिन लोगों ने जोनल सतसंग के मद में चंदे की राशि लिखवाई थी , परन्तु अभी तक जमा नहीं कर पाये हैं तो वे इसे प्रेमी भाई सपन जी के पास जमा कर देगें |


रा धा स्व आ मी





Friday, January 20, 2023

राम_के_तुलसी 1/ देवेन्द्र सिकरवार

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वटवृक्ष के नीचे एक चबूतरे पर महात्मा अपनी मधुर वाणी से रामकथा गा रहे थे और नीचे बैठे श्रोता उस भावजगत में डूबकर आत्मविभोर थे। 


भीड़ में सबसे पीछे एक असाधारण व्यक्तित्व का पुरुष भी बैठा हुआ था जिसने अपना चेहरा अपनी पगड़ी से ढंका हुआ था लेकिन उसके व्यक्तित्व व विशाल नेत्रों में जाने क्या आकर्षण था कि महात्माजी की दृष्टि उसकी ओर बार-बार जा रही थी। 


सहसा उनकी दृष्टि अभी-अभी आये वृद्ध स्त्री पुरुषों की 

ओर पड़ी जो उन्हें दूर से ही प्रणाम कर वहीं खड़े हो गए। 


महात्मा ने उन्हें इशारे से पास बुलाया। 


"महाराज हम भील हैं, हम भी रामकथा सुनना चाहते हैं।"

 सकुचाते हुये उनके अगुआ वृद्ध ने कहा। 


"तो वहाँ क्यों खड़े हो? समीप आओ वत्स, यहाँ से कथा

 अच्छे से सुनाई देगी।"- महात्मा ने उन्हें आमंत्रित किया। 


सहसा भीड़ में भिनभिनाहट शुरू हो गयी। 


"क्या बात है?" महात्मा ने पूछा


"महाराज जी, यह कोल भील क्या जानें कथा का मर्म? 

अभी कल शराब पीकर उत्पात मचाएंगे और हमारा 

रस भंग होगा।" भीड़ के एक प्रौढ़ व्यक्ति ने कहा। 


लगभग सभी व्यक्ति उससे सहमत प्रतीत हो रहे थे। 


महात्मा के शांत चेहरे पर खिन्नता उभरी परंतु उन्होंने अपनी मधुर, शांत वाणी में कहा, "कैसी बातें करते हो वत्स? क्या भूल गए कि इन कोल भीलों के पूर्वजों ने मेरे राम का साथ उस समय दिया था जब वे भैया लखन लाल के साथ अकेले रह गए थे।" 


"वह ठीक है महाराज लेकिन ये यहाँ बैठेंगे तो यहाँ का वातावरण दूषित होगा और आपने भी तो रामचरित मानस में कोलों, चांडालों आदि को निकृष्ट बताया है।"


"संदर्भरहित व लोक प्रचलित मुहावरों के  आधार पर अनर्गल व्याख्या न करो पुत्र। मेरे राम जिनके साथ चौदह वर्ष रहे उन पुण्यात्माओं के वंशज हैं यह। इनको तो मैं अपने चाम के जूते भी पहनाऊँ तो भी कम हैं  क्योंकि मैं तो राम के दासों का दास हूं जबकि ये तो उनके सहयोगी रहे।" संत के स्वर में आवेश था। 


"अरे, छोड़ो मेरी बात को। कम से कम अपने राजा की ओर तो देखो कि किस तरह वह इन कोल भीलों को भाई की तरह मानता है। कम से कम उससे ही सीखो।" 


लेकिन भीड़ पर कोई असर नहीं हुआ और एक-एक करके लोग सरक गये सिर्फ पीछे वाला असाधारण व्यक्ति अपने स्थान पर विराजमान रहा। 


अप्रभावित संत ने भीलों को बिठाया और 

पुनः परिवेश में रामकथामृत बहने लगा। 


कथा समाप्त हुई। 


भीलों ने जंगली फल कथा में अर्पित किए और खड़े हो गए। 


"कुछ कहना चाहते हो?" 


अगुआ वृद्ध अचकचा गया। 


"जी..वो....हम आपके चरणस्पर्श करना चाहते हैं।" 

हिचकते हुये वृद्ध ने कहा। 


संत की आँखों में आँसू आ गए। 


"मेरे राम के मित्र थे आप लोग और मैं राम का दास। मैं आप लोगों से चरणस्पर्श नहीं करवा सकता...." रुंधे कंठ से संत ने कहा और भील वृद्ध को गले लगा लिया। 


भील अभिभूत थे। 


उनके जाने के बाद संत ने उस व्यक्ति को पास बुलाया। 


"बहुत दुःखी दिखते हो भैया।" 


आगुंतक की आंखें छलछला आईं और उसका सिर झुक गया। 


"मेरे देश पर मुगलों ने कब्जा कर लिया है और अब कोई आशा नहीं बची है।" आगुंतक ने निराश स्वर में कहा। 


"जब तक महाराणा प्रताप जीवित हैं तब तक निराशा की कोई बात नहीं।" संत के स्वर में गर्जना थी। 


आगन्तुक की आंखों से आँसू बह निकले... 

और वह संत के चरणों को पकड़कर बैठ गया। 


"मैं ही वह अभागा प्रताप ही हूँ, गोस्वामी जी।" 

आगुन्तक ने टूटे ढहते स्वर में मुँह पर से वस्त्र हटाते हुए कहा। 


उस युग के दो अप्रतिम व्यक्तित्व एक दूसरे के 

आमने सामने थे- 


'महाराणा प्रताप और गोस्वामी तुलसीदास"


एक राम का रक्त वंशज और एक राम का अनन्य भक्त। 


गोस्वामीजी की आंखों में आश्चर्य के भाव उभरे और 

कंधों से पकड़कर महाराणा को उठाया,


"ये कैसा अनर्थ करते हैं राणाजी? मेरे राम का रक्त जिसकी धमनियों में दौड़ रहा है उसे यह कातरता शोभा नहीं देती।" 


"पर मैं नितांत अकेला रह गया हूँ गोस्वामीजी।" 


"क्या मेरे राम वन में अकेले नहीं थे? पर क्या उन्होंने सीता मैया को ढूंढने से हार मान ली थी?" 


"तुम कहते हो कि अकेले हो तो राम की राह क्यों नहीं चलते?" 


महाराणा की आँखों में प्रश्न था..........????


"प्रभु राम ने रावण से युद्ध किसके साथ मिलकर किया था?"

 मुस्कुराते हुए तुलसी ने पूछा। 


"वानरों के साथ।" 


"तो पहचानिये अपने वानरों को, हनुमानों को। ये वनवासी भील आपके लिए वही वानर हैं।" ओजस्वी स्वर में उन्होंने कहा। 


"मैंने स्वयं देखा है कि इन कोल भीलों के मन में तुम्हारे लिए कितना सम्मान है। तुमने ही तो कहा था न कि राणी जाया भीली जाया भाई-भाई!" 


महाराणा की बुझी हुई आंखों में चमक उभरने लगी। 


"इन भीलों को, इन वनों को ही अपनी शक्ति बनाओ राणा जी। मेरे राम सब मंगल करेंगे।" 

संत ने आशीर्वाद दिया। 


हिंदू स्वतंत्रता का सूर्य अपने पूरे तेज से महाराणा प्रताप की आंखों में दमक उठा। 


देवेन्द्र सिकरवार 

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Friday, January 13, 2023

रवि अरोड़ा की नजर से......

 बात केवल इस्कॉन की नहीं है 


रवि अरोड़ा की रवि नजर से...... 


मेरे कुछ मित्र अक्सर वृंदावन जाते हैं मगर बांके बिहारी के मन्दिर नहीं वरन इस्कॉन के कृष्ण बलराम मन्दिर के दर्शन करके ही लौट आते हैं। उनकी सलाह पर मैं भी दो-चार बार वहां हो आया हूं । भारतीय मंदिर और अमेरिकी संस्था के इस मन्दिर में अंतर साफ नजर आता है। बांके बिहारी मन्दिर में बेतहाशा भीड़ के चलते मंदिर परिसर में घुसना ही इतना मशक्कत भरा होता है कि अच्छे अच्छों का दम निकल जाए । कब भीड़ आपको धकेल कर कहां पहुंचा दे, कहा नहीं जा सकता । मन्दिर के बाहर न तो जूते चप्पल रखने की जगह मिलती है और न ही हाथ मुंह धोने को पानी। पार्किंग अथवा कायदे से चाय नाश्ते की तो कल्पना ही फजूल है। हां मंदिर के किसी गोंसाई से परिचय है तो जो चाहो सुविधा पा लो। चाहे तो बांके बिहारी की आरती कर लो या श्रृंगार। स्वयं प्रसाद चढ़ा लो अथवा भोग लगा लो । उधर, इस्कॉन मंदिर में सब कुछ प्राइवेट सेक्टर की किसी कंपनी जैसा है- व्यवस्थित। 


इस्कॉन के हालांकि दुनिया भर में हजार से अधिक मंदिर हैं और आधे से अधिक भारत में ही हैं मगर वृंदवान का मंदिर देश का पहला इस्कॉन मंदिर है। बावजूद इसके यह वर्तमान की तमाम जरूरी सुविधाओं से सुसज्जित है। मुफ्त पार्किंग, जूते रखने को टोकन व्यवस्था, प्रसाद में खिचड़ी का डोना, हरे रामा हरे कृष्णा की स्वर लहरियां और विशाल परिसर में नृत्य करते भक्त लोग मन मोह लेते हैं। हालांकि ऐसे किस्से सुनते हुए ही मैं बड़ा हुआ हूं कि इस्कॉन विदेशी संस्था है और यहां से धन लूट कर बाहर भेजती है और इसका मुख्य उद्देश्य धर्मांतरण है वगैरह वगैरह ।  वाट्स एप यूनिवर्सिटी का यह ज्ञान भी हवाओं में तैरता रहता है कि कॉलगेट कंपनी जितना पैसा साल भर में विदेश भेजती है उससे तीन गुना अधिक पैसा अकेला इस्कॉन का बंगलुरू मंदिर भेज देता है। बेशक ऐसी खबरें किसी भी देश प्रेमी को विचलित करती हैं मगर फिर भी सवाल मन में आता है कि क्या हमारी सरकार बेवकूफ है, क्या उसे नहीं दिखता होगा यह सब ? माना आज की मोदी सरकार हिंदू भावनाओं से ओतप्रोत है और किसी मंदिर के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर सकती मगर इस्कॉन तो साल 1966 से भारत में सक्रिय है और उसके मंदिरों की संख्या तब से ही लगातर बढ़ती जा रही है और इस दौरान हर विचारधारा की पार्टी सत्ता में आ चुकी है । तब क्यों आज तक उस पर कार्रवाई तो दूर कोई जांच तक नहीं हुई ? चलिए एक बार को मान लेते हैं कि इस्कॉन पर लगे सभी आरोप सही हैं और इसके नाम पर कोई बड़ा ' खेल ' हो रहा है मगर फिर भी एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि इन इस्कॉन वालों ने हमें सिखा तो दिया है कि मंदिरों का संचालन कैसे किया जाता है। बता दिया है कि कैसे मंदिर आगमन आनंददायी हो और वहां आकर भक्त श्रद्धा भाव से पुलकित होकर लौटे। क्या देश के तमाम बड़े भारतीय मंदिरों की प्रबंध कमेटियों को इस्कॉन से कुछ सीखना नहीं चाहिए ? बेशक दर्शनाभिलाषी भक्त को ग्राहक न माना जाए मगर फिर भी उसके साथ भेड़ बकरी जैसा व्यवहार भी तो न हो । अब आप कह सकते हैं कि अव्यवस्था के बावजूद जब तमाम मंदिर ठसाठस भरे हैं तब मंदिर प्रबंधक खुद को क्यों बदलना चाहेंगे ? आपके इस सवाल का हालांकि मेरे पास कोई उचित जवाब नहीं है मगर फिर लगता है कि आज नहीं तो कल बदलना तो पड़ेगा । सुविधाओं की आदी आज की युवा पीढ़ी को यदि अपने मंदिर के भीतर बुलाना है तो कुछ जतन तो करना ही पड़ेगा जी । सरकार तो केवल कॉरिडोर बना सकती है। अपने पर काम तो ख़ुद करना पड़ेगा वरना देखते रहना पैसा और भक्त सब इस्कॉन जैसे लोग ले जाएंगे।

 *रा धा स्व आ मी!                                    


   08-01-23-(9-1-23)-आज सुबह सतसंग में दोबारा पढ़ा गया बचन-कल से आगे:-(14.3.31-सनीचर)


-बरसात के दिनों में सतसंग के वक़्त जगह की किल्लत" की वजह से सबको सख़्त तकलीफ़ पहुँचती रही है आज एक तख़मीना" मंजूर किया गया जिससे 90 फ़ीट लम्बा और 50 फ़ीट चौड़ा टिन का शेड मौजूदा प्लेटफार्म पर डाला जा सकेगा। इस शेड की छत हस्बे मरजी खोली जा सकेगी। और लागत अन्दाजन" दस हजार रुपया होगी। उम्मीद है कि इस शेड से कुछ अरसा आराम से काम चल जावेगा मेरी दिली आरजू तो यह रही है और अब भी है कि एक नफीस सतसंग हाल स्वामीबाग़ में बने लेकिन स्वामीबाग का मामला अभी दूसरों के हाथ है इसलिये सरेदस्त टिन शेड ही गनीमत है।                                                               आज रात को सतसंग में बयान हुआ कि दुनिया के सामान हासिल करने के लिये जीव उम्र भर हाथ पांव मारते हैं सामान बड़ी मुश्किल से हाथ आते हैं बीमारी व बुढ़ापा आने से सामान बेकार हो जाते हैं। हर वक़्त चोर डाकू व जानवरों से नुक़सान होने का अंदेशा लगा रहता है मौत के वक़्त उनकी मोहब्बत सख्त तकलीफ़ का बाइस बन जाती है। दुनिया के सामान के भोग से जो सुख प्राप्त होता है उससे कहीं बढ़कर आनन्द आत्मदर्शन में है फिर क्यों न हम लोग आत्मदर्शन के लिये जतन करें ? यह दुरुस्त है कि आत्मदर्शन की प्राप्ति इतनी आसान नहीं है। लेकिन सुरत के छठे चक्र पर एकत्र होने से जो रस प्राप्त होता है उसके मुक़ाबले इस दुनिया के सभी भोग रस हेच' हैं। रा धा स्व आ मी मत के साधन करने से इस क़दर गति बआसानी प्राप्त हो सकती है। इस अन्तरी आनन्द को न चोर चुरा सकता है न डाकू छीन सकता है। बीमारी बुढ़ापा उसके भोग में किसी तरह मुज़ाहिम नहीं हो सकते। मौत के वक़्त उसके लुत्फ़ की कोई इन्तिहा ही नहीं रहती क्योंकि मौत के वक़्त सुरत खुद ही छठे चक्र की जानिब सिमटती है। इसके बाद मैंने उपनिषद के एक मंत्र का हवाला देकर बतलाया कि जैसे तिलों के अन्दर तेल छिपा है, दही के अन्दर घी, जमीन के नीचे पानी और लकड़ियों में आग। ऐसे ही आत्मा इन्सान के शरीर के अन्दर छिपा है। जो संजीदगी" व सच्चाई के साथ अपने अन्दर में पिलता है अपने घट का मंथन करता है, अन्तर में कुदाली चलाता है और नाम की रगड़ लगाता है वही आत्मदर्शन का लुत्फ़" उठाता है।                                                               🙏🏻रा धा स्व आ मी🙏🏻 रोजाना वाकिआत-परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज!*

Friday, January 6, 2023

पिता के नाम से नहीं , माँ के नाम से चलती है उपनिषद्-परम्परा ~~~~~~~~~~~~~~ सब जानते हैं कि उपनिषदों में सत्यकाम की पहचान उसकी माँ जाबाल से है, और इसीलिये वे सत्यकाम जाबाल कहलाए। मैंने अभी बृहदारण्यकोपनिषद् का पारायण करते हुए यह पाया, कि उपनिषदों में केवल सत्यकाम ही नहीं, प्राय: वैदिक ऋषियों की पहचान उनकी माँ से ही बताई गई है। बृहदारण्यकोपनिषद के अंतिम अध्याय के अंतिम ब्राह्मण में जहाँ ऋषियों के वंश का वर्णन है, वहाँ स्पष्ट रूप से पौतिमाषीपुत्र, कात्यायनीपुत्र, गौतमीपुत्र, भारद्वाजीपुत्र, औपस्वतीपुत्र, पाराशरीपुत्र कौशिकीपुत्र, आलम्बीपुत्र, वैयाघ्रपदीपुत्र।कापीपुत्र, वात्सीपुत्र, जायन्तीपुत्र, कार्कशेयीपुत्र, शाण्डिलीपुत्र इत्यादि ऋषियों की विस्तृत शृंखला की पहचान माँ के द्वारा बताई गई है, पिता के द्वारा नहीं। शांकरभाष्य में आचार्य शंकर लिखते हैं 'स्त्रीप्राधान्याद्गुणवान् पुत्रो भवतीति प्रस्तुतम्। अत: स्त्रीविशेषेणेनैव पुत्रविशेषणादाचार्यपरम्परा कीर्त्यते।' अर्थात् स्त्री की प्रधानता होने से गुणवान् पुत्र होता है -ऐसा प्रसंग है।अतः स्त्रीविशेषण से ही पुत्र का विशेषण देकरआचार्य-परम्परा का उल्लेख किया जाता है। ✍🏻मुरलीधर चाँदनीवाला विदेशी इतिहास की तुलना में अगर भारतीय मंदिर स्थापत्य को देखें तो एक अनोखी सी चीज़ आपको ना चाहते हुए भी नजर आ जायेगी | आप जिस भी प्रसिद्ध मंदिर का नाम लेंगे, पूरी संभावना है की उसका पुनःनिर्माण रानी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया होगा | दिल्ली के कालकाजी मंदिर से काशी के ज्ञानवापी तक कई इस्लामिक आक्रमणकारियों के तुड़वाए मंदिरों के जीर्णोद्धार का श्रेय उन्हें ही जाता है | इसी क्रम को थोड़ा और आगे बढ़ा कर अगर ये ढूँढने निकलें की जीर्णोद्धार तो चलो रानी ने करवाया, बनवाया किसने था ? तो हुज़ूर आपको आसानी से राजवंश का नाम मिलेगा | थोड़ा और अड़ जायेंगे तो पता चलेगा कि ज्यादातर को बनवाया भी रानियों ने ही था | कईयों के शिलालेख बताते हैं कि किस रानी ने बनवाया | धूर्तता की अपनी परंपरा को कायम रखते हुए इतिहासकार का वेष धरे उपन्यासकार ये तथ्य छुपा ले जाते हैं | काफी लम्बे समय तक भारत मे परिचय के लिए माँ का नाम ही इस्तेमाल होता रहा है | उत्तर भारत से ये पहले हटा, दक्षिण में अब भी कहीं कहीं दिखता है | पिता के नाम से परिचय देने की ये नयी परिपाटी शायद इस्लामिक हमलों के बाद शुरू हुई होगी | अक्सर बचपन में जो लोग “नंदन” पढ़ते रहे हैं उसका “नंदन” भी अर्थ के हिसाब से यही है | नामों मे “यशोदा नंदन”, “देवकीनंदन”, भारतीय संस्कृति मे कभी अजीब नहीं लगा | हाँ इसमें कुछ कपटी कॉमरेड आपत्ति जताएंगे कि ये तो पौराणिक नाम हैं, सामाजिक व्यवस्था से इनका कोई लेना देना नहीं | ये भी छल का एक अच्छा तरीका है | ये आसान तरीका इस्तेमाल इसलिए हो पाता है क्योंकि भारत का इतिहास हजारों साल लम्बा है | दो सौ- चार सौ, या हज़ार साल वालों के लिए जहाँ हर राजा का नाम लेना, याद रखना आसान हो जाता है वहीँ भारत ज्यादा से ज्यादा एक राजवंश को याद रखता है, हर राजा का नाम याद रखना मुमकिन ही नहीं होता | भारत के आंध्र प्रदेश पर दो हज़ार साल पहले सातवाहन राजवंश का शासन था | इनके राजाओं के नामों मे ये परंपरा बड़ी आसानी से दिखती है | सातवाहन राजवंश का नाम सुना हुआ होता है, और इसके राजा शतकर्णी का नाम भी यदा कदा सुनाई दे जाता है | कभी पता कीजिये शतकर्णी का पूरा नाम क्या था ? अब मालूम होगा कि शतकर्णी नामधारी एक से ज्यादा थे | अलग अलग के परिचय के लिए “कोचिपुत्र शतकर्णी”, “गौतमीपुत्र शतकर्णी” जैसे नाम सिक्कों पर मिलते हैं | एक “वाशिष्ठीपुत्र शतकर्णी” भी मिलते हैं | ये लोग लगभग पूरे महाराष्ट्र के इलाके पर राज करते थे जो कि व्यापारिक मार्ग था | इसलिए इन नामों से जारी उनके सिक्के भारी मात्रा मे मिलते हैं | कण्व वंश के कमजोर पड़ने पर कभी सतवाहनों का उदय हुआ था | भरूच और सोपोर के रास्ते इनका रोमन साम्राज्य से व्यापारिक सम्बन्ध था | पहली शताब्दी के इनके सिक्के एक दुसरे कारण से भी महत्वपूर्ण होते हैं | शक्तिशाली हो रहे पहले शतकर्णी ने “महारथी” राजकुमारी नागनिका से विवाह किया था | नानेघाट पर एक गुफा के लेख मे इसपर लम्बी चर्चा है | महारथी नागनिका और शतकर्णी के करीब पूरे महाराष्ट्र पर शासन का जिक्र भी आता है | दुनियां मे पहली रानी, जिनका अपना सिक्का चलता था वो यही महारथी नागनिका थीं | ईसा पूर्व से कभी पहली शताब्दी के बीच के उनके सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में, सिक्कों के बीचो बीच “नागनिका” लिखा हुआ होता है | उनके पति को विभिन्न शिलालेख “दक्षिण-प्रजापति” बताते हैं | चूँकि शिलालेख, गुफाओं के लेख कई हैं, इसलिए इस साक्ष्य को नकारना बिलकुल नामुमकिन भी हो जाता है | मर्दवादी सोच होने की वजह से शायद “महारथी” नागनिका का नाम लिखते तथाकथित इतिहासकारों को शर्म आई होगी | बाकी अगर पूछने निकलें कि विश्व मे सबसे पहली सिक्कों पर नाम वाली रानी का नाम आपने किताबों मे क्यों नहीं डाला ? तो एक बार किराये की कलमों की जेब भी टटोल लीजियेगा, संभावना है कि “विक्टोरिया” के सिक्के निकाल आयें ! ✍🏻आनन्द कुमार ऋग्वेद मे ही कई महिला विद्वानो, शिक्षिकाओ का जिक्र है इनके लिखे मंत्र है। लोपामुद्रा, गार्गी, घोषा, मैत्रेय आदि इनमे मुख्य है। आनन्दी गोपाल जोशी 1865 मे पैदा हुई MD डाक्टर थी। कादम्बनी गांगुली 1861 मे पैदा हुई MBBS डाक्टर थी। चंद्रमुखी वसु को 1882 मे ग्रेजुएट डिग्री मिली थी। सरोजनी (चटोपाध्याय) नायडू born 1879 सुप्रसिद्ध कवित्री थी। 1947 मे सयुक्त प्रांत ( अब UP) की गवर्नर थी। आजादी की लडाई मे भाग लेने वानी अनोको अनगिनत पढी लिखी महिलाये है जिनमे भीखाजी कामा रूस्तम, प्रितिला वाड्डेदार, विजयालक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर, अरूणा आसिफ अली, सुचेता कृपलानी, मुत्थुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख, कैप्टिन लक्ष्मी सहगल आदि और जाने कितनी ही अनगिनत है। सरला (शर्मा) ठकराल 1936 मे विमान पायलेट का थी। जाॅन बेथुन ने 1849 मे कोलकाता मे पहले केवल महिलाओ के लिये कालेज की स्थापना की थी। 1916 मे मुम्बई मे पहली महिला यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी जिसके तीन कैम्पस थे। और अनेक महिला कालेज इससे सम्बधित भी हुई। पंडिता रमाबाई को शिक्षा और समाज सेवा के क्षेत्र मे योगदान के लिये ब्रिटिश सरकार द्वारा 1919 मे केसरी ए हिन्दी मेडल दिया गया था। 6 फरवरी 1932 को बीना दास ने कन्वोकेशन मे डिग्री लेते समय ही गवर्नर को गोली मारी थी। इसके अलावा अंग्रेजी समय और मध्य काल मे भी विभिन्न रियसतो और राज्यो की शासक महिलाये हुई है। जिन्होने सेना की कमान भी सभाली और विभिन्न युद्धो मे भाग भी लिया। संविधान बनने के समय मे संविधान सभा मे भी अनेको पढी लिखी महिला मेम्बर भी थी। जिनमे कि हंसा मेहता ने हिन्दू कोड बिल सदन मे रखते ही अम्बेडकर को महिलाओ के प्रति दुराग्रह और बिल मे कमियो को लेकर लताड भी लगाई थी। फिर भी कुछ आधे पढे लिखे विद्वान इस तरह का दावा करते फिरते है मानो 1950 से पहले इस देश मे कोई पढी लिखी स्त्री नही थी। । जबकि 1951 की जनगणना मे इस देश मे साक्षर लोगो की संख्या ही 15% थी। मतलब की पढे लिखे लोग 1951 तक 4-5% से अधिक नही थे। महिलाये ही नही पूरे देश मे पढे लिखे लोगो की कुल संख्या ही बहुत कम थी। इन लोगो ने हर जगह गलत जानकारी का भरमार लगाया हुआ है ✍🏻अजातशत्रु अब कुछ वैदिक ऋषिकाओं के बारे में बात करते हैं - सुलभा वैदिक काल की एक ब्रह्मवादिनी ऋषिका जो महाभारत के अनुसार संन्यासिनी कुमारी थीं और योगधर्म के अनुष्ठान द्वारा सिद्धि प्राप्त कर अकेली ही पृथ्वी पर विचरती थीं। शांतिपर्व में उल्लेख है। इन्होंने त्रिदण्डी संन्यासियों के मुख से मोक्षतत्त्व के ज्ञान के विषय में मिथिला के राजा जनक की प्रशंसा सुनी और उनके दर्शनों के लिए संकल्प लिया। योगबल से अपना पहला शरीर त्याग कर दूसरा परम सुन्दर रूप धारण किया और पल भर में मिथिला पहुँच गईं। वहाँ भिक्षाटन के बहाने जनक के दर्शन किये। जनक ने स्वागत-सत्कार के साथ प्रचुर अन्न देकर इनकी अभ्यर्थना की। ये योगबल से राजा की बुद्धि में प्रविष्ट हो गईं और उनके मन को बाँध लिया। फिर एक ही शरीर में रहकर राजा और सुलभा का संवाद प्रारम्भ हुआ। राजा ने अनुचित वचनों से तिरस्कार किया पर विचलित न होकर सुलभा ने विद्वत्तापूर्ण भाषण द्वारा राजा को समुचित उत्तर देते हुए बताया कि वे राजर्षिप्रधान कुल में उत्पन्न हुईं क्षत्रिय कन्या हैं और अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करती हुईं सदा धर्म में स्थित रहती हैं। विश्ववारा अत्रि गोत्र की एक ऋषिका, जिन्होंने ऋग्वेद के पाँचवे मण्डल की कुछ ऋचाओं का प्रणयन किया। इनके संबंध में अन्य कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती । वे ऋचाएँ ही परिचय हैं। सुमंगली ऋग्वेद के दसवें मण्डल का 85 वाँ सूक्त ऋषिका कवयित्री सूर्या द्वारा रचित कहा गया है। त्रिष्टुप् छन्द में रचित इस सूक्त में अनेक ऋचाएँ हैं, कुछ सोम को लेकर गूढ़ प्रतीकात्मक भाषा में, कुछ विवाह- दाम्पत्य गार्हस्थ्य को लेकर सरल और भावपूर्ण भाषा में भी। गार्गी वाचक्नवी ये प्रसिद्ध ऋषिका थीं। वचक्नु ऋषि की कन्या होने के कारण वाचक्नवी यह उपाधि नाम के साथ जुड़ी। बृहदा. में इनके प्रसंग आते हैं। अत्यंत ब्रह्मनिष्ठ थीं और परमहंस की तरह विचरण किया करती थीं। देवराति जनक की सभा में इनका याज्ञवल्क्य से वाद हुआ था। ऋग्वेदियों के ब्रह्मयज्ञांग तर्पण में इनका नाम आता है। ✍🏻भृगुनन्दन

 पिता के नाम से नहीं , 

माँ के नाम से चलती है

 उपनिषद्-परम्परा

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सब जानते हैं कि उपनिषदों में सत्यकाम की पहचान उसकी माँ जाबाल से है, और इसीलिये वे  सत्यकाम जाबाल कहलाए। मैंने अभी बृहदारण्यकोपनिषद् का पारायण करते हुए यह पाया, कि उपनिषदों में केवल सत्यकाम ही नहीं, प्राय: वैदिक ऋषियों  की पहचान उनकी माँ से ही बताई गई है। बृहदारण्यकोपनिषद के अंतिम अध्याय के अंतिम ब्राह्मण में जहाँ ऋषियों  के वंश का वर्णन है, वहाँ स्पष्ट रूप से पौतिमाषीपुत्र, कात्यायनीपुत्र, गौतमीपुत्र, भारद्वाजीपुत्र, औपस्वतीपुत्र, पाराशरीपुत्र कौशिकीपुत्र, आलम्बीपुत्र, वैयाघ्रपदीपुत्र।कापीपुत्र, वात्सीपुत्र, जायन्तीपुत्र, कार्कशेयीपुत्र, शाण्डिलीपुत्र इत्यादि ऋषियों की विस्तृत शृंखला की पहचान माँ के द्वारा बताई गई है, पिता के द्वारा नहीं।


शांकरभाष्य में आचार्य शंकर लिखते हैं 'स्त्रीप्राधान्याद्गुणवान् पुत्रो भवतीति प्रस्तुतम्। अत: स्त्रीविशेषेणेनैव पुत्रविशेषणादाचार्यपरम्परा कीर्त्यते।' अर्थात् स्त्री की प्रधानता होने से गुणवान् पुत्र होता है -ऐसा प्रसंग है।अतः स्त्रीविशेषण से ही पुत्र का विशेषण देकरआचार्य-परम्परा का उल्लेख किया जाता है।

✍🏻मुरलीधर चाँदनीवाला 


विदेशी इतिहास की तुलना में अगर भारतीय मंदिर स्थापत्य को देखें तो एक अनोखी सी चीज़ आपको ना चाहते हुए भी नजर आ जायेगी | आप जिस भी प्रसिद्ध मंदिर का नाम लेंगे, पूरी संभावना है की उसका पुनःनिर्माण रानी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया होगा | दिल्ली के कालकाजी मंदिर से काशी के ज्ञानवापी तक कई इस्लामिक आक्रमणकारियों के तुड़वाए मंदिरों के जीर्णोद्धार का श्रेय उन्हें ही जाता है |


इसी क्रम को थोड़ा और आगे बढ़ा कर अगर ये ढूँढने निकलें की जीर्णोद्धार तो चलो रानी ने करवाया, बनवाया किसने था ? तो हुज़ूर आपको आसानी से राजवंश का नाम मिलेगा | थोड़ा और अड़ जायेंगे तो पता चलेगा कि ज्यादातर को बनवाया भी रानियों ने ही था | कईयों के शिलालेख बताते हैं कि किस रानी ने बनवाया | धूर्तता की अपनी परंपरा को कायम रखते हुए इतिहासकार का वेष धरे उपन्यासकार ये तथ्य छुपा ले जाते हैं |


काफी लम्बे समय तक भारत मे परिचय के लिए माँ का नाम ही इस्तेमाल होता रहा है | उत्तर भारत से ये पहले हटा, दक्षिण में अब भी कहीं कहीं दिखता है | पिता के नाम से परिचय देने की ये नयी परिपाटी शायद इस्लामिक हमलों के बाद शुरू हुई होगी | अक्सर बचपन में जो लोग “नंदन” पढ़ते रहे हैं उसका “नंदन” भी अर्थ के हिसाब से यही है | नामों मे “यशोदा नंदन”, “देवकीनंदन”, भारतीय संस्कृति मे कभी अजीब नहीं लगा | हाँ इसमें कुछ कपटी कॉमरेड आपत्ति जताएंगे कि ये तो पौराणिक नाम हैं, सामाजिक व्यवस्था से इनका कोई लेना देना नहीं |


ये भी छल का एक अच्छा तरीका है | ये आसान तरीका इस्तेमाल इसलिए हो पाता है क्योंकि भारत का इतिहास हजारों साल लम्बा है | दो सौ- चार सौ, या हज़ार साल वालों के लिए जहाँ हर राजा का नाम लेना, याद रखना आसान हो जाता है वहीँ भारत ज्यादा से ज्यादा एक राजवंश को याद रखता है, हर राजा का नाम याद रखना मुमकिन ही नहीं होता | भारत के आंध्र प्रदेश पर दो हज़ार साल पहले सातवाहन राजवंश का शासन था | इनके राजाओं के नामों मे ये परंपरा बड़ी आसानी से दिखती है |


सातवाहन राजवंश का नाम सुना हुआ होता है, और इसके राजा शतकर्णी का नाम भी यदा कदा सुनाई दे जाता है | कभी पता कीजिये शतकर्णी का पूरा नाम क्या था ? अOब मालूम होगा कि शतकर्णी नामधारी एक से ज्यादा थे | अलग अलग के परिचय के लिए “कोचिपुत्र शतकर्णी”, “गौतमीपुत्र शतकर्णी” जैसे नाम सिक्कों पर मिलते हैं | एक “वाशिष्ठीपुत्र शतकर्णी” भी मिलते हैं | ये लोग लगभग पूरे महाराष्ट्र के इलाके पर राज करते थे जो कि व्यापारिक मार्ग था | इसलिए इन नामों से जारी उनके सिक्के भारी मात्रा मे मिलते हैं |


कण्व वंश के कमजोर पड़ने पर कभी सतवाहनों का उदय हुआ था | भरूच और सोपोर के रास्ते इनका रोमन साम्राज्य से व्यापारिक सम्बन्ध था | पहली शताब्दी के इनके सिक्के एक दुसरे कारण से भी महत्वपूर्ण होते हैं | शक्तिशाली हो रहे पहले शतकर्णी ने “महारथी” राजकुमारी नागनिका से विवाह किया था | नानेघाट पर एक गुफा के लेख मे इसपर लम्बी चर्चा है | महारथी नागनिका और शतकर्णी के करीब पूरे महाराष्ट्र पर शासन का जिक्र भी आता है |


दुनियां मे पहली रानी, जिनका अपना सिक्का चलता था वो यही महारथी नागनिका थीं | ईसा पूर्व से कभी पहली शताब्दी के बीच के उनके सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में, सिक्कों के बीचो बीच “नागनिका” लिखा हुआ होता है | उनके पति को विभिन्न शिलालेख “दक्षिण-प्रजापति” बताते हैं | चूँकि शिलालेख, गुफाओं के लेख कई हैं, इसलिए इस साक्ष्य को नकारना बिलकुल नामुमकिन भी हो जाता है | मर्दवादी सोच होने की वजह से शायद “महारथी” नागनिका का नाम लिखते तथाकथित इतिहासकारों को शर्म आई होगी |


बाकी अगर पूछने निकलें कि विश्व मे सबसे पहली सिक्कों पर नाम वाली रानी का नाम आपने किताबों मे क्यों नहीं डाला ? तो एक बार किराये की कलमों की जेब भी टटोल लीजियेगा, संभावना है कि “विक्टोरिया” के सिक्के निकाल आयें !

✍🏻आनन्द कुमार 


ऋग्वेद मे ही कई महिला विद्वानो, शिक्षिकाओ का जिक्र है इनके लिखे मंत्र है। 


लोपामुद्रा, गार्गी,  घोषा, मैत्रेय  आदि इनमे मुख्य है। 


आनन्दी गोपाल जोशी 1865 मे पैदा हुई MD डाक्टर थी।


कादम्बनी गांगुली 1861 मे पैदा हुई MBBS डाक्टर थी।


चंद्रमुखी वसु को 1882 मे ग्रेजुएट डिग्री मिली थी। 


सरोजनी (चटोपाध्याय) नायडू born 1879 सुप्रसिद्ध कवित्री थी। 1947 मे सयुक्त प्रांत ( अब UP) की गवर्नर थी।


आजादी की लडाई मे भाग लेने वानी अनोको अनगिनत पढी लिखी महिलाये है जिनमे भीखाजी कामा रूस्तम,  प्रितिला वाड्डेदार, विजयालक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर,  अरूणा आसिफ अली,  सुचेता कृपलानी, मुत्थुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख, कैप्टिन लक्ष्मी सहगल आदि और जाने कितनी ही अनगिनत है। 


सरला (शर्मा) ठकराल  1936 मे विमान पायलेट का थी।


जाॅन बेथुन ने 1849 मे कोलकाता मे पहले केवल महिलाओ के लिये कालेज की स्थापना की थी।


1916 मे मुम्बई मे पहली महिला यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी जिसके तीन कैम्पस थे। और अनेक महिला कालेज इससे सम्बधित भी हुई।


पंडिता रमाबाई को शिक्षा और समाज सेवा के क्षेत्र मे योगदान के लिये ब्रिटिश सरकार द्वारा 1919 मे केसरी ए हिन्दी मेडल दिया गया था। 


6 फरवरी 1932 को  बीना दास ने कन्वोकेशन मे डिग्री लेते समय ही गवर्नर को गोली मारी थी।


इसके अलावा अंग्रेजी समय और मध्य काल मे भी विभिन्न रियसतो और राज्यो की शासक महिलाये हुई है। जिन्होने सेना की कमान भी सभाली और विभिन्न युद्धो मे भाग भी लिया। 


संविधान बनने के समय मे संविधान सभा मे भी अनेको पढी लिखी महिला मेम्बर भी थी। जिनमे कि हंसा मेहता ने हिन्दू कोड बिल सदन मे रखते ही अम्बेडकर को महिलाओ के प्रति दुराग्रह और बिल मे कमियो को लेकर लताड भी लगाई थी। 


फिर भी कुछ आधे पढे लिखे विद्वान इस तरह का  दावा करते फिरते है मानो 1950 से पहले इस देश मे कोई पढी लिखी स्त्री नही थी। । 


जबकि 1951 की जनगणना मे इस देश मे साक्षर लोगो की संख्या ही 15% थी। मतलब की पढे लिखे लोग  1951 तक 4-5% से अधिक नही थे।  महिलाये  ही नही पूरे देश मे पढे लिखे लोगो की कुल संख्या ही बहुत कम थी। इन लोगो ने हर जगह गलत जानकारी का भरमार लगाया हुआ है

✍🏻अजातशत्रु


अब कुछ वैदिक ऋषिकाओं के बारे में बात करते हैं - 


सुलभा


वैदिक काल की एक ब्रह्मवादिनी ऋषिका जो महाभारत के अनुसार संन्यासिनी कुमारी थीं और योगधर्म के अनुष्ठान द्वारा सिद्धि प्राप्त कर अकेली ही पृथ्वी पर विचरती थीं। शांतिपर्व में उल्लेख है। इन्होंने त्रिदण्डी संन्यासियों के मुख से मोक्षतत्त्व के ज्ञान के विषय में मिथिला के राजा जनक की प्रशंसा सुनी और उनके दर्शनों के लिए संकल्प लिया। योगबल से अपना पहला शरीर त्याग कर दूसरा परम सुन्दर रूप धारण किया और पल भर में मिथिला पहुँच गईं। वहाँ भिक्षाटन के बहाने जनक के दर्शन किये। जनक ने स्वागत-सत्कार के साथ प्रचुर अन्न देकर इनकी

अभ्यर्थना की। ये योगबल से राजा की बुद्धि में प्रविष्ट हो गईं और उनके मन को बाँध लिया। फिर एक ही शरीर में रहकर राजा और सुलभा का संवाद प्रारम्भ हुआ। राजा ने अनुचित वचनों से तिरस्कार किया पर विचलित न होकर सुलभा ने विद्वत्तापूर्ण भाषण द्वारा राजा को समुचित उत्तर देते हुए बताया कि वे राजर्षिप्रधान कुल में उत्पन्न हुईं क्षत्रिय कन्या हैं और अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करती हुईं सदा धर्म में स्थित रहती हैं।


विश्ववारा


अत्रि गोत्र की एक ऋषिका, जिन्होंने ऋग्वेद के पाँचवे मण्डल  की कुछ ऋचाओं का प्रणयन  किया। इनके संबंध में अन्य कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती । वे ऋचाएँ ही परिचय हैं।


सुमंगली


ऋग्वेद के दसवें मण्डल का 85 वाँ सूक्त ऋषिका कवयित्री सूर्या द्वारा रचित कहा गया है। त्रिष्टुप् छन्द में रचित इस सूक्त में अनेक ऋचाएँ हैं, कुछ सोम को लेकर गूढ़ प्रतीकात्मक भाषा में, कुछ विवाह- दाम्पत्य गार्हस्थ्य को लेकर सरल और भावपूर्ण भाषा में भी। 


 गार्गी वाचक्नवी


ये प्रसिद्ध ऋषिका थीं। वचक्नु ऋषि की कन्या होने के कारण वाचक्नवी यह उपाधि नाम के साथ जुड़ी। बृहदा. में इनके प्रसंग आते हैं। अत्यंत ब्रह्मनिष्ठ थीं और परमहंस की तरह विचरण किया करती थीं। देवराति जनक की सभा में इनका याज्ञवल्क्य से वाद हुआ था। ऋग्वेदियों के ब्रह्मयज्ञांग तर्पण में इनका नाम आता है।

✍🏻भृगुनन्दन

गुरु की मौज रहो तुम धार

 


गुरु अनंत गुरु रूप अनंता

गुरु की मौज रहो तुम धार

जरूरी सूचना:-*

 *आज का खेतों में अनाउंसमेंट :*

*


आप लोग दिन मे दो बार *"दही"* के साथ *"इसबगोल"* लें,

 आपकी *सेहत* के लिए अच्छा रहेगा।


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏


Wednesday, January 4, 2023

सतसंग बचन

 *रा धा स्व आ मी!* 

    


*04-01-23-आज शाम   सतसंग  में पढ़ा गया बचन-कल से आगे:-* 



 *(11.3.31-बुध का शेष भाग)* 



*आज सेहपहर एक रजिस्ट्री चिट्ठी बाबू माघोप्रसाद साहब के नाम इलाहाबाद भेजी है। जिसमें लिखा है कि वाइसराय व कांग्रेस के बाहम समझौते का हाल जिसके लिये तमाम हिन्दोस्तान खुशियां मना रहा है आपको मालूम ही होगा हर कोई जानता है कि यह समझौता लन्दन की गोलमेज़ कांफ्रेंस की मेहरबानी से जहूर" में आया। इससे खयाल होता है कि अगर मुख्तलिफ " सतसंगों के अफ़सर बाहम मिलकर बैठें तो निहायत मुमकिन है कि सतसंग मंडली के अन्दर से निफ़ाक़ की सूरत" दूर हो जावे और सब मिलकर नौए-इन्सान की खिदमत  कर सकें। अगर आप इस मामले में ज़रा दिलचस्पी लें तो निहायत आसानी से कांफ्रेंस मुनअक़िद और बारआवर" हो सकती हैं। और यह भी लिखा है कि यह तहरीर भेजने की हिम्मत मैंने इसलिये की है कि मुझे बार बार ख़याल आता है कि आप दिल से सतसंग के अन्दर मेल चाहते हैं। गर्जेकि' देखें क्या जवाब आता है। रा धा स्व आ मी दयाल दया फ़रमा कर सतसंग मंडली के अन्दर से निफ़ाक़ दूर करें।*

 


 *🙏🏻रा धा स्व आ मी🙏🏻*

सूर्य को जल चढ़ाने का अर्थ

  प्रस्तुति - रामरूप यादव  सूर्य को सभी ग्रहों में श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि सभी ग्रह सूर्य के ही चक्कर लगाते है इसलिए सभी ग्रहो में सूर्...