Sunday, October 22, 2023

‼️नेत्रहीन संत‼️*


प्रस्तुति - उषा रानी / राजेंद्र प्रसाद



एक बार एक राजा अपने सहचरों के साथ शिकार खेलने जंगल में गया था वहाँ शिकार के चक्कर में एक दूसरे से बिछड़ गये और एक दूसरे को खोजते हुये राजा एक नेत्रहीन संत की कुटिया में पहुँच कर अपने बिछड़े हुये साथियों के बारे में पूछा।


नेत्र हीन संत ने कहा महाराज सबसे पहले आपके सिपाही गये हैं, बाद में आपके मंत्री गये, अब आप स्वयं पधारे हैं इसी रास्ते से आप आगे जायें तो मुलाकात हो जायगी संत के बताये हुये रास्ते में राजा ने घोड़ा दौड़ाया और जल्दी ही अपने सहयोगियों से जा मिला और नेत्रहीन संत के कथनानुसार ही एक दूसरे से आगे पीछे पहुंचे थे.

यह बात राजा के दिमाग में घर कर गयी कि नेत्रहीन संत को कैसे पता चला कि कौन किस ओहदे वाला जा रहा है लौटते समय राजा अपने अनुचरों को साथ लेकर संत की कुटिया में पहुंच कर संत से प्रश्न किया कि आप नेत्रविहीन होते हुये कैसे जान गये कि कौन जा रहा है, कौन आ रहा है ?


राजा की बात सुन कर नेत्रहीन संत ने कहा महाराज आदमी की हैसियत का ज्ञान नेत्रों से नहीं उसकी बातचीत से होती है सबसे पहले जब आपके सिपाही मेरे पास से गुजरे तब उन्होंने मुझसे पूछा कि ऐ अंधे इधर से किसी के जाते हुये की आहट सुनाई दी क्या ? 

तो मैं समझ गया कि यह संस्कार विहीन व्यक्ति छोटी पदवी वाले सिपाही ही होंगे.

जब आपके मंत्री जी आये तब उन्होंने पूछा बाबा जी इधर से किसी को जाते हुये..... 

तो मैं समझ गया कि यह किसी उच्च ओहदे वाला है, क्योंकि बिना संस्कारित व्यक्ति किसी बड़े पद पर आसीन नहीं होता इसलिये मैंने आपसे कहा कि सिपाहियों के पीछे मंत्री जी गये हैं.


जब आप स्वयं आये तो आपने कहा सूरदास जी महाराज आपको इधर से निकल कर जाने वालों की आहट तो नहीं मिली तो मैं समझ गया कि आप राजा ही हो सकते हैं क्योंकि आपकी वाणी में आदर सूचक शब्दों का समावेश था और दूसरे का आदर वही कर सकता है जिसे दूसरों से आदर प्राप्त होता है क्योंकि जिसे कभी कोई चीज नहीं मिलती तो वह उस वस्तु के गुणों को कैसे जान सकता है!

दूसरी बात यह संसार एक वृक्ष स्वरूप है- जैसे वृक्ष में डालियाँ तो बहुत होती हैं पर जिस डाली में ज्यादा फल लगते हैं वही झुकती है इसी अनुभव के आधार में मैं नेत्रहीन होते हुये भी सिपाहियों, मंत्री और आपके पद का पता बताया अगर गलती हुई हो महाराज तो क्षमा करें.


राजा संत के अनुभव से प्रसन्न हो कर संत की जीवन व्रत्ति का प्रबंन्ध राजकोष से करने का मंत्री जी को आदेशित कर वापस राजमहल आया.


*तात्पर्य:-*


आजकल हमारे परिवार संस्कार विहीन होता जा रहे है थोड़ा सा पद, पैसा व प्रतिष्ठा पाते ही दूसरे की उपेक्षा करते हैं, जो उचित नहीं है मधुर भाषा बोलने में किसी प्रकार का आर्थिक नुकसान नहीं होता है अतः मीठा बोलने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए..


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🪴 _।।जय जय श्री राम।।_  🪴

🪷 _।।हर हर महादेव।।_  🪷.

23 अक्टूबर, शारदीय नवरात्र महानवमी पर विशेष )

 


स्वयं  की जागृति  ही सच्चे अर्थों में नवरात्र है /  विजय केसरी


 नौ दिनों तक माता के नौ रूपों की आराधना महा नवमी के दिन पूर्णाहुति  के बाद नवरात्र संपन्न हो जाता है। माता के नौ रूपों का दर्शन,नौ नूतन संकल्प, नौ  व्याधियों से मुक्ति और  दसों दिशाओं में सुख, समृद्धि की कामना नवरात्र का उद्देश्य है। देवी पुराण के कथन अनुसार, 'स्वयं की जागृति व स्व जागरण ही सच्चे अर्थों में नवरात्र है। आज की बदली परिस्थिति में इस जागृति को समझने की जरूरत है।  बाहरी तौर पर नवरात्र पर हम सब जो कर रहे हैं, यह इसका बाह्य स्वरूप है, इसका आध्यात्मिक स्वरूप है, स्वयं का जागरण । यह आलेख समर्पित है, स्वयं को जागृत करने के संदर्भ में। दुर्गा पूजा नौ दिनों तक चलने वाला एक लोकप्रिय पर्व के रूप में भारत सहित विश्व के कई देशों में बड़े ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है।  दुर्गा पूजा पर घर परिवार के लोग एक साथ जुटते हैं।  वे परिवार के साथ समूह में दुर्गा पूजा पर्व मनाते हैं । इस अवसर पर कई दुर्गा भक्तों के यहां नवरात्र का अनुष्ठान होता है। भक्तगण  बहुत ही विधि विधान के साथ नौ दिनों तक मां के नौ रूपों की पूजा करते हैं।   नौ दिनों तक चलने वाले इस पूजा कार्यक्रम के क्या मायने है ? इस पर विचार करने की जरूरत है।  आखिर नौ दिनों तक यह पूजा क्यों की जाती है ? इस पूजा के पीछे क्या गुढ़ रहस्य है ? यह जानना बहुत ही जरूरी है।

 यह पर्व असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। महिषासुर नामक राक्षस के आतंक से संपूर्ण ब्रह्मांड त्राहिमाम त्राहिमाम कर रहा था।  महिषासुर  स्वयं को ईश्वर ही समझ बैठा था।  महिषासुर इतना ताकतवर बन गया था कि उसे पराजित करने में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु, महेश  त्रिदेव  भी अक्षम हो गए थे।  ब्रह्मा, विष्णु, महेश सहित सभी  देवताओं की आराधना पर माता दुर्गा का प्रकटीकरण हुआ था। मां दुर्गा चाहती तो पलक झपकते ही महिषासुर का सर्वनाश कर सकती थी, लेकिन मां दुर्गा ऐसा ना कर, क्या संदेश देना चाहती हैं ? इस भीषण युद्ध और रक्तपात में करोड़ों जाने चली गई थीं। युद्ध के दौरान  महिषासुर का कई बार दुर्गा मां से सामना भी हुआ था। इसके बावजूद महिषासुर के अंदर के ज्ञान की लौ ना जल  सकी थी। 

अब इस बात को हम सब स्वयं के जीवन के साथ जोड़ कर देखें। समस्त योनियों में मनुष्य की योनी ही सर्वश्रेष्ठ है। हम सब अनंत काल से इस धरा पर जन्म ले रहे हैं और मृत्यु को प्राप्त कर रहे हैं ।‌इस बात को हमारे धर्म ग्रंथों ने भी माना है । अब प्रश्न यह उठता है कि हमारा जन्म बार-बार क्यों इस धरा पर होता रहता है ? इसका उत्तर, हमारे वेद और पुराणों में वर्णित है कि  मनुष्य, मोक्ष प्राप्ति के लिए बार-बार मरता है और जन्म लेता है।  यह क्रम अनंत काल से चला आ रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा।  जिसने स्वयं को जागृत कर लिया, माया के बंधन से स्वयं को मुक्त कर लिया, वह ईश्वर के अंश में समाहित हो गया । अब उसका ना बार-बार जन्म होगा और ना मृत्यु को प्राप्त करेगा । नवरात्र स्वयं को जागृत करने का एक महान पर्व है।  एक साल में तीन सौ पैंसठ दिन होते हैं।

 शारदीय नवरात्र हम लोगों को एक अवसर प्रदान करता है । इन नौ  दिनों में अपने अंदर छुपे असत्य को जाने । सत्य से साक्षात्कार करें । जिस बाह्य दुनिया को हम सबों ने अपना मान लिया है , वास्तव में यह बाह्य दुनिया हम सबों. का  है ही नहीं । यहां हम सब जो भी यश, बल ,शक्ति, वैभव अर्जित करते हैं, कुछ समय के बाद ये सभी विस्मृत कर दिए जाएंगे।  लेकिन हम सबों का इस धरा पर आना और जाना लगातार बना रहेगा।  नवरात्र सच्चे अर्थों में स्वयं को जगाने का ही पर्व है।

  नवरात्र पर हम सभी बाहर बिखरी  उर्जा को स्वयं में समाहित करने का एक अवसर प्रदान करता है।  हम सब माया के बंधन में इस तरह जकड़ चुके हैं कि स्वयं के  सच को जान कर भी अंजान बने हुए हैं। अर्थात स्वयं के ज्ञान पर अज्ञानता की बहुत बड़ी पट्टी बंधी हुई है। जिस दौलत के पीछे हम सब भाग रहे हैं।  क्या उस दौलत की फूटी कौड़ी भी हम ले जा सकते हैं ?  तब फिर यह भागम भाग क्यों ? पूरा जीवन जिस धन को कमाने के पीछे लगा देते हैं ,अंत में उस अर्जित धन का रति भर  भी हम ले नहीं जा सकते हैं । तब फिर इसके पीछे पागल क्यों है ?  यह हमारे अंदर जो अज्ञान है,  मुझे अज्ञानी बनाकर जन्मो जन्म से रखे हुए हैं।  जिस दिन हमारे अंदर छुपा ज्ञान जागृत हो जाएगा, यह सारी दुनिया, धन दौलत सब बेमानी लगने लगेगी। महिषासुर अपार शक्तिशाली होकर भी अज्ञानी था।  हम सब स्वयं को ज्ञानी जरूर कहते है, लेकिन क्या वास्तव में हम सब ज्ञानी हैं ? जिसने ज्ञान को प्राप्त कर लिया, उसके लिए यह संसार नश्वर के समान हो गया। उसके लिए  दुनिया की दौलत भी मिट्टी के समान हो जाती है। 

 भगवान महावीर, जिनका जन्म एक राजघराने में हुआ था। जिस पल  उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उन्होंने अपने महल का त्याग कर दिया था। वे ज्ञान की प्राप्ति के लिए जंगलों की ओर दौड़ पड़े थे। महावीर ने खुद को जागरण कर भगवान बना दिया था । उन्होंने अंधकार में पड़े लाखों लोगों को ज्ञान की रोशनी दिया था।  सिर्फ एक के जागरण से संसार जग सकता है।  तब संसार के जगने से संसार का क्या हाल होगा ? सुखद आनन्द का अनुभव कर मन परम आनंद में डूब जाता है ।  भगवान बुद्ध, जिन्हें राजमहल से निकलने की अनुमति नहीं थी । जब भगवान बुद्ध में ज्ञान का जागरण हुआ था, तब महल और राजघराने के सभी सदस्य उन्हें रोक पाए थे ?  नहीं । उन्होंने  दुनिया में इतिहास ही रच दिया था। स्वयं के जागरण में दुनिया की समस्त ऊर्जा और शक्तियां निहित होती है।  संसार का वैभव और संसार की सारी दौलत भी इस जागरण को पराजित नहीं कर सकता है। नवरात्र,अपनी बिखरी बाहरी शक्ति व  ऊर्जा को पहचानने का पर्व है।‌ नौ  दिनों तक स्वयं के महिषासुर से लड़ने की जरूरत है । हमारे अंदर विद्यमान काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ये पंच विकार,  जिससे आजीवन लड़ते रहते हैं,लेकिन इन पंच विकारों से मुक्त नहीं हो पाते हैं।  उसके पीछे सबसे बड़ा कारण है, हम सब ने बाह्य दुनिया को ही सब कुछ मान लिया है। हम सबों ने बाहर रोशनी जरूर कर दिया है , किन्तु अंदर अंधेरा ही अंधेरा  है।

 अंदर के  प्रकाश को जगाने का पर्व नवरात्र है ।‌ इन नौ दिनों में स्वयं के अंदर की आसुरी शक्तियों को नाश करने का पर्व है।  सत्य को अनुभव करने का पर्व है । सत्य से साक्षात्कार करने का पर्व है । हम सब  नौ  दिनों तक नवरात्र का अनुष्ठान जरूर करते हैं।  दुर्गा सप्तशती का पाठ  करते हैं।  यह अनुष्ठान क्यों है ? यह दुर्गा सप्तशती का पाठ क्यों ?  इस मर्म को जब हम जान जाएंगे, तब मन मस्तिष्क में एक विशेष  आनंद की अनुभूति होगी। यह आनंद की प्राप्ति ही सच्चे अर्थों में नवरात्र है।  आज पूरी दुनिया यश, धन, वैभव और बल के पीछे भाग रही है । जबकि ये यश,शक्ति बल,  और वैभव शाश्वत रहने वाला नहीं है । नवरात्र स्वयं को पहचानने का पर्व है । स्वयं को जानने का पर्व है।  स्वयं से साक्षात्कार करने का पर्व है।‌

 यह शरीर पांच तत्वों के मेल से बना हुआ है । अंत में पांच तत्व अपने-अपने तत्वों में मिल जाते हैं।  एक तत्व, आत्मा तत्व, अजर अमर अविनाशी है।  पूरा जीवन हम सब  इस आत्म शक्ति के साथ जीते हैं। लेकिन इस  आत्म शक्ति को जानने की कभी कोशिश करते नहीं है।  श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण ने रणभूमि में अर्जुन को इसी आत्म साक्षात्कार का ज्ञान दिया था।  सच्चे अर्थों में नवरात्र महाभारत की तरह ही रणभूमि के रूप में हमारे सामने हैं । हम सब अर्जुन की भूमिका में हैं।  मां जगदंबा कृष्ण के रूप में हम सबों को आत्म ज्ञान देने के लिए अवतरित होती है । बस जरूरत है, नवरात्र के इस उद्देश को समझने की।

 जन्मो जन्म से बैठे स्वयं के महिषासुर को परास्त करने का पर्व नवरात्र है। हम सब के ज्ञान रूपी आंखों पर अज्ञानता की जो पट्टी बंधी हुई है, उसे खोलने की जरूरत है । जिस पल इस अंधकार की पट्टी को खोलने का मन बना लिया, समझ लीजिए, स्वयं के अंदर नवरात्र का अनुष्ठान जागृत हो गया । इसके लिए कहीं बाहर भाग दौड़ करने की जरूरत नहीं है, बल्कि स्वयं के अंदर विद्यमान नवरात्र की शक्ति को जगाने की जरूरत है। स्वामी विवेकानंद ने गुरु परमहंस से ज्ञान प्राप्त कर जो परचम लहराया था, वह क्या था ? सच्चे अर्थों में नवरात्र का जागरण ही था। उनका नवरात्र ऐसा जगा था कि जब तक दुनिया कायम रहेगी, स्वामी विवेकानंद के विचार लोगों को प्रेरित करता रहेगा। नवरात्र बाहर बिखरी ऊर्जा को स्वयं में आत्मसात करने का काल है । आंतरिक उर्जा से बड़ी कोई शक्ति नहीं है।  इन नौ दिन रात की अवधि में स्वयं को पहचानने का अवसर मिलता है। जिसने स्वयं को जान लिया ,स्वयं को जागृत कर लिया, नवरात्र हो गया।


विजय केसरी,

( कथाकार स्तंभकार )

पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301,

मोबाइल नंबर :- 92347 99550


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Saturday, October 21, 2023

ओम शब्द


*प्रस्तुति - उषा रानी / राजेंद्र प्रसाद


ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ नाम ‘ओ३म्’ के सम्बन्ध में कुछ प्राथमिक जानकारियां...*



1. *‘ओम्’*  (Om/Aum) ईश्वर (परमात्मा, परमेश्वर, ब्रह्म) का सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम नाम है। ‘ओम्’ का ठीक से उच्चारण हो सके इसलिए उसे *‘ओ३म्’* लिखा जाता है । कई बार लोग ‘ओम्’ को *‘ॐ’* इस  संकेत रूप में भी लिख देते हैं। ‘ओ३म्’ में जो तीन की संख्या *‘३’* का समावेश है उसका तात्पर्य यह दर्शाने का है कि *‘ओ’* का उच्चारण *प्लुत* करना है । *ह्रस्व, दीर्घ* और *प्लुत* – इन तीनों प्रकार से उच्चारण किया जाता है । *ह्रस्व* उच्चारण करने में जितना समय लगता है, इससे दुगना समय *दीर्ध* उच्चारण में और तीन गुना समय *प्लुत* उच्चारण में लगता है, इसलिए *‘ओ३म्’ में ‘ओ’ का प्लुत उच्चारण करना है, यही बताने के लिए ‘ओ’ के पश्चात् ‘३’ संख्या लिखी जाती है।* _(गुजरात में कई बार लोग भूल से 'ओ३म्' का उच्चारण ‘ओरूम्’ करते हैं, क्योंकि गुजराती में *‘रू’* को *‘३’* लिखा जाता है।)_


2. *सत्यार्थप्रकाश* महर्षि दयानन्द का विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में चौदह समुल्लास (अध्याय / प्रकरण) हैं, परन्तु इसके प्रथम ही समुल्लास का आरम्भ *‘ओ३म्’* की व्याख्या से किया गया है। ‘ओ३म्’ को *‘ओंकार शब्द’* भी कह सकते हैं। ‘ओ३म्’ परमेश्वर का सर्वोत्तम, प्रधान अथवा निज नाम है । ‘ओ३म्’ को छोड़कर परमेश्वर के जितने भी अन्य नाम हैं वे सब गौणिक या गौण नाम हैं, मुख्य नाम तो केवल *ओ३म्* ही है। ‘ओ३म्’ नाम केवल और केवल परमात्मा ही का नाम है । परमात्मा से भिन्न किसी अन्य पदार्थ का नाम ‘ओ३म्’ नहीं हो सकता है। यह भिन्न बात है कि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपना या अन्य किसी व्यक्ति या ईश्वरेतर पदार्थ का नाम ‘ओ३म्’ रख लेवें!


3. *अ-उ-म्* - इन तीन अक्षर मिलकर एक ‘ओ३म्’ समुदाय हुआ है। ‘अ’ और ‘उ’ मिलकर *‘ओ’* होता है । ‘ओ’ का *प्लुत* उच्चारण करना है इसलिए इसके आगे *‘३’* लिखा जाता है। इस एक ‘ओ३म्’ नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं – अनेकानेक नामों का समावेश हो जाता है। *अ*-कार विराट्, अग्नि, वायु आदि नामों का; *उ*-कार हिरण्यगर्भ, वायु, तैजस आदि नामों का; और *म*-कार ईश्वर, आदित्य, प्राज्ञ आदि नामों का वाचक और ग्राहक है। वेदादि सत्य शास्त्रों में ‘ओ३म्’ का स्पष्ट व्याख्यान किया गया है। इन शास्त्रों में प्रकरण अनुकूल उपर्युक्त विराट्, अग्नि आदि सब नामों को परमेश्वर ही के नाम बताए गए हैं।  


4. यजुर्वेद के ४०वें अध्याय के १७वें मन्त्र में ‘ओ३म्’ को परमेश्वर का नाम बताते हुए पाठ है – *‘ओं खम्ब्रह्म’*, अर्थात् जिसका नाम ओ३म् है वह आकाशवत् महान् – सर्वव्यापक है । ‘ओ३म्’ का मुख्य अर्थ *‘अवतीत्योम्’* से यह लिया जाता है कि - ईश्वर रक्षा करनेवाला है। ईश्वर का रक्षा करने के गुण का प्रकाश ‘ओम्’ नाम से होता है। ईश्वर सर्वरक्षक है – इस सत्य को ‘ओ३म्’ नाम प्रकट करता है । छान्दोग्य उपनिषद् में कहा है – *_‘ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत’*_ अर्थात् जिसका नाम ‘ओ३म्’ है वह कभी नष्ट नहीं होता है। उसी की उपासना करनी योग्य है, अन्य की नहीं । 


5. कठोपनिषद् (वल्ली २, मन्त्र १५) का मन्त्र – _*“सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति । यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥”*_ बड़ा प्रसिद्ध है। इस मन्त्र में उपनिषत्कार ने इस बात की घोषणा की है कि सब वेद, सब धर्मानुष्ठानरूप तपश्चरण, जिसका कथन और मान्य करते हैं और जिसकी प्राप्ति की इच्छा करके ब्रह्मचर्य आश्रम करते हैं, उसका नाम *‘ओ३म्’* है ।

6. सत्यार्थप्रकाश के सप्तम समुल्लास में महर्षि दयानन्द जी ने ईश्वर की उपासना कैसे करनी चाहिए यह बताते हुए योग के अंगों का वर्णन किया है। वहां उन्होंने लिखा है कि उपासक को नित्य प्रति परमात्मा के ‘ओ३म्’ नाम का अर्थ-विचार और जप करना चाहिए ।  


7. *ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका* ग्रन्थ के उपासना विषयक प्रकरण में महर्षि दयानन्द जी ने योगदर्शन के *‘तस्य वाचकः प्रणवः’* (१.२७) सूत्र की व्याख्या करते हुए लिखा है – _*“जो ईश्वर का ‘ओंकार’ नाम है सो पिता-पुत्र के सम्बन्ध के समान है और यह नाम ईश्वर को छोड़ के दूसरे अर्थ का वाची नहीं हो सकता। ईश्वर के जितने नाम हैं, उनमें से ओंकार सब से उत्तम नाम है।”*_ इसी प्रकरण में महर्षि ने योगदर्शन के अगले *‘तज्जपस्तदर्थभावनम्’* (१.२८) सूत्र को उद्धृत कर इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है – _*“इसलिए इसी ('ओ३म्') नाम का जप अर्थात् स्मरण और उसी का अर्थ-विचार सदा करना चाहिए कि जिससे उपासक का मन एकाग्रता, प्रसन्नता और ज्ञान को यथावत् प्राप्त होकर स्थिर हो।”*_ महर्षि ने अष्टांग योग के दूसरे अंग *नियम* में जिसका निर्देश किया गया है उस ‘स्वाध्याय’ में ‘ओंकार के विचार’ का समावेश किया है । 


8. ‘ओ३म्’ को *‘प्रणव’* कहा जाता है। ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘णु-स्तुतौ’ इस धातु से ‘प्रणव’ शब्द निष्पन्न होता है। इस ‘ओ३म्’ पद के द्वारा ईश्वर की प्रकृष्ट रूप से स्तुति की जाती है, करनी चाहिए – इसीलिए इसे ‘प्रणव’ कहते हैं । ईश्वर के केवल एक ही नाम ‘ओ३म्’ को ‘प्रणव’ कहा जाता है। उसके किसी भी अन्य नाम को ‘प्रणव’ नहीं कहा जाता है। ‘ओ३म्’ को *‘उद्गीथ’* भी कहा जाता है। ‘ओ३म्’ के माध्यम से ईश्वर का उत्तम रूप से गान – स्तुति - ध्यान किया जाता है, इसलिए उसे ‘उद्गीथ’ कहा जाता है। छान्दोग्य उपनिषद् आदि में ‘उद्गीथ-उपासना’ का वर्णन पाया जाता है । 


9. यजुर्वेद के ४०वें अध्याय के १५वें मन्त्र में *‘ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर। कृतं स्मर।’* आया है । इसका भाष्य करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं –  ,*_“हे (क्रतो) कर्म करने वाले जीव! तू शरीर छूटते समय (ओ३म्) इस नाम-वाच्य ईश्वर को (स्मर) स्मरण कर, (क्लिबे) अपने सामर्थ्य के लिए परमात्मा और अपने स्वरूप का (स्मर) स्मरण कर, (कृतम्) अपने किये का (स्मर) स्मरण कर।”_*


10. ईश्वर एक द्रव्य, पदार्थ, वस्तु, सत्ता, नामी या वाच्य है। ‘ओ३म्’ उस ईश्वर का वाचक है, द्योतक है, संज्ञा या नाम है। *ईश्वर अभिधेय है, ‘ओ३म्’ अभिधान है। ईश्वर पदार्थ है, ‘ओ३म्’ पद है।* नाम से नामी का ज्ञान होता है। ‘ओ३म्’ से ईश्वर के स्वरूप की अभिव्यक्ति – प्रकाश होता है। ईश्वर और ‘ओ३म्’ नाम का नित्य सम्बन्ध है। *जब हम कहते हैं कि ‘ओ३म्’ ईश्वर का नाम है या वाचक है, तब हम ईश्वर और ‘ओ३म्’ नाम के बीच प्रथम से विद्यमान नित्य सम्बन्ध को प्रकट करते हैं; कोई नया सम्बन्ध स्थापित नहीं करते हैं।*


*‘ओ३म्’ की अनेकानेक विशेषताएं हैं। अतः ‘ओ३म्’ पर प्रगाढ़ आस्तिक्य भाव से – ईश्वर-प्रणिधान पूर्वक निरन्तर चिन्तन-मनन – अर्थ-भावना करने की आवश्यकता है; क्योंकि ‘ओ३म्’ का विचार ही प्रकारान्तर से ईश्वर-विचार है।*


*शुभ प्रभात मित्रो। आज का दिन आपके लिए शुभ एवं मंगलकारी हो।*

Monday, October 16, 2023

संत मत की परम्परा और राधास्वामी संत मत / उदय वर्मा


 भारत मेंअनादि काल से संत मत की परंपरा की अविच्छिन्न धारा प्रवाहित होती रही है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अपने अध्यात्मिक साधना के सफर में सद्गुरुओं और संतों ने हर स्तर पर  भारतीय चेतना की  प्रगति को शिखरचुम्बी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। राधास्वामी भी एक ऐसा ही पंथ है, जिसके गुरु महाराजों ने अपने अनुनायियों को आत्म कल्याण और परमार्थ के मार्ग पर चलने  के लिए प्रेरित किया ।

     राधास्वामी पंथ में भक्ति का मूल स्वर प्रेम भक्ति ही है , जिसका स्थायी संदेश मानव कल्याण की सर्वोच्च संभावनाओं की तलाश है। इस मत के पथिकों में गुरु महाराज के प्रति जो प्रेम की पराकाष्ठा मिलती है, वह दास्य भाव की भक्ति से गुम्फित हो कर अपने चरम पर पहुंचती है और भक्त खुद को गुरु चरणों में अर्पित कर धन्य हो जाते हैं। नदियां समुद्र में मिल कर पूर्ण होती हैं और अपना अस्तित्व मिटा कर समुद्र बन जाती हैं, यानी मुक्ति  पाती है, वैसे ही गुरु चरणों में समर्पित भक्त अपना कर्म पूरा करने के उपरांत अंततः गुरु में विलीन हो कर मुक्ति प्राप्त करते हैं राधास्वामी लोक में स्थान पाते हैं।


   वास्तव में राधास्वामी मत के गुरुओं  का पूरा अभियान मानव मुक्ति की साधना की प्रेम-कथा है। राधास्वामी आध्यात्मिक आन्दोलन जीवधारियों को उसकी सहज रागदीप्त चेतना से जोड़ कर एक ऐसे समाज की रचना का पक्षधर है, जिसमें आध्यात्मिक,नैतिक और आत्मिक उत्थान के सारे साधन सहज सुलभ हो। इस अर्थ में राधास्वामी आन्दोलन एक ऐसा पंथ है जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्ग खोलता है। 

  राधास्वामी पंथ की स्थापना १८६१ में श्री सेठ शिव दयाल सिंह महाराज ने की थी। चूंकि सेठ शिव दयाल सिंह महाराज जी की पत्नी का नाम राधा था, इसलिए उन्हें राधास्वामी भी कहा जाता था, यही कारण है कि उनके द्वारा स्थापित पंथ का नाम राधास्वामी पड़ा। जिस दिन राधास्वामी मत आमजनों के बीच अवतरित हुआ था, वह दिन विद्या और ज्ञान की देवी की आराधना का दिन था। महाराज जी ने अपने पंथ की स्थापना के लिए वसंत पंचमी के पावन दिन को ही क्यों चुना, इस विषय में उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा।  लेकिन हमें यह कहना पड़ेगा कि राधास्वामी मत गुह्य धार्मिक मत है और इस मत का अनुयायी कोई भी हो सकता है। इस पंथ के अनुसार जीवधारी अपनी उच्चतम क्षमताओं को सिर्फ शब्द नाम जप द्वारा प्रकट कर सकते हैं। राधास्वामी मत के अनुसार पहले सतपुरूष निराकार था, फिर उसने आकार ग्रहण किया। इससे पहले कोई रचना नहीं हुई थी, कुछ था तो शून्य था, बाद में शब्द प्रकट हुआ , फिर रचना शुरू हुई। पहले सतलोक,  फिर सत् पुरूष की कला से तीनों लोकों का विस्तार हुआ। राधास्वामी पंथ के अनुसार  इन तीनों लोकों से ऊपर राधास्वामी लोक है। हालांकि इस स्थापना से सनातन की मान्यता अलग है। 

  राधास्वामी पंथ में नाम और सत्संग यानी सच्चे लोगों की सभा का विशेष महत्व है। इस पंथ में भक्त नाम भक्ति और सत्संग के माध्यम से एक ऐसी दुनिया रचते हैं, जिसमें न कोई बड़ा होता है न छोटा, न कोई अमीर होता है न गरीब, न कोई ऊंच होता है न नीच। सब बराबर होते है। हुजूर के दरवार में आ कर सभी नाकारात्मक भावनाएं नष्ट हो जाती हैं और सब हजूर के हो जाते हैं और हजूर सब के। इस मरहले पर यह कहा जा सकता है कि राधास्वामी मत सामाजिक समरसता का पंथ है, जिसका उद्देश्य  कर्मकांडी उलझनों में उलझे बिना सत्संग के माध्यम से पंथियों को सत् का साक्षात्कार कराना है और समरस समाजिक चेतना का विकास करना है।

   राधास्वामीपंथी सत्संग के माध्यम से आत्म शुद्धि के साथ हजूर के शरणागत होते हैं और अपना भूत, भविष्य, यहां तक कि अपना सब कुछ मालिक पर छोड़ देते हैं। राधास्वामी पंथियों की मालिक के प्रति यह समर्पण-भक्ति की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है।

  राधास्वामी मत के संस्थापक शिवदयाल साहब के राधास्वामी लोक गमन के बात राधास्वामी सम्प्रदाय वस्तुत:  दो शाखाओं में विभाजित हो गया। मुख्य शाखा तो आगरा में ही रही ,जबकि दूसरी शाखा अमृतसर में व्यास नदी के तट पर स्थापित की गयी, जिसे व्यास की राधास्वामी शाखा के रूप में जाना जाता है। इन दोनों शाखाओं के अनुयायी भारत में बड़ी संख्या में तो हैं ही, विश्व के अनेकानेक देशों में भी इनका विस्तार मिलता है। यह राधास्वामी पंथ के बढ़ते महत्व को दर्शाता है।


 - उदय वर्मा

Sunday, October 15, 2023

*🌻ईश्वर सब देख रहा है !!🌻*

 प्रस्तुति : उषा रानी / राजेंद्र प्रसाद सिन्हा


*एक राजा था. वह राजा समय-समय पर वेश बदलकर अपने नगर का सर्वेक्षण करता रहता था. ताकि देख सके सभी कर्मचारी अपना कार्य नियमानुसार कर रहे हैं या नहीं ? क्या प्रजा उसके कार्य से संतुष्ट है या नहीं।एक बार राजा वेश बदल कर अपने प्रधानमंत्री के साथ निरिक्षण पर निकले. बाजार में उन्होंने ने देखा कि एक व्यक्ति का शव पड़ा था .राजा ने आसपास के दुकानदारों कहा कि इस मृत व्यक्ति को उसके घर पहुँचा दो.*


*सब लोग कहने लगे कि बुरा आदमी था इसका शव यही पड़ा रहने दो. इसके घर वाले आकर स्वयं ले जाएगे.कोई भी दुकानदार उसके बारे में बात तक नहीं करना चाहता था. राजा बहुत हैरान कि इस व्यक्ति ने ऐसे क्या कर्म किए हैं जो मृत्यु के बाद इसको कोई कंधा देने तक को भी सहमत नहीं है.*


*राजा  को किसी दुकानदार ने बताया कि यह व्यक्ति पाप कर्म करता था . बहुत शराब पीता था और वेश्या के पास भी जाता था. इसलिए कोई भी इसके शव को हाथ लगाने को तैयार नहीं है.*


*राजा को लगा कि चाहे वो जैसे भी कर्म करता हो लेकिन उसके राज्य में किसी के भी शव का ऐसा तिरस्कार नहीं होना चाहिए. राजा ने दुकानदार से उसके घर का पता पूछा. अब राजा और प्रधानमंत्री स्वयं शव अपने कंधों पर उठा कर उसके घर पहुँचे.*


*राजा ने उसकी पत्नी को पूछा -  कि कोई भी आपके पति के शव को उठाने को तैयार क्यों नहीं था ? *उस व्यक्ति की पत्नी ने कहा-कि मेरे पति बहुत ही नेक कर्म करते थे। अब राजा हैरान कि वहाँ बाजार में तो हर कोई कह रहा था कि यह पाप कर्म करता था शराब पीता वेश्या के पास जाता था. फिर इसकी पत्नी इसके कर्मों को नेक कर्म क्यों कह रही है ?* 


*उसकी पत्नी ने बताया कि जब भी उसके पति के पास पैसे इकट्ठे होते वह शराब की दुकान पर जाता और शराब खरीद कर घर आकर नाली में बहा देता ताकि किसी और का घर बर्बाद होने से बच जाए. इसी तरह वेश्या के पास जाते और उसे पैसे देकर कहते कि तुम्हें आज के पैसे मिल गए. अब तुम अपने घर का दरवाजा बंद कर लो. ताकि किसी और के पैसे बच जाए और वह पैसे अपने बीबी बच्चों पर लगाए या फिर क्या पता वह यह पैसे किसी शुभ काम में लगा दे ?*


*उस व्यक्ति की पत्नी ने कहा कि मेरे पति के शराब के ठेके और वेश्या के पास जाने के कारण लोगों ने उनसे दूरी बना ली थी. क्योंकि कोई भी उनके नेक इरादे के बारे में नहीं जानते था? मैं उनको कहती थी कि आप की इतनी बदनामी हो चुकी है कोई भी आप को कंधा देने नहीं आएगा. लेकिन मेरे पति का मानना था - *कि शुभ कर्म लोगों को दिखाने के लिए नहीं करने चाहिए.ईश्वर हमारे अच्छे बुरे कर्म फल का हिसाब रखता है.इसलिए अच्छे कर्म करने चाहिए और उसका फल ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि ईश्वर सब देख रहा है, मुझे ईश्वर पर विश्वास है. मेरे पति मजाक में कहते थे कि तुम देखना मेरी शव स्वयं राजा और उनके मंत्री लाएंगे. राजा यह सब सुनकर अवाक रह गया.*


*राजा ने उस व्यक्ति की पत्नी से कहा कि चाहे आप के पति मजाक में ही कहते थे कि देखना मेरा शव राजा और मंत्री उठाएंगे. लेकिन वो बात शत् प्रतिशत सच है. क्योंकि मैं यहाँ का राजा हूँ और यह मेरा मंत्री हैं. राजा ने बड़े सम्मान के साथ उस व्यक्ति का दाह संस्कार करवाया और उसके अच्छे कर्मों की सच्चाई से सबको रूबरू करवाया.*


*यह सत्य कथन है कि हमें शुभ कर्म दिखावे के लिए नही करने चाहिए . क्योंकि हमारे कर्मों का लेखा जोखा ईश्वर रखता है हमे देखने सुनने वाले नहीं. किसी को डर होता है कि ईश्वर देख रहा है, किसी को विश्वास है ईश्वर तो देख ही रहा है. इसलिए अच्छे कर्म करते रहे*


*" सिर्फ़ नाम लेने‌‌ से‌ ही कोई सत्संगी नहीं बन जाता, सत्संगी को अपना सारा जीवन संतमत के अनुसार ढालना पड़ता है। उसका हर एक विचार,वचन और कर्म सन्तमत के उसूलों के अनुसार होने चाहिए। कथनी से करनी ज़्यादा ज़रूरी है। विचारों की शक्ति तो‌ और भी अधिक है। सत्संगी का रोज का जीवन और रहन सहन साफ़ सुथरा और ऊंचे दर्जे का होना चाहिए। उसकी रहनी-सहनी से यह ज़ाहिर होना चाहिए कि वह एक पूरे सत्गुरु का शिष्य है। "*


*सहज मार्ग -*


*जीवन में सब कुछ एक निवेश की तरह ही होता है।* *दान,प्रेम,समय,साथ,खुशी, सम्मान और अपमान,जितना - जितना हम दूसरों को देते जायेंगे,समय आने पर एक दिन वह ब्याज सहित हमें अवश्य वापस मिलने वाला है।कभी दुख के क्षणों में अपने को अलग-थलग पाओ तो एक बार आत्मनिरीक्षण अवश्य कर लेना कि क्या जब मेरे अपनों को अथवा समाज को मेरी जरूफलरत थी तो मैं उन्हें अपना समय दे पाया था..? क्या किसी के दुख में मैं कभी सहभागी बन पाया था..? आपको अपने प्रति दूसरों के उदासीन व्यवहार का कारण स्वयं स्पष्ट हो जायेगा।* 


*क्या आपकी उपस्थिति कभी किसी के अकेलेपन को दूर करने का कारण बन पाई थी अथवा नहीं...? आपको अपने एकाकी जी

वन का कारण स्वयं समझ आ जायेगा। देवी द्रौपदी ने वासुदेव श्रीकृष्ण को एक बार एक छोटे से चीर का दान किया था और आवश्यकता पड़ने पर विधि द्वारा वही चीर देवी द्रौपदी को साड़ियों के भंडार के रूप में लौटाया गया। देर से सही मगर दिया हुआ अवश्य लौटकर आता है।*


*साधु और असाधु दोनों अक्सर रहते साथ-साथ।*

*अलग-अलग हैं गुण दोनों में एक दिवस तो एक है रात।*


*सन्त रहेगा फूल की भांति महकेगा महकायेगा।*

*दुष्ट हमेशा शूल की भांति घाव पे घाव लगायेगा।*


*सज्जन है इक अमृत जैसा देता जीवन दान है।*

*नर्क बना देता जीवन को दुर्जन ज़हर समान है।*


*🙏अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है।🙏*

Friday, October 13, 2023

माता शैलपुत्री की पूजा से शारदीय नवरात्र का शुभारंभ / विजय केसरी


(15 सितंबर, शारदीय नवरात्र के शुभारंभ पर विशेष)




भारत सहित विश्व  के जिन देशों में भारतीय मूल के लोग रहते हैं, सबों के लिए शारदीय नवरात्र का पर्व ढेर सारी खुशियां और संकल्पों के लेकर उपस्थित होता है । यह पर्व 15 सितंबर से प्रारंभ होने जा रहा है। आज माता शैलपुत्री की विशेष पूजा-अर्चना से शारदीय नवरात्र का   शुभारंभ होगा। माता दुर्गा दुर्गति नाशिनी है । माता

 कालनाशिनी है ।दुर्गा माता की आराधना से भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। समस्त प्राणियों की सुख दात्री देवी दुर्गा माता  की कृपा से उनके भक्तगण सदा आनंद में रहते हैं। माता के भक्त  दूसरे को भी आनंद प्रदान करते हैं।  नवरात्र का यह पर्व दशहरा के नाम से जनमानस में प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि  माता नौ दिनों तक अपने भक्तों की भक्ति प्राप्त कर, भक्तों के सभी प्रकार के कष्ट हर कर माता दसवें दिन विदा होती हैं। संसार में जितने भी प्रकार के सुख, शांति, समृद्धि और वैभव विद्यमान हैं। यह सब कुछ माता की ही कृपा है। माता की आराधना से भक्तों को जन्म जन्म के पाप मुक्ति मिलती हैं। 

श्री देवी पुराण में ऐसा वर्णन है कि मां की भक्ति से यश, बल, धर्म ,आयु की वृद्धि होती है।  मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। शारदीय नवरात्र पर्व का हमारे धर्म ग्रंथों में बहुत ही ऊंचा स्थान प्रदान किया गया है।  मां पुत्री रूप में हम सभी भक्तों के बीच उपस्थित होती हैं। हम सबों की भक्ति स्वीकार कर सुख, समृद्धि और शांति का आशीर्वाद देकर जाती हैं। साथ ही माता यह भी वादा कर जाती  हैं कि अगले साल मैं पुनः आऊंगी। अपने भक्तों के प्रति मां का यह स्नेह अद्भुत और बेमिसाल है।

नवरात्र पर्व का हमारे हिंदू धर्म ग्रंथों में बहुत ही महत्व है। आज दुनिया में जिस तरह की भी शक्तियां  विद्यमान है। सभी दुर्गा माता की ही तेज से उत्पन्न हुई । मां की कृपा के बिना कोई भी शक्ति गतिशील नहीं हो सकती है। नवरात्र में मां के नौ रूपों की पूजा की जाती है। प्रथम दिन शैलपुत्री माता। दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी माता। तीसरे दिन चंद्रघंटा माता। चौथे दिन कुष्मांडा माता। पांचवें दिन स्कंदमाता माता । छठे दिन कात्यानी माता। सातवें दिन कालरात्रि माता । आठवें दिन महागौरी माता और नवमी दिन सिद्धिदात्री माता की पूजा होती है। माता के हर रूपों का एक गौरवशाली इतिहास है, जो हमारी धार्मिक भावनाओं और श्रद्धा  को प्रतिष्ठित कर संदेश देती हैं। दुर्गा सप्तशती में यह बात दर्ज है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है। किंतु माता कभी भी कुमाता नहीं हो सकती है। इस छोटे से वाक्य में हिंदू दर्शन की बहुत बड़ी बात छुपी हुई है। इसलिए हमारी रीति - रिवाज और धर्म संस्कृति में प्रारंभ से ही माता का ख्याल रखने के लिए कहा गया है। यह पर्व हमें दूसरों की मदद करने, दूसरों की भलाई करने और विश्व बंधुत्व की सीख भी प्रदान करता है।

पाप और पुण्य दोनों मां के ही पुत्र हैं। दोनों को मां समान रूप से जन्म देती हैं। लेकिन एक अपने प्रारब्ध कर्म के कारण पाप में परिवर्तित होता और दूसरा पुण्य में। जब सृष्टि में पाप बढ़ जाते हैं। तब पुण्य जनों के उद्धार के लिए माता प्रकट होती है। नवरात्र का पर्व सत्य और असत्य पर आधारित है। असत्य कितना भी विशाल क्यों ना हो जाए ?  वह कालजयी नहीं हो सकता है। उसे एक न एक दिन सत्य के हाथों पराजित होना ही होता है। नवरात्र का पर्व हम सबों को सत्य के साथ खड़े  होने की सिख प्रदान करता है। यह पर्व असत्य पर सत्य की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। यह पर्व सिर्फ भारत देश तक ही सीमित नहीं है। हिंदू धर्म को मानने वाले विश्व भर में जहां-जहां भी  हैं, सभी नवरात्र व दशहरा का पर्व बड़े ही धूमधाम के साथ मनाते हैं। देश में प्रचलित सभी पर्वों के बीच नवरात्र पर्व का एक विशेष स्थान और महत्व है। इसे सब लोग बड़े ही धूमधाम के साथ और मिलजुल कर मनाते हैं। यह पर्व हम सबों को एक साथ मिलकर रहने की भी सीख प्रदान करता है। देवी पुराण में वर्णन है कि जब पृथ्वी पर आसुरी शक्तियां बहुत ही प्रबल हो गई थीं। आसुरी शक्तियों के अत्याचार से देवगण भयाक्रांत हो गए थे। आसुरी शक्तियों के वर्चस्व इतने बढ़ गए थे कि देवगण के सिंहासन भी आसुरी शक्तियों के अधीन हो गए थे। आसुरी शक्तियों से बचने के लिए सभी देवताओं ने मिलकर माता दुर्गा की आराधना की थीं। एक कथा के अनुसार भगवान विष्णु, भगवान शिव और भगवान ब्रह्मा जी के तेज से आदि शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा अवतरित हुई थीं। आसुरी शक्तियों के प्रतीक महिषासुर अपने अहंकार में इतना चूर हो गया था कि वह जिनसे शक्तियां प्राप्त किया था , उसी को ही चुनौती देने लगा  था । महिषासुर की आसुरी शक्तियों के अत्याचार से चंहुओर त्राहिमाम त्राहिमाम होने लगा था। माता के अवतरण के साथ ही सबसे पहले माता अपने भक्तों की भक्ति स्वीकार की थीं। तत्पश्चात देवगणों  को महिषासुर के अत्याचार से मुक्त करने के लिए सीधे रण भूमि में कूद पड़ी देवी  थी। देवी पुराण में जिस तरह रणभूमि की विभीषिका का वर्णन किया गया है। महिषासुर और माता दुर्गा के  युद्ध के समान ना कभी भूतकाल  में ऐसा हुआ था और ना भविष्य में होगा।  इस युद्ध  में संपूर्ण ब्रह्मांड  हिल गया था । आकाश से बादल टूटकर गिरने लगे थे। हवा की तरह पर्वत इधर से उधर बह रहे थे ।आकाश से सिर्फ और सिर्फ आग ही बरीस हो रही थी। युद्ध सत्य और असत्य के बीच चल रही थी। आसुरी शक्ति महिषासुर ने विभिन्न रूपों में भेष बदलकर माता को पराजित करने का संपूर्ण कोशिश किया था। लेकिन उस अहंकारी महिषासुर को यह पता ही नहीं  था कि उसके पास जो भी शक्तियां विराजमान थीं। सभी  मां की कृपा से ही प्राप्त हुई थी।  महिषासुर की शक्तियां, मां की तेज का एक अंश भी नहीं था। उसे इस अंश पर इतना गुमान था। मां उन्हें अपनी पूर्ण शक्ति को प्रदर्शित करने का अवसर दे रही थीं। माता ने उसे अपनी गलती स्वीकार करने का भी अवसर पर अवसर प्रदान करती चली जा रही थीं।  इसके बावजूद महिषासुर को अपने अहंकार का भान ही नहीं हो रहा था। अंततः मां अपने विराट रूप में उपस्थित हुई और पलक झपकते ही उसका सर्वनाश कर दी थीं। 

 महिषासुर का अंत अर्थात असत्य का अंत के समान है। इसका अभिप्राय है कि मनुष्य के अंदर पांच प्रकार के विकार होते हैं। काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह । इन्हीं पंच विकारों के कारण मनुष्य रसातल तक पहुंच जाता है। जो मनुष्य इन पंच विकारों से मुक्त होकर निर्लिप्त और साक्षी भाव से जीवन जीते हैं। उन्हें मां की कृपा प्राप्त होती है। वे इस संसार में रहकर सभी प्रकार के सुखों को भोगते हैं। सदा कष्टों से मुक्त रहते हैं। दीर्घायु बनते हैं। और अंत में मां में समाहित हो जाते हैं। ऐसे भक्त सदा सदा के लिए आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाते हैं। देवी पुराण में ऐसा वर्णन है कि काम, क्रोध, मद, लोभ ,मोह जैसे विकारों से मुक्ति का ही नाम नवरात्र है।यह त्योहार पूरी तरह मानसिक है। मां को चढ़ने वाले फल - फूल आदि सभी बाह्य पूजा है। मां मन की पूजा स्वीकार करती हैं। मन में अगर कलमष है, बाहर खिले हुए फूल हैं, ऐसी पूजा का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। मन पंच विकारों से मुक्त हर्षित हो, बाहर भी खिले हुए फूल हो। इसे ही मां स्वीकार करती हैं। यह त्यौहार भक्तों के लिए एक संकल्प का त्यौहार है। इस त्यौहार का उद्देश्य है कि भक्तगण अपने पंच विकारों से मुक्त होने का संकल्प लें। भक्तगण स्वयं के अंदर छुपे काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह को त्यागने का संकल्प लें। मां के श्री चरणों में इन  पंच विकारों को अर्पित कर दें। सच्चे अर्थों में मां के प्रति यही पूजा सच्ची पूजा है। साथ ही यह पर्व हम सभी को यह भी सीख देता है कि हमसे ऐसी कोई भूल ना हो जिससे समाज की कोई भी नारी शक्ति आहत हो। यह पर्व हम सबों को नारी शक्ति के सम्मान का भी सिख प्रदान करता है। हम सब मिलकर नारी शक्ति का सम्मान करें। जाने अनजाने कोई काम ऐसा ना करें, जिससे नारी शक्ति अपमानित और परेशान हों। नारी शक्ति का सम्मान  सच्चे अर्थों में नवरात्र है।


 विजय केसरी,

( कथाकार / स्तंभकार),

पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301 ,

मोबाइल नंबर : 92347 99550 ,

Thursday, October 5, 2023

कुछ तो लोग कहेँगे /कृष्ण मेहता


प्रस्तुति - उषा रानी -राजेंद्र प्रसाद सिन्हा


एक *साधू* किसी नदी के पनघट पर गया और पानी पीकर पत्थर पर सिर रखकर सो गया....!!!


पनघट पर पनिहारिन आती-जाती रहती हैं!!!

तो आईं तो एक ने कहा- *"आहा! साधु हो गया, फिर भी तकिए का मोह नहीं गया*...

*पत्थर का ही सही, लेकिन रखा तो है।"*


पनिहारिन की बात साधु ने सुन ली...

*उसने तुरंत पत्थर फेंक दिया*...

दूसरी बोली--

*"साधु हुआ, लेकिन खीज नहीं गई👆..* 

*अभी रोष नहीं गया,तकिया फेंक दिया।"* 

तब साधु सोचने लगा, अब वह क्या करें ?


तब तीसरी बोली-

*"बाबा! यह तो पनघट है,यहां तो हमारी जैसी पनिहारिनें आती ही रहेंगी, बोलती ही रहेंगी, उनके कहने पर तुम बार-बार परिवर्तन करोगे तो साधना कब करोगे?"*


लेकिन चौथी ने

बहुत ही सुन्दर और एक बड़ी अद्भुत बात कह दी-

*"क्षमा करना,लेकिन हमको लगता है,तूमने सब कुछ छोड़ा लेकिन अपना चित्त नहीं छोड़ा है,अभी तक वहीं का वहीं बने हुए है।*

*दुनिया पाखण्डी कहे तो कहे, तूम जैसे भी हो,हरिनाम लेते रहो।"* 

*सच तो यही है, दुनिया का तो काम ही है कहना...*


आप ऊपर देखकर चलोगे तो कहेंगे... 

*"अभिमानी हो गए।"*


नीचे दखोगे तो कहेंगे... 

*"बस किसी के सामने देखते ही नहीं।"*


आंखे बंद करोगे तो कहेंगे कि... 

*"ध्यान का नाटक कर रहा है।"*


चारो ओर देखोगे तो कहेंगे कि... 

*"निगाह का ठिकाना नहीं। निगाह घूमती ही रहती है।"*


और परेशान होकर आंख फोड़ लोगे तो यही दुनिया कहेगी कि...

*"किया हुआ भोगना ही पड़ता है।"*


*ईश्वर* को राजी करना आसान है,

लेकिन *संसार* को राजी करना असंभव है....


*दुनिया* क्या कहेगी, उस पर ध्यान दोगे तो....????


*आप अपना ध्यान नहीं लगा पाओगे.*            

    🌹जय श्री कृष्ण🌹

      🌹

सूर्य को जल चढ़ाने का अर्थ

  प्रस्तुति - रामरूप यादव  सूर्य को सभी ग्रहों में श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि सभी ग्रह सूर्य के ही चक्कर लगाते है इसलिए सभी ग्रहो में सूर्...