Thursday, October 26, 2017


भारतीय संस्कृति - Indian Culture



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देव सूर्यमंदिर




देवशिल्पी विश्वकर्मा ने किया है इस सूर्यमंदिर का निर्माण


औरंगाबाद। बिहार के औरंगाबाद जिले में देव स्थित ऐतिहासिक त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर अपनी कलात्मक भव्यता के लिए सर्वविदित और प्रख्यात होने के साथ ही सदियों से देशी-विदेशी पर्यटकों, श्रद्धालुओं और छठव्रतियों की अटूट आस्था का केंद्र बना हुआ है। मंदिर की अभूतपूर्व स्थापत्य कला, शिल्प, कलात्मक भव्यता और धार्मिक महत्ता के कारण ही जनमानस में यह किवदंति प्रसिद्ध है कि इसका निर्माण देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से किया है।

देव स्थित भगवान भास्कर का विशाल मंदिर अपने अप्रतिम सौंदर्य और शिल्प के कारण सदियों से श्रद्धालुओं, वैज्ञानिकों, मूर्तिचोरों, तस्करों एवं आमजनों के लिए आकर्षण का केंद्र है। काले और भूरे पत्थरों की अति सुंदर कृति जिस तरह उड़ीसा प्रदेश के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर का शिल्प है, ठीक उसी से मिलता-जुलता शिल्प देव के प्राचीन सूर्य मंदिर का भी है।
कहीं आपकी परेशानियों का कारण आपके घर का मेन गेट तो नहीं
मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में उसके बाहर ब्राही लिपि में लिखित और संस्कृत में अनुवादित एक श्लोक जड़ा है, जिसके अनुसार 12 लाख 16 हजार वर्ष त्रेता युग के बीत जाने के बाद इलापुत्र पुरूरवा ऐल ने देव सूर्य मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया। शिलालेख से पता चलता है कि सन् 2017 ईस्वी में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल का एक लाख पचास हजार सत्रह वर्ष पूरा हो गया है।

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देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों- उदयाचल-प्रातः सूर्य, मध्याचल- मध्य सूर्य और अस्ताचल -अस्त सूर्य के रूप में विद्यमान है। पूरे देश में देव का मंदिर ही एकमात्र ऐसा सूर्य मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अदभूत उदाहरण है। बिना सीमेंट अथवा चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, अर्द्धवृत्ताकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक व विस्मयकारी

रातोरात दिशा बदलने वाला देव सूर्यमंदिर



एका रात्रीत दिशा पालटलेले बिहारमधील सूर्यमंदिर !


‘भारतात सूर्याची अनेक मंदिरे आहेत. त्यातील कोणार्कचे जगप्रसिद्ध असे सूर्यमंदिर सुपरिचित आहे. असेच एक कलात्मक मंदिर बिहारच्या औरंगाबाद येथील देव येथेही आहे. त्याचे वैशिष्ट्य म्हणजे देशातील सर्व सूर्यमंदिरे पूर्वाभिमुख असतांना सूर्याचे हे एकमेव मंदिर पश्‍चिमाभिमुख आहे. १०० फूट उंचीचे हे सूर्यमंदिर सहस्रो वर्षे पुरातन असल्याचे सांगितले जाते. कोणार्क मंदिराप्रमाणेच येथेही सूर्यरथ आहे. या मंदिरातील ७ रथांवर दगडांत सुंदर कोरीवकाम आणि शिल्पे कोरण्यात आली आहेत. काळ्या दगडांमध्ये उगवता, मध्यान्हीचा आणि मावळता सूर्य यांच्या अप्रतिम प्रतिमा कोरल्या आहेत. या मंदिराचे शिल्प ओडिशाच्या जगन्नाथ मंदिराशी साधर्म्य दर्शवते.
या मंदिराचा उल्लेख सूर्यपुराणात दिसून येतो. त्यातील कथेनुसार या मंदिराची लूट करण्यासाठी लुटारूंची एक टोळी आली होती. तेव्हा मंदिरातील पुजार्‍यांनी ‘मंदिर तोडू नका’, अशी विनवणी लुटारूंना केली. लुटारूंच्या पुढार्‍याने ‘या मंदिरात खरोखरच देव असेल, तर त्याने त्याच्या शक्तीचा प्रत्यय द्यावा. एका रात्रीत या मंदिराचे तोंड पूर्वेकडून पश्‍चिमेकडे गेले, तर मंदिर तोडले जाणार नाही’, असे तो म्हणाला. त्यानंतर पुजार्‍यांनी रात्रभर देवाची अत्यंत तळमळीने आराधना केली आणि आश्‍चर्य म्हणजे दिवस उजाडला, तेव्हा हे मंदिर पश्‍चिमाभिमुख झाले होते. परिणामी लुटारूंनी मंदिर लुटले नाही.’
संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

इकलौता पश्चिमाभिमुख देव सूर्यमंदिर





प्रस्तुति- किशोर प्रियदर्शी


ये है विश्व का इकलौता पश्चिमाभिमुख सूर्यमंदिर, यहां स्नान करने से दूर होते है कुष्ठ रोग
पश्चिमाभिमुख सूर्यमंदिर (फाइल फोटो)
आपने कई सूर्य मंदिरों के बारे में सुना और देखा होगा, लेकिन बिहार के औरंगाबाद जिले के देव स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर अनोखा है.
कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने एक रात में की थी. यह देश का एकमात्र ऐसा सूर्य मंदिर है, जिसका दरवाजा पश्चिम की ओर है.

इस मंदिर के निर्माण का स्पष्ट कोई प्रमाण तो नहीं मिलता है, मगर कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण डेढ़ लाख वर्ष पूर्व किया गया था. छठ पर्व के मौके पर यहां लाखों लोग भगवान भास्कर की अराधना के लिए जुटते हैं.

ऐतिहासिक त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर अपनी विशिष्ट कलात्मक भव्यता के साथ साथ अपने इतिहास के लिए भी विख्यात है. औरंगाबाद से 18 किलोमिटर दूर देव स्थित सूर्य मंदिर करीब सौ फीट ऊंचा है. मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण त्रेता युग में स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने किया था.

डेढ़ लाख वर्ष पुराना यह सूर्य मंदिर काले और भूरे पत्थरों की नायाब शिल्पकारी से बना यह सूर्य मंदिर ओड़िशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलता-जुलता है. मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में मंदिर के बाहर लगे एक शिलालेख पर ब्राह्मी लिपि में लिखित और संस्कृत में अनूदित एक श्लोक के मुताबिक, इस मंदिर का निर्माण 12 लाख 16 हजार वर्ष त्रेता युग के बीत जाने के बाद इला-पुत्र पुरुरवा ऐल ने आरंभ करवाया.

शिलालेख से पता चलता है कि सन् 2017 ईस्वी में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल को एक लाख पचास हजार सत्रह वर्ष पूरे हो गए हैं.

देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल (सुबह) सूर्य, मध्याचल (दोपहर) सूर्य, और अस्ताचल (अस्त) सूर्य के रूप में विद्यमान है. पूरे देश में यही एकमात्र सूर्य मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है. करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है.


बिना सीमेंट या चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, आर्वाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक एवं विस्मयकारी है.

देव सूर्य मंदिर देश की धरोहर एवं अनूठी विरासत है. हर साल छठ पर्व पर यहां लाखों श्रद्धालु छठ करने झारखंड, मध्य प्रदेश, उतरप्रदेश समेत कई राज्यों से आते हैं. कहा जाता है कि जो भक्त मन से इस मंदिर में भगवान सूर्य की पूजा करते हैं, उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.

जनश्रुतियों के मुताबिक, एक राजा ऐल एक बार देव इलाके के जंगल में शिकार खेलने गए थे. शिकार खेलने के समय उन्हें प्यास लगी. उन्होंने अपने आदेशपाल को लोटा भर पानी लाने को कहा. आदेशपाल पानी की तलाश करते हुए एक पानी भरे गड्ढे के पास पहुंचा. वहां से उसने एक लोटा पानी लेकर राजा को दिया. राजा के हाथ में जहां-जहां पानी का स्पर्श हुआ, वहां का कुष्ठ ठीक हो गया.

राजा बाद में उस गड्ढे में स्नान किया और उनका कुष्ठ रोग ठीक हो गया. उसके बाद उसी रात जब राजा रात में सोए हुए, तो सपना आया कि जिस गड्ढे में उन्होंने स्नान किया था, उस गड्ढे में तीन मूर्तियां हैं. राजा ने फिर उन मूर्तियों को एक मंदिर बनाकर स्थापित किया.

कार्तिक एवं चैत महीने में छठ करने कई राज्यों से लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं. यहां मंदिर के समीप स्थित सूर्यकुंड तालाब का विशेष महत्व है. इस सूर्यकुंड में स्नान कर व्रती सूर्यदेव की आराधना करते हैं.

मंदिर के मुख्य पुजारी सच्चिदानंद पाठक ने बताया कि प्रत्येक दिन सुबह चार बजे भगवान को घंटी बजाकर जगाया जाता है. उसके बाद पुजारी भगवान को नहलाते हैं, ललाट पर चंदन लगाते हैं, नया वस्त्र पहनाते हैं. यह परंपरा आदि काल से चली आ रही है. भगवान को आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ सुनाया जाता है.

यूं तो सालभर देश के विभिन्न जगहों से लोग इस मंदिर में आते हैं और मनौतियां मांगते हैं, लेकिन छठ के मौके पर यहां खूब भीड़ जुटती है. मनौती पूरी होने पर यहां लोग सूर्यदेव को अर्ध्य देने आते हैं.

 

छठ गीत





छठ पूजा -का महत्व सूर्य षष्ठी




छठ पूजा - सूर्य षष्ठी

 

प्रस्तुति- अनिल कुमार चंचल 


दिवाली के ठीक छह दिन बाद मनाए जाने वाले छठ महापर्व का हिंदू धर्म में विशेष स्थान है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को सूर्य षष्ठी का व्रत करने का विधान है ।  अथर्ववेद में भी इस पर्व का उल्लेख है। यह ऐसा पूजा विधान है जिसे वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाभकारी माना गया है। ऐसी मान्यता है कि सच्चे मन से की गई इस पूजा से मानव की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।  इसे करने वाली स्त्रियाँ धन-धान्य, पति-पुत्र तथा सुख-समृद्धि से परिपूर्ण रहती हैं। छठ पूजा के इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो इसका प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर ( तालाब ) के किनारे यह पूजा की जाती है। प्राचीन काल में इसे बिहार और उत्तर प्रदेश में ही मनाया जाता था। लेकिन आज इस प्रान्त के लोग विश्व में जहाँ भी रहते हैं वहाँ इस पर्व को उसी श्रद्धा और भक्ति से मनाते हैं। 
यह व्रत बडे नियम तथा निष्ठा से किया जाता है। इसमे तीन दिन के कठोर उपवास का विधान है । इस व्रत को करने वाली स्त्रियों को पंचमी को एक बार नमक रहित भोजन करना पडता है। षष्ठी को निर्जल रहकर व्रत करना पडता है । षष्ठी को अस्त होते हुए सूर्य को विधिपूर्वक पूजा करके अर्घ्य देते हैं। सप्तमी के दिन प्रात:काल नदी या तालाब पर जाकर स्नान करती हैं। सूर्योदय होते ही अर्घ्य देकर जल ग्रहण करके व्रत को खोलती हैं।
सूर्यषष्ठी-व्रतके अवसरपर सायंकालीन प्रथम अर्घ्यसे पूर्व मिट्टीकी प्रतिमा बनाकर षष्ठीदेवीका आवाहन एवं पूजन करते हैं। पुनः प्रातः अर्घ्यके पूर्व षष्ठीदेवीका पूजन कर विसर्जन कर देते हैं। मान्यता है कि पंचमीके सायंकालसे ही घरमें भगवती षष्ठीका आगमन हो जाता है। इस प्रकार भगवान्‌ सूर्यके इस पावन व्रतमें शक्ति और ब्रह्म दोनोंकी उपासनाका फल एक साथ प्राप्त होता है । इसीलिये लोकमें यह पर्व ‘सूर्यषष्ठी’ के नामसे विख्यात है।
छठ का पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन शुरू करते हैं जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है। इस पर्व की विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी ( पूजा-स्थल) व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है। तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएँ कई दिनों से तैयारी करती हैं इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं जहाँ पूजा स्थल होता है वहाँ नहा धो कर ही जाते हैं यही नही तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर ही सोते हैं।
पर्व के पहले दिन ‍’नहाय-खाय’ को पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ ( बिहार में इसे खजूर कहते हैं। यह बाजरे के आटे और गुड़ व तिल से बने हुए पुए जैसा होता है), नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/ पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर बारह दीपक लगे हो गन्ने के बारह पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएँ अपने बाल धो कर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं।
छठ पर्व पर दूसरे दिन पूरे दिन व्रत ( उपवास) रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की बखीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा ( मिट्टी के बर्तन) में बखीर रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में बखीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में इसे बाँटा जाता है।
Chhath Puja
तीसरे यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है, सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं,  में पूजा का सभी सामान डाल कर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक, तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल,  पांच प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ रखते हैं। पुरूष, महिलाएँ, बच्चों की टोली एक सैलाब की तरह दिन ढलने से पहले नदी के किनारे सोहर गाते हुए जाते हैं :-
काचि ही बांस कै बहिंगी लचकत जाय
भरिहवा जै होउं कवनरम, भार घाटे पहुँचाय
बाटै जै पूछेले बटोहिया ई भार केकरै घरै जाय
आँख तोरे फूटै रे बटोहिया जंगरा लागै तोरे घूम
छठ मईया बड़ी पुण्यात्मा ई भार छठी घाटे जाय

नदी किनारे जा कर नदी से मिट्टी निकाल कर छठ माता का चौरा बनाते हैं वहीं पर पूजा का सारा सामान रख कर नारियल चढ़ाते हैं और दीप जलाते हैं। उसके बाद टखने भर पानी में जा कर खड़े होते हैं और सूर्य देव की पूजा के लिए सूप में सारा सामान ले कर पानी से अर्घ्य देते हैं और पाँच बार परिक्रमा करते हैं। सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान ले कर सोहर गाते हुए घर आ जाते हैं और देवकरी में रख देते हैं। रात को पूजा करते हैं। कृष्ण पक्ष की रात जब कुछ भी दिखाई नहीं देता श्रद्धालु अलस्सुबह सूर्योदय से दो घंटे पहले सारा नया पूजा का सामान ले कर नदी किनारे जाते हैं। पूजा का सामान फिर उसी प्रकार नदी से मिट्टी निकाल कर चौक बना कर उस पर रखा जाता है और पूजन शुरू होता है।
सूर्य देव की प्रतीक्षा में महिलाएँ हाथ में सामान से भरा सूप ले कर सूर्य देव की आराधना व पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है सब लोगों के चेहरे पर एक खुशी दिखाई देती है और महिलाएँ अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं। शाम को पानी से अर्घ देते हैं लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया जाता है। इस समय सभी नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा का सामान ले कर घर आ जाते हैं। घर पहुँच कर देवकरी में पूजा का सामान रख दिया जाता है और महिलाएँ प्रसाद ले कर अपना व्रत खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है।
छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छ: दिए होते हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है। कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है उसके बारे में एक गीत गाया जाता है जिसमें बताया गया है कि कि छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है।
रात छठिया मईया गवनै अईली
आज छठिया मईया कहवा बिलम्बली
बिलम्बली - बिलम्बली कवन राम के अंगना
जोड़ा कोशियवा भरत रहे जहवां जोड़ा नारियल धईल रहे जहंवा
उंखिया के खम्बवा गड़ल रहे तहवां
छठ पूजा का आयोजन आज बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त देश के हर कोने में किया जाता है दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई चेन्न्ई जैसे महानगरों में भी समुद्र किनारे जन सैलाब दिखाई देता है पिछले कई वर्षों से प्रशासन को इसके आयोजन के लिए विशेष प्रबंध करने पड़ते हैं। इस पर्व की महत्ता इतनी है कि अगर घर का कोई सदस्य बाहर है तो इस दिन घर पहुँचने का पूरा प्रयास करता है। मात्र दिल्ली से इस वर्ष 6 लाख लोग छठ के अवसर पर बिहार की तरफ गए। देश के साथ-साथ अब विदेशों में रहने वाले लोग अपने -अपने स्थान पर इस पर्व को धूम धाम से मनाते हैं। पटना में इस बार कई लोगों ने नए प्रयोग किए जिसमें अपने छत पर छोटे स्वीमिंग पूल में खड़े हो कर यह पूजा की उनका कहना था कि गंगा घाट पर इतनी भीड़ होती है कि आने जाने में कठिनाई होती है और सुचिता का पूरा ध्यान नहीं रखा जा सकता। लोगों का मानना है कि अपने घर में सफाई का ध्यान रख कर इस पर्व को बेहतर तरीके से मनाया जा सकता है। छठ माता का एक लोकप्रिय गीत है
केरवा जे फरेला गवद से ओह पर सुगा मंडराय
उ जे खबरी जनइबो अदिक से सुगा देले जुठियाए
उ जे मरबो रे सुगवा धनुक से सुगा गिरे मुरझाय
उ जे सुगनी जे रोवे ले वियोग से आदित होइ ना सहाय
परना को व्रती व्रत खोलते हैं और आसपास के लोगों को छठी मैया का प्रसाद देते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भी सूर्य की पूजा या जल देना लाभदायक माना जाता है। भारत के अधिकतर राज्यों में लोग मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन सूर्य को जल चढ़ाते हैं, लेकिन इस पूजा का विशेष महत्व है। इस पूजा में व्रतियों को कठिन साधना से गुजरना पड़ता है।

लोक आस्थाका पर्व – छठ


सूर्य षष्ठी (छठ) पूजा

 

प्रस्तुति-  अनिल कुमार चंचल 

 

हमारे देशमें सूर्योपासनाके लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ । मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होनेके कारण इसे छठ कहा गया है । यह पर्व वर्षमें दो बार मनाया जाता है । पहली बार चैत्रमें और दूसरी बार कार्तिकमें । चैत्र शुक्लपक्ष षष्ठीपर मनाए जानेवाले छठ पर्वको चैती छठ व कार्तिक शुक्लपक्ष षष्ठीपर मनाए जानेवाले पर्वको कार्तिकी छठ कहा जाता है । पारिवारिक सुख-स्मृद्धि तथा मनोवांछित फलप्राप्तिके लिए यह पर्व मनाया जाता है । इस पर्वको स्त्री और पुरुष समानरूपसे मनाते हैं । छठ व्रतके संबंधमें अनेक कथाएं प्रचलित हैं; उनमेंसे एक कथाके अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुएमें हार गए, तब द्रौपदीने छठ व्रत रखा । तब उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं तथा पांडवोंको राजपाट वापस मिल गया ।   लोकपरंपराके अनुसार सूर्य देव और छठी मइयाका संबंध भाई-बहनका है । लोक मातृका षष्ठीकी पहली पूजा सूर्यने ही की थी ।छठ पर्वकी परंपरामें बहुत ही गहरा विज्ञान छिपा हुआ है, षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगौलीय अवसर है । उस समय सूर्यकी पराबैगनी किरणें (ultra violet rays) पृथ्वीकी सतहपर सामान्यसे अधिक मात्रामें एकत्र हो जाती हैं । उसके संभावित कुप्रभावोंसे मानवकी यथासंभव रक्षा करनेका सामर्थ्य इस परंपरामें है । पर्वपालनसे सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैगनी किरण) के हानिकारक प्रभावसे जीवोंकी रक्षा संभव है । पृथ्वीके जीवोंको इससे बहुत लाभ मिल सकता है ।
सूर्यके प्रकाशके साथ उसकी पराबैगनी किरण भी चंद्रमा और पृथ्वीपर आती हैं । सूर्यका प्रकाश जब पृथ्वीपर पहुंचता है, तो पहले उसे वायुमंडल मिलता है । वायुमंडलमें प्रवेश करनेपर उसे आयन मंडल मिलता है । पराबैगनी किरणोंका उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्त्वको संश्लेषित कर उसे उसके एलोट्रोप ओजोनमें बदल देता है । इस क्रियाद्वारा सूर्यकी पराबैगनी किरणोंका अधिकांश भाग पृथ्वीके वायुमंडलमें ही अवशोषित हो जाता है । पृथ्वीकी सतहपर केवल उसका नगण्य भाग ही पहुंच पाता है । सामान्य अवस्थामें पृथ्वीकी सतहपर पहुंचनेवाली पराबैगनी किरणकी मात्रा मनुष्यों या जीवोंके सहन करनेकी सीमामें होती है । अत: सामान्य अवस्थामें मनुष्योंपर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पडता, बल्कि उस धूपद्वारा हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं, जिससे मनुष्य या जीवनको लाभ ही होता है ।
छठ जैसी खगौलीय स्थिति (चंद्रमा और पृथ्वीके भ्रमण तलोंकी सम रेखाके दोनों छोरोंपर) सूर्यकी पराबैगनी किरणें कुछ चंद्र सतहसे परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपवर्तित होती हुई, पृथ्वीपर पुन: सामान्यसे अधिक मात्रामें पहुंच जाती हैं । वायुमंडलके स्तरोंसे आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदयको यह और भी सघन हो जाती है । ज्योतिषीय गणनाके अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मासकी अमावस्याके छ: दिन उपरांत आती है । ज्योतिषीय गणनापर आधारित होनेके कारण इसका नाम और कुछ नहीं, बल्कि छठ पर्व ही रखा गया है ।

२. छठ पर्व किस प्रकार मनाते हैं ?

यह पर्व चार दिनोंका है । भैयादूजके तीसरे दिनसे यह आरंभ होता है । पहले दिन सैंधा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दूकी सब्जी प्रसादके रूपमें ली जाती है । अगले दिनसे उपवास आरंभ होता है । इस दिन रातमें खीर बनती है । व्रतधारी रातमें यह प्रसाद लेते हैं । तीसरे दिन डूबते हुए सूर्यको अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं । अंतिम दिन उगते हुए सूर्यको अर्घ्य चढ़ाते हैं । इस पूजामें पवित्रताका ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्ज्य है । जिन घरोंमें यह पूजा होती है, वहां भक्तिगीत गाए जाते हैं । आजकल कुछ नई रीतियां भी आरंभ हो गई हैं, जैसे पंडाल और सूर्यदेवताकी मूर्तिकी स्थापना करना । उसपर भी रोषनाईपर काफी खर्च होता है और सुबहके अर्घ्यके उपरांत आयोजनकर्ता माईकपर चिल्लाकर प्रसाद मांगते हैं । पटाखे भी जलाए जाते हैं । कहीं-कहींपर तो ऑर्केस्ट्राका भी आयोजन होता है; परंतु साथ ही साथ दूध, फल, उदबत्ती भी बांटी जाती है । पूजाकी तैयारीके लिए लोग मिलकर पूरे रास्तेकी सफाई करते हैं ।
स्त्राेत : मासिक सनातन प्रभात

छठ पूजा —राजेन्द्र तिवा


छठ पूजा की खासियतें

प्रस्तुति- अनिल कुमार चंचल


गन्ने के छत्र के नीचे छठ मैया का चढ़ावा

छठ पूजा के इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो इसका प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर ( तालाब ) के किनारे यह पूजा की जाती है। प्राचीन काल में इसे बिहार और उत्तर प्रदेश में ही मनाया जाता था। लेकिन आज इस प्रान्त के लोग विश्व में जहाँ भी रहते हैं वहाँ इस पर्व को उसी श्रद्धा और भक्ति से मनाते हैं।
छठ का पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन शुरू करते हैं जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है। इस पर्व की विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी ( पूजा-स्थल) व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है। तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएँ कई दिनों से तैयारी करती हैं इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं जहाँ पूजा स्थल होता है वहाँ नहा धो कर ही जाते हैं यही नही तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर ही सोते हैं।
पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ ( बिहार में इसे खजूर कहते हैं। यह बाजरे के आटे और गुड़ व तिल से बने हुए पुए जैसा होता है), नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/ पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर बारह दीपक लगे हो गन्ने के बारह पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएँ अपने बाल धो कर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं।
छठ पर्व पर दूसरे दिन पूरे दिन व्रत ( उपवास) रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की बखीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा ( मिट्टी के बर्तन) में बखीर रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में बखीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में इसे बाँटा जाता है।
तीसरे यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है, सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं,  में पूजा का सभी सामान डाल कर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक, तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल,  पांच प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ रखते हैं। पुरूष, महिलाएँ, बच्चों की टोली एक सैलाब की तरह दिन ढलने से पहले नदी के किनारे सोहर गाते हुए जाते हैं :-
काचि ही बांस कै बहिंगी लचकत जाय
भरिहवा जै होउं कवनरम, भार घाटे पहुँचाय
बाटै जै पूछेले बटोहिया ई भार केकरै घरै जाय
आँख तोरे फूटै रे बटोहिया जंगरा लागै तोरे घूम
छठ मईया बड़ी पुण्यात्मा ई भार छठी घाटे जाय

नदी किनारे जा कर नदी से मिट्टी निकाल कर छठ माता का चौरा बनाते हैं वहीं पर पूजा का सारा सामान रख कर नारियल चढ़ाते हैं और दीप जलाते हैं। उसके बाद टखने भर पानी में जा कर खड़े होते हैं और सूर्य देव की पूजा के लिए सूप में सारा सामान ले कर पानी से अर्घ्य देते हैं और पाँच बार परिक्रमा करते हैं। सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान ले कर सोहर गाते हुए घर आ जाते हैं और देवकरी में रख देते हैं। रात को पूजा करते हैं। कृष्ण पक्ष की रात जब कुछ भी दिखाई नहीं देता श्रद्धालु अलस्सुबह सूर्योदय से दो घंटे पहले सारा नया पूजा का सामान ले कर नदी किनारे जाते हैं। पूजा का सामान फिर उसी प्रकार नदी से मिट्टी निकाल कर चौक बना कर उस पर रखा जाता है और पूजन शुरू होता है।
सूर्य देव की प्रतीक्षा में महिलाएँ हाथ में सामान से भरा सूप ले कर सूर्य देव की आराधना व पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है सब लोगों के चेहरे पर एक खुशी दिखाई देती है और महिलाएँ अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं। शाम को पानी से अर्घ देते हैं लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया जाता है। इस समय सभी नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा का सामान ले कर घर आ जाते हैं। घर पहुँच कर देवकरी में पूजा का सामान रख दिया जाता है और महिलाएँ प्रसाद ले कर अपना व्रत खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है।
छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छ: दिए होते हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है। कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है उसके बारे में एक गीत गाया जाता है जिसमें बताया गया है कि कि छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है।
रात छठिया मईया गवनै अईली
आज छठिया मईया कहवा बिलम्बली
बिलम्बली - बिलम्बली कवन राम के अंगना
जोड़ा कोशियवा भरत रहे जहवां जोड़ा नारियल धईल रहे जहंवा
उंखिया के खम्बवा गड़ल रहे तहवां
छठ पूजा का आयोजन आज बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त देश के हर कोने में किया जाता है दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई चेन्न्ई जैसे महानगरों में भी समुद्र किनारे जन सैलाब दिखाई देता है पिछले कई वर्षों से प्रशासन को इसके आयोजन के लिए विशेष प्रबंध करने पड़ते हैं। इस पर्व की महत्ता इतनी है कि अगर घर का कोई सदस्य बाहर है तो इस दिन घर पहुँचने का पूरा प्रयास करता है। मात्र दिल्ली से इस वर्ष 6 लाख लोग छठ के अवसर पर बिहार की तरफ गए। देश के साथ-साथ अब विदेशों में रहने वाले लोग अपने -अपने स्थान पर इस पर्व को धूम धाम से मनाते हैं। पटना में इस बार कई लोगों ने नए प्रयोग किए जिसमें अपने छत पर छोटे स्वीमिंग पूल में खड़े हो कर यह पूजा की उनका कहना था कि गंगा घाट पर इतनी भीड़ होती है कि आने जाने में कठिनाई होती है और सुचिता का पूरा ध्यान नहीं रखा जा सकता। लोगों का मानना है कि अपने घर में सफाई का ध्यान रख कर इस पर्व को बेहतर तरीके से मनाया जा सकता है। छठ माता का एक लोकप्रिय गीत है--
केरवा जे फरेला गवद से ओह पर सुगा मंडराय
उ जे खबरी जनइबो अदिक से सुगा देले जुठियाए
उ जे मरबो रे सुगवा धनुक से सुगा गिरे मुरझाय
उ जे सुगनी जे रोवे ले वियोग से आदित होइ ना सहाय
ऊपर चित्र में सूर्य को दूध का अर्घ्य

Sunday, May 14, 2017

धर्म



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