Wednesday, April 24, 2024

सूर्य को जल चढ़ाने का अर्थ

 

प्रस्तुति - रामरूप यादव 


सूर्य को सभी ग्रहों में श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि सभी ग्रह सूर्य के ही चक्कर लगाते है इसलिए सभी ग्रहो में सूर्य को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। हिन्दू धर्म में सूर्य का बहुत महत्त्व बताया गया है, शताब्दियों से हमारी परम्परा में नहाने के बाद सूर्य को अर्ध्य देने अर्थात जल चढाने का नियम है।


सूर्य को जल चढाने का धार्मिक महत्त्व 


सूर्य को सभी ग्रहों में विशेष माना जाता है, सूर्य की उत्पत्ति स्वयं नारायण से हुयी थी। हिन्दू धर्म में सूर्य की पूजा की जाती है और सूर्य को अर्ध दिया जाता है, ऐसा माना जाता है कि अगर सूर्य देवता आपसे प्रसन्न है तो बाकी ग्रह का असर नहीं पड़ता है, इसलिए सूर्य की पूजा और उपासना को शुभ फलदाई माना गया है, रविवार को सूर्य देव का दिन माना गया है और इस दिन सूर्य देव की उपासना करने से जीवन सफल होता है, भगवान राम भी सूर्य को जल चढाते थे इसलिए सूर्य को जल चढाने की परम्परा सहस्त्र वर्षों से चली आ रही है, तो अगर आपके मन में भी कोई इस तरह का प्रश्न उठता है जो जवाब यहाँ से जान सकते है कि सूर्य को जल क्यों चढ़ाएं।


 जल चढाने का वैज्ञानिक महत्त्व


सूर्य को जल चढाने का धार्मिक महत्व के साथ वैज्ञानिक महत्त्व भी है। वैज्ञानिकों के अनुसार जब कोई व्यक्ति सुबह के समय सूर्य को जल चढ़ाता है तो सूर्य से निकलने वाली किरणें उस व्यक्ति को कई स्वास्थ्य लाभ देती है, सुबह के समय सूरज की जो किरणें निकलती है वे हमारे शरीर में होने वाले रंगों के असंतुलन को सही करती है, सूरज की किरणों में इन्द्रधनुष के सात रंगों का समावेश होता है और यह रंग रंगों के विज्ञान पर काम करता है, विज्ञान के अनुसार सुबह के समय सूर्य को जल चढाते समय इन किरणों के प्रभाव से ये रंग संतुलित हो जाते है जिससे शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ जाती है, इसके अलावा दूसरा वैज्ञानिक कारण है सुबह के समय सूर्य से निकलने वाली विटामिन डी. सूर्य की रोशनी से शरीर में विटामिन डी की कमी नहीं होती है, इसके अलावा सूर्य की सुबह की रोशनी सुंदरता बढ़ाने का काम करती है और इससे आँखों को भी स्वास्थ्य लाभ मिलता है।


 जल चढाने का ज्योतिष महत्त्व 


ज्योतिष विज्ञान में सूर्य को जल चढाने के कई महत्त्व बताये गए है, यदि कोई व्यक्ति ब्रह्म मुहूर्त में नहाकर साफ़ कपडे पहनकर सूर्य को जल चढ़ाए तो उसकी मनोकामनाएं पूर्ण होती है, जब सूर्य उदय होता है तब लालिमा युक्त सूर्य को जल चढाने से ज्यादा लाभ मिलता है, इसके अलावा रोगों से मुक्ति पाने के लिए भी सुबह-सुबह सूर्य को जल चढ़ाना लाभकारी होता है।


अब आप समझ ही गए होंगे कि सूर्य को जल चढाने के सिर्फ धार्मिक महत्व ही नहीं है बल्कि कई वैज्ञानिक और ज्योतिषीय महत्व भी है, तो क्यों ना आप भी आज से सूर्य को जल चढ़ाये और अपनी जिंदगी में चमत्कार होते देखे।


🙏🏽❤️🙏🏽

Tuesday, April 16, 2024

अनेक नामों वाली पार्वती 🙏🏽

 देवीपार्वती के 108 नाम और इनका अर्थ

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देवी पार्वती विभिन्न नामों से जानी जाता है और उनमें से हर एक नाम का एक निश्चित अर्थ और महत्व है। देवी पार्वती से 108 नाम जुड़े हुए है । भक्त बालिकाओं के नाम के लिए इस नाम का उपयोग करते है। 


1 . आद्य - इस नाम का मतलब प्रारंभिक वास्तविकता है।

2 . आर्या - यह देवी का नाम है

3 . अभव्या - यह भय का प्रतीक है।

4 . अएंदरी - भगवान इंद्र की शक्ति।

5 . अग्निज्वाला - यह आग का प्रतीक है।

6 . अहंकारा - यह गौरव का प्रतिक है ।

7 . अमेया - नाम उपाय से परे का प्रतीक है।

8 . अनंता - यह अनंत का एक प्रतीक है।

9 . अनंता - अनंत

10 अनेकशस्त्रहस्ता - इसका मतलब है कई हतियारो को रखने वाला ।

11 . अनेकास्त्रधारिणी - इसका मतलब है कई हतियारो को रखने वाला ।

12 . अनेकावारना - कई रंगों का व्यक्ति ।

13 . अपर्णा – एक व्यक्ति जो उपवास के दौरान कुछ नहि कहता है यह उसका प्रतिक है ।

14 . अप्रौधा – जो व्यक्ति उम्र नहि करता यह उसका प्रतिक है ।

15 . बहुला - विभिन्न रूपों ।

16 . बहुलप्रेमा - हर किसी से प्यार ।

17 . बलप्रदा - यह ताकत का दाता का प्रतीक है ।

18 . भाविनी - खूबसूरत औरत ।

19 . भव्य – भविष्य ।

20 . भद्राकाली - काली देवी के रूपों में से एक ।

21 . भवानी - यह ब्रह्मांड की निवासी है ।

22 . भवमोचनी - ब्रह्मांड की समीक्षक ।

23 . भवप्रीता - ब्रह्मांड में हर किसी से प्यार पाने वाली ।

24 . भव्य - यह भव्यता का प्रति है ।

25 . ब्राह्मी - भगवान ब्रह्मा की शक्ति ।

26 . ब्रह्मवादिनी – हर जगह उपस्तित ।

27 . बुद्धि - ज्ञानी

28 . बुध्हिदा - ज्ञान की दातरि ।

29 . चामुंडा - राक्षसों चंदा और मुंडा की हत्या करने वलि देवि ।

30 . चंद्रघंटा - ताकतवर घंटी

31 . चंदामुन्दा विनाशिनी - देवी जिसने चंदा और मुंडा की हत्या की ।

32 . चिन्ता - तनाव ।

33 . चिता - मृत्यु - बिस्तर ।

34 . चिति - सोच मन ।

35 . चित्रा - सुरम्य ।

36 . चित्तरूपा - सोच या विचारशील राज्य ।

37 . दक्शाकन्या - यह दक्षा की बेटी का नाम है ।

38 . दक्शायाज्नाविनाशिनी - दक्षा के बलिदान को टोकनेवाला ।

39 . देवमाता - देवी माँ ।

40 . दुर्गा - अपराजेय ।

41 . एककन्या - बालिका ।

42 . घोररूपा - भयंकर रूप ।

43 . ज्ञाना - ज्ञान ।

44 . जलोदरी - ब्रह्मांड मेइन वास करने वाली ।

45 . जया - विजयी

46 कालरात्रि - देवी जो कालि है और रात के समान है ।

47 . किशोरी - किशोर

48 . कलामंजिराराजिनी - संगीत पायल ।

49 . कराली - हिंसक

50 . कात्यायनी - बाबा कत्यानन इस नाम को पूजते है ।

51 . कौमारी - किशोर ।

52 . कोमारी - सुंदर किशोर ।

53 . क्रिया - लड़ाई ।

54 . क्र्रूना - क्रूर ।

55 . लक्ष्मी - धन की देवी ।

56 . महेश्वारी - भगवान शिव की शक्ति ।

57 . मातंगी - मतंगा की देवी ।

58 . मधुकैताभाहंत्री - देवी जिसने राक्षसों मधु और कैताभा को आर दिया ।

59 . महाबला - शक्ति ।

60 . महातपा - तपस्या ।

61 . महोदरी - एक विशाल पेट में ब्रह्मांड में रखते हुए ।

62 . मनः - मन ।

63 . मतंगामुनिपुजिता - बाबा मतंगा द्वारा पूजी जाती है ।

64 . मुक्ताकेशा - खुले बाल ।

65 . नारायणी - भगवान नारायण विनाशकारी विशेषताएँ ।

66 . निशुम्भाशुम्भाहनानी - देवी जिसने भाइयो शुम्भा निशुम्भा को मारा ।

67 . महिषासुर मर्दिनी - महिषासुर राक्षस को मार डाला जो देवी ने ।

68 नित्या - अनन्त ।

69 . पाताला - रंग लाल ।

70 . पातालावती - लाल और सफ़द पहेने वाली ।

71 . परमेश्वरी - अंतिम देवी ।

72 . पत्ताम्बरापरिधान्ना - चमड़े से बना हुआ कपडा ।

73 . पिनाकधारिणी - शिव का त्रिशूल ।

74 . प्रत्यक्ष – असली ।

75 . प्रौढ़ा - पुराना ।

76 . पुरुषाकृति - आदमी का रूप लेने वाला ।

77 . रत्नप्रिया - सजी

78 . रौद्रमुखी - विनाशक रुद्र की तरह भयंकर चेहरा ।

79 . साध्वी - आशावादी ।

80 . सदगति - मोक्ष कन्यादान ।

81 . सर्वास्त्रधारिणी - मिसाइल हथियारों के स्वामी ।

82 . सर्वदाना वाघातिनी - सभी राक्षसों को मारने के लिए योग्यता है जिसमें ।

83 . सर्वमंत्रमयी - सोच के उपकरण ।

84 . सर्वशास्त्रमयी - चतुर सभी सिद्धांतों में ।

85 . सर्ववाहना - सभी वाहनों की सवारी ।

86 . सर्वविद्या - जानकार ।

87 . सती - जो महिला जिसने अपने पति के अपमान पर अपने आप को जला दिया ।

89 . सत्ता - सब से ऊपर ।

90 . सत्य - सत्य ।

91 . सत्यानादास वरुपिनी - शाश्वत आनंद ।

92 . सावित्री - सूर्य भगवान सवित्र की बेटी ।

93 . शाम्भवी - शंभू की पत्नी ।

94 . शिवदूती - भगवान शिव के राजदूत ।

95 . शूलधारिणी – व्यक्ति जो त्र्सिहुल धारण करता है ।

96 . सुंदरी - भव्य ।

97 . सुरसुन्दरी - बहुत सुंदर ।

98 . तपस्विनी - तपस्या में लगी हुई ।

99 . त्रिनेत्र - तीन आँखों का व्यक्ति ।

100 . वाराही – जो व्यक्ति वाराह पर सवारी करता हियो ।

101 . वैष्णवी - अपराजेय ।

102 . वनदुर्गा - जंगलों की देवी ।

103 . विक्रम - हिंसक ।

104 . विमलौत्त्त्कार्शिनी - प्रदान करना खुशी ।

105 . विष्णुमाया - भगवान विष्णु का मंत्र ।

106 . वृधामत्ता - पुराना है , जो माँ ।

107 . यति - दुनिया त्याग जो व्यक्ति एक ।

108 . युवती - औरत ।

देवी पार्वती यह सभी नाम पूजा करने के लिए और उनके आशीर्वाद पाने के लिए , लिए जाते है।


🙏🏽🙏🏽❤️🙏🏽🌹

Tuesday, March 26, 2024

_होली खेल है जाने सांवरिया_*.......

 *🌹रा धा स्व आ मी🌹*


*_होली खेल है जाने सांवरिया_*

*_सतगुरु से सर्व–रंग मिलाई_*


फागुन मास रँगीला आया। 

घर घर बाजे गाजे लाया।। 

यह नरदेही फागुन मास। 

सुरत सखी आई करन बिलास।। 

तुझ को फिर कर फागुन आया। 

सम्हल खेलियो हम समझाया।।


होली के पावन अवसर पर समस्त सतसंग जगत  प्राणी मात्र को अनेकानेक बधाई। 


हुजूर रा धा स्व आ मी दयाल समस्त जीवों को स्वार्थ व परमार्थ की तरक्की की दात बख्शे। यहीc प्रार्थना उन दयाल के चरन कमलों में हम सब तुच्छ जीव पेश करते है। 


रा धा स्व आ मी दयाल की दया रा धा स्व आ मी सहाय!


*🙏🏻रा धा स्व आ मी🙏🏻*🌹

Sunday, February 25, 2024

बैकुंठ धाम पर भंडारे / डॉ.स्वामी प्यारी कौड़ा के दिन*

 *🙏🙏🙏🙏🙏



तेरे सजदे में सर झुका रहे,

 यह आरज़ू अब दिल में है।

 हर हुक्म की तामील करें,

 बस यह तमन्ना अब मन में है।।


तेरी आन बान शान निराली है ,

यह नज़ारा हमने देख लिया।

बैकुंठ धाम पर यमुना तीरे,

 तेरा जलवा हमने देख लिया।।


रूहानियत का आलम था,

रौनकों का अजब शोर था।

हंसते खिलखिलाते प्रेमियों से,

 मजमा सराबोर था।


दाता जी की तशरीफ़ आवरी से,

कण-कण में चेतनता छा गई।

यमुना की लहरें मचलने लगीं,

 हर गुल पर रौनक आ गई।।


संगीत की स्वर लहरियों पर,

थिरकती सुपरमैनों की टोलियां।

 दाता दयाल की दया दृष्टि पा

 भर रहीं थीं प्रेम की झोलियां।।


दया और मेहर का अजब नज़ारा,

 यमुना के तट पर था।

 सैकड़ो प्रेमियों का प्रेम  रंग,

 थिरक रहा यमुना जल पर था।।


शहंशाहों के शहंशाह यमुना तट पर विराजमान थे।

 प्रेमियों के झुंड के झुंड उनके चरणों पर कुर्बान थे।।


बैकुंठ धाम का अनुपम नज़ारा हम ने यहां देख लिया।

 सोते जगते हर वक्त ऊष्मा पा, निज धाम हमने पा लिया।।


स्याही रंग छुड़ाकर दाता ने, रंग दिया मजीठे रंग में।

कल करम से हमें बचा, प्रेम सरन दे बिठा लिया गोद में।।


सर पर धरा हाथ दया का, चिंता अब किस बात की।

 प्रेम रंग में जब रंग डाला ,अब फिक्र नहीं दिन-रात की।।



 *डॉक्टर स्वामी प्यारी कौड़ा* 

 4/64 विद्युत नगर

दयालबाग,आगरा 

 *25 फरवरी 2024

Monday, February 5, 2024

मौन और मुस्कान

 *प्रस्तुति - नवल किशोर प्रसाद / कुसुम सिन्हा 


मैं मौमु सेठ के बारे में बहुत तो नहीं जानता, पर इतना तो जानता ही हूँ कि वह पहले से ही सेठ नहीं था। वह तो एक गरीब आदमी था, झन्नु उसका नाम था।


झन्नु हमेशा झन्नाया रहता। बिना बात का झगड़ा करना तो उसके स्वभाव में ही था।


किसी ने पूछ लिया कि *झन्नु भाई टाईम क्या हुआ होगा?* तो झन्नु झनझना जाता और कहता- *यह घड़ी तेरे बाप ने ले कर दी है? यहाँ टाईम पहले ही खराब चल रहा है, तूं और आ गया मेरा टाईम खाने। भाग यहाँ से।*


अब ऐसे आदमी के साथ कौन काम करे? न उसके पास कोई ग्राहक टिकता, न नौकर। यही कारण था कि वो जो भी काम करता था, उसमें उसे नुकसान ही होता था।


कहते हैं कि एक संत एक बार झन्नु के पास से गुजरे। वे कभी किसी से कुछ माँगते नहीं थे, पर न मालूम उनके मन में क्या आया, सीधे झन्नु के सामने आ खड़े हुए। बोले- *बेटा! संत को भोजन करा देगा?"*


अब झन्नु तो झन्नु ही ठहरा। झन्ना कर बोला- *"मैं खुद भूखे मर रहा हूँ, तूं और आ गया। चल चल अपना काम कर।"*


संत मुस्कुराए और बोले- *"मैं तो अपना काम ही कर रहा हूँ, बिल्कुल सही से कर रहा हूँ। तुम ही अपना काम सही से नहीं कर रहे।"*


झन्नु झटका खा गया। उसे ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी। पूछने लगा- *"क्या मतलब?"*


संत उसके पास बैठ गए। बोले- *"बेटा मालूम है तुम्हारा नाम झन्नु क्यों है? क्योंकि झन्नाया रहना और नुकसान उठाना, यही तुम करते आए हो।अगर तुम अपना स्वभाव बदल लो, तो तुम्हारा जीवन बदल सकता है। मेरी बात मानो तो चाहे कुछ भी हो जाए, खुश रहा करो।"*


झन्नु बोला- *"महाराज! खुश कैसे रहूँ? मेरा तो नसीब ही खराब है।"*


संत बोले- *"खुशनसीब वह नहीं जिसका नसीब अच्छा है, खुशनसीब वह है जो अपने नसीब से खुश है। तुम खुश रहने लगो तो नसीब बदल भी सकता है। तुम नहीं जानते कि कामयाब आदमी खुश रहे न रहे, पर खुश रहने वाला एक ना एक दिन कामयाब जरूर होता है।"*


झन्नु बोला- *"महाराज! दुनिया बड़ी खराब है और मेरा ढंग ही ऐसा है कि मुझसे झूठ बोला नहीं जाता।"*


संत बोले- *"झन्नु! झूठ नहीं बोल सकते पर चुप तो रह सकते हो? तुम दो सूत्र पकड़ लो। मौन और मुस्कान। मुस्कान समस्या का समाधान कर देती है। मौन समस्या का बाध कर देता है। चाहे जो भी हो जाए, तुम चुप रहा करो, और मुस्कुराया करो। फिर देखो क्या होगा?"*


*झन्नु को संत की बात जंच गई। और भगवान की कृपा से उसका स्वभाव और भाग्य दोनों बदल गए। फल क्या मिला? समय बदल गया, झन्नु मौन और मुस्कान के सहारे चलते चलते मौमु सेठ बन गया।*




*शुभ प्रभात। 🙏🙏🙏


आज का दिन आपके लिए शुभ एवं मंगलकारी हो।*

❤️🌹💐👌🙏👍


 

Friday, February 2, 2024

रोज़ाना वाकिआत-



रा धा/ध: स्व आ मी!       

                             

  02-02-24- आज शाम सतसंग में पढ़ा गया बचन-

कल से आगे:-

 (12.1.32 का दूसरा व शेष भाग)-

 रात के सतसंग में ब्रह्मा (बर्मा) के एक सतसंगी ने सवाल किया कि मन कभी तो बडा प्रेम दिखलाता है कभी खुश्क (सूखा) हो जाता है कभी बडा श्रद्धावान हो जाता है कभी मुखालिफत (विरोध) करने लगता है। इसकी क्या वजह है? जवाब दिया गया- इसकी वजह मन की चंचलता व मलिनता है। जब तक किसी के मन के अन्दर दुनिया की चीजों व बातों के लिए मोह मौजूद है उन चीजों के मुतअल्लिक मुआफिक (अनूकूल )या मुखालिफ (प्रतिकूल) सूरतें नमूदार (प्रकट) होने पर उसको उन उतार चढ़ाव की हालतो का जरूर तल्ख (कड़वा) तजरबा सहना पड़ेगा। इस मोह की मलिनता को दूर करो व नीज (और भी) मन को एक ठिकाने पर क़ायम करने की कोशिश करो तो मन की एकरस हालत कायम रह सकेगी। उसने कहा यह तो निहायत (बहुत) मुश्किल काम है। मन न आसानी से चीजो की मोहब्बत छोडेगा और न अपनी चचलता से बाज आवेगा। जवाब दिया गया कि मालिक के चरनों में मोह बढाओ ऐसा करने से ससार का मोह आप से आप छूट जावेगा और प्रेम बस होकर जब मालिक अन्तर में दर्शन देने की कृपा फरमावेगा तो सभी मलिनता एकदम भस्म हो जावेगी। उसने कहा कि मालिक से प्रेम बढाना भी तो आसान काम नहीं है? जवाब दिया गया - बेशक यह भी आसान बात नहीं है। तो फिर बेहतर होगा कि सतगुरु से या किसी प्रेमी जन से मोहब्बत कायम करो। और दुख सुख व नफा नुकसान दोनों की हालतों में उन्हें याद किया करने से भी मन की हालत बहुत कुछ सुधर सकती है।उसने यह जवाब मंजूर किया।                                       

🙏🏻रा धा/ध: स्व आ मी🙏🏻

रोज़ाना वाकिआत-परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज!*


Wednesday, January 31, 2024

हनुमान कथाएँ

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🌹हनुमानजी की 5  पौराणिक कथाएं🌹


प्रस्तुति - कुसुम सिन्हा / नवल किशोर प्रसाद 


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*⭕वाल्मीकि रामायण के अलावा दुनियाभर की रामायण में हनुमानजी के संबंध में सैंकड़ों कथाओं का वर्णन मिलता है। उनके बचपने से लेकर कलयुग तक तो हजारों कथाएं हमें पढ़ने को मिल जाती हैं। हनुमानजी को कलयुग का संकट मोचन देवता कहा गया है। एकमात्र इन्हीं की भक्ति फलदायी है। आओ जानते हैं कि कौनसी 5 ऐसी पौराणिक कथाएं हैं जो आज भी प्रचलित हैं।*

 

*🚩1. चारों जुग परताप तुम्हारा:-* लंका विजय कर अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम उन्हें युद्घ में सहायता देने वाले विभीषण, सुग्रीव, अंगद आदि को कृतज्ञतास्वरूप उपहार देते हैं तो हनुमानजी श्रीराम से याचना करते हैं- *•''यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले। तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।।''*

 

*•अर्थात :-* 'हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।' इस पर श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते हैं- *•'एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:। चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा। लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।'*

 

*•अर्थात् :-* 'हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे ही। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।' चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा।।

 

*🚩2. दो बार उठाया था संजीवनी पर्वत:-* एक बार बचपन में ही हनुमानजी समुद्र में से संजीवनी पर्वत को देवगुरु बृहस्पति के कहने से अपने पिता के लिए उठा लाते हैं। यह देखकर उनकी माता बहुत ही भावुक हो जाती है। इसके बाद राम-रावण युद्ध के दौरान जब रावण के पुत्र मेघनाद ने शक्तिबाण का प्रयोग किया तो लक्ष्मण सहित कई वानर मूर्छित हो गए थे। जामवंत के कहने पर हनुमानजी संजीवनी बूटी लेने द्रोणाचल पर्वत की ओर गए। जब उनको बूटी की पहचान नहीं हुई, तब उन्होंने पर्वत के एक भाग को उठाया और वापस लौटने लगे। रास्ते में उनको कालनेमि राक्षस ने रोक लिया और युद्ध के लिए ललकारने लगा। कालनेमि राक्षस रावण का अनुचर था। रावण के कहने पर ही कालनेमि हनुमानजी का रास्ता रोकने गया था। लेकिन रामभक्त हनुमान उसके छल को जान गए और उन्होंने तत्काल उसका वध कर दिया।

 

*🚩3. विभीषण और राम को मिलाना:-* जब हनुमानजी सीता माता को ढूंढते-ढूंढते विभीषण के महल में चले जाते हैं। विभीषण के महल पर वे राम का चिह्न अंकित देखकर प्रसन्न हो जाते हैं। वहां उनकी मुलाकात विभीषण से होती है। विभीषण उनसे उनका परिचय पूछते हैं और वे खुद को रघुनाथ का भक्त बताते हैं। हनुमान और विभीषण का लंबा संवाद होता है और हनुमानजी जान जाते हैं कि यह काम का व्यक्ति है।

 

इसके बाद जिस समय श्रीराम लंका पर चढ़ाई करने की तैयारी कर रहे होते हैं उस दौरान विभीषण का रावण से विवाद चल रहा होता है अंत में विभीषण महल को छोड़कर राम से मिलने को आतुर होकर समुद्र के इस पार आ जाते हैं। वानरों ने विभीषण को आते देखा तो उन्होंने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है। कोई भी विभीषण पर विश्वास नहीं करता है।


सुग्रीव कहते हैं- 'हे रघुनाथजी! सुनिए, रावण का भाई मिलने आया है।' प्रभु कहते हैं- 'हे मित्र! तुम क्या समझते हो?' वानरराज सुग्रीव ने कहा- 'हे नाथ! राक्षसों की माया जानी नहीं जाती। यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला न जाने किस कारण आया है।' ऐसे में हनुमानजी सभी को दिलासा देते हैं और राम भी कहते हैं कि मेरा प्रण है कि शरणागत के भय को हर लेना चाहिए। इस तरह हनुमानजी के कारण ही श्रीराम-विभीषण का मिलन सुनिश्चित हो पाया।

 

*🚩4. सबसे पहले लिखी रामायण:-* शास्त्रों के अनुसार विद्वान लोग कहते हैं कि सर्वप्रथम रामकथा हनुमानजी ने लिखी थी और वह भी एक शिला (चट्टान) पर अपने नाखूनों से लिखी थी। यह रामकथा वाल्मीकिजी की रामायण से भी पहले लिखी गई थी और यह *•'हनुमद रामायण'* के नाम से प्रसिद्ध है। यह घटना तब की है जबकि भगवान श्रीराम रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद अयोध्या में राज करने लगते हैं और श्री हनुमानजी हिमालय पर चले जाते हैं। वहां वे अपनी शिव तपस्या के दौरान की एक शिला पर प्रतिदिन अपने नाखून से रामायण की कथा लिखते थे। इस तरह उन्होंने प्रभु श्रीराम की महिमा का उल्लेख करते हुए *•'हनुमद रामायण'* की रचना की।

 

कुछ समय बाद महर्षि वाल्मीकि ने भी *•'वाल्मीकि रामायण'* लिखी और लिखने के बाद उनके मन में इसे भगवान शंकर को दिखाकर उनको समर्पित करने की इच्छा हुई। वे अपनी रामायण लेकर शिव के धाम कैलाश पर्वत पहुंच गए। वहां उन्होंने हनुमानजी को और उनके द्वारा लिखी गई *•'हनुमद रामायण'* को देखा। हनुमद रामायण के दर्शन कर वाल्मीकिजी निराश हो गए।

 

वाल्मीकिजी को निराश देखकर हनुमानजी ने उनसे उनकी निराशा का कारण पूछा तो महर्षि बोले कि उन्होंने बड़े ही कठिन परिश्रम के बाद रामायण लिखी थी लेकिन आपकी रामायण देखकर लगता है कि अब मेरी रामायण उपेक्षित हो जाएगी, क्योंकि आपने जो लिखा है उसके समक्ष मेरी रामायण तो कुछ भी नहीं है। तब वाल्मीकिजी की चिंता का शमन करते हुए श्री हनुमानजी ने हनुमद रामायण पर्वत शिला को एक कंधे पर उठाया और दूसरे कंधे पर महर्षि वाल्मीकि को बिठाकर समुद्र के पास गए और स्वयं द्वारा की गई रचना को श्रीराम को समर्पित करते हुए समुद्र में समा दिया। तभी से हनुमान द्वारा रची गई हनुमद रामायण उपलब्ध नहीं है। वह आज भी समुद्र में पड़ी है।

 

*🚩5. हनुमान और अर्जुन:-* आनंद रामायण में वर्णन है कि अर्जुन के रथ पर हनुमान के विराजित होने के पीछे भी कारण है। एक बार किसी रामेश्वरम तीर्थ में अर्जुन का हनुमानजी से मिलन हो जाता है। इस पहली मुलाकात में हनुमानजी से अर्जुन ने कहा- 'अरे राम और रावण के युद्घ के समय तो आप थे?'



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Monday, January 29, 2024

श्री राम जन्मभूमि मंदिर का विश्व को संदेश / साध्वी प्रज्ञा भारती




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22 जनवरी 2024 आधुनिक भारत के इतिहास की एक महत्वपूर्ण तिथि बन गई है| उस दिन अयोध्या धाम में राम जन्म भूमि मंदिर में रामलला विराजमान होने से विश्वभर का ध्यान भारत के गौरवशाली अतीत की ओर चला गया था| पूरा देश राम माय हो गया था| क्योंकि राम भारतीय संस्कृति के केंद्र में समाए हुए हैं| श्री राम का जियाव्न विश्वभर को यह प्रेरणा देता रहा है कि हम अपने जियाव्न को श्रेष्ठ, मर्यादापूर्ण, अनुशासित और कल्याणकारी कैसे बना सकते हैं| श्री राम का जीवन यह भी सिखाता है कि अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में किस प्रकार से धैर्य रखा जा सकता है| सत्य, मर्यादा, करुणा और समाज के हर व्यक्ति के प्रति सम्मान उन्हें सबका बना देता है| वह राजा सुग्रीव, राजकुमार विभीषण, महाबली हनुमान, ऋषि मुनियों, अहिल्या शबरी, केवट, जटायु, भालुओं, वानरों के तो हैं ही तथा अवध कि जनता के भी अपने हैं| उनका व्यवहार यह भी सिखाता है कि क्रोध को विनम्रता से कैसे जीता जा सकता है| विवेक, विनय और वीरता ने अयोध्या के राजा राम को लोकनायक राम बना दिया है| 

राम ने अयोध्या से श्रीलंका तक यात्रा करके समूचे भारत को एक सूत्र में बांध दिया| आस्थावान लोगों का मानना है कि उन्हें दैवीय शक्तियाँ प्राप्त थीं लेकिन उन्होने हर काम को आम आदमी की भांति पूरा किया| अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि मंदिर हर व्यक्ति को उनकी अद्भुत संगठन क्षमता की याद दिलाएगा| अयोध्या से जाते समय श्री राम केवल अपनी पत्नी और छोटे भाई के साथ वन गए थे लेकिन चौदह वर्ष बाद वह, मनुष्यों, वानरों और भालुओं की विशाल सेना लेकर लौटे थे| श्री राम जन्मभूमि मंदिर पूरे विश्व को अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देगा| भव्य मंदिर हर व्यक्ति को यह प्रेरणा देगा कि हमें कैसा व्यवहार करना है और कैसा नहीं! यह वास्तुकला का अनूठा नमूना हमें मित्र कैसा होना चाहिए, इसकी सीख भी देगा| श्री राम द्वारा निषादराज, सुग्रीव और विभीषण के प्रति दिखाए गए सम्मान की याद यह मंदिर सदा दिलाएगा कि जिससे भी मैत्री की, उसे पूरे दिल से निभाई| यह मंदिर यह भी प्रेरणा देगा कि श्री राम अपने वचन के कितने पक्के थे| यह मंदिर त्याग, प्रेम, समर्पण और निष्ठाजैसी भावनाओं का महत्व सदियों तक बताता रहेगा| श्री राम का शासन धर्म और सत्य पर आधारित था, इसलिए आज भी आदर्श माना जाता है| यह मंदिर विश्व के शासकों को रामराज की याद दिलाता रहेगा|


जयश्री राम !!

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Saturday, January 27, 2024

रा धा ध : स्व आ मी अर्थ


 *रा धा/ध: स्व आ मी!         

प्रस्तुति,- उषा  रानी  / राजेंद्र प्रसाद सिन्हा


                            

  27-01-24- आज शाम सतसंग में पढ़ा गया बचन- कल से आगे: (9.रानी 1रानी .32- सनीचर)- आर्य समाजी भाई अक्सर यह कटाक्ष करते हैं कि रा धा/ध: स्व आ मी मत में शब्द की बड़ी महिमा है हालांकि (यद्धपि ) शब्द आकाश का गुन है और बहगान है। आज इतिफाक स्व(संयोग) से वैशेषिक दर्शन हाथ लग गया। उसमे और ही कुछ देखा। उसमे शब्द को आकाश का गुन जरूर बतलाया है लेकिन यह भी फरमाया है कि "कान से ग्रहन किया जाना जो अर्थ है बह शब्द है"।

 यानी जो शब्द आकाश का गुन है वह यह शब्द है जो कान से सुना जाता है (2-2-21)। और रा धा/ध: स्व आ मी मत में जिस शब्द का अभ्यास किया जाता है वह मनुष्य की अवन इन्द्री का विषय नहीं है। यह शब्द चेतन शक्ति का इजहार (प्रकटन) है। यानी जब चेतन शक्ति गुप्त या अव्यक्त अवस्था से प्रकट रूप में आती है तो सुरत की श्रवन शक्ति से उसका अनुभव करने पर जो ज्ञान प्राप्त होता है उसी को शब्द कहते हैं। या यूँ कहो कि वैशेषिक दर्शन में जिस शब्द का जिक्र है वह स्थूल आकाश का गुन है लेकिन रा धा/ध: स्व आ मी मत में जिस चेतन या सार शब्द का उपदेश है वह परम आकाश या चेतन आकाश का गुन है।

चुनांचे (अंत:) उपनिषदों में ब्रह्म को कई जगह परम आकाश (परमे व्योमन) अल्फाज (शब्दों)  से बयान किया है। और भूत आकाश को नाशमान कहा है मगर परम आकाश को नाशमान नहीं बतलाया गया। तफ़सील (स्पष्टता ) के लिए वेदान्त सूत्र के पहले अध्याय के दूसरे पाद के सूत्र नम्बर 22 की व्याख्या मुलाहजा (अवलोकित ) हो।


 इस बयान से साफ़ जाहिर है कि इन भाइयों का कटाक्ष महज गलतफ़हमी (भ्रामक)  की बुनियाद (आधार) पर कायम है।                                                              

🙏🏻रा धा/ध: स्व आ मी🙏🏻 रोजाना वाकिआत- परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज!*


Friday, January 26, 2024

संत की वाणी*/


*प्रस्तुति - उषा रानी सिन्हा / राजेंद्र प्रसाद 


किसी नगर में एक बूढ़ा चोर रहता था। सोलह वर्षीय उसका एक लड़का भी था। चोर जब ज्यादा बूढ़ा हो गया तो अपने बेटे को चोरी की विद्या सिखाने लगा। कुछ ही दिनों में वह लड़का चोरी विद्या में प्रवीण हो गया । दोनों बाप बेटा आराम से जीवन व्यतीत करने लगे।


एक दिन चोर ने अपने बेटे से कहा -- *”देखो बेटा, साधु-संतों की बात कभी नहीं सुननी चाहिए। अगर कहीं कोई महात्मा उपदेश देता हो तो अपने कानों में उंगली डालकर वहां से भाग जाना, समझे ।*


*”हां बापू, समझ गया ।“* 


एक दिन लड़के ने सोचा, क्यों न आज राजा के घर पर ही हाथ साफ कर दूं। ऐसा सोचकर उधर ही चल पड़ा। थोड़ी दूर जाने के बाद उसने देखा कि रास्ते में बगल में कुछ लोग एकत्र होकर खड़े हैं। उसने एक आते हुए व्यक्ति से पूछा, -- *”उस स्थान पर इतने लोग क्यों एकत्र हुए हैं ?“*


उस आदमी ने उत्तर दिया -- *”वहां एक महात्मा उपदेश दे रहे हैं।*


यह सुनकर उसका माथा ठनका। ‘इसका उपदेश नहीं सुनूंगा ऐसा सोचकर अपने कानों में उंगली डालकर वह वहां से भाग निकला।


जैसे ही वह भीड़ के निकट पहुंचा एक पत्थर से ठोकर लगी और वह गिर गया। उस समय महात्मा जी कह रहे थे, *”कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए। जिसका नमक खाएं उसका कभी बुरा नहीं सोचना चाहिए। ऐसा करने वाले को भगवान सदा सुखी बनाए रखते हैं।“*


ये दो बातें उसके कान में पड़ीं। वह झटपट उठा और कान बंद कर राजा के महल की ओर चल दिया। वहां पहुंचकर जैसे ही अंदर जाना चाहा कि उसे वहां बैठे पहरेदार ने टोका, -- *”अरे कहां जाते हो? तुम कौन हो?“*


उसे महात्मा का उपदेश याद आया, ‘झूठ नहीं बोलना चाहिए।’ चोर ने सोचा, आज सच ही बोल कर देखें। उसने उत्तर दिया -- *”मैं चोर हूं, चोरी करने जा रहा हूं!“*


*”अच्छा जाओ।“* उसने सोचा राजमहल का नौकर होगा। मजाक कर रहा है। 


चोर सच बोलकर राजमहल में प्रवेश कर गया। एक कमरे में घुसा। वहां ढेर सारा पैसा तथा जेवर देख उसका मन खुशी से भर गया।


एक थैले में सब धन भर लिया और दूसरे कमरे में घुसा। वहां रसोई घर था। अनेक प्रकार का भोजन वहां रखा था। वह खाना खाने लगा।


खाना खाने के बाद वह थैला उठाकर चलने लगा कि तभी फिर महात्मा का उपदेश याद आया, *‘जिसका नमक खाओ, उसका बुरा मत सोचो।’*


उसने अपने मन में कहा, *‘खाना खाया उसमें नमक भी था। इसका बुरा नहीं सोचना चाहिए।’*


इतना सोचकर, थैला वहीं रख वह वापस चल पड़ा।


पहरेदार ने फिर पूछा -- *”क्या हुआ, चोरी क्यों नहीं की?“*


*"देखिए जिसका नमक खाया है, उसका बुरा नहीं सोचना चाहिए। मैंने राजा का नमक खाया है, इसलिए चोरी का माल नहीं लाया। वहीं रसोई घर में छोड़ आया!“* इतना कहकर वह वहां से चल पड़ा ।


उधर रसोइए ने शोर मचाया -- *”पकड़ो, पकड़ों चोर भागा जा रहा है ।“* 


पहरेदार ने चोर को पकड़कर दरबार में उपस्थित किया।


राजा के पूछने पर उसने बताया कि *एक महात्मा के द्धारा दिए गए उपदेश के मुताबिक मैंने पहरेदार के पूछने पर अपने को चोर बताया क्योंकि मैं चोरी करने आया था।"*


*"आपका धन चुराया लेकिन आपका खाना भी खाया, जिसमें नमक मिला था। इसीलिए आपके प्रति बुरा व्यवहार नहीं किया और धन छोड़कर भागा।* 


उसके उत्तर पर राजा बहुत खुश हुआ और उसे अपने दरबार में नौकरी दे दी ।


वह दो-चार दिन घर नहीं गया तो उसके बाप को चिंता हुई कि बेटा पकड़ लिया गया- लेकिन चार दिन के बाद लड़का आया तो बाप अचंभित रह गया अपने बेटे को अच्छे वस्त्रों में देखकर ।


लड़का बोला -- *”बापू जी, आप तो कहते थे कि किसी साधु संत की बात मत सुनो! लेकिन मैंने एक महात्मा के दो शब्द सुने और उसी के मुताबिक काम किया तो देखिए सच्चाई का फल ।"*


*सच्चे संत की वाणी में अमृत बरसता है, आवश्यकता आचरण में उतारने की है।*


*शुभ प्रभात। आज का दिन आप के लिए शुभ एवं मंगलकारी हो।*

Tuesday, January 23, 2024

मानत नहीं मन मोरा साधो

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मानत नहीं मन मोरा साधो |

मानत नहीं मन मोरा 

रे || टेक||

बार बार मै मन समझाउं, 

जग जीवन थोड़ा 

रे ||1||

या देही का गरव न कीजे, 

क्या सांवर क्या गोरा 

रे, ||2||

बिना भक्ति तन काम न आवे, 

कोटि सुगंध चमोरा

रे ||3||

या माया का गरव न कीजे, 

क्या हाथी क्या घोड़ा

रे ||4||

जोड जोड धन बहुत बिगूचे, 

लाखन कोट करोडा

रे ||5||

दुविधा दुरमति और चतुराई, 

जनम गयो नर बोरा

रे ||6||

अजहुँ आन मिलो सतसंगत, 

सतगुरु मान निहोरा

रे ||7||

लेत उठाय पडत भुई गिर गिर, 

जयो बालक बिन 

कोरा रे ||8||

कहैं कबीर चरन चित राखो, 

जैसे सूई बिच डोरा

रे ||9||

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Sunday, January 21, 2024

तुलसी के राम यानी राम के तुलसी

 *राम के तुलसी*


प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 


वटवृक्ष के नीचे एक चबूतरे पर महात्मा अपनी मधुर वाणी से रामकथा गा रहे थे और नीचे बैठे श्रोता उस भावजगत में डूबकर आत्मविभोर थे। भीड़ में सबसे पीछे एक असाधारण व्यक्तित्व का पुरुष भी बैठा हुआ था जिसने अपना चेहरा अपनी पगड़ी से ढंका हुआ था लेकिन उसके व्यक्तित्व व विशाल नेत्रों में जाने क्या आकर्षण था कि महात्माजी की दृष्टि उसकी ओर बार-बार जा रही थी। 


सहसा उनकी दृष्टि अभी-अभी आये वृद्ध स्त्री पुरुषों की ओर पड़ी जो उन्हें दूर से ही प्रणाम कर वहीं खड़े हो गए। महात्मा ने उन्हें इशारे से पास बुलाया। *महाराज हम भील है, हम भी रामकथा सुनना चाहते हैं।* सकुचाते हुये उनके अगुआ वृद्ध ने कहा। 

*"तो वहाँ क्यों खड़े हो? समीप आओ वत्स !! यहाँ से कथा अच्छे से सुनाई देगी।"-* महात्मा ने उन्हें आमंत्रित किया।


सहसा भीड़ में भिनभिनाहट शुरू हो गयी। 


*"क्या बात है?"* महात्मा ने पूछा


*महाराज जी, यह कोल भील क्या जानें कथा का मर्म? अभी कल शराब पीकर उत्पात मचाएंगे और हमारा रस भंग होगा।* भीड़ के एक प्रौढ़ व्यक्ति ने कहा। 


लगभग सभी व्यक्ति उससे सहमत प्रतीत हो रहे थी। महात्मा के प्रशांत चेहरे पर खिन्नता उभरी परंतु उन्होंने अपनी मधुर,प्रशांत वाणी में कहा- *कैसी बातें करते हो वत्स? क्या भूल गए कि इन कोल-भीलों के पूर्वजों ने मेरे राम का साथ उस समय दिया जब वे भैया लखन लाल के साथ अकेले रह गए थे।*


*"वह ठीक है महाराज लेकिन ये यहाँ बैठेंगे तो यहाँ का वातावरण दूषित होगा और आपने भी तो रामचरित मानस में कोलों, तेलियों, चांडालों, शूद्र आदि को निकृष्ट बताया है।*


*संदर्भरहित व लोक प्रचलित मुहावरों के आधार पर अनर्गल व्याख्या न करो पुत्र !! मेरे राम जिनके साथ चौदह वर्ष रहे उन पुण्यात्माओं के वंशज हैं यह। इनको तो मैं अपने चाम के जूते भी पहनाऊँ तो भी कम हैं, क्योंकि मैं तो राम के दासों का दास हूं जबकि ये तो उनके सहयोगी रहे।* संत के स्वर में आवेश था। 


*"अरे, छोड़ो मेरी बात को। कम से कम अपने राजा की ओर तो देखो कि किस तरह वह इन कोल भीलों को भाई की तरह मानता है। कम से कम उससे ही सीखो।"* लेकिन भीड़ पर कोई असर नहीं हुआ और एक-एक करके लोग सरक गये सिर्फ पीछे वाला असाधारण व्यक्ति अपने स्थान पर विराजमान रहा। 


अप्रभावित संत ने भीलों को बिठाया और पुनः परिवेश में रामकथामृत बहने लगा।

 

कथा समाप्त हुई। 

भीलों ने जंगली फल कथा में अर्पित किए और खड़े हो गए। 

*"कुछ कहना चाहते हो?"* अगुआ वृद्ध अचकचा गया।


*जी..वो..हम आपके चरण-स्पर्श करना चाहते हैं। हिचकते हुये वृद्ध ने कहा।*


संत की आँखों में आँसू आ गए। 


*"मेरे राम के मित्र थे आप लोग और मैं राम का दास। मैं आप लोगों से चरणस्पर्श नहीं करवा सकता...."* रुंधे कंठ से संत ने कहा और भील वृद्ध को गले लगा लिया।

 

भील अभिभूत थे। 


उनके जाने के बाद संत ने उस व्यक्तित्व को पास बुलाया। 

*बहुत दुःखी दिखते हो भैया।* 

आगुंतक की आंखें छलछला आईं और उसका सिर झुक गया। 

*"मेरे देश पर मुगलों ने कब्जा कर लिया है और अब कोई आशा नहीं बची है।"* आगुंतक ने निराश स्वर में कहा।

 

*"जब तक महाराणा प्रताप जीवित हैं तब तक निराशा की कोई बात नहीं।"* संत के स्वर में गर्जना थी। 


आगुन्तक की आंखों से आँसू बह निकले और वह संत के चरणों को पकड़कर बैठ गया। 


*मैं वह अभागा प्रताप ही हूँ, गोस्वामी जी।* आगुन्तक ने टूटे ढहते स्वर में मुँह पर से वस्त्र हटाते हुए कहा। 


*उस युग के दो अप्रतिम व्यक्तित्व एक दूसरे के आमने सामने थे-* 


*'महाराणा प्रताप और गोस्वामी तुलसीदास"*

*एक राम का रक्त वंशज और एक राम का अनन्य भक्त।* 


गोस्वामीजी की आंखों में आश्चर्य के भाव उभरे और कंधों से पकड़कर महाराणा को उठाया,

*ये कैसा अनर्थ करते हैं राणाजी? मेरे राम का रक्त जिसकी धमनियों में दौड़ रहा है उसे यह कातरता शोभा नहीं देती।*


*"पर मैं नितांत अकेला रह गया हूँ गोस्वामीजी।"* 


*क्या मेरे राम वन में अकेले नहीं थे? पर क्या उन्होंने सीता मैया को ढूंढने से हार मान ली थी?* 

*तुम कहते हो कि अकेले हो तो राम की राह क्यों नहीं चलते?*

महाराणा की आँखों में प्रश्न था। 


*"प्रभु राम ने रावण से युद्ध किसके साथ मिलकर किया था?"* मुस्कुराते हुए तुलसी ने पूछा। 


*वानरों के साथ।*


*तो पहचानिये !! अपने वानरों को, हनुमानों को। ये वनवासी भील आपके लिए वही वानर हैं।"* ओजस्वी स्वर में उन्होंने कहा।


*"मैंने स्वयं देखा है कि इन कोल भीलों के मन में तुम्हारे लिए कितना सम्मान है। तुमने ही तो कहा था न कि- *राणी जाया भीली जाया भाई-भाई!*

महाराणा की बुझी हुई आंखों में चमक उभरने लगी। 


*इन भीलों को,इन वनों को ही अपनी शक्ति बनाओ राणा जी !! मेरे राम सब मंगल करेंगे।* संत ने आशीर्वाद दिया।


*स्वतंत्रता का सूर्य अपने पूरे तेज़ से महाराणा प्रताप की आंखों में दमक उठा।*


*शुभ प्रभात। आज का दिन आपके लिए शुभ एवं मंगलकारी हो।*

Friday, January 19, 2024

हुज़ूर सत्संगी जी महाराज द्वारा रचित

 स्वणि॔म शुकराना

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ग्रेशस हुजूर सतसंगी साहब जी द्वारा रचित


गाऊँ रा-धा-स्व-आ-मी  परम गुरु महिमा |

सुनाऊँ दया निज धार का बहना ||


काशीवासी भोलानाथ साहब मित्र रहना |

कनिका भक्तसहेली कृष्ण कुमार ब्याहना ||


एक नहीं तीन संतान अल्पायु रह जाना |

भोलानाथ करें फरियाद साहब देव एक दाना ||


होय संतान दीघऻयु सतसंग संस्कार समाना |

अस दयालदेई प्रेम सरन जन्म पा जाना ||


यथा प्रेम रंग होली खेलन संयोग मिलाना |

मेहता साहब प्रेम सरन  पर्म आदर्श रहाना ||


सत्यवती विश्वनाथ-प्रेमबाला घर  जन्माना |

अत एव प्रेम-सत्य संगम दीपावली पुन पुन सजाना ||


सुरत समागम हेतु प्रेम और दयाल प्यारी आ जाना |

रजत जयंती पर्म गुरु हुजूर चरन सरन मनाना ||


अर्श बानी मुक्ति भी सुरत समागम संयोग मिलाना |

पाणिग्रहण स्वणऺ-जयती रा-धा-स्व-आ-मी रा-धा-स्व-आ-मी शुकराना गाना ||


जिन्ही अपार मेहर-वृष्टि दासानुदास सरन पर होना |

जिन समरथ सतगुरु दाता संस्पर्शन प्रेम पुनः पुनः पा जाना ||


जस पारस स्पर्श से लोहा बन जाय सोना |

तस गुरु पाणिग्रहण से गुरुमुख गुरु-गति पाना ||

मै बुलबुल सम भया हूँ मस्ताना |

स्वणिऺम शुकराना गाता  हूँ शुकराना ||


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Monday, January 15, 2024

वचन

 *राधास्वामी सहाय ।             

                         

15-01-24-आज शाम सतसंग में पढ़ा गया बचन- [रोजाना वाक़िआत-1 जनवरी सन् 1932 ई० से 2 अप्रैल सन् 1933 ई० तक]                                   

{भाग-2}- (1.1.32 शुक्र)- आज अंग्रजों का नया दिन है और रा धा/ध: स्व आ मी एजूकेशनल इंस्टीट्यूट का जन्मदिन है। यकुम जनवरी सन् 1917 ई० को इंस्टीट्यूट कायम(स्थापित) की गई थी। इसलिए आज के दिन तुलबा (विद्यार्थीगण) खूब खुशियां मनाते हैं। 2½ बजे से खेलें शुरू हुई और 5 बजे तक होती रहीं। और सुबह के वक्त 8 बजे से 11:30 बजे तक छोटे बच्चों की नुमाइश हुई।

 कामयाब तुलबा व बच्चो को इनामात तकसीम (वितरित) किये गये। दो इनाम तुकबन्दी के लिए थे। मैंने यह तुक पेश की "क्यों सोच करे मन भाई" एक बच्चे ने दूसरा मिसरा यह बनाया- "तेरे हित की कहूँ बुझाई" - उसे अव्वल इनाम दिया गया। एक लड़की ने अपनी तरफ़ से यह तुकें बनाई

 "मैंने देखा गधा एक मोटा ताजा बना फिरता था जंगल का वह राजा" उसे दोयम इनाम दिया गया। सतसंगियों से सवाल किया गया "सतसंग का सबसे बड़ा दुश्मन कौन है?" एक भाई ने जवाब दिया- "मन" उसे फ़ाउण्टेनपेन इनाम दिया गया। रात के सतसंग में तुलबा की तरफ से परशाद तकसीम हुआ। छोटे बच्चों को खूबसूरती, सेहत, सफाई, चुस्ती वगैरा के लिए इनामात दिये गये। छोटे बच्चों के इम्तिहानात का इंतजाम मिस ब्रूस के जिम्मे था। और बड़े बच्चों का प्रिंसिपल साहब इंस्टीट्यूट के जिम्मे।                                       

हिसाब देखने से मालूम हुआ कि गुजिश्ता (गत) नौ माह में जनरल भेंट 90 हजार के क़रीब हुई जो उम्मीद से बहुत बढ़कर है लेकिन डेरी भेंट सिर्फ 28 हजार के करीब हुई जो बहुत कम है। लेकिन साल के अभी 3 माह बाकी हैं।                                      

🙏🏻रा धा/ध: स्व आ मी🙏🏻 रोजाना वाकिआत-परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज!*


Wednesday, January 3, 2024

स्मारिका

 


(परम पुरुष पूरन धनी हुज़ूर महाराज)


संत सतगुरु के रूप में


(पिछले दिन का शेष)


जब वे आगरा में रहते थे, अपने गुरू महाराज की सेवाएँ स्वयं करते थे, किसी दूसरे को न करने देते थे। वे उनके लिए आटा पीसते, उनका भोजन बनाते और स्वयं अपने हाथ से परोस कर खिलाते थे, प्रतिदिन प्रातः काल उनको अपने गुरू महाराज के स्नान के लिए शुद्ध पानी से भरा घड़ा अपने सिर पर लाते हुए देखा जा सकता था। यह पानी वे एक कुएँ से, जो दो मील दूरी पर था, खींच कर लाते थे। वे अपना मासिक वेतन गुरू महाराज को पेश कर देते थे जो अपने शिष्य की पत्नी और बच्चों पर ख़र्च कर देते थे और शेष धर्मार्थ कार्यों पर व्यय कर देते थे। उनके परिवार के सब कामों की देखभाल उनके गुरू महाराज करते थे और यह सब कुछ जाति -बिरादरी के लोगों के, जो कि कायस्थ थे, विरोध करने के बावजूद भी किया जाता था। जात बिरादरी के लोग यह पसंद नहीं करते थे कि उनकी जाति का कोई व्यक्ति एक संत का खाना बनाए और उनका जूठा खाए क्योंकि वह संत दूसरी जाति (खत्री) के थे। कुछ समय पश्चात् हुज़ूर महाराज ने चाहा कि वे पोस्टल सर्विस से रिटायर हो जाएँ परन्तु उनके सतगुरू ने इजाज़त नहीं दी। जब वे उत्तरी -पश्चिमी प्रान्तों के पोस्ट मास्टर जनरल नियुक्त हुए तो उन्होंने अपने संत सतगुरू के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना की कि उनको रिटायर होने की इजाज़त दी जाए ताकि तन, मन और सुरत से आध्यात्मिक जीवन में संलग्न हो जाएँ। परन्तु संत सतगुरू ने एक बार फिर यह कहते हुए कि अपने पद सम्बन्धी कर्त्तव्यों के पालन से उनकी आध्यात्मिक उन्नति में कोई बाधा नहीं पड़ेगी, उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। उसके पश्चात आगरा छोड़ कर कई वर्षों तक नए पद पर इलाहाबाद में कार्य करते रहे। कहा जाता है कि इस समय उन्होंने बड़ी सफलता प्राप्त की और पोस्टल डिपार्टमेन्ट में कई उपयोगी परिवर्तन किए।


         ''सन् 1878 ई. में उनके गुरू के देहावसान के बाद पोस्ट मास्टर जनरल ने अपने को स्वतन्त्र समझ कर राजकीय सेवा से निवृत्ति का समय उपयुक्त समझा। वे स्वयं गुरू बन गए और उन लोगों को आध्यात्मिक उन्नति का उपदेश देने लगे जो उनके पास इस सहायतार्थ आते थे। जो लोग हुज़ूर महाराज का उपदेश सुनने के लिए आते थे वे प्रायः संसार से विरक्त हो कर सन्यासी बन जाते थे। इस कारण यह एक आम धारणा बन गई कि जो व्यक्ति राय सालिगराम साहब बहादुर के पास जाएगा वह अपना परिवार छोड़कर सन्यासी बन जाएगा। यही नहीं प्रत्युत यह भी कहा जाता था कि जो मनुष्य उनके मकान की ऊपरी मंज़िल के लैम्प की ओर भी देखता था वह भी संसार से वैराग्य लिए बिना नहीं बच सकता था। वह भी अपने परिवार को त्याग कर संसार के लिए बेकार साबित हो जाता था। अन्तिम बार जब हुज़ूर महाराज के विषय में सुना तो यह ज्ञात हुआ कि वे वयोवृद्ध व्यक्ति अभी जीवित हैं और उनके मकान पर स्त्रियों व पुरुषों की भारी भीड़ प्रतिदिन इकट्ठा होती है जो देश के भिन्न-भिन्न भागों से आते हैं। वे दिन और रात में पाँच बार, धार्मिक उपदेश देने के लिए, सतसंग करते हैं। इस कारण उनको सोने तक के लिए दो घन्टों से अधिक नहीं मिल पाते। उनके मकान पर सब का स्वागत होता है और ब्राह्मण, शूद्र, अमीर, ग़रीब और अच्छे व बुरे का कोई भेद भाव नहीं बर्ता जाता। लोगों का विश्वास है कि वे चमत्कार दिखा सकते हैं परन्तु गुरू महाराज ऐसी बातों को पसंद नहीं करते और चमत्कार दिखाना अपनी मर्यादा के विरुद्ध समझते हैं। कहा जाता है कि वायसराय के असिस्टेन्ट सर्जन स्वर्गीय डाक्टर मुकुन्दलाल हुज़ूर महाराज के पास ऐसे रोगियों को भेजा करते थे जो बहुत अधिक प्राणायाम करके अपने होश हवास खो बैठते थे। हुज़ूर महाराज केवल एक दृष्टि डालकर ही ऐसे रोगियों को चंगा कर देते थे और उनको समझाते थे कि प्राणायाम का अभ्यास उनके लिए बिलकुल लाभदायक नहीं है और कई स्थितियों में हानिकारक हो सकता हैं।''

सूर्य को जल चढ़ाने का अर्थ

  प्रस्तुति - रामरूप यादव  सूर्य को सभी ग्रहों में श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि सभी ग्रह सूर्य के ही चक्कर लगाते है इसलिए सभी ग्रहो में सूर्...