Wednesday, March 31, 2021

केवल तीन दिन

 _*राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय*_

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*Gracious Huzur directions*


Maximum numbers of  Healthy Volunteers below 70years  must reach Dayalbagh for 3 days Friday, Saturday, Sunday.


As Katayi target is 80 acres per day.


70 वर्ष तक के लोग ज्यादा से ज्यादा संख्याँ मे दयालबाग़ पहुंचें ग्रेसियस हुज़ूर के निर्देशानुसार कटाई तीन दिनों मे खत्म होनी चाहिए, शुक्रवार, शनिवार और रविवार |

निंदक नियरे राखिये........

 आलोचना एक ऐसा वाक्य है, जो किसी भी इंसान को विचलित कर सकती है। मगर हिम्मती व साहसी व्यक्ति केवल वही होता है जो इस आलोचना का स्वयं पर किसी तरह का प्रभाव नहीं पड़ने देता।


आचार्य चाणक्य कहते हैं प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक वक्त ऐसी ज़रूर आता है जब उसे अपनी आलोचना सुननी पड़ती है। जिसे सुनकर वह उत्तेजित भो हो जाता है। लेकिन क्या ऐसा करना सही होता है, जी नहीं चाणक्य बताते हैं मनुष्य को किसी भी हालात में अपनी आलोचना सुनकर उत्तेजित नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसा जीवन में हर किसी के साथ होता है, परंतु ऐसे समय में जो व्यक्ति अपनी निंदा या आलोचना सुनकर उत्तेजित हो जाता है, वो कभी जीवन में सफलता के मुकाम पर नहीं पहुंच पाता।


बहुत से लोग अपने जीवन में दूसरों की आलोचना केवल इसलिए करते हैं ताकि वह उत्तेजिक होकर किसी तरह का कोई ऐसा कदम उठा लें जिससे वह सफलता की जगह असफलता को हासिल करें। तो ऐसे में क्या करना चाहिए? आइए जानते हैं नीतिकार आचार्य चाणक्य से, जिन्होंने बताया है कि आलोचना होने पर व्यक्ति को क्या करना चाहिए।  जैसे कि हमने आपको उपरोक्तत भी बताया कि कई बार सामने वाले व्यक्ति का मकसद केवल आपको उत्तेजित करना होता है, ऐसे में कोई फैसला लेने से या फिर कोई बात कहने से जो हित में न हो तो असल जिंदगी में ऐसे आलोचक कई पैदा हो जाते हैं।


कहा जाता है अक्सर इस हथियार का प्रयोग सामने वाले को बिना युद्ध किए हुए ही परास्त करने के लिए किया जाता है, क्योंकि ऐसे लोग जल्दी अपनी आलोचना सुन कर उत्तेजित हो जाते हैं और उत्तेजना में कोई गलत निर्णय ले लेते हैं या उनका आत्मविश्वास डगमगा जाता है। जो सामने वाला चाहता होता है, ताकि वह आप पर हावी हो सके। चाणक्य के अनुसार इस स्थिति का सबसे अच्छा उपाय है आलोचना को नजर अंदाज करना।


इसके अलावा चाणक्य ये भी कहते हैं कि आलोचना करने वाले का प्रत्येक व्यक्ति का असली मकसद होता है आपको नीचा दिखाना नहीं होता। बल्कि कभी-कभी उनकी मंशा आपको सावधान करने की या आपका हित करने की भी हो सकती है। ऐसे व्यक्ति आपकी आलोचना तो करत हैं, लेकिन वह यह भी ध्यान रहेंगे कि आपको बुरा न लगे। इसलिए ऐसे व्यक्तियों की नजर अंदाज़ न करें, बल्कि इनकी आलोचना के पीछे की भावना को समझने का प्रयास करें।


कुल मिलाकर आचार्य चाणक्य का मानना है कि कभी भी आलोचना पर व्यक्ति को अपना आपा नहीं खोना चाहिए। बल्कि इसके इसके पीछे छिपे उद्देश्य को ध्यान में रखकर या तो उसे हंसकर टाल देना चाहिए या फिर उससे सीख लेनी चाहिए, परंतु उत्तेजित नहीं होना चाहिए।

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हेमन्त किगरं (समाजसेवी) 9915470001

सही मार्ग

 वार्ता किमाश्चर्यम् कः पन्था कश्च मोदते ?"*

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      जीवन-पथ में जब कभी यह दुविधा उत्पन्न हो कि सही मार्ग कौन-सा है, जीवन में कैसे चलें कि जिससे अपने लक्ष्य तक पहुँच जाएँ ? तो हमें रामचरितमानस एवं महाभारत के  दृष्टान्तों के द्वारा उस दुविधा का निराकरण करना चाहिए।

      महाभारत में वर्णन आता है कि पाण्डव प्यासे हैं, और जल की खोज में एक-एक भाई को भेजा जा रहा है। पहले सबसे छोटा भाई गया। उसने जाकर देखा कि सरोवर लहरा रहा था। सरोवर को देखकर उसने सोचा पहले स्वयं जल पी लें और फिर अन्य भाइयों के लिए जल लेकर चलें। लेकिन वहाँ पर एक पहरेदार खड़ा था, उसने यह कहकर रोक दिया कि जल पीने से पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो, नहीं तो मर जाओगे। लेकिन वे इतने प्यासे थे कि उन्होंने यक्ष की बात को नहीं सुना और जल पीकर मर गए। देर होने लगी तो दूसरा भाई आया। वह भी मर गया। सबने देखा कि हमारे भाई मरे पड़े हैं, यद्यपि सबको यक्ष ने रोका और कहा कि मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर जल पियो, पर किसी ने नहीं सुना । चारों भाई मरकर गिर गए । उसके पश्चात् वर्णन आता है कि सबसे अन्त में युधिष्ठिर आए। वे बडे धैर्यवान थे । यद्यपि वे अर्जुन के समान धनुर्विद्या में विशारद नहीं थे, भीम के समान बलवान नहीं थे, और नकुल-सहदेव

के समान सुंदर एवं पंडित नहीं थे। पर उनका *विवेक* बड़ा अनूठा था। यक्ष ने कहा -- तुम देख रहे हो तुम्हारे भाइयों ने कितनी बड़ी भूल की है, उन्होंने मेरी चेतावनी को अनदेखा कर दिया अतः मृत्यु को प्राप्त हुए, इसलिए तुम यदि मेरे चार प्रश्नों के उत्तर दे दोगे तो तुम तो जल पीने के अधिकारी हो ही जाओगे और मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि ये जो तुम्हारे चारों भाई मरे पड़े हैं, उनमें से तुम जिस एक भाई को कहोगे, उसे मैं जीवित कर दूंगा। युधिष्ठिर ने अन्यों के समान भूल नहीं की। उन्होंने जल नहीं पिया। उन्होंने पूछा -- आपका प्रश्न क्या है ? यक्ष ने कहा -- मेरे चार प्रश्न हैं । बोले -- *"कः वार्ता किमाश्चर्यम् कः पन्था कश्च मोदते ?"* १. वार्ता क्या है ? २. आश्चर्य क्या है ? ३. मार्ग कौन-सा है ? और ४. प्रसन्न कौन रहता है ? अब आप विचार करके देखिए कि यक्ष के जो ये चारों प्रश्न हैं, क्या वे केवल युधिष्ठिर से ही किए गए हैं ? क्या ये हमारे-आपके जीवन से जुड़े हुए प्रश्न नहीं हैं ? इस प्रसंग के आध्यात्मिक तत्त्व पर यदि विचार करें तो हमें यह लगेगा कि यह यक्ष वस्तुतः काल है और केवल पाण्डव ही प्यासे नहीं थे, बल्कि *संसार के सब जीव प्यासे हैं। और प्यास मिटाने के लिए सरोवर में विषय का जल देखकर उसे पीने जा रहे हैं। और काल कह रहा है कि जिन लोगों ने जीवन के इस रहस्य को समझे बिना विषय के द्वारा तृप्ति पाने की चेष्टा की वे काल के ग्रास बन गए। आज तक जितने भी आए वे मरते ही तो जा रहे हैं।* और इसीलिए हनुमानजी से जब मैनाक पर्वत ने कहा कि आप विश्राम कर लीजिए, तो हनुमानजी ने मन-ही-मन मुस्कराकर सोचा कि पहले यह पता चल जाय कि इनको स्वयं विश्राम मिला हुआ है कि नहीं ? इसका अभिप्राय यह है कि जिनके पीछे-पीछे हम चल रहे हैं पहले यह तो पता चल जाए कि वे किसके पीछे चल रहे हैं ? इसका तात्पर्य यह है कि *जो इन चार प्रश्नों के रहस्य को जान लेगा वह इस विषय के जल को पीकर भी उसमें फँसेगा नहीं, मृत्यु का ग्रास नहीं बनेगा।*

      युधिष्ठिर ने यक्ष के चारों प्रश्नों का उत्तर दे दिया, तो यक्ष ने कहा कि चारों भाइयों में से जिस एक को भी चाहो मैं जीवित कर दूंगा । युधिष्ठिर ने कहा कि नकुल या सहदेव में से किसी एक को जीवित कर दीजिए। यक्ष ने कहा कि बड़े आश्चर्य की बात है, अपने सगे भाई भीम या अर्जुन को छोड़कर तुम नकुल या सहदेव को जीवित करने की बात कह रहे हो ? युधिष्ठिर बड़े धर्मात्मा थे, वे बोले कि हम लोग दो माताओं के अलग-अलग पुत्र हैं। मैं अपनी माँ का एक पुत्र बचा हुआ ही हूँ, दूसरी माँ का भी एक पुत्र यदि जीवित हो जाय, तो बड़ा कल्याणकारी होगा। यक्ष ने मुस्कराकर कहा कि मैं चारों को ही जीवन-दान देता हूँ। तो महाभारत की यह कथा वस्तुतः जीवन के शाश्वत सत्य से जुड़ी हुई है । इन चारों प्रश्नों का उत्तर महाभारत और रामायण दोनों में ही दिया गया है।

गुरु गुरु कितने गुरु?

 #दत्तात्रेय_के_24_गुरु /

स्वामी सत्यानंद सरस्वती

प्रस्तुति -- कृष्ण मेहता


ययाति एक राजऋषि थे, जो यदु वंश के पूर्वज थे, जो श्रीकृष्ण के थे। उनकी रानी, ​​देवयानी थीं, जो ऋषि शुक्राचार्य की बेटी थीं। एकमात्र कमजोरी राजा की इच्छा थी, और इच्छा उसकी पूर्ववत थी। ऋषि द्वारा एक अवसर पर शापित, अपने समय से पहले बूढ़े होने के लिए जब तक कि वह किसी और के साथ अपनी वृद्धावस्था का आदान-प्रदान नहीं कर सकता, ययाति ने अपने सबसे बड़े बेटे यदु की तलाश की और उनसे विनती की कि वे उनकी मदद करें।

राजा के सभी पुत्रों में यदु को आध्यात्मिक जीवन में रुचि थी। उन्होंने स्थिति पर विचार किया। अपने पिता को युवा और इच्छा से ग्रस्त देखकर, यदु को दोनों की अपूर्णता का एहसास हुआ। वह वैराग्य से भर गया। हालाँकि, वह अपने समय से पहले बूढ़ा नहीं होना चाहता था, क्योंकि उसने सोचा था, 'जब बुढ़ापा धीरे-धीरे आता है, तो वह अपनी इच्छाओं को स्वाभाविक रूप से समाप्त कर देता है और उनके साथ कर्म भी करता है। इसके अलावा, युवा आध्यात्मिक, साधना, उच्च चेतना के विकास के लिए तैयारी का समय है।

अपने पिता को निराश करने से दुखी, फिर भी यदु जानता था कि उसे मना करना होगा। उसके पिता ने बाद में उसे निर्वस्त्र कर दिया। यदु के लिए, जो पहले से ही दुनिया से काफी मोहभंग था, यह एक वरदान था। वह महल से चला गया और एक जंगल में प्रवेश किया, एक गुरु की तलाश की जो उसे उच्च वास्तविकता के रहस्यों में आरंभ करेगा।


अपने भटकने के दौरान वह एक नग्न तपस्वी के पास आया, राख से लिपट गया, आनंद के साथ उज्ज्वल, यदु ने उसे आकर्षित किया। 'हे ऋषि' उन्होंने पूछा, 'तुम कौन हो?' दत्तात्रेय ने कहा, 'मैं अवधूत हूं।' 'अवधूत क्या है?' मासूम विनम्रता में यदु से पूछा। 'अक्षरातीत, अपरिमेयता । दत्ता प्रभु के लिए देवता की कामना करते हुए, ये दो शब्द एक अवधूत का सार हैं। 'जिसने खुद को सभी चीजों से अलग कर लिया है, जो क्षणिक-एक है, जिसने अविद्या से किनारा कर लिया है और अपने ही आत्मान के आनंद में रहता है। वह अवधूत हैं। '


'भगवान,' यदु ने कहा, 'मैं भी अविद्या को हिला देना चाहता हूं। मैं भी अक्षरा, अविनाशी को जानना चाहता हूं। कृपया मुझे सिखाएं, 'यदु के श्राद्ध से प्रसन्न होकर, दत्तात्रेय ने उन्हें एक साधक में शिष्यत्व का महत्व समझाया और उन्हें जीवन में ऐसे उदाहरण देने के लिए आगे बढ़ाया, जहां उन्होंने चौबीस स्थितियों से सीखा था। जीवन ही शिष्यत्व का धनी है।


दत्तात्रेय ने यदु को समझाया कि शिष्यत्व में खुलापन, ग्रहणशीलता, मन का लचीलापन है; अवधारणा को त्यागने की क्षमता अवधारणा को बदल देती है, अनुभव के बाद अनुभव, आंतरिक सत्य तक पहुंचने के लिए। यह रूपों को उनके सार में देखने की क्षमता है। चेतनता चेतना की एक अवस्था है जिसे सत्य का अनुभव करने के लिए एक तीव्र लालसा के साथ निकाल दिया जाता है और इसके विभिन्न प्रतिबिंबों से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। यह इस भावना के साथ था कि दत्तात्रेय ने अपने आसपास के पूरे विश्व को जवाब दिया, शिष्यत्व की भावना जो एक बच्चे की सभी मासूमियत के साथ, अस्तित्व से सीखती है।


👉पृथ्वी

पृथ्वी से, दत्तात्रेय ने क्षमा, निःस्वार्थता और बोझ सहन करने की शक्ति के गुण सीखे। बहुत बार आध्यात्मिक पथ पर प्रगति बाधित होती है क्योंकि एक साधक अतीत से बंधा होता है। जीवन में किसी भी समय एक आघात एक व्यक्ति की जीवन भर के दौरान समान स्थितियों के प्रति प्रतिक्रिया का फैसला करता है। ताजगी और मासूमियत के साथ कुछ भी नहीं देखा जाता है। अतीत की कंडीशनिंग के कारण सब कुछ भय और संदेह की आंखों से देखा जाता है। यह गुण सिर्फ बाहर पर ही नहीं बल्कि स्वयं पर भी आधारित है। अपर्याप्तता, आत्मविश्वास की कमी, खराब आत्मसम्मान, वास्तविकता में खुद पर विश्वास या विश्वास की कमी है। वे स्वयं की अस्वीकृति का एक उपाय हैं।


पृथ्वी, एक कृतघ्न दुनिया से बोझिल, दृढ़ और गर्वित है। वह लोकतांत्रिक नहीं है। वह खुद को दंडित या अस्वीकार नहीं करती है। धारित्री, जो धारण करती है, वह धर्म का प्रतिबिंब है, जो सभी अस्तित्व को धारण करता है। असीम कोमलता के साथ, वह दुनिया को अपनी गोद में रखती है, अपने व्यक्ति पर बेईमानी से हमला करती है। दत्तात्रेय के लिए वह श्रद्धा का प्रतीक था, एक साथ रखने की क्षमता रखने वाला, खुद को और उससे जुड़े सभी लोगों के साथ, बड़ी करुणा के साथ, खुद को पूरी तरह से उस स्थिति से जो उसे पूछती है, एक असीम निरंतरता के साथ, भौतिक शरीर की दिव्यता धारण करने जैसा। अपने आप।


👉वायु

दत्तात्रेय के लिए वायु अपने वस्त्रों में एकरूपता, प्राण का प्रतीक थी। हर जगह व्याप्त, फिर भी निर्विवाद, सुगंध ले जाने, लेकिन सुगंध नहीं होने के कारण, यह उसे शुद्ध चेतना की याद दिलाता है, सभी अभिव्यक्तियों में मौजूद है, फिर भी आंदोलनों से प्रभावित नहीं हो रहा है, इसके भीतर के परिवर्तन। इसने उन्हें आंदोलन में टुकड़ी, शांति का अनुभव दिया।


👉आकाश

परमाणु शरीर में रहता है लेकिन यह शरीर नहीं है। आकाश संसार को वस्त्र या चंदवा की तरह धारण करता है लेकिन यह संसार नहीं है। यह सीमित लगता है लेकिन वास्तव में यह असीम है। आकाश उसकी थी


👉जल 

उनके चौथे गुरु जल थे। में। इसकी बहुत संयम पानी असाधारण है, यह सभी जीवन का समर्थन करता है। कुछ साधारण जीव बिना हवा के रह सकते हैं। हालांकि, कोई भी पानी के बिना नहीं रह सकता है। लाखों वर्षों में, पानी पृथ्वी के चेहरे को आकार देने के लिए जिम्मेदार है। यह मिट्टी का पोषण करता है ताकि शक्तिशाली जंगल विकसित हो सकें। यह जलवायु तय करता है। इसमें बहुत स्थिरता है। यह शुद्ध करता है, शुद्ध करता है, तरोताजा करता है। दत्तात्रेय के लिए यह एक योगी की करुणा का प्रतीक था जो विनीत रूप से दुनिया में बहता है, पोषण करता है और ताज़ा करता है।


👉अग्नि

उनका पाँचवाँ गुरु अग्नि था, जो सकल है। जागरूकता की आंतरिक आग की तरह जो अपने सार (भाव) में सब कुछ कम कर देती है, जो कुछ भी इसमें डाला जाता है, उसे बेरहमी से शुद्ध करते हुए, अग्नि ने उसे अविद्या के दोषों से मुक्ति की याद दिलाई।


👉चंद्रमा

चंद्रमा मोम और वेन लगता है, फिर भी इसमें कोई आंतरिक परिवर्तन नहीं हुआ है। इसी तरह मनोदशाएं और मनुष्य में परिवर्तन शरीर और मन के गुण हैं, ना कि नास्तिक का हिस्सा।


👉सूर्य 

सूर्य से, जो इसे वाष्पित करके समुद्र से पानी लेता है और इसे जीवनदायी वर्षा जल के रूप में लौटाता है, दत्तात्रेय ने महसूस किया कि इंद्रिय-अंगों के माध्यम से कोई व्यक्ति बाहरी वस्तुओं से प्रभावित हुए बिना धारणा की वस्तुओं के सार में ले सकता है। उदेश्य। इसकी रोशनी नाले, नदी, नाले, पोखर में परिलक्षित होती है और पानी की सामग्री और गुणों के अनुसार अलग-अलग दिखती है, लेकिन अपने आप में यह एक समान है। इसलिए, विभिन्न शरीरों में आत्मान शरीर के गुणों को ग्रहण करता है, लेकिन वास्तव में यह हर जगह एक ही है। सूर्य ने अपने मन में अहंकार-शून्यता और सर्वव्यापीता के गुणों को लाया।


👉कबूतर

एक कबूतर से, जिसमें बहुत कम भाग थे, जो जब एक शिकारी द्वारा जाल में पकड़े गए थे, तो रोया, रोया, माँ को उसकी मौत का लालच देकर दत्तात्रेय ने संस्कार के खतरों का एहसास किया। आध्यात्मिकता के विनाश में संस्कार पुन: शामिल होने की बहुत अधिक संभावना है। यह उस परिवार से लगाव था जो आध्यात्मिकता के विनाश के लिए जिम्मेदार था। यह उस परिवार के प्रति लगाव था जो पक्षी के विनाश के लिए जिम्मेदार था। हमारे संस्कार भी, हमारे पूर्वाग्रहों, हमारी इच्छाओं, हमारी भावनाओं से युक्त होते हैं, जो हमारे लिए पैदा होते हैं और परिवार से, हमारे भीतर की आध्यात्मिकता को नष्ट करते हैं। उच्च लालसा पूर्व धारणाओं, मन की कठोरता और बौद्धिक अव्यवस्था से परेशान है।


👉अजगर

नौवें गुरु एक अजगर थे। यह देखते हुए कि इसे केवल खाने के लिए आया था, फ़ीड की तलाश में नहीं, दत्तात्रेय ने आत्मसमर्पण का मूल्य सीखा।


👉सागर

महासागर सभी नदियों, पृथ्वी के सभी जल, कुछ स्वच्छ, कुछ प्रदूषित को प्राप्त करता है, फिर भी यह अप्रभावित रहता है और अपनी आवश्यक 'महासागरीयता' को बरकरार रखता है। अशांति से मुक्ति सागर से सबक था।


👉जुगनू

चमक दमक के साथ अपने मोह से विनाश के लिए तैयार एक जुगनू को देखकर, योगी ने महसूस किया कि इच्छा कैसे विनाश का कारण बन सकती है।


👉हाथी

तेरहवें गुरु एक हाथी के रूप में आए थे जिसने एक मादा हाथी की लकड़ी की छवि को खींचकर उसके जाल को नुकसान पहुंचाया था। दत्तात्रेय ने सीखा कि जब किसी को उच्चतम सत्य के लिए एक महान जुनून होता है, तो किसी को कामुक इच्छा की व्याकुलता से बहकाना नहीं चाहिए। यहां तक ​​कि एक तस्वीर, एक महिला, जो एक महिला है, एक खोज में एक-बिंदु से नीचे खींच सकती है।


👉मधुमक्खी

चौदहवें गुरु मधुरभाषी थे। मधुमक्खी शहद बनाने में अपना समय लगाती है, जो शहद इकट्ठा करने वाले को पसंद आता है। दत्तात्रेय ने महसूस किया कि ज्यादातर लोग अपने जीवनकाल को बेहोश करने की आशा में संपत्ति इकट्ठा करने में खर्च करते हैं, जिससे उन्हें खुशी और सुरक्षा मिलेगी - न केवल ये संपत्ति किसी भी आंतरिक सुरक्षा को नहीं देती हैं, बल्कि अधिकांश लोग इतनी व्यस्त भीड़ हैं जो उनके पास नहीं हैं उन्हें आनंद लेने का समय। वे अन्य लोगों द्वारा आनंद लिया जाता है। क्या समय, ऊर्जा और भावनात्मक निवेश की बर्बादी, दत्तात्रेय को लगा। कीमती समय बिताना चाहिए, प्राप्त करने में नहीं बल्कि आंतरिक स्व तक पहुँचने में।


👉हिरन

एक अवसर पर योगी ने एक हिरण को देखा। फुर्तीला और पैर का तेज, यह गार्ड और अलर्ट पर था। एक शिकारी जो इसे पकड़ने में विफल रहा, उसे एहसास हुआ कि जानवर को संगीत में दिलचस्पी थी या विचलित। इसकी भेद्यता को जानकर, उसने इसे विचलित किया और इसे पकड़ लिया। किसी भी भेद्यता आध्यात्मिक पथ पर एक कमजोरी है। एक सतर्कता खो देता है। एकग्रता या एकांगीता खो जाती है। कुछ ही समय में, बड़े प्रयास से खुद को ऊपर उठाने वाले साधक को राजस और तामस में डुबो दिया जाता है। किसी को हमेशा कमजोर बिंदु के बारे में पता होना चाहिए और रास्ते में सतर्क रहना चाहिए ताकि कोई भटक न जाए।


👉मछली

मछली को पकड़ा जाता है क्योंकि कीड़ा के साथ चारा एक प्रलोभन है। व्यक्ति को अपने से जुड़े इंद्रिय-अंगों और इच्छाओं से सावधान रहना चाहिए, चाहे वह स्वाद, गंध, दृष्टि, ऑडिशन या स्पर्श हो। मछली को देखते हुए योगी को इस बाधा के प्रति सचेत किया गया।


👉पिंगला

सत्रहवें गुरु पिंगला नामक एक दरबारी थे। एक अवसर पर पिंगला बड़ी पीड़ा और बेचैनी में अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करने लगी। बहुत देर तक उसने इंतजार किया, लेकिन वह नहीं आई। एक बिंदु पर वह अपने आप से बहुत घृणा करने लगी और उसने सोचा, 'यह मेरी इच्छा और अपेक्षा के कारण है कि मैं पीड़ित हूं।' दुख की ऊंचाई पर; उसने अपनी जागरूकता को बदल दिया और उसके भीतर एक महान परिवर्तन हुआ। 'मैं था, लेकिन एक ही दारोगा के साथ दिव्य प्रेमी की मांग की, मैं अब इस दुर्दशा में नहीं होगा / वह खुद के लिए सोचा था।


इस प्रकार एक महान वैराग्य उत्पन्न हुआ। अपनी इच्छाओं को एक तरफ छोड़ते हुए, विवेक की तलवार के साथ एक फ्लैश में सभी उम्मीदों को काटते हुए, वह आध्यात्मिक पथ पर ले गई, दत्तात्रेय पिंगला के जीवन से प्रेरित था, उसने अपने दुखों से जो सबक सीखा, वह जिस सहजता से उसकी अज्ञानता थी, जैसे एक वस्त्र का गिरना और ऊंचाइयां जिस पर उसकी चेतना बढ़ गई, इच्छाओं से मुक्त, विवेका और वैराग्य के दो पंखों के साथ।


👉गौरैया

दत्तात्रेय ने अपनी चोंच में खाने के टुकड़े के साथ एक छोटी गौरैया को उड़ते हुए देखा और एक बड़े पक्षी से उसका सामना हुआ। बड़े पक्षी द्वारा पीछा किया गया, छोटी गौरैया ने अपना भोजन गिरा दिया और भोजन पर पूर्व की ओर झुकते हुए बच गई। उन्होंने पक्षी की सहज कार्रवाई के पीछे समझदारी का एहसास किया, कि जब शत्रु मजबूत होता है, तो किसी को अधिकार नहीं होना चाहिए। यह न केवल भौतिक संपत्ति से संबंधित है, बल्कि फ्राइड का भी है। जब एक मजबूत भावना इतनी अधिक हो जाती है, तो उस अवस्था में दिमाग से लड़ना समझदारी नहीं है। एक अलग अंदाज़ में इसे देखते हुए इसे पास करने देना सबसे अच्छा है, ताकि इससे जुड़ी ऊर्जा शांत हो जाए। साधक को अपनी नींव को व्यवस्थित रूप से बनाने और उसे स्थिर करने की आवश्यकता होती है, इससे पहले कि वह मन के सागर की विशाल लहरों का सामना करने के लिए तैयार हो। यह कहा जाता है, "विवेक वीरता का सबसे अच्छा हिस्सा है", और, 'मूर्खों को भागना है जहाँ स्वर्गदूतों को डर लगता है "। किसी को साधना की प्रारंभिक अवस्था में किसी की सीमाओं के बारे में पता होना चाहिए, ऐसा न हो कि धैर्य की कमी के कारण लोग जल जाएं।


👉बच्चा

उन्नीसवें गुरु एक छोटे बच्चे थे दत्तात्रेय ने अतीत से आराम और अछूता खेलते देखा। एक बच्चा समय-समय पर रहता है। वह एक पल पहले के दु: ख दर्द को याद नहीं करता है, न ही वह भविष्य का सपना देखता है। वह सब हर पल मौजूद है। खेल में कोई तनाव नहीं है, कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, बस सरासर खुशी और आनन्द और उत्सव है, जैसे पेड़ों का फूल। आध्यात्मिक मार्ग भी हल्का और उत्सव से भरा हो सकता है। अहंकार के भारीपन के लिए साधक को सुसाइड के खतरों के प्रति सचेत होना चाहिए। यह इस कारण से है कि संतोष, संतोष, एक शिष्य के गुणों में से एक है।


👉लड़की

बीसवीं गुरु एक युवा लड़की थी जो घर पर अकेली थी जब उसके पास अप्रत्याशित आगंतुक थे। एक परंपरा में लाया गया, जहां अप्रत्याशित मेहमान, अतीथि को दिव्य माना जाता है, उसने उन्हें सम्मान के साथ बैठाया और फिर उनके लिए भोजन तैयार करने के लिए आंतरिक कमरे में चली गई। चावल को पिलाते समय उसकी कांच की चूड़ियों ने एक दूसरे के खिलाफ शोर मचाया। एक-एक करके उसने उन्हें तोड़ दिया ताकि शोर उसके मेहमानों को परेशान न करे, जब तक कि उसके हाथ में सिर्फ दो नहीं थे। जब इन लोगों ने शोर मचाया तो उसने एक को तोड़ा ताकि वह सिर्फ एक हो।


 दत्तात्रेय समझ गए कि व्यक्ति को आध्यात्मिक पथ पर अकेले चलना चाहिए। यहां तक ​​कि एक करीबी, मूक साथी मानसिक शोर पैदा कर सकता है जो महान चुप्पी को लेने से रोकता है।


👉धनुराशि

एक तीरंदाज की एक-केंद्रित एकाग्रता ने दत्तत्रेय को सत्त्वगुण के महत्व और एक साधक के अप्रकट अहंकार को याद दिलाया। एक को मुंडका उपनिषद की याद दिलाई गई है जिसमें कहा गया है, "ओम धनुष है, आत्मान तीर है और लक्ष्य ब्रह्म है," तीरंदाज दत्तात्रेय के इक्कीसवें गुरु थे।


👉साँप

बीसवें गुरु वह सांप थे जिसने उन्हें दो चीजें सिखाई थीं। एक भीड़ को छोड़ना था। दूसरा यह था कि परिचित और ज्ञात कुंद जागरूकता और लगाव पैदा करना। पाठ मन पर भी लागू होता है। अपने भीतर की भीड़, बाजार के भीतर की भीड़ को दूर करो, और चेतना की एक अशक्त अवस्था के करीब जाओ। किसी ज्ञात चीज़, चाहे वह विचार हो, या भावना पर पकड़ न रखें। यह साधक को कल तक बिना शर्त हर पल अपनी जागरूकता पूरी तरह से बनाए रखने में मदद करेगा।


👉मकड़ी

तेईसवें गुरु एक मकड़ी थी। मकड़ी अपने से लार के साथ अपने वेब को बुनती है, और जब यह इसके साथ किया जाता है, तो इसे वापस अपने आप में ले जाता है। इसने उसे ब्राह्मण की याद दिला दी, वह दिव्यता जो स्वयं के कटे हुए ब्रह्माण्ड को फेंकती है और एक अंकल के अंत में उसे वापस अपने में इकट्ठा कर लेती है।


👉कीट 

ततैया एक कीट को अपने घोंसले में रखता है। कीट निरंतर आतंक में ततैया का ध्यान करता है, जब तक कि वह अपने पीड़ा की विशेषता को नहीं लेता है और खुद ततैया बन जाता है। "ब्रह्म विद्या ब्रह्मवे भवति" "ब्रह्म को जानना ही ब्रह्म बनना है।"

माह अप्रैल निराला मतवाला

यह अप्रैल (चैत्र) का महीने मे क्यों है खास*


*व्रत-त्योहार-गोचर की जानकारी*


-- कृष्ण मेहता


मार्च का महीना रंगों भरे त्यौहार होली के साथ ही खत्म हो गया। जिसके बाद अब अप्रैल का महीना प्रारंभ हो गया है। तो आइए जानते है वैदिक ज्योतिष की गणना के अनुसार भारतीय संस्कृति का पहला महीना और सन् 2021 का चौथा महीना यानी अप्रैल कैसा रहने वाला है। 

अप्रैल में व्रत,तीज-त्योहार 

हिन्दू धर्म में हर महीने की अपनी अलग पहचान और विशेषता होती है। आस्था और धर्म के नजर से देखें तो, हिन्दू कैलेंडर का हर महीना किसी ना किसी व्रत या तीज, त्यौहार के कारण खास माना जाता है। आइए आपको इस लेख में बताते हैं, की अप्रैल के महीने में कौन-कौन से प्रमुख व्रत और तीज- त्यौहार होने वाले हैं।नीचे दी गई इस तालिका के माध्यम से आपको बताते हैं तिथि के अनुसार व्रत व त्यौहारों की संपूर्ण जानकारी।


तिथि/वार त्यौहार 

7 अप्रैल - बुधवार पापमोचिनी एकादशी

9 अप्रैल - शुक्रवार प्रदोष व्रत (कृष्ण)

10 अप्रैल - शनिवार मासिक शिवरात्रि

12 अप्रैल - सोमवार चैत्र अमावस्या

13 अप्रैल - मंगलवार चैत्र नवरात्रि , नया वर्ष प्रारंभ ,उगाडी , घटस्थापना , गुड़ी पड़वा

14 अप्रैल - बुधवार चेटी चंड , मेष संक्रांति

21 अप्रैल - बुधवार रामनवमी

22 अप्रैल - बृहस्पतिवार चैत्र नवरात्रि पारणा

23 अप्रैल - शुक्रवार कामदा एकादशी

24 अप्रैल - शनिवार प्रदोष व्रत (शुक्ल)

27 अप्रैल - मंगलवार हनुमान जयंती , चैत्र पूर्णिमा व्रत

30 अप्रैल - शुक्रवार संकष्टी चतुर्थी


अप्रैल महीने में किन ग्रहों का होगा गोचर?

वैदिक ज्योतिष के अनुसार अप्रैल में पांच गृह महत्वपूर्ण गोचर होंगे।


पहला गोचर – 1 अप्रैल बुध देव सुबह 12 बजकर 52 मिनट पर अपने मित्र ग्रह शनि की राशि कुंभ से निकलकर,देव गुरु बृहस्पति के आधिपत्य वाले जल तत्व की राशि मीन में प्रवेश करेगा।


दूसरा गोचर –6 अप्रैल, बृहस्पति का कुंभ राशि में गोचर,  यह गोचर 6 अप्रैल, को रात्रि 01 बजकर 18 मिनट, से 15 सितंबर, की सुबह 4 बजकर 22 मिनट तक विराजमान रहेगा। 


तीसरा गोचर – शुक्र ग्रह 10 अप्रैल, शनिवार की सुबह 6 बजकर 14 मिनट पर मंगल के स्वामित्व वाली मेष राशि में प्रवेश करेंगे और 04 मई दोपहर 1 बजकर 09 मिनट तक इसी राशि में विराजमान रहेंगे।


चौथा गोचर – मंगल ग्रह 14 अप्रैल , बुधवार के दिन सुबह 1 बजकर 16 मिनट पर मिथुन राशि में गोचर करेगा और, वो वहां उसी अवस्था में 2 जून, बुधवार की सुबह 06 बजकर 39 मिनट तक स्थित रहेगा।


पांचवा गोचर – सूर्य का मेष राशि में गोचर 14 अप्रैल, बुधवार की दोपहर 2 बजकर 23 मिनट पर होगा, जब सूर्य देव अपने परम मित्र मंगल के स्वामित्व वाली मेष राशि में प्रवेश करेंगे।


छठा गोचर – बुध देव 16 अप्रैल , शुक्रवार के दिन रात  9 बजकर 5 मिनट पर मीन से मेष राशि में अपना गोचर करेंगे, और 1 मई , शनिवार की सुबह 5 बजकर 49 मिनट तक इसी राशि में स्थित रहेंगे।


   अप्रैल महीने में जन्मे दिग्गज सितारे  


2 अप्रैल-  अजय देवगन,  अभिनेता

2 अप्रैल-  कपिल शर्मा, हास्य कलाकार

14 अप्रैल- डॉ. भीमराव अंबेडकर,  संविधान निर्माता

19 अप्रैल- मुकेश अंबानी,  बिजनेसमैन

24 अप्रैल- सचिन तेंदुलकर, भारतीय  क्रिकेटर 


यह राशिफल आपकी चंद्र राशि पर आधारित है। इसके अलावा व्यक्तिगत भविष्यवाणी जानने के लिए ज्योतिषि के साथ फ़ोन पर या चैट पर जुड़े।


मेष

राशि वाले जातकों के लिए अप्रैल का महीना बेहद खास रहने वाला है। करियर के लिहाज से इस महीने जातकों को अच्छा लाभ मिलेगा। 


वृषभ

राशि वाले जातकों को इस महीने अपनी सेहत का खास ख्याल रखने की जरूरत है।

मिथुन 

राशि वाले जातकों को परिवार का भरपूर प्यार और सहयोग मिलने वाला है। 

कर्क 

राशि वाले जातकों के लिए अप्रैल का महीना शिक्षा के लिहाज से थोड़ा परेशान करने वाला हो सकता है। 

सिंह 

राशि वाले विद्यार्थी जातकों के लिए अप्रैल का महीना शिक्षा के लिहाज से बेहद अच्छा रहने वाला है। 

कन्या

राशि की बात करें, तो विवाहित जोड़ों के बीच अप्रैल माह में थोड़ा वाद-विवाद हो सकता है।

तुला 

राशि वाले जातकों की बात करें तो अप्रैल का महीना उनके लिए आर्थिक लिहाज से थोड़ा उतार-चढ़ाव भरा हो सकता है । वहीं 

वृश्चिक 

राशि वाले जातकों की बात करें तो इस महीने विवाहित जातकों थोड़ा संभल कर रहने की सलाह है। हो सकता है बेकार की बातों में उलझ कर आप अपना नुकसान करवा लें। 

धनु 

राशि वाले जातक अप्रैल के महीने में घर परिवार से जुड़ी कोई बड़ी खुशखबरी सुन सकते हैं। 

मकर

राशि वालों को इस अप्रैल के महीने में अपने स्वास्थ्य का खास ख्याल रखने की सलाह है, हो सकता है।  

कुंभ

राशि वाले जातकों के लिए अप्रैल का महीना आर्थिक लिहाज से थोड़ा परेशान कर सकता है। इसलिए सलाह है, कि खर्चों पर कंट्रोल करें। 

मीन 

राशि वाले जातकों को अप्रैल माह में धन लाभ हो सकता है। 

सभी ज्योतिषीय समाधानों के लिए नीचे दिए गए नम्बर पर सम्पर्क करें

सतसंग सुबह RS 01/04

 *राधास्वामी!! 01-04-2021-आज सुबह सतसँग में पढे गये पाठ:-                                 

  (1) दया गुरु की हुई अब भारी। मैं भी आरत करन बिचारी।।-(राधास्वामी नाम सम्हारा। रुप अनूप हृदय में धारा।।) (सारबचन-शब्द-11-पृ.सं.578,579)                      

 (2) गुरु प्यारे बचन सुन हो गई दीन।।टेक।। जग ब्योहार असार पहिचाना। मन इंद्री को ठगिया चीन्ह।।-( राधास्वामी चरन पकड घर चाली। मेहर दया उन गहिरी कीन।।) (प्रेमबानी-3-शब्द-12-पृ,सं.18,19)                                  

 सतसँग के बाद:-                                        

(1) राधास्वामी मूल नाम।।                                

(2) अतोला तेरी कर न सके कोई तोल।।                                                                

 (3) बढत सतसँग अब दिन दिन। अहा हा हा ओहो हो हो।।                                            

 🙏🏻


*परम गुरु हुजूर मेहताजी महाराज -

भाग 1- कल से आगे:


- 4 जून 1941 के सत्संग में यह शब्द पढ़ा गया :-                                                                    


 सजन प्यारे मन की घुंडी खोल।( प्रेम बिलास, शब्द 128)                                           

पाठ के बाद 'सत्संग के उपदेश'  भाग 1- से बचन नंबर 45 'सत्संग की असली क्रिया सतगुरु भक्ति है' पढ़ा गया।

  हुजूर ने बचन के बीच में ही फरमाया-पिछले सप्ताह मैंने आप लोगों से इसी विषय पर बातचीत की थी जिसमें मैंने कहा था कि सत्संग में शामिल होकर केवल बाहरी कार्रवाई करने से कोई लाभ नहीं। इसके लिए अंतर में परिवर्तन होना आवश्यक है। आज का बचन भी जो इस समय पढ़ा जा रहा है ऊपर के विषय पर विशेष प्रकाश डालता है। आप इसे ध्यान पूर्वक सुनें।।                                               

बचन समाप्त होने पर फरमाया- यह बचन हमारे लिए बहुत महत्व रखता है। अच्छा हो कि कल शाम के सत्संग में इसे फिर पढा जाय।।

🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**                             



**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-

[ भगवद् गीता के उपदेश]-

【 11वां अध्याय -विश्वरूप दर्शन का बयान】                          

  [ अर्जुन कृष्ण महाराज से प्रार्थना करता है कि उसे अपना ईश्वरी रूप दिखलावें। महाराज उसे दिव्य चक्षु देकर विराट् स्वरूप का दर्शन कराते हैं। लेकिन अर्जुन दर्शन की ताब न लाकर घबरा जाता है।

महाराज धैर्य दिलाते हैं और यह दिखला व समझा कर कि वह काल भगवान है और मनुष्य मन से जाति को समेटने के लिये संसार में प्रकट हुए हैं उसकी हिम्मत बढ़ाते हैं।

अर्जुन उनके चरणों में गिरकर बार-बार स्तुति करता है और पिछली सब बेअदबियों के लिए क्षमा माँगता है प्रार्थी होता है कि मनुष्य रूप में दोबारा प्रकट होने की मौज करें। कृष्ण महाराज दोबारा मनुष्य रूप धारण करके विश्वरुप दर्शन की महिमा वर्णन करते हैं।

 दसवें अध्याय में महाराज ने अपने। तई जगत की कुल वस्तुओं के अंदर मौजूद बयान किया था अब अपना विश्वरुप दिखला कर कुल रचना अपने अंदर मौजूद साबित करते हैं- तब कहीं अर्जुन के दिल में शंका और भ्रम दूर हुए।]                                              

अर्जुन ने जवाब दिया- महाराज ! मेरे ऊपर कृपा करने के निमित्त आपने जो अध्यात्म विद्या (आतमज्ञान) के निहायत गुप्त भेद वर्णन किये उन्हें सुन कर मेरा भ्रम जाता रहा। मैंने आपके श्रीमुख से भूतों (दुनिया के सामानों व जानदारों) की उत्पत्ति व नाश का हाल और आपके सदा कायम रहने वाली महिमा का भी बयान विस्तार से सुन लिया है। हे परमेश्वर! हे पुरुषोत्तम ! आप सचमुच ऐसे ही हैं जैसे आपने बयान फर्माया । मुझे अब आपके ईश्वरी रुप( जिस रूप से आप कुल जगत के ईशवर हो रहे है) देखने की इच्छा हैं। अगर आप समझते हैं कि मैं आपका वह रुप देख सकता हू तो हे योगेश्वर! मुझे उस अविनाशी रूप का दर्शन कराइये।।   

                                                     

श्री कृष्ण जी ने फरमाया- अच्छा, लो अर्जुन!  मेरे सैकड़ों हजारों रुप, तरह तरह के दिव्य और अनेक प्रकार के रंग रूप वाले।【5】     क्रमशः   

                                                     

🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻


**परम गुरु हुजूर महाराज

- प्रेम पत्र -भाग 1- कल से आगे :-(11)-


 सिवाय इसके वेदांत शास्त्र में यह भी लिखा है कि तीन शरीर यानी स्थूल, सूक्ष्म और कारण और इन्हीं तीनों शरीरों के अंतर्गत पाँच कोश यह है- अन्नमय कोश यानी स्थूल शरीर, प्राणमय कोश, मनोमय कोश और ज्ञानमय कोश, यह तीनों कोश सूक्ष्म शरीर में दाखिल है,और आनंदमय कोश कारण शरीर कहलाता है।   और चौथा जीव साक्षी यानी तुरिया पद है। कारण शरीर अभिमानी जीव को प्राज्ञ और सूक्ष्म को तेजस और स्थूल को भी विश्व कहते हैं। 

                                                             

 अब ख्याल करो कि पाँचों कोश यानी तीनों शरीरों के अंदर मनुष्य का निज रूप यानी आत्मा पोशिदा है और जब तक इन कोशों या शरीरों के गिलाफों को अभ्यास करके नहीं छेदेगा, तब तक अपने स्वरूप यानी आत्मा का दर्शन नहीं पावेगा। यह सब गिलाफ  पिंड में है जो, कि मलीन माया का देश है और जिसकी हद छः चक्र में है।

 इसी तरह ब्रह्मांड में, जहाँ कि शुद्ध माया है, ब्रह्म के भी चार स्वरूप है- एक विराट यानी माया मिश्रित ब्रह्म जो माया से मिल कर रचना कर रहा है, दूसरा हिरण्यगर्भ शबल को मदद दे रहा है और जहाँ से सूक्ष्म मसाला रचना का प्रगट हुआ, और तीसरा अव्याकृत जहांँ से बीज रूप माया जाहिर हुई और चौथा शुद्ध ब्रह्म है। जब इन सब गिलाफों को अभ्यास की मदद से तोड़ कर पार जावे तब शुद्ध ब्रह्म से मेला होवे और वहाँ जो बचन सच्चे ज्ञानी और जोगेश्वरो ने एकताई के कहे हैं सब सही और दुरुस्त मालूम पड़ेंगे।

और जो कोई बिना अभ्यास किए हुए नीचे के देश में, चाहे शुद्ध माया होवे, चाहे मलीन, उन बचनों को सुन कर और पढ़ कर अपने तई शुद्ध ब्रह्म स्वरूप मानता है, यह बड़ी गलती है। और देखने में आता है कि ऐसे कहने वालों की हालत बिल्कुल नहीं बदलती, यानी उनके स्वभाव और आदत मुआफिक संसारी जीवो के हैं और मन और इन्द्री उन पर सवार रहते हैं और मेलों और तमाशा और शहरों और कस्बों में उनको नचाते रहते हैं।

 क्या ब्रह्म या आत्मानंद में इस कदर गति भी नहीं कि जो एक स्थान पर ठहर कर अपने अंतर में रस लेकर शांति हासिल करें। क्रमशः                  

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


**राधास्वामी🙏🏻

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क्षमा बल सबसे सबल

 "क्षमा परम बल है। सबसे सबल है. क्षमा निर्बलता का प्रतीक नहीं बल्कि क्षमा  मनुष्य का सबसे विराट गुण है । बलवानों का क्षमा एक अतुलनीय भूषण है।" / कृष्ण मेहता 

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दूसरे को क्षमा करना स्वयं को क्षमा करना है।दूसरे को क्षमा न करना,स्वयं को क्षमा नहीं करना है।दूसरा है भी कहाँ?

द्रष्टा ही दृश्य है।

देखने वाला खुद दीख रहा है।अनुभव कर्ता स्वयं अनुभव हो रहा है।विश्लेषणकर्ता स्वयं विश्लेषित हो रहा है।

इस प्रकार स्वयं पर आजाना दुर्लभ अनुभूति है।

द्रष्टा, दृश्य आमनेसामने प्रतीत होते हैं,हैं नहीं।

द्रष्टा स्वयं दृश्य है।स्वयं ही बंटा हुआ है कार्य-कारण में।स्वयं पर लौटनेवाले को इसका पता चल जाता है।फिर अभ्यास करना ही शेष रहता है अभीयहां।मुख्य सूत्र यही है भी यही।

संचित संस्कारों के रुप में स्वयं सतत घट रहा है द्रष्टा-दृश्य में विभाजित होकर।इसे रोका नहीं जा सकता।सिर्फ होने दिया जा सकता है अभी यहां।

जिसे हम दूसरे का पसंद नापसंद अनुभव मानते हैं वह अपना ही पसंद या नापसंद अनुभव होता है।तथाकथित दूसरे के माध्यम से हम अपने ही अनुभव स्वरुप को पसंद या नापसंद कर रहे होते हैं।

तो करें स्वयं को पसंद नापसंद लेकिन दूसरे को तो भूल ही जायें।देखनेवाला ही दीख रहा है।

"The observer is the observed."

मन में जो प्रक्षेपण आते हैं वे अपने ही संस्कारों से आ पाते हैं।जिसके जैसे संस्कार।इसके कारण अलग अलग लोगों का अलग अलग जगह ध्यान होता है।वे अलग अलग व्यवहार करते हैं।

हम कहते हैं उसका ध्यान भगवान में ही क्यों रहता है,वह भगवान की-शांति की-प्रेम की बात ही क्यों करता है?क्योंकि वह ऐसा ही है।कोई हिंसा,अन्याय,अत्याचार की बात ही क्यों करता रहता है हर वक्त?क्योंकि वह ऐसा ही है।उसके प्रक्षेपण उसके भीतर से ही आरहे हैं।

गीता ने इसे ईश्वर की माया द्वारा यंत्रारुढ के समान जीवों को घुमाया जाना कहा है।

'भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारुढानि मायया।'

इसे पहचानना चाहिये अन्यथा हम सैंकडों वर्षों तक इसी तरह घुमाये जाते रह सकते हैं।

माया द्वारा क्यों कहा?क्योंकि जो जीव जैसा होता है स्वयं विभाजित कार्य-कारणरुप में वैसा ही घुमाया जाता है।इस घूमने का अंत हो सकता है यदि वह जानले कि प्रक्षेपक ही प्रक्षेपित है।द्रष्टा ही दृश्य है।अनुभव कर्ता ही अनुभव हो रहा है हर पल,हर क्षण।

जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का विश्लेषण कर रहा होता है तब उसे पता ही नहीं चलता कि ऐसा करके वह स्वयं विश्लेषित हो रहा है।

इस तरह निंदक स्वयं निंदित होता है।प्रशंसक स्वयं प्रशंसित होता है।

यह बडी महत्वपूर्ण, गूढ और स्वज्ञान(सेल्फनोलेज)की बात है।

इसे जानने पर फिर ध्यान स्वयं पर ही रहता है अभीयहां, बिना बचे,बिना नाम दिये।

नाम देने से ध्यान दूसरी जगह रहता है,ऐसा लगता है किसी और की बात हो रही है जबकि देखने वाला ही दीख रहा होता है,प्रक्षेपक ही प्रक्षेपित हो रहा होता है।

The projector is the projected.

ऐसे में ध्यान स्वयं पर आजाना लाजमी है।

किसीका नाम नहीं लिया जा सकता।

भले ही नाम लें किसीका मगर अनुभव तो स्वयं ही तो हो रहा है।भले हम चर्चा करें किसी सात्विक, राजसी,तामसी आदमी की मगर वे अनुभव अपने ही घट रहे होते हैं।

जब भी जिसकी भी चर्चा हम करते हैं उसके अनुभव के रुप में "हम स्वयं" अनुभव होते हैं तो क्या करेंगे?

तबवहां मन के रहने का कारण है नामकरण जबकि नाम देनेवाला स्वयं होता है।

शब्दकर्ता स्वयं शब्दीकृत होता है।

"The namer is the named."

व्यर्थ ही नहीं झूठ भी है किसीका नाम लेना।नाम लेना हो तो अपना ही नाम लेना चाहिए तब कथित दूसरा स्वयं के रुप में घटते देखा जा सकता है।आंखों के आगे दृश्य जो भी हो उससे कोई भी फर्क नहीं पडता।अनुभव तो स्वयं हो रहा है,इसे जाना समझा जा रहा है फिर क्या?

बाधा पसंदनापसंद की,रागद्वेष की आती है।हम अपने पसंद अनुभव को दूसरे का अनुभव मानकर उसे पाना चाहते हैं;अपने नापसंद अनुभव को दूसरे का अनुभव मानकर उससे बचना चाहते हैं,उससे मुक्ति पाना चाहते हैं।मुक्ति संभव नहीं, सिर्फ एक ही राहत संभव है कि तमाम पसंद नापसंद अनुभव अपने ही हैं,किसी व्यक्ति, घटना, परिस्थिति के नहीं ।फिर कोई चाहे कितना भी अच्छा या बुरा मालूम पडता हो उससे कोई फर्क नहीं पडता।खुद को ही समझना व संभालना रहता है।किसी और को प्रिय या अप्रिय मानने पर बडी समस्या उत्पन्न होती है,बडा संघर्ष होता है।

हमेशा ध्यान दूसरी जगह बना रहता है।ऐसे में स्वस्थ रहने,सुखपूर्वक रहने की बात ही दुर्लभ हो जाती है।

इसलिए स्वस्थता व सुखशांति चाहिये तो यही उपाय है कि "अभी यहां" दूसरे का पसंदनापसंद अनुभव हर हाल में अपना ही पसंदनापसंद अनुभव है इसे जानना है बिना बचे क्योंकि दूसरा है नहीं, बिना नाम दिये क्योंकि दूसरा है नहीं।नाम देने से लगता है कोई और कारण है तब उसे पाने या हटाने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है।इसमें कभी सफलता नहीं मिलती क्योंकि स्वयं को ही पाने या हटाने की जद्दोजहद चल रही होती है।

अतः जो लोग बिना जाने दूसरों को क्षमा करते हैं वे अपने आपको क्षमा करते हैं।

लेकिन जो सत्य को जान लेता है वह अपनेआपको क्षमा करता है बिना दूसरे को बीच में लाये।और क्या हो सकता है दुनिया भर की राजसीतामसी वृत्तियां भरी पडी हैं भीतर।उनके अलगाव में जीनेवाले द्रष्टा बने बैठे हैं।

पर स्वयं ही उन सभी वृत्तियों के रुप में निरंतर घट रहे हैं तो आत्मसाक्षी का जन्म होता है।भीतर ही शांति प्रकट हो जाती है।

स्वयं कहां जायेगा शांति की तलाश में?रागद्वेष का अध्याय ही पूरा हो जाता है।वह अपने आपमें स्वस्थ,शांत,सुखपूर्ण हो जाता है।जब तक "दूसरे" का भ्रम है,किसी और को कारण माना जा रहा है तब तक यह संभव नहीं।उसे अपनी खोज जारी रखनी होगी।और यही सही है।

चैत्र नवरात्रि पर्व

चैत्र नवरात्रि का पर्व / प्रस्तुति - कृष्ण मेहता*

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*चैत्र नवरात्रि का पर्व भी जल्द आने वाला हैं। यह पर्व देवी मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा आराधना का पर्व माना जाता हैं। नवरात्रि में नौ दिनों तक मां दुर्गा के नौ अलग अलग रूपों की पूजा की जाती हैं भक्त इन नौ दिनों तक नवरात्रि का व्रत रखकर मां आदिशक्ति की पूजा करते हैं तो आज हम आपको चैत्र नवरात्रि व्रत के बारे में विस्तार से बताने जा रहे हैं तो आइए जानते हैं।*


चैत्र नवरात्रि का त्योहार हर साल चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से प्रारंभ होकर नवमी तिथि तक चलता हैं। इस साल यह तिथि 13 अप्रैल को पड़ रही हैं इसलिए नवरात्रि पर्व 13 अप्रैल से प्रारंभ होगा जो 22 अप्रैल 2021 को समाप्त होगा। नवरात्रि पारण के साथ ही इस व्रत का समापन होता हैं।


जानिए चैत्र नवरात्रि घटस्थापना मुहूर्त—

शुभ मुहूर्त— 13 अप्रैल को सुबह 5 बजकर 28 मिनट से सुबह 10 बजकर 14 मिनट तक

शुभ मुहूर्त की अवधि— 4 घंटे 15 मिनट


जानिए पूजन विधि—

सबसे पहले एक पात्र लें। उस पात्र में मिट्टी बिछाएं। फिर पात्र में रखी मिट्टी पर जौ के बीज डालकर उसके ऊपर मिट्टी डालें। अब इसमें थोड़ें से पानी का छिड़काव करें। अब एक कलश लें। इस पर स्वस्तिक बनाएं। फिर मौली या कलावा बांधें। इसके बाद कलश को गंगाजल और शुद्ध जल से भरें। इसमें साबुत सुपारी, पुष्प और दूर्वा डालें।साथ ही इत्र, पंचरत्न और सिक्का भी डालें। इसके मुंह के चारों ओर आम के पत्ते लगाएं। कलश के ढक्कन पर चावल डालें। देवी का ध्यान करते हुए कलश का ढक्कन लगाएं। अब एक नारियल लेकर उस पर कलावा बांधें। कुमकुम से नारियल पर तिलक लगाकर नारियल को कलश के ऊपर रखें। नारियल को पूर्व दिशा में रखें।

राधास्वामी - राधास्वामी

: 🙏🍁RADHASOAMI 🍁🙏

राधास्वामी नाम सुमिर छिन छिन, राधास्वामी रूप धियाओ पुन पुन

🙏🍁RADHASOAMI 🍁🙏


🙏अचरज नाम और अचरज रूपा,

अचरज मेहर का वार न पार;

 लख लख भाग सराहत अपना,

 राधास्वामी चरन पकड़ रही सार

🌹🍁🌷राधास्वामी Radhasoami 🌷🍁🌹



 🙏🍁RADHASOAMI 🍁

🙏हरख हरख राधास्वामी गुन गावत,

 पल पल छिन छिन घड़ी घड़ी

🙏🍁RADHASOAMI 🍁🙏



🙏🍁RADHASOAMI🍁

🙏मैं जिद्द दम दम हठ करती,

मौज हुकम में चित नहिं धरती,

दया करो राधास्वामी प्यारे, 

औगुन बख्शो लेवो उबारे 🙏


🍁RADHASOAMI🍁🙏



 🙏🍁RADHASOAMI


🍁🙏समय फिर ऐसा नहिं पावो,

 खोवो मत नहिं फिर पछतावो;

सरन से गुरू की काज बन आय,

मेहर कर राधास्वामी कहें समझाय

🙏🍁RADHASOAMI 🍁🙏



🙏🙏🍁RADHASOAMI 🍁🙏


समय फिर ऐसा नहिं पावो,

खोवो मत नहिं फिर पछतावो; 

सरन से गुरू की काज बन आय,

मेहर कर राधास्वामी कहें समझाय


🙏🍁RADHASOAMI 🍁🙏


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

सतसंग शाम RS 31/03

राधास्वामी!! 31-03-2021-आज शाम सतसँग में पढे गये पाठ:-            

                    

  (1) उमँग मन फूल रहा। गुरु दरशन पाया री।।

-(राधास्वामी मेहर टरी अब भारी। मोहि नीच को लिया अपनाया सखी री।।) (प्रेमबानी-3- शब्द-10-पृ.सं. 206,207-डेढगाँव ब्राँच-241 उपस्थिति!)


(2) राधास्वामी सत मत जिसने धारा।

 सहज हुआ उन जीव उधारा।।

लाल सूर जहँ गुरु का रुपा। ओंकार पद त्रिकुटी भूपा।।-(हरष हरष स्रुत अति मगनानी। राधास्वामी चरन समानी।।)   (प्रेमबानी-4-शब्द-10-पृ.सं.141)                                                                       

(3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।।   

  सतसँग के बाद:-                                             

 (1) राधास्वामी मूल नाम।।                                 

(2) अतोला तेरी कर न सके कोई तोल।।                                                             

 (3) बढत सतसँग अब दिन दिन। अहा हा हा ओहो हो हो। (प्रे. भा. मेलारामजी)                                             

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


**राधास्वामी!!                                       

    31- 03 -2021- आज शाम सत्संग में पढ गया बचन-

कल से आगे-(197-का शेष भाग)

                                                               

किंतु प्रकृति न स्वयं सच्चिदानंद स्वरुप हो सकती है और न ईश्वर को अपना सच्चिदानंद स्वरूप प्रकट करने देगि। प्रकृति का आवरण ईश्वर के गुणों को दबाए ही रखेगा और परिमित और अल्प ही करेगा। इसलिए यह अनिवार्य और अपरिहार्य ठहरता है कि प्रकृति की सीमा से बाहर कहीं ईश्वर का सच्चिदानंद स्वरूप में अविर्भाव होना चाहिए।

यदि आप हठ करें कि ईश्वर प्रकृति की सीमा के भीतर ही सीमित है तो फिर आप उसे सच्चिदानंद- स्वरूप न कहें। और जोकि आप के मत के अनुसार प्रकृति और ईश्वर दोनों अविनाशी है इसलिए मानना होगा कि न इस समय ईश्वर का सच्चिदानंद स्वरूप है और न आगे चलकर कभी होगा यह हुआ प्रमाण वेदों में वर्णन किये हुए तीन लोक से परे मालिक के सच्चिदानंद या निर्मल चेतन स्वरुप की विद्यमानता का।

 अब देखिए यह बात सही मानने से क्या क्या परिणाम निकलते हैं और आपके आक्षेपो की क्या दशा होती है।     

                          

 🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻           

                  

   यथार्थ प्रकाश - भाग दूसरा

 -परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!


**🙏🙏


death satsang of mother in law of PB.Prakash Swarup ji happened after सत्संग🙏🙏🙏


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏


खेत चलो खेत की ओर चलो

 *कृपया  ध्यान  दीजिए* ,  दयालबाग  में,  मोहल्लो  में,  सदनों  में  जितने  भी  लोग  हैं  ७०  वर्ष  से  कम  उम्र  के  सभी  लोग  जल्दी  से  जल्दी  पहुचियें,  गेंदे  के  टीले  पे  खेतों  का  काम  शुरू  हो  गया  हैं।  जुबली  गेट  पर  पहुचिएं,  वहां  पर  ट्रांसपोर्ट  (बस,  ट्रॉली,  ट्रक)  एवलेबल  हैं। चेयरमैन  एस.एन.सी.,  एक्जीक्यूटिव  ऑफिसर,  सदन  चार्जेस,  पंचस,  सरपंचस,  आप  लोगों  को  निकालिए, घरों  से, सदनों  से  ७०  वर्ष  से  कम  उम्र  के  लोगों  को  निकालिए,  सभी  लोग  गेंदे   के   टीले  पे जल्द  से  जल्द  पहुंचे।


बिनाई  का  काम  संत  (सु)परमैन  फेस  २  के  बच्चे  भी  कर  सकते  हैं। बिनाई  का  काम  अलग  से  नहीं  होगा। बिनाई  का  काम  बिलकुल  न  छोड़े।


 *सभा  सोसाइटी  एम्प्लॉयज  भी  ध्यान  दे* ,

 आप  लोग  सभी  ऑफिस  बन्द  कर  के  आइए  जल्द  से  जल्द  खेतों  में।


🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾 


 31-3-21 की शाम से गेहूं की कटाई का काम गेंदा का टीला से शुरू होगा। 


 कृपया ज्यादा से ज्यादा संख्या में सतसंगी भाई, बहनें, युवा और बच्चे  इस सेवा में शामिल हों।


 आज सुबह खेतों में प्राप्त आदेशानुसार, हर रोज़ कम से कम 30 एकड़ कटाई होगी तो आठ दस दिन में काम खत्म होगा।


आप सब से अनुरोध है कि समय से पहले खेतों पर पहुँचें, पूरी छुट्टी तक काम करें। 


 अपने साथ पानी की बोतल, बिस्कुट इत्यादि जरूर रखें । 


सुबह के वक्त torch अवश्य लेकर जाएं। 


खेतों में supervisors, security volunteers के निर्देशों का पालन करें।


 राधास्वामी

जो इनको छोड़ता है मगर भगवान उसका साथ कभी नहीं छोड़ते / मनोज कुमार


 जो  इन तीनो को छोड़ता है भगवान उसका साथ कभी नहीं छोड़ते /

प्रस्तुति - मनोज कुमार 

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हनुमान जी को भगवान सदा अपने पास बैठाते है ;कयो ?कयोकि हनुमान जी ने तीन काम किये और जो ये तीन कार्य करता है भगवान उसे अपने पास सदा रखते है !


1) नाम छोड़ा -

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 हनुमान जी ने अपना कोई नाम नहीं रखा !हनुमान जी के जितने भी नाम है सभी उनके कार्यों से अलग अलग नाम हुए है !किसी ने पूछा -आपने अपना कोई नाम क्यों नहीं रखा तो हनुमान जी बोले -जो है नाम वाला वही तो बदनाम है नाम तो दो ही सुन्दर है राम और कृष्ण का ! विभीषण जी के पास जब हनुमान जी गए तो विभीषण जी बोले - आपने भगवान की इतनी सुन्दर कथा सुनाई आप अपना नाम तो बताईये !हनुमान जी बोले -नाम की तो बड़ी महिमा है


प्रात लेई जो नाम हमारा ;

तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा !


अर्थात प्रात:काल हमारा नाम जो लेता है उस दिन उसे आहार तक नहीं मिलता ! हनुमान जी ने नाम छोड़ा और हम नाम के पीछे ही मरे जाते है !मंदिर में एक पत्थर भी लगवाते है तो पहले अपना नाम उस पर खुदवाते है ! एक व्यक्ति ने एक मंदिर में पंखे लगवाए ;पंखे की हर पंखङी पर अपने पिता जी का नाम लिखवाया ! एक संत ने पूछा -ये पंखे पर किसका नाम लिखा है ! उसके बेटे ने कहा -मेरे पिता जी का नाम है ! संत बोले -जीते जी खूब चक्कर काटे कम से कम मरने के बाद तो छोड़ दो क्यों चक्कर लगवा रहे हो !


2) रूप छोड़ा -

    **********

हनुमान जी बंदर का रूप लेकर आये !हमें किसी का मजाक उड़ाना होता है तो हम कहते है कैसा बंदर जैसा मुख है कैसे बंदर जैसे दाँत दिखा रहा है ! हनुमान जी से किसी ने पूछा -आप रूप बिगाड़कर क्यों आये तो हनुमान जी बोले यदि मै रूपवान हो गया तो भगवान पीछे रह जायेगे ! इस पर भगवान बोले -चिंता मत करो हनुमान मेरे नाम से ज्यादा तुम्हारा नाम होगा और ऐसा हुआ भी राम जी के मंदिर से ज्यादा हनुमान जी के मंदिर है !मेरे दरबार में पहले तुम्हारा दर्शन होगा ( राम द्वारे तुम रखवाले ) !


3) यश छोड़ा -

    **********

हम थोड़ा सा भी बड़ा और अच्छा काम करते है तो चाहते है पेपर में हमारी फोटो छपे नाम छपे पर हनुमान जी ने कितने बड़े-2 काम किये पर यश स्वयं नहीं लिया !

एक बार भगवान वानरों के बीच में बैठे थे ;सोचने लगे हनुमान तो अपने मुख से स्वयं कहेगा नहीं इसलिए हनुमान की बडाई करते हुए बोले -हनुमान तुमने इतना बड़ा सागर लांघा जिसे कोई नहीं लांघ सका !

हनुमान जी बोले -प्रभु इसमें मेरी क्या बिसात


प्रभु मुद्रिका मेल मुख माही !

आपके नाम की मुंदरी ने पार लगाया !


भगवान बोले -अच्छा हनुमान चलो मेरी नाम की मुंदरी ने उस पार लगाया फिर जब तुम लौटे तब तो मुंदरी जानकी को दे आये थे फिर लौटते में तो नहीं थी फिर किसने पार लगाया ?


इस पर हनुमान जी बोले -प्रभु आपकी कृपा ने (मुंदरी) ने उस पार किया और माता सीता की कृपा ने (चूड़ामणि) इस पार किया !


भगवान ने मुस्कराते हुए पूछा -और लंका कैसे जली ?


हनुमान जी -लंका को जलाया आपके प्रताप ने लंका को जलाया रावण के पाप ने लंका को जलाया माँ जानकी के श्राप ने !


भगवान ने मुस्कराते हुए घोषणा की -हे हनुमान तुमने यश छोड़ा है इसलिए न जाने तुम्हारा यश कौन-2 गायेगा !


सहस बदन तुम्हारो यश गावे 

सारा जगत तुम्हारा यश गायेगा !


जो इन तीनो को छोडता है भगवान फिर उसका साथ नहीं छोडते। सदा अपने साथ रखते है !

*भगवत प्रेम जय श्री राम*✍☘💕 इन तीनो को छोड़ता है भगवान उसका साथ नहीं छोड़ते !

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हनुमान जी को भगवान सदा अपने पास बैठाते है ;कयो ?कयोकि हनुमान जी ने तीन काम किये और जो ये तीन कार्य करता है भगवान उसे अपने पास सदा रखते है !


1) नाम छोड़ा -

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 हनुमान जी ने अपना कोई नाम नहीं रखा !हनुमान जी के जितने भी नाम है सभी उनके कार्यों से अलग अलग नाम हुए है !किसी ने पूछा -आपने अपना कोई नाम क्यों नहीं रखा तो हनुमान जी बोले -जो है नाम वाला वही तो बदनाम है नाम तो दो ही सुन्दर है राम और कृष्ण का ! विभीषण जी के पास जब हनुमान जी गए तो विभीषण जी बोले - आपने भगवान की इतनी सुन्दर कथा सुनाई आप अपना नाम तो बताईये !हनुमान जी बोले -नाम की तो बड़ी महिमा है


प्रात लेई जो नाम हमारा ;

तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा !


अर्थात प्रात:काल हमारा नाम जो लेता है उस दिन उसे आहार तक नहीं मिलता ! हनुमान जी ने नाम छोड़ा और हम नाम के पीछे ही मरे जाते है !मंदिर में एक पत्थर भी लगवाते है तो पहले अपना नाम उस पर खुदवाते है ! एक व्यक्ति ने एक मंदिर में पंखे लगवाए ;पंखे की हर पंखङी पर अपने पिता जी का नाम लिखवाया ! एक संत ने पूछा -ये पंखे पर किसका नाम लिखा है ! उसके बेटे ने कहा -मेरे पिता जी का नाम है ! संत बोले -जीते जी खूब चक्कर काटे कम से कम मरने के बाद तो छोड़ दो क्यों चक्कर लगवा रहे हो !


2) रूप छोड़ा -

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हनुमान जी बंदर का रूप लेकर आये !हमें किसी का मजाक उड़ाना होता है तो हम कहते है कैसा बंदर जैसा मुख है कैसे बंदर जैसे दाँत दिखा रहा है ! हनुमान जी से किसी ने पूछा -आप रूप बिगाड़कर क्यों आये तो हनुमान जी बोले यदि मै रूपवान हो गया तो भगवान पीछे रह जायेगे ! इस पर भगवान बोले -चिंता मत करो हनुमान मेरे नाम से ज्यादा तुम्हारा नाम होगा और ऐसा हुआ भी राम जी के मंदिर से ज्यादा हनुमान जी के मंदिर है !मेरे दरबार में पहले तुम्हारा दर्शन होगा ( राम द्वारे तुम रखवाले ) !


3) यश छोड़ा -

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हम थोड़ा सा भी बड़ा और अच्छा काम करते है तो चाहते है पेपर में हमारी फोटो छपे नाम छपे पर हनुमान जी ने कितने बड़े-2 काम किये पर यश स्वयं नहीं लिया !

एक बार भगवान वानरों के बीच में बैठे थे ;सोचने लगे हनुमान तो अपने मुख से स्वयं कहेगा नहीं इसलिए हनुमान की बडाई करते हुए बोले -हनुमान तुमने इतना बड़ा सागर लांघा जिसे कोई नहीं लांघ सका !

हनुमान जी बोले -प्रभु इसमें मेरी क्या बिसात


प्रभु मुद्रिका मेल मुख माही !

आपके नाम की मुंदरी ने पार लगाया !


भगवान बोले -अच्छा हनुमान चलो मेरी नाम की मुंदरी ने उस पार लगाया फिर जब तुम लौटे तब तो मुंदरी जानकी को दे आये थे फिर लौटते में तो नहीं थी फिर किसने पार लगाया ?


इस पर हनुमान जी बोले -प्रभु आपकी कृपा ने (मुंदरी) ने उस पार किया और माता सीता की कृपा ने (चूड़ामणि) इस पार किया !


भगवान ने मुस्कराते हुए पूछा -और लंका कैसे जली ?


हनुमान जी -लंका को जलाया आपके प्रताप ने लंका को जलाया रावण के पाप ने लंका को जलाया माँ जानकी के श्राप ने !


भगवान ने मुस्कराते हुए घोषणा की -हे हनुमान तुमने यश छोड़ा है इसलिए न जाने तुम्हारा यश कौन-2 गायेगा !


सहस बदन तुम्हारो यश गावे 

सारा जगत तुम्हारा यश गायेगा !


जो इन तीनो को छोडता है भगवान फिर उसका साथ नहीं छोडते। सदा अपने साथ रखते है !

*भगवत प्रेम जय श्री राम*✍☘💕

Tuesday, March 30, 2021

सतसंग RS 31/03

 **राधास्वामी!! 31-03-2021-आज सुबह सतसँग में पढे गये पाठ:-     

                           

  (1) गुरु तारेंगे हम जानी।

तू सुरत काहे बौरानी।।-

चढ बैठो अगम ठिकानी। राधास्वामी कहत बखानी।।)

 (सारबचन- शब्द-15-पृ.सं.361,362-

गुटइया ब्राँच कानपुर-161 उपस्थिति!) 

                     

 (2) गुरु प्यारे चरन का लाऊँ ध्यान।।टेक।। मध और सुरत जमा हर द्वारे। धुन घंटा सुन अधर चढान।।-(शब्द धार चढ निज घर आई। राधास्वामी चरन समान।।) (प्रेमबानी-3-शब्द-11-पृ.सं.17,18)                                                 

  सतसँग के बाद:-                                                  (

1) राधास्वामी मूल नाम।।                               

 (2) अतोला तेरी कर न सके कोई तोल।।                                                      

  (3) बढत सतसँग अब दिन दिन। अहा हा हा ओहो हो हो।।                                          

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


**परम गुरु हुजूर मेहतजी महाराज -

भाग 1- कल से आगे:-( 55 )-

24 मई 1941 को शाम के सत्संग में 'सत्संग के उपदेश' भाग 1 से बचन नंबर 32,"शुभ कर्म की असलियत' पढ़ा गया। बचन समाप्त होने पर हुजूर ने फरमाया- अक्सर इस वक्त तक लोगों का ख्याल ऐसा है कि अच्छा कर्म नेकनियती पर निर्भर है। कोई कर्म न बुरा है और न भला बल्कि करने वाले की नियत देखनी चाहिए। अगर कोई कर्म नेकनीयती से किया जावे तो भला है और अगर बदनीयती से किया जाय तो बुरा है। लेकिन इस बचन में आगे चलकर जो लिखा है वह इस यकीन को बहुत कुछ, बहुत कुछ क्या बिल्कुल बदल देता है।

इसकी रोशनी में आप बतालाइये कि क्या अभ्यास युक्ती बताना या बचन कहना लाजिमी तौर पर अच्छा कर्म है इस बचन में बताया गया है कि नेक नियति से किया हुआ कर्म, जरूरी नहीं कि फायदेमंद ही हो। इसलिए उपदेश देने और बचन कहने से जरूरी नहीं कि किसी को फायदा हो ।

आगे चलकर जो शर्त हुजूर साहबजी महाराज ने लिखी है, वह पूरी नहीं हुई तो हर्गिज़ कोई फायदा न होगा। उन्होंने लिखा है कि "रसीदा और कामिल बुजुर्गों " के जो फरायज इन्सान  के लिए तजवीज फरमाये उन्हें श्रद्धा व प्रेम के साथ हस्ब हिदायत सरंजाम देने से इंसान को सुख, सच्चे मालिक की प्रसन्नता व बहिश्त हासिल होते हैं "।

यहाँ पर "रसीदा व कामिल बुजुर्ग' के मानी अगर साहबजी महाराज के लिए जाने जो अनुचित न होगा। जो फरायज साहबजी महाराज ने सत्संगियों के लिए मुकर्रर किये। अगर आप उनसे कोसों दूर भागते हैं तो एक नहीं पचास बचन कह जायँ,आपको कोई लाभ न होगा। साहबजी महाराज ने 23 जून का यानी चोला छोड़ने के 1 दिन पहले , मद्रास में, समुद्र के किनारे इसी बात पर जोर दिया था ।

उन्होंने फरमाया था कि "मैंने अपनी जिंदगी में एक लम्हा भी अपने फराइज जिम्मेदारियाँ सरअंजाम देने में कोताही नहीं"। उनका इस फरमान से मतलब अपने तरीके अमल( ढंग) की निसबत अपनी पोजीशन साफ करने का नहीं था क्योंकि उनके खिलाफ किसी ने कोताही का कोई इल्जाम नहीं लगाया था बल्कि मतलब यह था कि इस फरमान को सुनकर और सब लोग भी इस तरह (अमल) करें (चलें)

क्रमशः                                      

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻*


**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-


[ भगवद् गीता के उपदेश]- कल से आगे:- 


                  

    छल करने वालों का जूआ और तेजस्वी लोगों का तेज मैं हूँ, जय मैं हूँ, निश्चय मैं हूँ  और दिलेरों की दिलैरी में हूँ। वृष्णियों में मैं वासुदेव हूँ, पांडवों में धनंजय (अर्जुन), मुनियों में व्यास और कवियों में शुक्र कवि मैं हूँ। दंड (सजा) देने वालों में सजा मैं हूँ, फतेह चाहने वालों में नीति मैं हूँ। रहस्यों में मौन मैं हूँ और ज्ञानवालों का ज्ञान मैं हूँ। 

मतलब यह कि सब भूतों अर्थात पदार्थों का जो भी बीज है वह मैं हूँ क्योंकि ऐसा कोई चर(चेतन) या अचर (जड़) पदार्थ नहीं है जिसका भाव मेरे बिना हो सके। हे अर्जुन! मेरे दिव्य स्वरुपों का कोई वार पार नहीं है। मेरे विभूतियों का यह वर्णन उदाहरण मात्र है।【40】                    

तात्पर्य यह है कि दुनिया में कुछ भी शानदार, खूबसूरत और ताकतवर है, तुम समझ लो, वह सब मेरे ही तेज का एक अंश है । लेकिन हे अर्जुन!  इन सब बातों को जानने से तुम्हें क्या फायदा होगा।  इस कुल जगत् को तो सिर्फ मेरे एक अंश ने व्याप कर फेल कर काम रखा है।

【 42】                                   

क्रमशः                                                      

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


**परम गुरु हुजूर महाराज

 -प्रेम पत्र -भाग 1

- कल से आगे:-( 10 )

अब समझना चाहिए कि जो चैतन्य इस मलीन माया के देश में व्यापक है वह सदा देहियों के बंधन में गिरफ्तार रहता है और जब तक कि देहियों के खोल यानी आवरण अभ्यास करके दूर न किये जावेंगे, तब तक वह आजाद यानी विदेह नहीं हो सकता ।                                                                                वेदान्त शास्त्र में दो दर्जे माया के लिखे हैं -एक शुद्ध सत्य प्रधान, दूसरा मलीन सत्य प्रधान, और शुद्ध ब्रह्म अथवा पारब्रह्म पद इन दोनों दर्जो के परे कहा है। और वास्ते जुदा होने माया के देश से योग अभ्यास की हिदायत की है कि अपने प्राणों को छः चक्र के पार चढ़ाकर ब्रह्म का दर्शन करें और फिर वहाँ से पारब्रह्म पद में पहुँचे , तब सच्ची मुक्ति हासिल होगी और तब ही शुद्धब्राह् के साथ एकता होगी।

उस वक्त जो बचन की यह बाचक ज्ञानी पोथियों को पढ़ पढ़ के कहते हैं सच्चे दरसेंगे, यानी सच्चा योRS सुबह 31/03गी अपने आपको वहाँ ब्रह्म स्वरूप देखेगा और वही ब्रह्म तमाम नीचे के देश यानी रचना में व्यापक नजर आवेगा।

और जब तक कि कोई अभ्यास करके ब्रह्म और पारब्रह्म पद तक न पहुंचे तब तक एकताई के बचन कहना सिर्फ जबानी जमा खर्च है, असल में उनकी हालत नहीं बदलती, यानी अज्ञानियों के मुआफिक यह बाचक ज्ञानी भी अविद्या के घेर में रहकर मन और इंद्रियों के कहे में चल रहे हैं, और ब्रह्म या आत्मा का आनंद एक जर्रा भी इनको प्राप्त नहीं होता और न अपने रूप को देख सकते हैं और न ब्रह्म का दर्शन पाते हैं।  क्रमशः                                         

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

सर्व प्रथम समाधान

 *💐समस्या का समाधान💐*प्रस्तुति - कृष्ण मेहता*


एक दस वर्षीय लड़का रोज अपने पिता के साथ पास की पहाड़ी पर सैर को जाता था।

एक दिन लड़के ने कहा, “पिताजी चलिए आज हम दौड़ लगाते हैं, जो पहले चोटी पे लगी उस झंडी को छू लेगा वो रेस जीत जाएगा !”

पिताजी तैयार हो गए।

दूरी काफी थी, दोनों ने धीरे-धीरे दौड़ना शुरू किया।

कुछ देर दौड़ने के बाद पिताजी अचानक ही रुक गए।


“क्या हुआ पापा, आप अचानक रुक क्यों गए, आपने अभी से हार मान ली क्या?”, लड़का मुस्कुराते हुए बोला।

“नहीं-नहीं, मेरे जूते में कुछ कंकड़ पड़ गए हैं, बस उन्ही को निकालने के लिए रुका हूँ।”, पिताजी बोले।

लड़का बोला, “अरे, कंकड़ तो मेरे भी जूतों में पड़े हैं, पर अगर मैं रुक गया तो रेस हार जाऊँगा…”, और ये कहता हुआ वह तेजी से आगे भागा।


पिताजी भी कंकड़ निकाल कर आगे बढे, लड़का बहुत आगे निकल चुका था, पर अब उसे पाँव में दर्द का एहसास हो रहा था, और उसकी गति भी घटती जा रही थी। धीरे-धीरे पिताजी भी उसके करीब आने लगे थे।


लड़के के पैरों में तकलीफ देख पिताजी पीछे से चिल्लाये,” क्यों नहीं तुम भी अपने कंकड़ निकाल लेते हो?”

“मेरे पास इसके लिए टाइम नहीं है !”, लड़का बोला और दौड़ता रहा।

कुछ ही देर में पिताजी उससे आगे निकल गए।

चुभते कंकडों की वजह से लड़के की तकलीफ बहुत बढ़ चुकी थी और अब उससे चला नहीं जा रहा था, वह रुकते-रुकते चीखा, “पापा, अब मैं और नहीं दौड़ सकता !”

पिताजी जल्दी से दौड़कर वापस आये और अपने बेटे के जूते खोले, देखा तो पाँव से खून निकल रहा था। 


वे झटपट उसे घर ले गए और मरहम-पट्टी की।

जब दर्द कुछ कम हो गया तो उन्होंने समझाया,” बेटे, मैंने आपसे कहा था ना पहले अपने कंकडों को निकाल लो फिर दौड़ो।”

“मैंने सोचा मैं रुकुंगा तो रेस हार जाऊँगा !”,बेटा बोला।


“ ऐसा नही है बेटा, अगर हमारी लाइफ में कोई प्रॉब्लम आती है तो हमे उसे ये कह कर टालना नहीं चाहिए कि अभी हमारे पास समय नहीं है।


 दरअसल होता क्या है, जब हम किसी समस्या को अनदेखी करते हैं तो वो धीरे-धीरे और बड़ी होती जाती है और अंततः हमें जितना नुक्सान पहुंचा सकती थी उससे कहीं अधिक नुक्सान पहुंचा देती है। तुम्हे पत्थर निकालने में मुश्किल से 1 मिनट का समय लगता पर अब उस 1 मिनट के बदले तुम्हे 1 हफ्ते तक दर्द सहना होगा। “ पिताजी ने अपनी बात पूरी की।

दोस्तों हमारा जीवन ऐसी तमाम कंकडों से भरा हुआ है l


शुरू में ये समस्याएं छोटी जान पड़ती है और हम इन पर बात करने या इनका समाधान खोजने से बचते हैं, पर धीरे-धीरे इनका रूप बड़ा हो जाता है l


समस्याओं को तभी पकडिये जब वो छोटी हैं वर्ना देरी करने पर वे उन कंकडों की तरह आपका भी खून बहा सकती हैं..!!

  *🙏🏻🙏🏾🙏🏿जय जय श्री राधे*🙏🏽🙏🏼🙏

सतसंग शाम RS 30/03

 राधास्वामी!! 30-03-2021-आज शाम सतसँग में पढे गये पाठ:-                                   

(1) गुरु प्यारे की दम दम शुक्रगुज़ार।।टेक।।

दया करी मोहि संग लगाया। भेद दिया मोह़ि घट का सार।।

-(शब्द सँग स्रुत अधर चढा कर। पहुँचाया राधास्वामी दरबार।।)

(प्रेमबानी-3 -शब्द-73-पृ.सं.60,61-डेडगाँव-91- उपस्थिति)                                 

(2) राधास्वामी सत मत जिसने धारा।

 सहज हुआ उन जीव उधारा।।

पुरुष होय चहे सत्री होई।

गुरु के संग प्रीति करे सोई।।-

(जग में जम का जोर घनेरा। जीव करें चौरासी फेरा।।)

 (प्रेमबानी-4-शब्द-10-पृ.सं.145,146)                                                    

 

(3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।  

     सतसँग के बाद:- 

                                          

  (1) राधास्वामी मूल नाम।।                              

  (2) अतोला तेरी कर न सके कोई तोल।।                                                        

 (3) बढत सतसँग अब दिन दिन अहा हा हा ओहो हो हो।।(प्रे. भा. मेलारामजी)                                       

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻

*राधास्वामी!!   

                                     

  30- 03 -2021- आज शाम सत्संग में पढ़ा गया बचन-

परसों से आगे:-( 197 )-

जरा विद्युत शक्ति को देखिये। इसकी भी दो अवस्थाएँ हैं -गुप्त और प्रकट।  जब वह गुप्त अवस्था में है तो अरूप है, और उसका हाल किसी को ज्ञात नहीं हो सकता । जब वह किसी रूप में अपना प्रकाश करती है तभी उसकी खबर होती है। जैसे लैंप के द्वारा बिजली की रोशनी हो गई, यह रोशनी देखकर ही मनुष्य  कह सकता है कि बिजली प्रकाश स्वरूप है।

यदि संसार में कहीं भी बिजली की रोशनी न हो या बिजली गुप्त दशा में ही रहे तो मनुष्य कभी न कहे कह सकेगा कि बिजली प्रकाशस्वरूप है। अर्थात् प्रकाश- स्वरूप कहलाने के लिए बिजली के वास्ते प्रकाशरूप धारण करना अनिवार्य है। 

इसी प्रकार ईश्वर के लिए सच्चिदानंद स्वरूप कहलाने के लिए सच्चिदानंद स्वरूप धारण करना अनिवार्य है और जोकि वह इस समय प्रकट अवस्था में है इसलिए कोई न कोई स्थान ऐसा होना चाहिए जहाँ ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप से प्रकट हो और जहाँ ऐसा होगा वह मँडल का मँडल सच्चिदानंद स्वरुप होगा। क्रमशः                                           

  🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻                               

  यथार्थ प्रकाश - भाग दूसरा

-परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!**


****

तमसा नदी और अयोध्या

 1.तमसा नदी : अयोध्या से 20 किमी दूर है तमसा नदी। यहां पर उन्होंने नाव से नदी पार की।


 

2.श्रृंगवेरपुर तीर्थ : प्रयागराज से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। श्रृंगवेरपुर को वर्तमान में सिंगरौर कहा जाता है।

 

3.कुरई गांव : सिंगरौर में गंगा पार कर श्रीराम कुरई में रुके थे।

 

4.प्रयाग: कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। कुछ महीने पहले तक प्रयाग को इलाहाबाद कहा जाता था ।

 

5.चित्रकूणट : प्रभु श्रीराम ने प्रयाग संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

 

6.सतना: चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। हालांकि अनुसूइया पति महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे, लेकिन सतना में 'रामवन' नामक स्थान पर भी श्रीराम रुके थे, जहां ऋषि अत्रि का एक ओर आश्रम था।

 

7.दंडकारण्य: चित्रकूट से निकलकर श्रीराम घने वन में पहुंच गए। असल में यहीं था उनका वनवास। इस वन को उस काल में दंडकारण्य कहा जाता था। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों को मिलाकर दंडकाराण्य था। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के अधिकतर हिस्से शामिल हैं। दरअसल, उड़ीसा की महानदी के इस पास से गोदावरी तक दंडकारण्य का क्षेत्र फैला हुआ था। इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

 

8.पंचवटी नासिक : दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। यह आश्रम नासिक के पंचवटी क्षे‍त्र में है जो गोदावरी नदी के किनारे बसा है। यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

 

9.सर्वतीर्थ: नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया था जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में 'सर्वतीर्थ' नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है। जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

 

10.पर्णशाला: पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को 'पनशाला' या 'पनसाला' भी कहते हैं। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था। इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

 

11.तुंगभद्रा: सर्वतीर्थ और पर्णशाला के बाद श्रीराम-लक्ष्मण सीता की खोज में तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

 

12.शबरी का आश्रम : तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। शबरी जाति से भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा। 'पम्पा' तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। पौराणिक ग्रंथ 'रामायण' में हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है। केरल का प्रसिद्ध 'सबरिमलय मंदिर' तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है।

 

13.ऋष्यमूक पर्वत : मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया। ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। पास की पहाड़ी को 'मतंग पर्वत' माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था जो हनुमानजी के गुरु थे।

 

14.कोडीकरई : हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने वानर सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है। यहां श्रीराम की सेना ने पड़ाव डाला और श्रीराम ने अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित कर विचार विमर्ष किया। लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

 

15..रामेश्‍वरम: रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्‍य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

 

16.धनुषकोडी : वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया। धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।

 

इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

 

17.'नुवारा एलिया' पर्वत श्रृंखला :* वाल्मीकिय-रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। 'नुवारा एलिया' पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

 

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं।


अब वो लोग तर्क देकर बताये, जो प्रभू श्री राम को काल्पनिक कहते हैं ।

Monday, March 29, 2021

सतसंग RS सुबह 30/03

 **राधास्वामी!! 30-03-2021-आज सुबह सतसँग में पढे गये पाठ:-                                   

(1)  प्रेमी सुनो प्रेम की बात।।

 सेवा करें प्रेम से गुरु की।

 और दर्शन पर बल बल जात।।

-(राधास्वामी कहत सुनाई।

 अब सतगुरु का पकडो हाथ।।)

(सारबचन-शब्द-10-पृ.सं.190,191)                                                     

(2) गुरु प्यारे चरन रचना की जान।।टेक।।

आदि धार चेतन जो निकसी। उसने रची सब रचना आन ।।-

(राधास्वामी मेहर करें जब अपनी।

निज सरुप घट में दरसान।।)

 (प्रेमबानी-3-शब्द-10-पृ.सं.17)                        

  सतसँग के बाद:-                                             

(1) राधास्वामी मूल नाम।                                     

 (2) अतोला तेरी कर न सके कोई तोल।।                                                        

  (3) बढत सतसँग अब दिन दिन। अहा हा हा ओहो हो हो।।

 (प्रे.भा. मेलारामजी)                                          

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


**परम गुरू हुजूर मेहताजी महाराज

- भाग 1- कल से आगे :-

 फरमाया - यदि इस शब्द के तीसरे व चौथे हिस्सों को सातवें के साथ मिला कर पढ़ा जाय तो आपकी समझ में आ जायगा कि ये ममता और मोह क्या है जिनसे नाता तोड़ने और छुटकारा प्राप्त करने के लिए सत्संग में शामिल हुए और सत्संग में शामिल होने से कौन से बँधन टूटते हैं । यदि सब टूट जायँ तो सच्चे सत्संग की महिमा समझ में आ जाय।

इस समय यही बातें हमारी परेशानी और दुःख का कारण बन रही है। ये ही बातें हैं जिनकी याद आ जाने पर मनुष्य राधास्वामी धाम की ओर जाने से रुक जाता है । अगर औरतों व मर्दो के जीवन का एक लक्ष्य हो कि वह शीघ्र से शीघ्र संसार से छुटकारा प्राप्त करके राधास्वामी धाम में पहुंचे तो उनके इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक दूसरे की मदद करनी चाहिए और आपस में यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए यदि उनमें से कोई राधास्वामी धाम जाने की तैयारी करें या रवाना होने लगे तो दूसरा उसको प्रसन्नता से जाने दे बल्कि उसको यह भरोसा दिलाये कि घर की जिम्मेदारी और घर के दूसरे कामों की देखभाल बाकी बचे हुए कुटुंबी कर लेंगे।

विदा होने वाली सुरत उसकी कोई चिंता न करें और धैर्य से यहाँ से रवाना हो। क्या ये अच्छा हो कि अगर इस तरह से मनुष्य एक दूसरे को जाने की आज्ञा खुशी से दे दे और इतमीनान से जाने का प्रबंध कर दें।

 आप लोगों के दिल में असली हमदर्दी हो और यह विचार हो तो जितनी ही जल्दी हो दूसरे को छुटकारा मिल जाए तो क्या ही अच्छा हो। फिर आपके दिल मैं बंधन क्यों रहे और इस विश्वास के अनुसार विदा करने में क्या हर्ज है। तब बिनती पढी जाने लगी:-                                                        

 दया धार अपना कर लीजे।                             

 काल जाल से न्यारा कीजे।।                     

सतजुग त्रेता द्वापर बीता।                       

   काहू न जानी शब्द की रीता।।                     

 कलयुग में स्वामी दया बिचारी।                   

  परघट करके शब्द पुकारी।।                 


फरमाया- तीन युगों के बीत जाने के बाद इस युग में यह प्रबंध हुआ कि जीव संसार के बंधनों को तोड़कर मुक्ति प्राप्त करें। जब तक बंधन है उस समय तक कष्ठ है, परंतु यह बंधन ही न रहे तो फिर कोई जहाँ भी चाहे चला जाय। चाहे परदेश जाय चाहे कोई और, कोई चिंता और दुःख नहीं होगा।

 जब काल के जाल से न्यारा होने और मालिक के हुजूर में अपनाए जाने की प्रार्थना की जाती है तो फिर ऐसे समय आने और विदा होने के समय हम को प्रसन्नता से एक दूसरे को विदा करना चाहिए।।                                          

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज

 -[भगवद् गीता के उपदेश]

- कल से आगे :- 

                                                              

 पेडों में मैं पीपल हूँ, देवर्षियों में नारद हूँ, गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्धों यानी कामिल पुरुषों में मैं कपिल मुनि हूँ।

मुझे घोडों में अमृत से पैदा हुआ उच्च:श्रवा और टावर और महाकाय हाथियों में एरावत जानो। इंसानों में राजा हूँ, शास्त्रों में वज्र हूँ, गौओं में कामधेनु हूँ और संतान उत्पन्न करने वाला कामदेव हूँ। साँपो में वासुकि हूँ, नागों में मैं अनंत नाग हूँ, जलचरों में वरुण हूँ, और पितरों में अर्यमा हूँ। दंड  देने वालों में यमराज हूँ, दैत्यों में प्रहलाद हूँ और गिनती करने वालों में कार (क्षण वगैरह) हूँ। जगंली जानवरो में शेर हूँ और परिन्दो में गरूड हूँ।

【30】                                               

       शुद्ध करने वालों में हवा हूँ, और शास्त्रधारियों में राम हूँ। मछलियों में मगरमच्छ और नदियों में गंगा हूँ। सृष्टियों का मैं ही आदि, अंत और मध्य हूँ। विद्याओं में आत्मविल्या हूँ और वक्ताओं में मैं वाक्शक्ति   हूँ। अक्षरों हर्फों में मैं अकार हूँ  और सब समासों में द्वन्द समास हूँ। मैं ही अखंड (अटूट)  काल (जगत् का समेटने वाला) हूँ  और मैं ही चारों तरफ (निगाह) रखने वाला सब का सहारा हूँ।

 सबको हडप कर जाने वाली मृत्यु मैं हूँ, सब प्रकट होने वाली वस्तुओं का स्रोत( निकास) मैं हूँ। स्त्रीवर्गी गुणों में से कीर्ति, लक्ष्मी , वाणी , स्मृति , बुद्धि ,घृति और क्षमा हूँ। सामों मै मै वृहत् साम हूँ, छन्दों में गायत्री हूँ, महीनों में अगहन और मौसिमों में बसंत हूँ।

【 35】                   

क्रमशः

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


**परम गुरु हुजूर महाराज-प्रेम पत्र - भाग-1-

 कल से आगे:-( 8)-

वाचक ज्ञानी और सूफी:-                                                                        

इन लोगों से भी राधास्वामी मत के अभ्यासियों को मेल रखना मुनासिब नहीं है, क्योंकि इन साहबो ने बचन सच्चे पूरे ज्ञानियों के पढ़ कर और अपनी एकता ब्रह्म के साथ बुद्धि से मान कर अभ्यास छोड़ दिया। और जो कोई इनको मिलता है उसको एक ताई के बचन सुना कर सबको समझा कर ब्रह्म बना देते हैं और चौरासी और नरकों के डर से आजाद कर देते हैं ।                                                   

(9)- जो कोई संतमत के मुआफिक इनसे अभ्यास की निस्बत चर्चा करें और दरियाफ्त करें कि तुमको ब्रह्म पद की प्राप्ति किस तरह हुई , तो जवाब देते हैं कि जाना आना कहाँ है, ब्रह्म सब जगह व्यापक है और देह और जिस कदर नाम रूप की चर्चा रचना नजर आती है सब मिथ्या और भरम है । सिर्फ इसी कदर काम करना है कि ज्ञान के बचन को अच्छी तरह से समझ कर अपने तई ब्रह्म मानना, इसी निश्चय को पकाना और मजबूत करना और मन और इंद्री और देही और सब पदार्थों को जड़ समझना।।                                   

  इन सबसे ब्रह्म न्यारा है और निर्लेप है और पाप और पुन्य उसको नहीं लगते या छू सकते हैं। और जब ऐसा निश्चय पुख्ता हो गया, तब विदेह मुक्ति का अधिकारी हो गया, यानी जब देह छूटेगी तब अपने निश्चय के मुआफिक जीव चैतन्य देही वगैरह के बंधन से छूट कर व्यापक चैतन्य से मिल जावेगा।

 क्रमशः                                                        

  🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


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स्पेशल होली सतसंग शाम 29/03

 **राधास्वामी!!29-03-2021-आज शाम होली स्पेशल सतसँग में पढे गये पाठ:-                                    


 (1) प्रेम रंग ले खेलो री गुरु से।

 आज पडा तेरा दाव री।।

-(सुरत जगाय उमँग नई धारो।

राधास्वामी चरन समाव री।।)

 (प्रेमबानी-3-शब्द-33-पृ.सं.321,322-रानी साहिबा एवम् पवित्र परिवार द्वारा)                    

  (2) मुबारक जन्मदिन जन्मदिन मुबारक-कव्वाली साहब दास कोडा जी एवम् डा०जोशी आंटी जी सामूहिक)                         

  (3) बचन-होली।                                            

 सतसँग के बाद:-                                             

 (1) राधास्वामी मूल नाम।।                                

(2) अतोला तेरी कर न सके कोई तोल।।                                                                                 

 (3) बढत सतसँग अब दिन दिन। अहा हा हा ओहो हो हो।।

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻



*【होली】                                                 

  परमपिता स्वामीजी महाराज की बानी में आया है :-                                                     

'फागुन मास रंगीला आया।' 'घर घर बाजे गाजे लाया।'                                             

और भी फरमाया है:-                                                   'यह नर देही फागुन मास। सुरत सखी आई करन बिलास ।।'                                     

 उसी शब्द में आगे यों भी फरमाया है:-

'तुझ को फिर कर फागुन आया। सम्हल खेलियो लिए हम समझाया।।'                                       

गोया संतो ने फागुन मास नर-देह से उपमा देकर उसकी खास महिमा फरमाई है और निहायत मुनासिब, क्योंकि इस परम उत्तम देह में, जिसमें आदि से अंत तक के द्वारे मौजूद हैं और जिसमें अनन्त शब्द झंकार कर रहे हैं और नित्य आरती हो रही है और जिसमें बैठकर सुरत पर बिलास को प्राप्त हो सकती है , ऐसी महा अचरजी और सुखदायक वस्तु की उपमा साल के सबसे बढ कर आनंद और बिलास भरे मास से ही दी जा सकती थी।

 इससे बेहतर उपमा का अनुमान भी नहीं हो सकता। मगर साथ ही साथ जैसा कि तीसरी कड़ी मजकूराबाला में फरमाया है यह हिदायत की कि ऐसी उत्तम देह पाकर सम्हलल के इस संसार में खेलना, तब निर्मल विलास प्राप्त हो सकता है। मतलब यह कि जो देह धारण करके संसार के कीचड़ व गलीज में ऐसी उत्तम अवस्था को खो देते हैं, वे अंत को महा दुःख को प्राप्त होते हैं।                                                  

जैसा कि उसी शब्द बारहमासा में फरमाया है:-

"धूल उडाई छानी खाक। पाप पुण्य सँग हुई नापाक।।७।।                                                     

इच्छा गुन सँग मैली भई । रंग तरंग बासना गही।।८।।                                                  

  फल पाया भुगती चौरासी  काल देश जहाँ बहु तरासी।।९।।                                       

  आस तिरास माहिं अति फँसी।-देख देख तिस माया हँसी।।१०।।                                  

हँस-हँस माया जाल बिछाया। निकसन की कोई राह न पाया।।११।।                            

 तब संतन चित दया समाई। सत्यलोक से पुनि चली आई।।१२।।                                   

 ज्यों त्यों चौरासी से काढा। नरदेही में फिर ला डाला।।१३।।                                                  

 चरन प्रताप सरन में आई। तब सतगुरु अतिकर समझाई।।१४।।                              

तुझको फिर कर फागुन आया। सम्हल खेलियों हम समझाया ।।१५।।                      

लेकिन अगर ऐसे समय में मालिक की भजन बन्दगी,सेवा, सत्संग, गुरु -भक्ति वगैरह का रंग खिले और जीव इस तरह पर अपनी अनमोल देह को सफल करें, तो यहाँ भी आनंद और अंत को चरणों का परम बिलास पाकर अमर सुख को प्राप्त हो जावे।।                                                                


 यह तो वर्णन जीवो की अंतरी कार्रवाई का हुआ। इस नवीन उपमा के अनुसार स्वभाविक ऐसा ही होना चाहिये था कि जहाँ संसारी जीव इस उत्तम समय होली को महा अपवित्र और नीरस कामों में आमतौर पर खोया करते हैं, उस समय पर भक्तजन अपने परम हितकारी संत सतगुरु के हुजूर में बैठ कर नवीन रस आनंद और बिलास करें।

 चुनाँचे मौज से ऐसा ही सदा से राधास्वामी पंथ में होता आया है, यानी तातील होने के सबब प्रेमीजन जहाँ-तहाँ से हमेशा से हुजूरी दरबार जमा होकर चरणों का रस और आनंद लेते आये हैं। चुनाँचे इस साल भी होली तारीख 23 मार्च सन 1913 ईस्वी को वाकै हुई।

 दूर दराज के करीब पाँच छः सौ के प्रेमिजन बड़े उमंग और उत्साह से दरबार में हाजिर होकर मालिक की भजन- बन्दगी और सत्संग में मशरूफ रहे। जो छबि सत्संग में उस वक्त मालिक ने दया करके पर प्रगट फरमाई और जो आनंद और सरूर पाठ में निहायत गैरमामूली बख्सा उसकी कैफियत हाजरीन दरबार ही जानते हैं, वर्णन नहीं हो सकती।

 हजारहा हजार शुक्र उस मालिक का है कि ऐसे समय पर, जबकि संसारियों की तवज्जुह मुजिर जानिब होती है, हम भक्त जनों को अपने चरणों में खींच कर अपार दया मेहर फरमाकर अपूर्व आनंद और रस से सरशार और माला माल फरमा दिया।( प्रेमसमाचार-परम गुरु हुजूर सरकार साहब!)                                     

  🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


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Sunday, March 28, 2021

नागा समुदाय

 #🙏🙏नागा_साधु_की_१३_विचित्र_जानकारी

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नागा साधुओं की यह तेरह विचित्र जानकारियां आप नहीं जानते हैं,कहां से आते हैं, कहां चले जाते हैं...? जानिए नागा साधुओं का रहस्य!!!!!!!


कौन हैं ये नागा साधु, कहां से आते हैं और कुंभ खत्म होते ही कहां चले जाते हैं? क्या ऐसे सवाल आपके मन में आए हैं? अगर आपका जवाब हां है, तो आइए आपको बताते हैं इस बड़े रहस्य का पूरा सच।


प्रयागराज में नागा साधुओं की बहुत लोकप्रियता है। संन्यासी संप्रदाय से जुड़े साधुओं का संसार और गृहस्थ जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता। गृहस्थ जीवन जितना कठिन होता है उससे सौ गुना ज्यादा कठिन नागाओं का जीवन है। 

 

यहां प्रस्तुत है नागा से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी!!!

 

1. नागा अभिवादन मंत्र : ॐ नमो नारायण। 


2. नागा का ईश्वर : - शिव के भक्त नागा साधु शिव के अलावा किसी को भी नहीं मानते। शम्भु उपासक नहिं हरि निंदक।


3. नागा वस्तुएं : - त्रिशूल, डमरू, रुद्राक्ष, तलवार, शंख, कुंडल, कमंडल, कड़ा, चिमटा, कमरबंध या कोपीन, चिलम, धुनी के अलावा भभूत आदि।


4. नागा का कार्य : - गुरु की सेवा, आश्रम का कार्य, प्रार्थना, तपस्या और योग क्रियाएं करना।


5. नागा दिनचर्या : - नागा साधु सुबह चार बजे बिस्तर छोडऩे के बाद नित्य क्रिया व स्नान के बाद श्रृंगार पहला काम करते हैं। इसके बाद हवन, ध्यान, बज्रोली, प्राणायाम, कपाल क्रिया व नौली क्रिया करते हैं। पूरे दिन में एक बार शाम को भोजन करने के बाद ये फिर से बिस्तर पर चले जाते हैं।


6. सात अखाड़े ही बनाते हैं नागा : - संतों के तेरह अखाड़ों में सात संन्यासी अखाड़े ही नागा साधु बनाते हैं:- ये हैं जूना, महानिर्वणी, निरंजनी, अटल, अग्नि, आनंद और आवाहन अखाड़ा।


7. नागा इतिहास : - सबसे पहले वेद व्यास ने संगठित रूप से वनवासी संन्यासी परंपरा शुरू की। उनके बाद शुकदेव ने, फिर अनेक ऋषि और संतों ने इस परंपरा को अपने-अपने तरीके से नया आकार दिया। बाद में शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित कर दसनामी संप्रदाय का गठन किया। बाद में अखाड़ों की परंपरा शुरू हुई। पहला अखाड़ा अखंड आह्वान अखाड़ा’ सन् 547 ई. में बना।


8. नाथ परंपरा : - माना जाता है कि नाग, नाथ और नागा परंपरा गुरु दत्तात्रेय की परंपरा की शाखाएं है। नवनाथ की परंपरा को सिद्धों की बहुत ही महत्वपूर्ण परंपरा माना जाता है। गुरु मत्स्येंद्र नाथ, गुरु गोरखनाथ साईनाथ बाबा, गजानन महाराज, कनीफनाथ, बाबा रामदेव, तेजाजी महाराज, चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। घुमक्कड़ी नाथों में ज्यादा रही।


9. नागा उपाधियां : - चार जगहों पर होने वाले कुंभ में नागा साधु बनने पर उन्हें अलग अलग नाम दिए जाते हैं। इलाहाबाद के कुंभ में उपाधि पाने वाले को 1.नागा, उज्जैन में 2.खूनी नागा, हरिद्वार में 3.बर्फानी नागा तथा नासिक में उपाधि पाने वाले को 4.खिचडिया नागा कहा जाता है। इससे यह पता चल पाता है कि उसे किस कुंभ में नागा बनाया गया है।


10. नागाओं के पद : - नागा में दीक्षा लेने के बाद साधुओं को उनकी वरीयता के आधार पर पद भी दिए जाते हैं। कोतवाल, पुजारी, बड़ा कोतवाल, भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी, महंत और सचिव उनके पद होते हैं। सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पद सचिव का होता है।


11. कठिन परीक्षा :  - नागा साधु बनने के लिए लग जाते हैं 12 वर्ष। नागा पंथ में शामिल होने के लिए जरूरी जानकारी हासिल करने में छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूं ही रहते हैं।


12. नागाओं की शिक्षा और ‍दीक्षा : - नागा साधुओं को सबसे पहले ब्रह्मचारी बनने की शिक्षा दी जाती है। इस परीक्षा को पास करने के बाद महापुरुष दीक्षा होती है। बाद की परीक्षा खुद के यज्ञोपवीत और पिंडदान की होती है जिसे बिजवान कहा जाता है।


अंतिम परीक्षा दिगम्बर और फिर श्रीदिगम्बर की होती है। दिगम्बर नागा एक लंगोटी धारण कर सकता है, लेकिन श्रीदिगम्बर को बिना कपड़े के रहना होता है। श्रीदिगम्बर नागा की इन्द्री तोड़ दी जाती है।


13. कहां रहते हैं नागा साधु :  - नाना साधु अखाड़े के आश्रम और मंदिरों में रहते हैं। कुछ तप के लिए हिमालय या ऊंचे पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताते हैं। अखाड़े के आदेशानुसार यह पैदल भ्रमण भी करते हैं। इसी दौरान किसी गांव की मेर पर झोपड़ी बनाकर धुनी रमाते हैं।


जय अघोरेश्वर

जय औघडराज

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#आर्यवर्त #अघोर

फागुन मास रँगीला आया.........

 *🌹🌹फागुन मास रँगीला आया। घर घर बाजे गाजे लाया।।

 यह नरदेही फागुन मास। सुरत सखी आई करन बिलास।।

तुझ को फिर कर फागुन आया। सम्हल खेलियो हम समझाया।।


होली के पावन अवसर पर समस्त सतसंग जगत  प्राणी मात्र को अनेकानेक बधाई।

हुजूर राधास्वामी दयाल समस्त जीवों को स्वार्थ व परमार्थ की तरक्की की दात बख्शे। यही प्रार्थना उन दयाल के चरन कमलों में हम सब तुच्छ जीव पेश करते है। राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय!                                        

 स्मारिका:-

परम गुरु हुजूर सरकार साहब- (23)- एक बार होली के त्यौहार पर सरकार साहब अपने साथ एक छोटी सी चांदी की पिचकारी और चांदी का  एक कटोरा लेते गए। उन्होंने केसर  को पानी में घोलकर रंग बनाया और उससे कटोरा भर लिया और उसको श्री प्रेम प्रसाद सेक्रेटरी की मार्फत महाराज साहब की खिदमत में इस प्रार्थना के साथ पेश किया कि यह रंग सत्संगियों पर छिडका जाए।

महाराज साहब ने वह रंग कुछ सतसंगियों पर छिड़का और फिर फरमाया- "अरे! मेरी उंगलियों में तो दर्द होने लगा" और पिचकारी को रख दिया ।सतसंगियों ने इसे मजाक समझा और हंसने लगे परंतु महाराज साहब के इस कथन पर सरकार साहब दुखी हुए। जब वे रात को आराम कर रहे थे, गाजीपुर के एक सतसंगी ने सरकार साहब से पूछा- "क्या वास्तव में छोटी सी पिचकारी से रंग फेंकने से महाराज साहब को दर्द मालूम होने लगा?"

सरकार साहब ने इस प्रश्न की ओर कुछ ध्यान नहीं दिया परंतु जब उस सतसंगी ने जवाब देने के लिए जोर दिया तो सरकार साहब ने फरमाया यह छोटी बात नहीं है।  जब संतों की तवज्जो की धार पूरी तरह से ऊपर की जानिब उलट जाती है, उनका शरीर बहुत कोमल और नाजुक हो जाता है।निस्संदेह जब उनकी तवज्जुह बाहर की जानिब रवाँ होती है तब वे सख्त काम कार्य करते हुए भी कभी दर्द महसूस नहीं करते।।**                                                                           

  *🌹परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज की डायरी -भाग 1- 5 मार्च 1931- बृहस्पतिवार:-

दयालबाग में होली का त्यौहार हस्बेमामूल प्रेम वह उत्साह के साथ मनाया गया। दोपहर को मुख्तसर भंडारा हुआ जिसका सर्फा का सत्संगियान हाजिरुलवक्त से अदा किया।

 रात के सत्संग में बयान किया गया कि दुनिया के इंतजामात इस किस्म के हैं कि उनसे इंसान के दिल में खुदगर्जी व तकक्बुर पैदा होते हैं। मसलन हर शख्स अपने जिस्म ,अपने मकान ,अपनी आमदनी, अपनी जायदाद, अपनी बीवी, अपने बच्चे, अपने खानदान ,अपने शहर अपने सूबे, अपने मुल्क वगैरह वगैरह के मुताल्लिकक जज्बात उठाता है।

यह जज्बात उसके दिल को तंग करते हैं और उसे मिलकर काम करने के नाकाबिल बनाते हैं नीज हर शख्स को अपने जिस्म इल्म दौलत वगैरह का अहंकार हो जाता है। जिससे और भी जिंदगी बिगड़ जाती है। इसलिए हमेशा से यह दस्तूर रहा है कि हर एक कौम के बुजुर्ग त्योहारों के जरिए इन जज्बात के जहरीले असरों को दूर करते आए हैं।

 त्योहार के दिन बड़े छोटे, अमीर गरीब, पढे अनपढ़, गोरे व काले हर किस्म की तफरीक़ को भुला कर एक खानदान के मेंमबरों की तरह मिलकर खुशी मनाते हैं जिससे लोगों के दिलों में खुदगर्जी ब खुदपरस्ती के बजाएं कौम परस्ती का जज्बा पैदा होता है।

चुनाँचे सत्संग मंडली के अंदर भी त्यौहार मनाने का रिवाज इसी गरज से जारी किया गया है।                                   

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

*【होली】      

                                            

   परमपिता स्वामीजी महाराज की बानी में आया है :-                                             

'फागुन मास रंगीला आया।' 'घर घर बाजे गाजे लाया।'                                            

और भी फरमाया है:-                               

'यह नर देही फागुन मास। सुरत सखी आई करन बिलास ।।'                                      

उसी शब्द में आगे यों भी फरमाया है:- 'तुझ को फिर कर फागुन आया। सम्हल खेलियो लिए हम समझाया।।'                                     

  गोया संतो ने फागुन मास नर-देह से उपमा देकर उसकी खास महिमा फरमाई है और निहायत मुनासिब, क्योंकि इस परम उत्तम देह में, जिसमें आदि से अंत तक के द्वारे मौजूद हैं और जिसमें अनन्त शब्द झंकार कर रहे हैं और नित्य आरती हो रही है और जिसमें बैठकर सुरत पर बिलास को प्राप्त हो सकती है , ऐसी महा अचरजी और सुखदायक वस्तु की उपमा साल के सबसे बढ कर आनंद और बिलास भरे मास से ही दी जा सकती थी।

 इससे बेहतर उपमा का अनुमान भी नहीं हो सकता। मगर साथ ही साथ जैसा कि तीसरी कड़ी मजकूराबाला में फरमाया है यह हिदायत की कि ऐसी उत्तम देह पाकर सम्हलल के इस संसार में खेलना, तब निर्मल विलास प्राप्त हो सकता है।

मतलब यह कि जो देह धारण करके संसार के कीचड़ व गलीज में ऐसी उत्तम अवस्था को खो देते हैं, वे अंत को महा दुःख को प्राप्त होते हैं जैसा कि उसी शब्द बारहमासा में फरमाया है :-                  "

धूल उड़ाई छानी खाक। पाप पुण्य सँग हुई नापाक।।७।।                                                

   इच्छा गुन सँग मैली भई । रंग तरंग बासना गही।।८।।                                                  

  फल पाया भुगती चौरासी  काल देश जहाँ बहु तरासी।।९।।                                      

आस तिरास माहिं अति फँसी।-देख देख तिस माया हँसी।।१०।।                                  

हँस-हँस माया जाल बिछाया। निकसन की कोई राह न पाया।।११।।                             

तब संतन चित दया समाई। सत्यलोक से पुनि चली आई।।१२।।                                   

 ज्यों त्यों चौरासी से काढा। नरदेही में फिर ला डाला।।१३।।                                                   

चरन प्रताप सरन में आई। तब सतगुरु अतिटर समझाई।।१४।।                           

   तुझको फिर कर फागुन आया। सम्हल खेलियों हम समझाया ।।१५।।                     

 लेकिन अगर ऐसे समय में मालिक की भजन बन्दगी,सेवा, सत्संग, गुरु -भक्ति वगैरह का रंग खिले और जीव इस तरह पर अपनी अनमोल देह को सफल करें, तो यहाँ भी आनंद और अंत को चरणों का परम बिलास पाकर अमर सुख को प्राप्त हो जावे।।                                                               

  यह तो वर्णन जीवो की अंतरी कार्रवाई का हुआ। इस नवीन उपमा के अनुसार स्वभाविक ऐसा ही होना चाहता था कि जहाँ संसारी जीव इस उत्तम समय होली को महा अपवित्र और नीरस कामों में आमतौर पर खोया करते हैं, उस समय पर भक्तजन अपने परम हितकारी संत सतगुरु के हुजूर में बैठ कर नवीन रस आनंद और बिलास करें।

चुनाँचे मौज से ऐसा ही सदा से राधास्वामी पंथ में होता आता है, यानी तातील होने के सबब प्रेमीजन जहाँ-तहाँ से हमेशा से हुजूरी दरबार जमा होकर चरणों का रस और आनंद लेते आये हैं। चुनाँचे इस साल भी होली तारीख 23 मार्च सन 1913 ईस्वी को वाकै हुई। दूर दराज के करीब पाँच छः सौ के प्रेमिजन बड़े उमंग और उत्साह से दरबार में हाजिर होकर मालिक की भजन- बन्दगी और सत्संग में मशरूफ रहे।

जो छबि सत्संग में उन वक्त मालिक ने दया करके पर प्रगट फरमाई और जो आनंद और सरूर पाठ में निहायत गैरमामूली बख्सा उसकी कैफियत हाजरीन दरबार ही जानते हैं, वर्णन नहीं हो सकती।

 हजारहा हजार शुक्र उस मालिक का है कि ऐसे समय पर, जबकि संसारियों की तवज्जुह मुजिर जानिब होती है, हम भक्त जनों को अपने चरणों में खींच कर अपार दया मेहर फरमाकर अपूर्व आनंद और रस से सरशार और माला माल फरमा दिया।( प्रेमसमाचार-परम गुरु हुजूर सरकार साहब!)                                       

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻

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