Monday, February 28, 2011

media/ मूर्खता, समझदारी और मीडिया

मूर्खता, समझदारी और मीडिया

राजेश प्रियदर्शी राजेश प्रियदर्शी | रविवार, 12 सितम्बर 2010, 16:23 IST
लेखक रॉबर्ट हेनलिन ने लिखा था-- 'नेवर अंडरएस्टीमेट द पावर ऑफ़ ह्यूमन स्टुपिडिटी' यानी मानवीय मूर्खता की ताक़त को कभी कम नहीं आँकना चाहिए.
दुनिया भर के टीवी चैनलों, अख़बारों और बराक ओबामा समेत अनेक नेताओं ने टेरी जोंस के बारे में शायद यही महसूस किया.
पादरी कम और शिकारी अधिक दिखने वाले ईसाई धार्मिक नेता की धमकी से जो क्षति हो सकती थी वह टल गई, इस पर सबने राहत की साँस ली.
'डव आउटरीच वर्ल्ड सेंटर' में कुछ भी सही नहीं था, डव यानी शांतिदूत कपोत. वर्ल्ड आउटरीच सेंटर यानी दुनिया की ओर हाथ बढ़ाने वाला केंद्र, जिसके कुल जमा पचास अनुयायी थे.
सारे टीवी चैनलों ने अंदाज़ा लगाया कि कुरान के जलाए जाने पर दुनिया भर में क्या प्रतिक्रिया होगी मगर किसी ने यह नहीं सोचा कि जो आग लगाई जा रही है उसे प्रचार का ऑक्सीजन न दिया जाए.
सोचा भी होगा तो दूसरे चैनलों को देखकर अपनी क्षणिक समझदारी से डोल गए.
एक टीवी चैनल पर आए अमरीकी प्रशासन के सलाहकार से पूछा गया कि टेरी जोंस को ओबामा ने इतना भाव क्यों दिया, उनका जवाब था- 'मीडिया ने उन्हें मजबूर कर दिया.'
जिस अनजान पादरी को कल तक कोई नहीं पूछ रहा था वह 'ग्लोबल मीडिया सेलिब्रिटी' बन गया, हो सकता है कि अब टेरी जोंस कोई दूसरा हंगामा खड़ा करें तो आप ये भी नहीं कह सकेंगे कि उनके सिर्फ़ पचास सिरफिरे चेले हैं.
पागलपन के पुरज़ोर असर पर किसी को शक नहीं है, मगर समझदारी की ताक़त से सबका विश्वास उठता जा रहा है.
दुनिया भर में न जाने कितनी उत्पाती खोपड़ियों में किन-किन चीज़ों को तोड़ने और जलाने के मसूंबे बन रहे होंगे.
कितने ही उत्पाती-उन्मादी टेरी जोंस को एक झटके में मिली इतनी 'शोहरत' पर जल रहे होंगे, मन मसोस रहे होंगे कि यह जलाने वाला आइडिया उन्हें क्यों नहीं आया.
एक और सूक्ति- 'लीव इडियट्स अलोन सो दे हार्म देमसेल्व्स ओनली' यानी बेवकूफ़ों को अकेला छोड़ देना चाहिए ताकि वे सिर्फ़ अपना ही नुक़सान करें, दूसरों का नहीं.
लाइव टीवी के दौर में ऐसा संभव नहीं दिख रहा है.

सोमवार, २८ फरवरी २०११

press/ media/patrakarita/news/journalism/ मीडिया में अनगढ़ बच्चों की भीड़

मीडिया में अनगढ़ बच्चों की भीड़

anami-sharan_0.gif
अनामी शरण बबल, वरिष्ठ पत्रकार
 
मीडिया की पढ़ाई को लेकर पूरे देश में मची हाय तौबा से आज खुश होने के बजाय मन आशंकित ज्यादा है। मीडिया के नाम पर अब तक सैकड़ों संस्थान खुल चुके है। सरकारी और निजी विश्व विद्यालयों या इनसे मान्यता लेकर पत्रकारिता और मल्टीमीडिया  की पढ़ाई हो रही है। पढ़ाई के महत्व को लेकर सरकार भी इस तरह चिंतित है कि शायद इसी सत्र से देश भर के 20 हजार स्कूलों (निजी और सरकारी हायरसेकेण्डरी) में मीडिया की पढ़ाई शुरू होने वाली है। (कपिल सिब्बल की सरकारी घोषणा के बावजूद अभी तक स्कूलों में अधिसूचना नहीं पहुंची है)
 मीडिया की शिक्षा के बाबत सरकारी चिंता से मेरा मन  बेहाल है। लग रहा है मानो नयी सदी में अब खबरिया चैनलों के बाद कौन सा नया धमाल होगा। हालांकि मीडिया की पढ़ाई कर रहे बच्चों को देखकर खुद को रोमांचित नहीं पाता,  मगर उनके उत्साह को देखकर मन में खुशी का पारावार नहीं रहता।
इन बच्चों के उत्साह को एक दिशा देने की जरूरत है। पत्रकारिता के बेसिक पर जोर देने की आवश्यकता है। पत्रकारिता कोर्स खत्म करके के बाद भी ज्यादातर छात्रों की बेगारी या बेकारी ( मीडिया में नौकरी है कहां)  यह देखकर यह सवाल और ज्यादा ज्वलंत हो जाता है कि क्या मीडिया की पढ़ाई के नाम पर कहीं छात्रों के साथ कोई खिलवाड़  तो नहीं हो रहा है?
 हालांकि 1987-88 में भारतीय जनसंचार संस्थान से कोर्स करने का बाद कभी फटीचरी( कई दौर में लगभग चार साल की बेगारी) और कभी (अबतक 12 अखबार, और दो खबरिया चैनलों में ) नौकरी की। तब कहीं जाकर मीडिया में तकरीबन 20-21साल गुजार कर यह महसूस हुआ कि मीडिया पाठ्यक्रम को सैद्धांतिक रखने के बजाय इसे व्यावहारिक या यों कहे कि लगभग व्यावहारिक बनाए बगैर पत्रकारों की फौज के बजाय बेकारों की फौज (खड़ी) तैयार की जाती रहेगी।
यह लिखकर मैं अपने आपको  कोई जीनियस या सुपर पत्रकार बनने या दिखाने की चेष्टा नहीं कर रहा। पत्रकारों की नयी फसल के प्रति शायद यह हमारा (हम सबका) कर्तव्य है या नैतिक जिम्मेदारी (हालांकि आज के समय में यह सब फालतू माने जाते है) कि इस समय के हालात से छात्रों को रूबरू कराया जाए।
  2005 में दिल्ली अमर उजाला में चीफ रिपोर्टरी के दौरान इंटर्न करने आए कुछ  छात्रों से पाला पड़ा। इन स्मार्ट लड़कों में बेसिक का घोर अभाव था। भाषा ज्ञान का यह हाल कि इनके लिए शुद्ध लिखना तो दूर की बात एक पन्ना कुछ भी लिखना दूभर था।
संयोग कुछ रहा कि पिछले तीन साल से दिल्ली के तीन चार संस्थानों के अलावा रांची, पटना, आगरा और अपने दोस्तों के कुछ संस्थानों में कभी लगातार तो कभी यदा-कदा क्लास लेने का मौका मिला। (यह दौर आज भी जारी है, मगर कभी कभार तो कोई माह  फाका भी रह जाता है) अध्यापन के प्रति खास रूचि नहीं होने के बावजूद मेरा पूरा जोर हमेशा लीक से अलग होकर चलने और कुछ अलग करने की रही है इसी के तहत मैं  प्रैकि्टकल या व्यावहारिक पढ़ाई पर ज्यादा जोर देता हूं। क्लास रूम को मैंने हमेशा एक न्यूजरूम में बदलने की वकालत की है। पत्रकार बन जाने पर जिसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता होती, उन जरूरतों पर अभी से गौर करते हुए ही भावी पत्रकारों को प्रशिक्षित करके ही बेस्ट मुमकिन है। मगर, अफसोस भावी पत्रकारों में इन तमाम जरूरतों को लेकर दिलचस्पी ही नहीं है। खासकर दिल्ली एनसीआर.के छात्रों में सीखने की लगन सबसे कम है। बाहर के बच्चों में लगन और जिज्ञासा होने के बावजूद केवल और केवल इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रति ही रूझान है। अखबारों को लेकर उपेक्षा का यह आलम है कि ज्यादातरों को तो प्रिट मीडिया, न्यूजपेपर की उपयोगिता का अहसास तक नहीं है।
 सपने देखना कभी गलत नहीं होता, मगर आंखे बंद करके देखे गए ज्यादातर सपने आंखे खुलते ही खत्म हो जाते हैं। खुली आंखों से देखा गया सपना ही साकार होता है। रातो रात स्टार बनने का सपना तो इनकी आंखों और चेहरे पर केवल दिखता ही नहीं बोलता हुआ नजर आता है। मेहनत करने से भी (यदि मौका मिले तो) ये भावी पत्रकार कभी पीछे नहीं रहेंगे। मगर मीडिया के एबीसीडी से लेकर जेड तक के बारे में जानने या सीखने की भावना का इनमें अभाव है। हालांकि पढ़ाई के नाम पर भले ही इनमें रूचि नहीं हो, मगर काम के नाम पर उसी काम को पूरी क्षमता से अंजाम देने का अनोखा विरोधाभास का सुखद चेहरा या इन लड़कों के भीतर की तपिश का परिचायक है। लिखने की किलर क्षमता के बगैर पत्रकारिता में गुजारा कितना कठिन है, इसका इन्हें कोई बोध नहीं है। लिखने के बाद छपने की भूख या बेताबी भी किस चिड़िया का नाम है, इसका कोई इल्म नहीं।
 पत्रकारों की फौज पैदा करने वाले ज्यादातर संस्थानो में भी पत्रकारिता की पढ़ाई के नाम पर बच्चों को क्लास रूम में केवल सैद्धातिंक ज्ञान से दिमागी पत्रकार बनाया जा रहा है। मीडिया के खुमार से पागल हुए ज्यादातर बच्चे भी बस पत्रकार बनने के बजाय पत्रकारिता की पढ़ाई करके ही संतोष कर रहे है। (क्योंकि, ज्यादातर के लिए पत्रकार बनकर काम करना भी दुरूह है)
 इन बच्चों में भी अपने आपको मांजकर निखारने या औरों से बेहतर बनने का चाव नहीं है। हर जगह के संस्थान में बच्चों से मेरा एक ही सवाल होता है कि आप पत्रकारिता में क्यों आए? सैकड़ों छात्रों में से यदि दो चार पांच को छोड़ दे तो मेरा यह सवाल आज भी जवाब की तलाश में है। पढ़ाई को और ज्यादा रोचक बनाकर अनुभव से जोड़ना होगा।  हालांकि इन बच्चों पर हम सारा दोष डालकर खुद को दोषमुक्त भी नहीं मान सकते।
 सिद्धांत और सैद्धांतिक शिक्षा के बगैर  किसी भी शिक्षा के सार को जान पाना नामुमकिन है। सिद्धांत से ही हमें उसकी गंभीरता और परिपक्वता का अहसास होता है। प्रैक्टिकल शिक्षा पर जोर देने के बावजूद सिद्धांत की उपेक्षा का मेरा वकालत करना तो सरासर गलत होगा, लिहाजा प्रैक्टिकल शिक्षा के साथ सिद्धांत को भी कदमताल करवाना ही भावी पत्रकारों को बेहतर बनाएगा।
मगर, आज क्लासरूम की शक्ल को बदलना कठिन होने के बाद भी सबसे जरूरी है। एक भावी पत्रकार को तैयार करने का ठेका यदि निजी और सरकारी स्तर पर किया जा रहा है, तो वाकई में बच्चों को पत्रकार की तरह विकसित करने पर भी जोर देना होगा। इस तरह के प्रयासों को बड़े पैमाने पर कामयाब करने की जरूरत है, ताकि समय के कुपोषण से उन्हें बचाया जा सके।
 मीडिया में एक ही निशि्चत सच है और वो है अनिशि्चत भविष्य । हर समय टंगी होती है नौकरी पर बेकारी की कटार।  इस सच के बावजूद अगर बच्चों की बेशुमार भीड़ इस तरफ लालायित है, तो निसंदेह इसका भरपूर स्वागत होना चाहिए। अनगढ़ मिट्टी के लोंदे को सांचे में ढालने की आवश्यकता है। युवा पीढ़ी की इस बेताबी को एक सार्थक गति और दिशा की जरूरत है ताकि आज के मौज, मस्ती, मोबाइल, मल्टीप्लेक्स और माल्स के दौर में भी युवाओं के मन में पत्रकारिता को अपना कैरियर बनाने का ललक बना रहे।

delhi/cmdelhi/ dtc/ transport/ lg/ shieladixit/ नहीं दिख रहा किसी को शीला का महाघोटाला

नहीं दिख रहा किसी को शीला का महाघोटाला

: डीटीसी में रंगीन बसों का करप्‍शन पुराण :
 करप्शन के जमाने में हरिकथा अनंता... की तरह ही फिलहाल मामला कामनवेल्थ गेम करप्शन के साथ होकर भी इससे अलग है। करीब एक लाख करोड़ रूपए के कथित हुए विकास के नाम पर इस महाघोटाला या करप्शन पुराण के नौकरशाहों में नौकर तो जेल की रोटी का स्वाद ले रहे है, मगर अभी शाहों की बारी नहीं आई है। करप्शन गेम के बहाने ही इस बार हम आपको दिल्ली सरकार के एक ऐसे करप्शन पुराण की जानकारी दे रहे हैं, जिसको जानते और मानते तो सभी है, मगर करप्शन की बजाय इसे शीला सरकार की उपलब्धियों सा देख रहे हैं।
बस, रंगीन बसों के करप्शन मामले में कुछ और करप्ट आंकडे़ रख कर मैं यह बताने की हिमाकत कर रहा हूं कि नेता और नौकरशाहों के साथ मिलकर देश के जागो ग्राहक जागो वाले भी किस प्रकार दिल्ली की लाइफ लाइन को पटरी से उतारने की साजिश की है। सबसे आरामदायक बात तो ये है कि करीब दस हजार करोड़ रूपए के इस गोरखधंधे को ना तो करप्शन की श्रेणी में रखा गया है, और ना ही इसे करप्शन मानकर कोई जांच की मांग हो रही है। टाटा मोटर्स के स्वामी महामहिम रतन टाटा एंड कंपनी है, तो अशोक लेलैंड के मालिकों में हिंदुजा परिवार के लोग हैं।
जी हां, बात दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) की बदहाली की है। कामनवेल्थ गेम चालू होने से काफी पहले ही दिल्ली को ग्लोबल सिटी बनाने का संकल्प किया। कामनवेल्थ के लिए केंद्र से मिले वितीय कोष की बात करके हम अपने पाठकों को बोर नहीं करना चाहते। मेरा पूरा ध्यान डीटीसी के कायाकल्प के नाम पर इसको रसातल में पहुंचाने की कथा को सामने रखना है।
आमतौर पर नौकरशाहों, दलालों, ठेकेदारों और नेताओं (जिनके बगैर कोई घोटाला संभव ही नहीं) के द्वारा बेडा़गर्क कर दिए जाने वाले विभागों को सरकार फिर से काम चलाने लायक बनाती है। मगर, केंद्र और दिल्ली सरकार की साजिशों ने ही दिल्ली की लाइफ लाइन को बरबाद कर दिया। कामनवेल्थ गेम से पहले दिल्ली को नया लुक देने के लिए ही सरकार ने पुराने ढर्रे की 18 लाख वाली सामान्य बसों ( सरकार की नजर में इन गाडियों के अब मोटर पार्टस कंपनी ने बनाने बंद कर दिए) को हटाकर लो फ्लोर (नान एसी-56 लाख और एसी 70 लाख) बसों को लाने का अभियान शुरू हुआ। इन बसों की खरीद के लिए केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय के जवाहर लाल नेहरू शहरी पुर्ननिर्माण (विकास) फंड से कई किस्तों में करीब 10 हजार करोड़ रूपए बतौर कर्ज दिल्ली सरकार ने डीटीसी को दिलाए। इसी रकम से दिल्ली में तमाम लो-फ्लोर की लाल और हरे कलर की बसें दौड़ रही हैं। विपक्ष द्वारा इन बसों को ज्यादा रकम में खरीदने का आरोप लगता रहा है, मगर परिवहन मंत्री अरविंदर सिंह लवली और हारून युसूफ से लेकर मुख्यमंत्री तक इसे सबसे सस्ता बताने में नहीं हिचकती (अलबता, बीजेपी नेता विजय जाली द्वारा रखे गए सबूतों को सरकार हमेशा नकारती भी रही है)।
लोकमानस में यह धारणा है कि सरकारी खजाने से पैसा निकालना आसान नहीं होता। मगर 2008 में विस चुनाव में जाने से पहले ही शीला सरकार ने दो हजार लो- फ्लोर बसों (एसी और नान एसी) के आदेश के साथ ही पैसे का अग्रिम भुगतान तक कर डाला। विपक्षी नेताओं ने आरोप लगाया कि अपना कमीशन खाने के लिए ही करोड़ों रूपए का पहले ही भुगतान कर दिया गया। शायद शीला सरकार को फिर से सत्ता में आने की उम्मीद नहीं थी। मगर, संयोग कहे या दुर्भाग्य कि शीला सरकार तीसरी बार फिर सत्ता में लौट आई। चुनाव में जाने से पहले दिल्ली के परिवहन मंत्री हारून युसूफ होते थे, मगर सत्‍ता की तीसरी पारी में परिवहन मंत्रालय का ठेका लवली को दिया गया है।
शीला सरकार की नयी पारी में फिर चालू होता है, लो-फ्लोर बस बनाने वाली कंपनियों और सरकार के बीच आंख मिचौली का खेल। 2008 में विधानसभा चुनाव से पहले किए गए भुगतान से अगस्त 2010 से पहले तक सभी बसों को देने का अनुबंध था, मगर तमाम सरकारी आंसू और आग्रह के बाद भी करीब 400 बसों को आज तक (कामनवेल्थ गेम खत्म हुए चार माह बीतने के बाद भी) कंपनी के डिपो से निकलकर दिल्ली में दौड़ने का सौभाग्य नहीं मिला है। गेम से पहले सरकार और कंपनियों के बीच वाद-विवाद और तकरार के इतने दौर चले कि इस पर अब कंपनियों की दादागिरी से सरकार को भी शर्म आ जाए। बस निर्माता कंपनियों के खिलाफ एक्शन लेने की बजाय गेम से ठीक आठ माह पहले (लवली के दवाब पर) सरकार ने फिर दो हजार बसों का आदेश दिए ( इनमें 900 बसें आ चुकी हैं)।  सरकार की तरफ से फिर शहरी विकास मंत्रालय के (जेएनएल) स्कीम के तहत सरकारी कारू के खजाने से फिर धन दोहन किया गया, मगर इस बार शहरी विकास मंत्रालय ने बसों में कटौती करके 1500 कर दी।
एक तरफ दिल्ली में लाल और हरे रंग की लो- फलोर बसे आती रही, तो दूसरी तरफ किलर के रूप में बदनाम ब्लू लाइन की बसों को पिछले तीन साल से चार-चार माह के टेम्परोरी परमिट से चलने की सुविधा दी जाती रही। लगभग 700 किलर बसों का आखिरी खेप अभी तक निकाल बाहक की राह देख रही है। पांच हजार से ज्यादा लो-फ्लोर बसों (कमीशन खाकर कहने की गुस्ताखीमाफ हो) समेत डीटीसी की पुरानी बसों को मिलाकर 6500 से ज्यादा बसों के बाद डीटीसी की असली समस्या (जिसके प्रति नेताओं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया) शुरू होती है। भारी तादाद में चालकों और कंडक्टरों की किल्लत तो पहले से ही थी। ठेका पर हजारों चालकों और कंडक्टरों को रखे जाने के बाद भी (तकरीबन तीन हजार से भी ज्यादा स्टाफ की कमी है) रोजाना करीब दो हजार लो-फ्लोर बसें डिपो की शोभा बनकर डीटीसी का दीवाला निकाल रही है।
डीटीसी के लिए लो-फ्लोर बसों को संभालना या रखना ही सबसे कठिन सा हो गया। दो तीन नए डिपो बनाए जाने के बाद भी 35 डिपो में इन रंगीन हाथियों को समा पाना दूभर हो गया। गेम से ठीक पहले दिल्ली के एलजी को गेम के बाद डिपो को तोडने का भरोसा देकर एक हजार रंगीन हाथियों के लिए गेम विलेज के करीब यमुना नदी बेल्ट की 80 एकड़ भूमि पर करोड़ों की लागत से मिलेनियम डिपो बना। इस एक डिपो कैंपस में चार डिपो है। गेम के बाद एलजी ने जब इस डिपो को तोड़ने की याद दिलवाई, तो अपना वायदा भूलकर मुख्यमंत्री मामले को टरकाने लगी। गेम के काफी पहले से ही एलजी और सीएम के बीच कड़वाहट थी। इसी विवाद को और तूल दिया गया है। एलजी की तरफ से मामले को शांत रखा गया है, मगर पर्यावरण से खिलवाड़ के नाम पर केंद्र भी शीला सरकार से नाराजगी जता चुकी है। फिलहाल विवादास्पद मिलेनियम डिपो पर कार्रवाई की तलवार लटकी है।
कामनवेल्थ गेम खात्में के बाद इन रंगीन हाथियों से हो रही डीटीसी की दुर्दशा को बताने से पहले इसके बैकग्रांउड को जानना जरूरी है। जिससे लोगों को सफेद हाथी के रूप में बदनाम डीटीसी के शानदार दौर का भी पता चल सके। गौरतलब है कि 1992 तक दिल्ली में केवल डीटीसी की बसें ही चलती थी। मगर नरसिम्हा राव सरकार में भूतल परिवहन मंत्री बने जगदीश टाइटलर ने ब्लू लाइन बसों के दिल्ली में इंट्री का रास्ता खोल दिया। और तभी से शुरू हो गया इसकी बर्बादी की अंतहीन कहानी। 1993 तक अपने तमाम खर्चों को झेलकर भी लाभ में चल रही डीटीसी पर घाटों और कर्जों का बोझ बढ़ता ही चला गया। कई साल तक तो यह विभाग केंद्र के अधीन ही संचालित होता रहा, मगर 1996-97 में करीब 14 हजार करोड़ रूपए की कर्ज माफी के साथ ही इसे दिल्ली सरकार के हवाले कर दिया गया। एक दिसंबर 1993 को दिल्ली में बीजेपी सरकार सत्तारूढ़ हो चुकी थी।
घाटे से लस्त-पस्त डीटीसी का हाल 2005-06 तक ये रहा कि हर माह इसकी मासिक आमदनी करीब 40-42 करोड़ होती रही, मगर इसके संचालन पर ही सारा खर्चे हो जाता था। साल 2000 से ही यह विभाग अपने कर्मचारियों के वेतन के लिए सरकार पर निर्भर था। हर माह लगभग 30 करोड़ रूपए के आक्सीजन (बतौर कर्ज) पर ही इसकी सांस चलती रही, मगर छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद से ही इसका दम उखड़ने (दमा ग्रस्त तो पहले से ही था) लगा। कर्मचारियों के एरियर भुगतान के लिए ही सरकार को करीब 250 करोड़ रूपए एक मुश्त देने पड़े।
कामनवेल्‍थ गेम के बाद दिल्ली से लगभग ब्लू लाईन बसें बाहर (अपना रंग और रूप बदल कर ज्यादातर ब्लू लाइन बसें दिल्ली के पड़ोसी शहरों में दौड़ रही हैं) हो चुकी है। इस समय डीटीसी की रोजाना आमदनी तीन करोड़ यानी लगभग 90 करोड़ रूपए मासिक की हो गई है, इसके बावजूद डीटीसी के घाटे का आलम यह है कि यह विभाग हर माह करीब 80-85 करोड़ रूपए के घाटे पर है। इस पर लगभग 46 हजार करोड़ रूपए कर्जे का बोझ लदा है। जिसके केवल ब्याज के रूप में डीटीसी को हर माह 14 करोड़ रूपए बैंको में जमा कराना होता है। 2005 तक ब्याज के रूप में केवल पांच करोड़ रूपए अदा करने पड़ते थे।
हर माह 90 करोड़ रूपए की आमदनी के बावजूद लगभग 90 करोड़ घाटे में है। विभाग में कर्मचारियों के वेतन पर हर माह लगभग 60 करोड़ खर्च होते है। मुकदमा, ड्रेस, टेलीफोन, बिजली, प्रिटिंग स्टेशनरी आदि पर सालाना खर्च 40 करोड़ की है। इस्टेब्लिशमेंट (विभागीय परिचालन) पर करीब 30 करोड़ रूपए खर्च हो जाते हैं। यानी मासिक कमाई से वेतन और दफ्तर चल सकता है, तो बसों के परिचालन के लिए सरकारी मदद चाहिए। यह हाल तब है, जब ब्लू लाइन बसों का डिब्बा गोल होने ही वाला है। सामान्य बसों का प्रति एक किलोमीटर परिचालन (ईपीके) 17 रूपए पड़ता है, जबकि रंगीन लो-फ्लोर बसों का ईपीके परिचालन खर्च 23 रूपए है। स्टाफ की कमी से रोजाना की दो शिफ्टों में सुबह में करीब 1500 और शाम में लगभग 2500 बसें डिपों में ही रह जा रही है। रोजाना लगभग 16 हजार बसों के फेरे मिस हो रहे है। ज्यादातर डिपो मैनेजर अपनी नाक बचाने के लिए बसों को डिपो से बाहर निकाल कर इसे डैमेज दिखाते हुए फिर वापस डिपो में कर दे रहे हैं। वहीं मोटर पार्टस या तकनीकी खराबी से रोजाना करीब 700 से ज्यादा बसें विभिन्न डिपो में बीमार खड़ी रहती हैं।
यानी बीमार और सफेद हाथी के रूप में तब्दील इस विभाग की खस्ता हाल से किसी को भी गुरेज नहीं है। सीएम भी इस कंगाल विभाग के मालदार मंत्रालय को हमेशा किसी अपने खासमखास को ही सौंपती रही है। चाहे परवेज हाशमी हों या अजय माकन, ये लोग सीएम के इशारों पर नाचने तक ही इस विभाग में रह सके। हारून युसूफ भले ही आज तक विश्वसनीय बने रहे हो, मगर सीएम लवली को भी मौका देकर अपनी निष्ठा की परीक्षा लेती रहती हैं।
करीब 20 साल के दौरान ही यह विभाग इस समय इतना कर्जदार हो गया है कि डीटीसी की आधी संपति बेचकर ही इसे चुकाना संभव हो पाएगा। एक तरफ डीटीसी की कंगाली बढ़ती रही, तो दूसरी तरफ यहां आने वाले ज्यादातर नौकरशाहों से लेकर बाबूओं ने अपनी हैसियत करोड़ों की बना ली। सरकारी अनुकंपा पर चल रही डीटीसी का आज कोई खरीददार भी नही है। देखना यही है कि करप्शन के मामले में दिल्ली सरकार के ग्राफ को लगातार नीचा करने वाले इस विभाग का क्या होगा। चाहे जो हो, यह तो समय साबित करेगा, मगर हजारों करोड़ की हेराफेरी करने वालों का लगता है कुछ भी नहीं होगा, क्योंकि पीएम मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली करप्शन जांच समिति की जांच कंपनियों को भी पर्दे के पीछे के इस महाघोटाले की खबर शायद नहीं लगी हो?
लेखक अनामी शरण बबल दिल्‍ली में पत्रकार हैं.

Sunday, February 27, 2011

,डीटीसी में रंगीन बसों का करप्शन पुराण


रविवार, २७ फरवरी २०११

dtc/ delhi government/ cm/ transportdeptt-

,डीटीसी में रंगीन बसों का करप्शन पुराण

-28फरवरी 2011
नहीं दिख रहा है किसी को शीला का महाघोटाला
डीटीसी में रंगीन बसों का करप्शन पुराण

अनामी शरण बबल

नयी दिल्ली। करप्शन के जमाने में हरिकथा अनंता.... की तरह ही फिलहाल मामला कामनवेल्थ गेम करप्शन के साथ होकर भी इससे अलग है।  करीब एक लाख करोड़ रूपए के कथित हुए विकास के नाम पर इस महाघोटाला या करप्शन पुराण में कई नौकरशाहों में  नौकर तो जेल की रोटी का स्वाद ले रहे है, मगर अभी शाहों की बारी नहीं आई है। करप्शन गेम के बहाने ही इस बार हम आपको दिल्ली सरकार के एक ऐसे करप्शन पुराण की जानकारी दे रहे हैं, जिसको जानते और मानते तो सभी है, मगर करप्शन की बजाय इसे शीला सरकार की उपल्धियों सा देख रहे है। बस,  रंगीन बसों के करप्शन मामले में कुछ और करप्ट आंकडे रख कर हम यह बताने की हिमाकत कर रहा हूं कि नेता और नौकरशाहों के साथ मिलकर देश के जागो ग्राहक जागों वाले भी किस प्रकार दिल्ली की लाईफ लाइन को पटरी से उतारने की साजिश की है। सबसे आरामदायक बात तो ये है कि करीब दस हजार करोड रूपए के इस गोरखधंधे को ना तो करप्शन की श्रेणी में रखा गया है, और ना ही इसे करप्शन मानकर कोई जांच की मांग हो रही है। टाटा मोटर्स के स्वामी महामहिम रतन टाटा एंड कंपनी है, तो अशोक लेलैंड के मालिकों में हिंदुजा परिवार के लोग है।
जी हां बात दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) की बदहाली की है। कामनवेल्थ गेम चालू होने से काफी पहले ही दिल्ली को ग्लोबल सिटी बनाने का संकल्प किया। कामनवेल्थ के लिए केंद्र से मिले वितीय कोष की बात करके हम अपने पाठको को बोर नहीं करना चाहते। मेरा पूरा ध्यान डीटीसी के कायाकल्प के नाम पर इसको रसातल में पहुंचाने की कथा को सामने रखना है।
आमतौर पर नौकरशाहो, दलालों, ठेकेदारों और नेताओ (जिनके बगैर कोई घोटाला संभव ही नही)  द्वारा बेडा़गर्क कर दिए जाने वाले विभागों को सरकार फिर से काम चलाने लायक बनाती है। मगर, केंद्र और दिल्ली सरकार की साजिशों ने ही दिल्ली की लाईफ लाइन को बर्बाद  कर दिया। कामनवेल्थ गेम से पहले दिल्ली को नया लुक देने के लिए ही सरकार ने पुराने ढर्रे की 18 लाख वाली सामान्य बसों( सरकार की नजर में इन गाडियों के अब मोटर पार्टस कंपनी ने बनाने बंद कर दिए) को हटाकर लो फ्लोर (नान एसी-56 लाख और एसी 70 लाख) बसों को लाने का अभियान शुरू हुआ। इन बसों की खरीद के लिए केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय के जवाहर लाल नेहरू शहरी पुर्ननिर्माण (विकास) फंड से कई किस्तों में करीब 10 हजार करोड़ रूपए बतौर कर्ज  दिल्ली सरकार ने डीटीसी को दिलाए।  इसी रकम से दिल्ली में तमाम लो-फ्लोर की लाल और हरे कलर की बसें दौड़ रही है। विपक्ष द्वारा इन बसों को ज्यादा रकम में खरीदने का आरोप लगता रहा है, मगर परिवहन मंत्री अरविंदर सिंह लवली और हारून युसूफ से लेकर मुख्यमंत्री तक इसे सबसे सस्ता बताने में नहीं हिचकती। (अलबता, बीजेपी नेता विजय जाली द्वारा रखे गए सबूतों को सरकार हमेशा नकारती भी रही है।)  
लोकमानस में यह धारणा है कि सरकारी खजाने से पैसा निकालना आसान नहीं होता। मगर 2008 में विस चुनाव में जाने से पहले ही शीला सरकार ने दो हजार लो- फ्लोर बसों (एसी और नान एसी) के आदेश के साथ ही पैसे का अग्रिम भुगतान तक कर डाला। विपक्षी नेताओ ने आरोप लगाया कि अपना कमीशन खाने के लिए ही करोड़ों रूपए का पहले ही भुगतान कर दिया गया। शायद शीला सरकार को फिर से सत्ता में आने की उम्मीद नहीं थी। मगर, संयोग कहे या दुर्भाग्य कि शीला सरकार तीसरी बार फिर सत्ता में लौट आई। चुनाव में जाने से पहले दिल्ली के परिवहन मंत्री हारून युसूफ होते थे, मगर सता की तीसरी पारी में परिवहन मंत्रालय का ठेका लवली को दिया गया है।
शीला सरकार की नयी पारी में फिर चालू होता है, लो-फ्लोर बस बनाने वाली कंपनियों और सरकार के बीच आंख मिचौली का खेल।  2008 में विधानसभा चुनाव से पहले किए गए भुगतान से अगस्त 2010से पहले तक सभी बसों को देने का अनुबंध था, मगर तमाम सरकारी आंसू और आग्रह के बाद भी करीब 400 बसों को आज तक (कामनवेल्थ गेम खत्म हुए चार माह बीतने के बाद भी) कंपनी के डिपो से निकलकर दिल्ली में दौड़ने का सौभाग्य नहीं मिला है। गेम से पहले सरकार और कंपनियों के बीच वाद विवाद और तकरार के इतने दौर चले कि इस पर अब कंपनियों की दादागिरी से सरकार को भी शर्म आ जाए। बस निर्माता कंपनियों के खिलाफ एक्शन लेने की बजाय गेम से ठीक आठ माह पहले(लवली के दवाब पर) सरकार ने फिर दो हजार बसों का आदेश दिए। ( इनमें 900 बसे आ चुकी है)  सरकार की तरफ से फिर शहरी विकास मंत्रालय के (जेएनएल) स्कीम के तहत सरकारी कारू के खजाने से फिर धन दोहण किया गया, मगर इस बार शहरी विकास मंत्रालय ने बसों में कटौती करके 1500 कर दी।
एक तरफ दिल्ली में लाल और हरे रंग की लो- फलोर बसे आती रही, तो दूसरी तरफ किलर के रूप में बदनाम ब्लू लाईन की बसों को पिछले तीन साल से चार-चार माह के टेम्परोरी परमिट से चलने की सुविधा दी जाती रही। लगभग 700 किलर बसों का आखिरी खेप अभी तक निकाल बाहक की राह देख रही है।
पांच हजार से ज्यादा लो-फ्लोर बसों (कमीशन खाकर कहने की गुस्ताखीमाफ हो) समेत डीटीसी की पुरानी बसों को मिलाकर 6500 से ज्यादा बसों के बाद डीटीसी की असली समस्या (जिसके प्रति नेताओं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया) शुरू होती है। भारी तादाद में चालकों और कंडक्टरों की किल्लत) से पहले से ही थी। ठेका पर हजारों चालकों और कंडक्टरों को रखे जाने के बाद भी (तकरीबन तीन हजार से भी ज्यादा स्टाफ की कमी है) रोजाना करीब दो हजार लो-फ्लोर बसे डिपो की शोभा बनकर डीटीसी का दीवाला निकाल रही है।
डीटीसी के लिए लो-फ्लोर बसों को संभालना या रखना ही सबसे कठिन सा हो गया। दो तीन नए डिपो बनाए जाने के बाद भी 35 डिपो में इन रंगीन हाथियों को समा पाना दूभर हो गया। गेम से ठीक पहले दिल्ली के एलजी को गेम के बाद डिपो को तोडने का भरोसा देकर एक हजार रंगीन हाथियों के लिए गेम विलेज के करीब यमुना नदी बेल्ट की 80 एकड़ भूमि पर करोड़ों की लागत से मिलेनियम डिपो बना। इस एक डिपो कैंपस में चार डिपो है। गेम के बाद एलजी ने जब इस डिपो को तोड़ने की याद दिलवाई, तो अपना वायदा भूलकर मुख्यमंत्री मामले को  टरकाने लगी। गेम के  काफी पहले से ही एलजी और सीएम के बीच कड़वाहट थी। इसी विवाद को और तूल दिया गया है। एलजी की तरफ से मामले को शांत रखा गया है, मगर पर्यावरण से खिलवाड़ के नाम पर केंद्र भी शीला सरकार  से नाराजगी जता चुकी है। फिलहाल विवादास्पद मिलेनियम डिपो पर कार्रवाई की तलवार लटकी है।
कामनवेल्थ गेम खात्में के बाद इन रंगीन हाथियों से हो रही डीटीसी की दुर्दशा को बताने से पहले इसके बैकग्रांउड को जानना जरूरी है। जिससे लोगों को सफेद हाथी के रूप में बदनाम डीटीसी के शानदार दौर का भी पता चल सके। गौरतलब है कि 1992तक दिल्ली में केवल डीटीसी की बसे ही चलती थी। मगर नरसिम्हा राव सरकार में भूतल परिवहन मंत्री बने जगदीश टाईटलर ने ब्लू लाईन बसों को दिल्ली में इंट्री का रास्ता खोल दिया। और तभी से शुरू हो गया इसकी बर्बादी की अंतहीन कहानी। 1993 तक अपने तमाम खर्चो को झेलकर भी लाभ में चल रही डीटीसी पर घाटो और कर्जो का बोझ बढ़ता ही चला गया। कई साल तक तो यह विभाग केंद्र के अधीन ही संचालित होता रहा, मगर 1996-87 में करीब 14 हजार करोड़ रूपए की कर्ज  माफी के साथ ही इसे दिल्ली सरकार के हवाले कर दिया गया। एक दिसंबर 1993 को दिल्ली में बीजेपी सरकार सत्तारूढ़ हो चुकी थी।
घाटे से लस्त-पस्त डीटीसी का हाल 2005-6 तक ये रहा कि हर माह इसकी मासिक आमदनी करीब 40-42 करोड़ होती रही, मगर इसके संचालन पर ही सारा खर्चे हो जाता था। साल 2000 से ही यह विभाग अपने कर्मचारियों के वेतन के लिए सरकार पर निर्भर था। हर माह लगभग 30 करोड़ रूपए के आक्सीजन ( बतौर कर्ज) पर ही इसकी सांस चलती रही, मगर छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद से ही इसका दम उखड़ने (दमा ग्रस्त तो पहले से ही था) लगा। कर्मचारियों के एरियर भुगतान के लिए ही सरकार को करीब 250 करोड़ रूपए एक मुश्त देने पड़े।
कामनवेल्त गेम के बाद दिल्ली से लगभग  ब्लू लाईन बसे  बाहर (अपना रंग और रूप बदल कर ज्यादातर ब्लू लाईन बसे दिल्ली के पड़ोसी शहरों में दौड़ रही है) हो चुकी है। इस समय डीटीसी की रोजाना आमदनी तीन करोड़ यानी लगभग 90 करोड़ रूपए मासिक की हो गई है, इसके बावजूद डीटीसी के घाटे का आलम यह है कि यह विभाग हर माह करीब 80-85 करोड़ रूपए के घाटे पर है। इस पर लगभग 46 हजार करोड़ रूपए कर्जे का बोझ लदा है। जिसके केवल ब्याज के रूप में डीटीसी को हर माह 14 करोड़ रूपए बैंको में जमा कराना होता है। 2005 तक ब्याज के रूप में केवल पांच करोड़ रूपए अदा करने पड़ते थे।
हर माह 90 करोड़ रूपए की आमदनी के बावजूद लगभग 90 करोड़ घाटे में है। विभाग में कर्मचारियों के वेतन पर हर माह लगभग 60  करोड़ खर्च होते है। मुकदमा, ड्रेश, टोलीफोन, बिजली, प्रिटिंग स्टेशनरी, आदि पर सालाना खर्च 40 करोड़ की है। इस्टैब्लिशमेंट (विभागीय परिचालन) पर करीब 30 करोड़ रूपए खर्च हो जाते हैं। यानी मासिक कमाई से वेतन और दफ्तप चल सकता है, तो बसो के परिचालनके लिए सरकारी मदद चाहिए।
यह हाल तब है, जब ब्लू लाइन बसों का डिब्बा गोल होने ही वाला है। सामान्य बसों का प्रति एक किलोमीटर परिचालन (ईपीके) 17 रूपए पड़ता है, जबकि रंगीन लो-फ्लोर बसों का ईपीके परिचालन खर्च 23 रूपए है। स्टाफ की कमी से रोजाना की दो शिफ्टों में सुबह  में करीब 1500 और शाम में लगभग 2500 बसें डिपों में ही रह जा रही है। रोजाना लगभग 16 हजार बसों के फेरे मिस हो रहे है। ज्यादातर डिपो मैनेजर अपनी नाक बचाने के लिए बसों को डिपो से बाहर निकाल कर इसे डैमेज दिखाते हुए फिर वापस डिपो में कर दे रही है। वहीं मोटर पार्टस या तकनीकी खराबी से रोजाना करीब 700 से ज्यादा बसें विभिन्न डिपो में बीमार खड़ी रहती है। .
यानी बीमार और सफेद हाथी के रूप में तब्दील इस विभाग की खस्ता हाल से किसी को भी गुरेज नहीं है। सीएम भी इस कंगाल विभाग के मालदार मंत्रालय को हमेशा किसी अपने खासमखास को ही सौंपती रही है। चाहे परवेज हाश्मी हो या अजय माकन ये लोग सीएम के इशारों पे नाचने तक ही इस विभाग में रह सके। हारून युसूफ भले ही आज तक विश्वसनीय बने रहे हो, मगर सीएम लवली को भी मौका देकर अपनी निष्ठा की परीक्षा लेती रहती हैं।
करीब 20 साल के दौरान ही यह विभाग इस समय इतनी कर्जदार हो गई है कि डीटीसी की आधी संपति बेचकर ही इसे चुकाना संभव हो पाएगा। एक तरफ डीटीसी की कंगाली बढ़ती रही, तो दूसरी तरफ यहां आने वाले ज्यादातर नौकरशाहों से लेकर बाबूओं ने अपनी हैसियत करोड़ों की बना ली। सरकारी अनुकंपा पर चल रही डीटीसी का आज कोई खरीददार भी नही है। देखना यही है कि करप्शन के मामले में दिल्ली सरकार के ग्राफ को लगातार नीचा करने वाले इस विभाग का क्या होगा। चाहे जो हो , यह तो समय साबित करेगा, मगर हजारों करोड़ की हेराफेरी  करने वालों का लगता है कुछ भी नहीं होगा,क्योंकि पीएम मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली करप्शन जांच समिति की जांच कंपनियों को भी पर्दे के पीछे के इस महाघोटाले की खबर शायद नहीं लगी हो?

दिल्ली सरकार-शीला दीक्षित/ कौन बचेगा : साख या राजकुमार चौहान?

ome राजनीति-सरकार कौन बचेगा : साख या राजकुमार चौहान?

कौन बचेगा : साख या राजकुमार चौहान?

User Rating: / 0
PoorBest 

मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की मुश्किलें खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं। राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी परियोजनाओं को लेकर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही दिल्ली सरकार को अब लोकायुक्त मनमोहन सरीन ने नैतिकता के कठघरे में खड़ाकर आइना दिखा दिया है। मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद थोड़ा राहत महसूस कर रही मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को अंदाजा भी नहीं होगा कि लोक निर्माण मंत्री तथा उनके सबसे वफादार सहयोगी राजकुमार चौहान द्वारा पिछले साल की गई एक फोन कॉल उनकी सरकार के लिए मुसीबत का सबब बन जाएगी। अपनी स्वच्छ छवि के आधार पर अब तक विपक्षी दलों के अलावा अपनी ही पार्टी के विरोधी गुटों को मात देती रही मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के लिए लोकायुक्त का फैसला ‘सांप के मुंह में छछूंदर’ साबित हो रहा है। दिल्ली सरकार के इतिहास में यह पहली बार है जब लोकायुक्त ने किसी मंत्री के आचरण को संवैधानिक दायित्व और मर्यादाओं के विरुद्ध बताते हुए राष्‍ट्रपति से उन्हें बर्खास्त करने की सिफारिश की है।
मुख्यमंत्री भले ही लोकायुक्त के फैसले के बाद अपनी परेशानी छुपाने की कोशिश करें लेकिन अब साफ हो गया है कि अगर दिल्ली सरकार को नैतिकता के मानदंडों पर अपनी स्वच्छ छवि व पारदर्शी कार्यशैली को बनाए रखना है तो चौहान को देर-सवेर मंत्रिमंडल से बाहर करना ही होगा। दिल्ली सरकार के गलियारों में बृहस्पतिवार को लोकायुक्त के फैसले के बाद तमाम कयासों का बाजार गरम रहा। सचिवालय में मौजूद लोक निर्माण मंत्री राजकुमार चौहान शीतकालीन सत्र के दौरान दिए गए अपने इस बयान को दोहराते रहे कि जनप्रतिनिधि होने के नाते उनके पास मदद के लिए तमाम लोगों के फोन आते रहे हैं। पिछले साल जब टिवोली रिसॉर्ट के मालिक का फोन उनके पास आया था तो उन्होंने अन्य रुटीन मामलों की तरह कर चोरी की छानबीन करने गई टीम के मुखिया व्यापार एवं कर आयुक्त जलज श्रीवास्तव को कोई ज्यादती न होने की बात ही कही थी। चौहान के अनुसार इसमें कुछ भी गलत नहीं था और अधिकारियों को ही यह देखना था कि इस मामले में कैसे कार्यवाही करनी है।
रोचक तथ्य यह है कि लोकायुक्त मनमोहन सरीन ने अपने फैसले में स्पष्ट तौर पर चौहान के इस बयान पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि मंत्री चौहान को जनप्रतिनिधि की अपनी जिम्मेवारी की बजाय मंत्री पद के संवैधानिक दायित्व को निभाना चाहिए था। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित फिलहाल इस मामले में विस्तृत टिप्पणी करने की बजाय कुछ ज्यादा बोलने से बच रही हैं। मुख्यमंत्री को साफ तौर पर मालूम है कि आने वाले दिनों में यह मामला गरमाएगा। लोकसभा के बजट सत्र तथा अगले महीने दिल्ली विधानसभा के बजट सत्र के मददेनजर विपक्षी दल इस मुद्दे पर दिल्ली सरकार की कार्यशैली पर निशाना साधेंगे। मुख्यमंत्री और चौहान दोनों की दिक्कत यह भी है कि कांग्रेस आलाकमान पिछले कुछ समय से भ्रष्टाचार के मामलों पर कड़ा रुख अख्तियार कर रहा है।
टिवोली रिसॉर्ट में करोड़ों रुपयों की कर चोरी का मामला और उसे लेकर कर्तव्य पालन में जुटे अधिकारियों पर एक मंत्री द्वारा गैरवाजिब तरीके से दबाव बनाना भी भ्रष्टाचार को सहयोग करने की नजर से देखा जाएगा। सवाल यह भी उठ रहे हैं कि अगर कोई सरकार अपने ही लोकायुक्त के फैसले की अनदेखी करेगी तो फिर लोकायुक्त के संवैधानिक पद की उपयोगिता ही क्या रह जाएगी। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को फिलहाल यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि इस मामले में अपने वफादार सहयोगी राजकुमार चौहान को बचाने के लिए क्या तरीका अपनाया जाए। राष्‍ट्रपति को भेजी अपनी सिफारिश में लोकायुक्त ने कड़े से कड़े शब्दों का इस्तेमाल करने में कोई परहेज नहीं किया है।
भ्रष्टाचार को लेकर दिल्ली सरकार के खिलाफ मुहिम में जुटे दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विजेंद्र गुप्ता का कहना है कि राजकुमार चौहान के कार्यकलाप से यह स्पष्ट हो गया है कि शीला सरकार किस कदर असंवैधानिक कार्यों और भ्रष्टाचार में गले तक डूबी हुई है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर तमाम आरोप लगाते हुए गुप्ता जनता के बीच दिल्ली सरकार के भ्रष्ट तंत्र की पोल खोलने की बात कह रहे हैं। दिल्ली नगर निगम के चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस के लिए ये आरोप बड़ी मुश्किल के रूप में सामने आ सकते हैं।
दूसरी तरफ मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और राजकुमार चौहान के विरोधी गुट के कांग्रेसी नेताओं ने लोकायुक्त के फैसले पर पर्दे के पीछे रणनीति बनानी शुरू कर दी है। ये नेता कांग्रेस हाईकमान के सामने इस मामले को आधार बनाकर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हटाने की मुहिम में जुटने की सोच रहे हैं। मुख्यमंत्री के लिए सबसे बड़ी दिक्कत यह होगी कि लोकायुक्त के फैसले को लेकर कांग्रेस हाईकमान को किस प्रकार संतुष्ट किया जाए। माना जा रहा है कि अगर मुख्यमंत्री ने चौहान को बचाने के चक्कर में लोकायुक्त के फैसले की अनदेखी करने की कोशिश की तो दिल्ली में कांग्रेस को इसका खामियाजा हर स्तर पर उठाना पड़ेगा। विपक्षी दलों को ऐसा होने पर मुख्यमंत्री के खिलाफ हमला बोलने में आसानी होगी साथ ही शीला दीक्षित के लिए आम लोगों के बीच अपनी छवि को साफ बनाए रखने में ही मुश्किल झेलनी पड़ेगी। कयास लगाए जा रहे हैं कि अपनी गर्दन पर नैतिकता का फंदा कसने की इजाजत देने की बजाय मुख्यमंत्री राजकुमार चौहान को चलता करने में देर नहीं लगाएंगीं।
लेखक आनंद राणा हरिभूमि में चीफ रिपोर्टर हैं. उनका यह लेख फेसबुक से साभार लेकर प्रकाशित

Friday, February 25, 2011

kabir/ पंजाब के कबीर हैं सैयद हाशम शाह

Home साहित्य जगत पंजाब के कबीर हैं सैयद हाशम शाह

पंजाब के कबीर हैं सैयद हाशम शाह

User Rating: / 0
PoorBest 

सैयद हाशम शाह की सदाओं ने जगदेव कलां को दरवेश बना दिया है। यह देखने में भले ही आम गांवों की तरह लगता हो मगर इसकी घुमावदार गलियों में अमन और भाईचारे की दरिया बहती है। हरे भरे खेतों से घिरे इस गांव की मिट्टी में सस्सी और पुन्नूं की मोहब्बत की सौंधी खुशबू है और हवाओं में फिरकापरस्ती के खिलाफ बगावत का पैगाम। पंजाब में अमृतसर से अजनाला की ओर जाने वाली सड़क पर बसा है जगदेव कलां। मशहूर सूफी शायर हाशम शाह का जन्म 1753 में इसी गांव में हुआ था। मौजूदा पाकिस्तान में नरोवाल जिले के थरपल गांव में 1823 में इंतकाल से पहले हाशम शाह ने अपनी ज्यादातर जिंदगी जगदेव कलां में ही गुजारी। सूफियों के कादिरी सिलसिले से ताल्लुक रखने वाले हाशम शाह को पंजाब का कबीर कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा।
उन्होंने मोहब्बत को इबादत का जरिया बनाया और अमन और मजहबों के बीच भाईचारे को अपनी शायरी का मकसद। सीधे सादे लफ्जों में लिखे गए अपने दोहरों में उन्होंने हिंदू और मुसलमान दोनों मजहबों के दकियानूसों और फिरकापरस्तों को खूब खरी खोटी सुनाई और आम लोगों के उनसे सावधान किया -
वेद कताब पढ़न चतुराई अते जब तब साध बनावे
पगवे पेस करन किस कारन ओ मानदा खोट लुकावे
मूरख जा वड़े उस वेड़े अते ओखद जनम गंवावे
हाशम मुकत नसीब जिना दे सोई दर्द मानदा बुलावे।
(वेद और पुराण पढ़ना तो चालाकी है। लोग ऐसा इसलिए करते हैं कि उन्हें विद्वान समझा जाए। वे अपने मन का खोट छिपाने के लिए ही भगवा कपड़े पहनते हैं। बेवकूफ लोग ही उनके पास जाकर अपनी जिंदगी गंवाते हैं। जिनके नसीब में मुक्ति लिखी है वे तो गरीबों के पास जाकर उनकी सेवा करते हैं।)
रब दा आशक होन सुखाला ए बहुत सुखाड़ी बाजी
गोशा पकड़ रहे हो साबर फेर तसबी बने नमाजी
सुख आराम जगत बिख सोभा अते वेख होवे जग राजी
हाशम खाक रुलावे गलिया ते एह काफर इश्क मजाजी।
(खुदा का आशिक होना बहुत आसान और सुखद है। एक कोने में बैठ कर चुपचाप तसबीह फेरते रहो। इससे आराम मिलेगा, दुनिया में इज्जत होगी और लोग तुम्हें देख कर खुश होंगे। लेकिन काफिरों की तरह का यह बर्ताव अंत में आदमी को धूल में मिला देता है।)
हाशम शाह मानते थे कि अल्लाह के नजदीक पहुंचने का सबसे आसान रास्ता मोहब्बत है। इसलिए उन्होंने शीरीं और फरहाद, सोहनी और महिवाल तथा सस्सी और पुन्नूं की लोक कथाओं को नया रूप दिया। उनके मुताबिक किस्सा सस्सी पुन्नूं को सुनने या पढ़ने से इंसान रहस्यवाद के उस मुकाम तक पहुंच जाता है जहां इश्क, आशिक और माशूक एक हो जाते हैं। इस किस्से की 124 चौपाइयों में उन्होंने दो इश्कजदा दिलों के दर्द को बेहद खूबसूरती से कागज पर उतारा है। इस किस्से में सस्सी की कब्र तक पुन्नूं के पहुंचने और दोनों की रूहों के एक हो जाने का जिक्र खास तौर से दिल को छू जाता है -
आखे ओह फकीर पुन्नूं नूं खोल हकीकत सारी
आहि नार परी दी सूरत गरमी मरी विकारी
जपती नाम पुन्नूं दा आहि दर्द इश्क दी मारी
हाशम नाम मकान न जाना आहि कौन विकारी।
(फकीर ने पुन्नूं के सामने सारी हकीकत बयान की। उसने कहा कि यह बदकिस्मत औरत कौन और कहां की थी उसे नहीं मालूम। लेकिन रेगिस्तान की गरमी से बेहाल होकर दम तोड़ते वक्त भी इस परी सी खूबसूरत औरत की जबान पर अपने आशिक पुन्नूं का ही नाम था।)
गल सुन होत जमीन ने डिग्गा खा कलेजे कानि
खुल गई गोर पिया विच कबरे फेर मिले दिल जानी
खातर इश्क गई रल मिट्टी सूरत हुस्न जनानी
हाशम इश्क कमाल सस्सी दा जग विच रहे कहानी।
(सस्सी की मौत की खबर सुन कर पुन्नूं दिल को थामे उसकी कब्र पर धम से बैठ जाता है। अचानक कब्र खुलती है और दोनों प्रेमी फिर से एक हो जाते हैं। एक खूबसूरत औरत इश्क की खातिर खुद को मिट्टी में मिला देती है। हाशम शाह कहते हैं कि सस्सी का इश्क बेनजीर है और इन दोनों की कहानी हमेशा याद की जाएगी।)
हाशम शाह के वालिद करीम शाह बढ़ई को जगदेव कलां के लोग बाबा हाजी के नाम से जानते हैं और गांव में बनी उनकी मजार मजहबी एकता की मिसाल है। गांव में कोई भी मुसलमान नहीं है। बाबा हाजी की मजार की देखभाल एक सिख करता है। जुमेरात को जगदेव कलां और उसके आसपास के गांवों के सिख और हिंदू बड़ी तादाद में मजार पर जमा होते हैं। हर साल जेठ के इक्कीसवें दिन मजार पर लगने वाले मेले में हिस्सा लेने के लिए देश भर और पाकिस्तान से भी बाबा हाजी के मुरीद जगदेव कलां आते हैं।
मजार में बाबा हाजी के अलावा उनके एक मुरीद की भी कब्र है। उसके बारे में कहानी है कि वह सौदागर था जो एक रात जगदेव कलां में ठहरा। सुबह हुई तो उसका ऊंट मर चुका था। उसने बाबा हाजी के चमत्कारों के बारे में सुन रखा था इसलिए रोते हुए उनके पास मदद मांगने के लिए पहुंचा। बाबा हाजी ने ऊंट को जिंदा कर दिया और सौदागर से अपनी मंजिल की ओर रवाना होने को कहा। इस पर सौदागर ने कहा कि उसे उसकी मंजिल मिल चुकी है और अब वह बाबा हाजी को छोड़ कर कहीं नहीं जाएगा।
हाशम शाह के बारे में कुछ लोग मानते हैं कि वह महाराजा रणजीत सिंह के दरबारी थे। दरअसल रणजीत सिंह की ससुराल जगदेव कलां में ही थी। गांव में उनके नाम से बने तालाब के खंडहर अब भी मौजूद हैं। मगर हाशम शाह ने अपनी किताबों में रणजीत सिंह का जिक्र कहीं भी नहीं किया। इसके अलावा राजाओं के बारे में उन्होंने जो विचार जाहिर किए उनसे भी नहीं लगता कि वह किसी राजा के दरबार में रहे होंगे -
कै सुन हाल हकीकत हाशम हुण दिया बादशाहां दी
जुल्मों कुक गए अस्मानी दुखियां रोस दिलां दी
आदमियां दी सूरत दिस दी राकस आदमखोर
जालम कोर पलीत जनाहिं खौफ खुदाओ कोर
बस हुण होर ना कैह कुज जियो रब राखे रहना
एह गल नहिं फकीरा लायक बुरा किसी दा कहना।
(आज के बादशाहों के सताए लोगों की चीखें आसमान तक पहुंचती हैं। इन बादशाहों के चेहरे इंसानों के हैं और करतूतें राक्षसों की। इन आदमखोर और वहशी काफिरों को खुदा का भी खौफ नहीं है। इससे ज्यादा क्या कहें - किसी की बुराई करना फकीरों के लिए अच्छा नहीं। इसलिए अल्लाह की जैसी मर्जी हो चुपचाप वैसे ही रहना है।)
हाशम शाह जमीन के शायर थे लिहाजा उन्होंने अवाम से बातचीत के लिए आम आदमी की जुबान पंजाबी को चुना। लेकिन सूफीवाद के बारे में अपने लेखन में उन्होंने फारसी का सहारा लिया। इन दोनों ही जुबानों में उनकी गजब की पकड़ थी और वह दुरूह बातों को भी सीधे सपाट ढंग से कहने में माहिर थे। पंजाब में सूफीवाद के प्रसार में हाशम शाह का बड़ा रोल रहा है। उनका गांव जगदेव कलां समाज पर फिर से हावी होते रूढि़वाद और मजहबी जुनून के मौजूदा दौर में इंसानियत और भाईचारे की मिसाल है। बाबा हाजी की मजार पर टिमटिमाते नन्हे से चिराग की रोशनी बेशक बहुत दूर तक नहीं जा सके मगर हाशम शाह के विचार दुनिया को हमेशा रोशन करते रहेंगे।
लेखक पार्थिव कुमार यूनिवार्ता से जुड़े हुए हैं.

cm/ delhi/delhi minister-rkc/ शीला के लिए आसान नहीं है चौहान को बचा पाना

Home राजनीति-सरकार शीला के लिए आसान नहीं है चौहान को बचा पाना

शीला के लिए आसान नहीं है चौहान को बचा पाना


सरकार चाहे बीजेपी की रही हो या कांग्रेस की। दिल्ली के मंत्रियों पर आचरण के खिलाफ हरकत करने या अपने पद का दुरूपयोग करने और नाना प्रकार के आरोपों से घिरने का बड़ा गौरवशाली इतिहास रहा है। इसके बावजूद पूरी बेशर्मी से अपने खिलाफ माहौल का सामना किया जाता रहा है। राजनीतिक बेशर्मी का ताजा उदाहरण एक बार फिर दिल्ली के सामने है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित सरकार में सबसे पावरफुल, विश्वसनीय,  कई विभाग के मंत्री,  दलित नेता और सरकार में नंबर टू यानी उपमुख्यमंत्री राजकुमार चौहान की कुर्सी संकट में है। इस बार चौहान पर कर चोरी के मामले में एक नामी रिजार्ट का बचाव करने का आरोप है। अपने पावर, पोस्ट और पॉलिटिकल प्रेशर के जरिए चौहान ने पद का बेजा इस्तेमाल (इस तरह के मामले में हमेशा रूचि) किया।
इस मामले को सीएम या एलजी के हाथ में सौंपने की बजाय लोकायुक्त ने मंत्री के आचरण पर नाराजगी जाहिर की, और सीधे राष्ट्रपति से चौहान को मंत्री पद से हटाने की सिफारिश की है। इस सिफारिश से शीला समेत कांग्रेस के हाथ से मामला निकलता दिख रहा है। चूंकि चौहान शीला के सबसे विश्वसनीय है, लिहाजा चौहान को बचाने की चिंता शीला को सबसे ज्यादा है।
पिछले 18 साल के दौरान दिल्ली में दागदार मंत्रियों का शानदार रिकार्ड रहा है। रामनामी लहर के बाद 1993 में 41 साल के गठित विधानसभा चुनाव में बीजेपी सत्ता  में आई। वरिष्ठ नेता मदन लाल खुराना को मुख्यमंत्री बनाया गया, मगर कुछ भी बोलते रहने के लिए बदनाम बेलगाम खुराना, शहरी पार्टी बीजेपी के गंवई नेता साहिब सिंह वर्मा और ठीक चुनाव से पहले तीन सीएम सुषमा स्वराज यानी तीन मुख्यमंत्रियों के शासन काल में कई मंत्रियों पर गंभीर आरोप लगे।
स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवद्धन ने दिल्ली में पोलियो उन्मूलन अभियान को सबसे पहले चालू किया था। देखते ही देखते केंद्र ने पूरे देश में इस अभियान को लागू किया। बेहतर काम करने के बाद भी डा. हर्षवर्द्धन के घर में काम करने वाली एक नौकरानी गर्भवती हो गई। नौकरानी के गर्भ को महिमामंडित करने वाले मर्द की पहचान आज तक नहीं हो सकी है। यह मामला इतना तूल पकड़ा कि डा. हर्षवर्द्धन इस बाबत सफाई देने की बजाय रोजाना दफ्तर आने के बावजूद कई माह तक बीमार रहे।
महामारियों और बीमारियों के मामले मे राजधानी का सबसे कलंकित इलाका शाहाबाद दौलतपुर डेयरी में डेंगू की महामारी को लेकर इस संवाददाता से डा. हर्षवर्द्धन की जोरदार झड़प हो गई। डेंगू की महामारी से सैकड़ों लोगों के मरने की खबर सबसे पहले राष्ट्रीय सहारा की में छपी, जिसके खिलाफ प्रेस कांफ्रेस करके डा. हर्षवद्धन ने इसे गलत ठहराया। इस संवाददाता ने मंत्री के दावे को झूठलाया और मंत्री रूम में ही जमकर हंगामा हुआ। इस विवाद पर फिर कभी विस्तार से, मगर प्रेस कांफ्रेस में मंत्री के साथ देने वाले ज्यादातर पत्रकारों ने दूसरे दिन डेंगू से मरने वालों की तादातद को सही ठहरा कर डा. हर्षवर्द्धन को ही गलत ठहराया। वहीं अपने पत्रकारों के बीच यह संवाददाता अकेला सा पड़ गया था। इस मामले में केवल एक पत्रकार राम प्रकाश त्रिपाठी ने जमकर साथदिया, और मंत्री को गलत ठहराया।( आज त्रिपाठी कहां है, यह मैं नहीं जानता मगर उसकी दिलेरी का आज भी मैं कायल हूं।
हां तो, बात नौकरानी के गर्भाधारण का मामला तूल पकड़ता रहा और तमाम आरोपं को पूरी ठिठाई से सामना करते हुए डा. हर्षवर्द्धन अंत तक मंत्री बने रहे। 1998 में बीजेपी के सत्‍ता गंवाने के बाद इस पर एक्शन लेने की बजाय विधायक डा. हर्षवर्द्धन को प्रदेश बीजेपी का मुखिया बना दिया गया।
 दिल्ली सरकार में उधोग मंत्री रहे हरशरण सिंह बल्ली का कारनामा और भी चौंकाने वाला है। एक तरफ दिल्ली के पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए इलेक्ट्रो-प्लेंटिंग पर बैन लगा दिया गया। मंत्री के रूप में बल्ली अपने अधिकारियों को इलेक्ट्रो-प्लेंटिंग के खिलाफ जोरदार मुहिम चलाने का प्रेस में दावा करते हुए रोजाना अपनी कामयाबी का बाजा बजाते। वहीं दूसरी तरफ अपने ही घर के भूतल में बल्ली इलेक्ट्रो-प्लेंटिंग का कारखाना चलाते रहे। इनके ही विभाग के अधिकारियों ने मंत्री निवास पर रेड करके दिल्ली में प्रतिबंधित इलेक्ट्रो-प्लेंटिंग के कारखाने को सील किया। पहली मंजिल पर पूरे परिवार के साथ रहने वाले बल्ली इसे पॉलिटिकल साजिश भी नहीं करार दे सके। दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले विशाल काया के 110 किलो से भी भारी बल्ली के चेहरे पर मुस्कान कायम रही। विपक्ष की मांग के बाद भी बल्ली की कुर्सी नहीं गई।
दिल्ली खाद्य विभाग में बाबूगिरी की नौकरी करते हुए कई तरह से बदनाम रहे लाल बिहारी तिवारी को खुराना सरकार में खाद्य मंत्री बनाया गया। हालांकि तिवारी किस्मत के इतने धनी निकले की पूर्वी दिल्ली से इन्हें दो बार सांसद बनने का भी मौका मिला। मगर, इन पर एक समय आय से अधिक संपति और अपने घर के मेनगेट पर दवाब डालकर लाखों रूपए के गेट लगवाने का भी आरोप लगा। जिसके खिलाफ एक्शन लेने की बजाय तिवारी को लोकसभा में भेजा गया। हालांकि मंत्री के रूप में तिवारी का कार्यकाल अब तक के सभी मंत्रियों से बेहतर रहा है।
कांग्रेस में भी परिवहन मंत्री रहे परवेज हाश्मी को आचरण की वजह से मंत्री पद खोना पड़ा था। उर्जा मंत्री रहे डा. नरेन्द्र नाथ को भी मुख्यमंत्री से उलझने की वजह से ही पद गंवाना पड़ा था। मुख्यमंत्री से उलझने के चलते ही कभी नंबर टू रहे डा. अशोक कुमार वालिया को भी अपना रूतबा लगातार गंवाना पड़ रहा है। हालांकि डा. वालिया आज भी मंत्री है, मगर ताजा फेरबदल में भी इनके ही पावर को कम किया गया है।
ताजा मामला सीएम की पेशानी पर बल डाल सकता है। लोकायुक्त की सिफारिश के बाद एकाएक यह मामला शीला की पकड़ से बाहर जाता दिख रहा है। हालांकि चौहान के पोस्ट गंवाने से शीला ही कमजोर होंगी। पर्दे के पीछे वे अपने इस सिपहसालार को हर संभव बचाना चाहेंगी। मगर करप्शन को लेकर पार्टी की इमेज पर बात आ गई तो चौहान के हाथ से मंत्री की कुर्सी फिसल सकती है। करप्शन को लेकर पहले से ही बेहाल शीला भी खुलकर चौहान के लिए मैदान में नहीं आ सकती। उधर, कामनवेल्थ गेम करप्शन से घिरे सुरेश कलमाडी भी शीला दीक्षित को जांच में शामिल करने की वकालत करके बेहाल कर रखा है।
अपने आचरण और पद के बेजा इस्तेमाल के मामले में यदि दिल्ली के विधायकों के करतूतों का खुलासा किया जाए तो इस पर एक मोटा सा ग्रंथ लिखना पड़ेगा। शनि की वक्री नजर से परेशान शीला के लिए चौहान पर ग्रहण एक बुरी खबर है। देखना है कि मुखिया की बजाय एक तानाशाह की तरह दिल्ली सरकार को हांक रही शीला के लिए चौहान मामले से निपटना क्या मुमकिन होगा?
लेखक अनामी शरण बबल दिल्‍ली में पत्रकार हैं.

Wednesday, February 23, 2011

sajjan kumar/ ex mp loksabha/ मीडिया मैनेजमेंट के बेताज बादशाह सज्‍जन

Home तेरा मेरा कोना मीडिया मैनेजमेंट के बेताज बादशाह सज्‍जन

मीडिया मैनेजमेंट के बेताज बादशाह सज्‍जन

Wednesday, 23 February 2011 13:16 अनामी शरण बबल कहिन -

User Rating:  / 1
PoorBest 

दिल्ली के पूर्व सांसद सज्जन कुमार को दुर्ज्जन मानने या साबित करने का मेरे पास कोई ठोस तर्क सबूत या पुख्ता आधार नहीं है। सज्जन कुमार से मेरा कोई गहरा या घनिष्ठ सा रिश्ता भी नहीं रहा है। पिछले कई सालों से हमारी मुलाकात भी नहीं है। हो सकता है कि रोजाना सैकड़ों लोगों से मिलने वाले सज्जन कुमार को मेरा चेहरा या नाम भी अब याद ना हो। इसके बावजूद मीडिया मैनेजमेंट की वजह माने या इनके सहायक कैलाश का कमाल की सज्जन कुमार को सामने फोकस किए बगैर वह मीडिया के सैकड़ों लोगों की उम्मीदों पर हमेशा खरा उतरते हुए सज्जन की सज्जन छवि को कायम रखने में सफल है। मीडिया से परहेज करने वाले सज्जन को मीडिया में लोकप्रिय बनाए रखने में भी इसी कैलाश का हाथ रहा है।
आमतौर पर सज्जन के मन में मीडिया को लेकर ना कोई आदर है ना ही मीडियाकर्मियो से बड़ा प्यार दुलार ही है। इसके बावजूद दिल्ली के समस्त पत्रकारों  में सज्जन कुमार के प्रति ( तमाम आरोपों के बावजूद) सद्भाव वाला रिश्ता है। यही कारण है कि 1984 का मामला चाहे कोई भी करवट बदले, मगर अखबरों में सज्जन को लेकर हमेशा सहानुभूतिपूर्ण नजरिया ही रहा है।
बात हम सज्जन को लेकर 1996 चुनाव से शुरू करते है। पहली बार लोकसभा चुनाव कवर करने की वजह से मैं काफी उतेजित और उत्साहित था। सज्जन को लेकर मैंने पूरी तैयारी कर रखी थी। करीब एक माह तक लगातार खबरें देने की योजना के तहत मैने उन इलाकों को चुना, जहां पिछले पांच साल में सज्जन कभी दोबारा ताकने भी नहीं गए थे। सज्जन के सामने बीजेपी ने वरिष्ठ नेता कृष्ण लाल शर्मा को मैदान में उतारा। आमतौर पर माना जा रहा था कि चुनाव से पहले ही शर्मा को बलि का बकरा बनाकर बीजेपी ने घुटने टेक दिए। मगर मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा एंड पूरी पार्टी ने चुनावी तस्वीर को ही दिन रात की मेहनत और लगन से बदल दिया।
एक तरफ चुनावी धूम तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय सहारा में एंटी सज्जन खबरों का दौर चालू हो गया। इन खबरों से इलाके में क्या असर पड़ रहा था, यह तो मैं नहीं जानता, मगर सज्जन एंड कंपनी खेमे में जरूर बैचेनी थी। दिन में कैलाश तो कभी भी बेसमय, सज्जन कुमार ने भी तीन चार बार फोन करके यह जरूर पूछा कि अनामी भाई क्या दुश्‍मनी है। मैंने पलटते ही कहा, 'सज्जन भाई दोस्ती कब थी?' एंटी खबरों पर हैरानी प्रकट की। इसकी सफाई में मुझे कहना पड़ा, 'भाईसाब, खबर गलत है, तो बताइए? चारा डालते हुए सज्जन ने कहा था अरे अनामी जी खबर चाहे जैसी भी हो, मगर असर तो पड़ता ही है। मानना पड़ेगा कि पूरे चुनाव के दौरान एंटी खबरों के बावजूद सज्जन या कैलाश ने फिर ना कभी टोका और ना शिकायत की। चुनाव खत्म हो गया और एक लाख 98 हजार वोट से सज्जन कुमार पराजित हो गए।
चुनाव के बाद सबकुछ  सामान्य सा हो गया था, मगर दो साल के भीतर ही एक बार फिर लोकसभा चुनाव सिर पर आ गया। चुनावी सिलसिला शुरू होने से काफी पहले ही एक बार फिर पत्रकारों को पटाने का खेल चालू हो गया। उस समय तक मोबाइल नामक खिलौने का इजाद इंडिया में नहीं हुआ था। सज्जन खेमे की तरफ से हर चार छह दिन के बाद कभी रेवाड़ी का गजक, तो सोनीपत का हलवा, तो कभी किसी और शहर की धमाल मिठाई का डिब्बा मेरे घर पर आने लगा।
कैलाश के इस गेम को मैं समझ रहा था। फोन पर तो मैंने मिठाई ना भेजने की गुजारिश की, फिर भी मेरे घर पर कम से कम सात आठ मिठाई के डिब्बे आ चुके थे। एक दिन दफ्तर में कैलाश से मुलाकात हो गई, तो मैंने इसका विरोध जताया। सज्जन से मेरा होली दीवाली का भी कोई नाता कभी नहीं रहा है, लिहाजा सबसे पहले मिठाईयों के डिब्बे भेजना बंद करें। इस पर कैलाश ने दो टूक कहा, 'अनामीजी भाईसाहब ने मुझे बस आपको मैनेज करने के लिए कहा है।' बकौल कैलाश, 'भाईसाहब ने कहा है कि तू केवल अनामी को फिक्स कर ले, मैं पूरी दिल्ली की मीडिया को मैनेज कर लूंगा।' एक सांसद का यह दावा कि मैं पूरी दिल्ली की मीडिया को मैनेज कर लूंगा। यह बात मुझे चुभ गई। फौरन इसका प्रतिवाद किया। 'कैलाश भाई, सज्जन भले ही पूरी दिल्ली की मीडिया को मैनेज कर लें, मगर वे अनामी शरण बबल को मैनेज नहीं कर सकते। मीडिया मेरे गरूर का हिस्सा है. मैं साधारण सा एक सिपाही भर हूं, मगर बात जब मीडिया को अपनी रखैल बनाने पर आ गई है, तब तो मुझे मीडिया की लाज रखनी ही होगी।' एकदम साफ लहजे में कैलाश को फिर मिठाई ना भेजने का आगाह किया। इसके बावजूद अगले चार पांच दिनों के भीतर ही सज्जन की मिठाई का डिब्बा फिर मेरे घर पर आ धमका। इस बार हमने बंजारा कालम में मिठाईयों से पत्रकारों को पटाने का मजाक उड़ाते हुए टिकट मिलने पर ही संदेह जताया। 1984 के भूत की वजह से 1998 के लोकसभा चुनाव में सज्जन का टिकट एक बार फिर कट गया। यानी सज्जन के नाम पर कैलाश का पूरा एक्सरसाइज फालतू और मेरे घर भेजे गए तमाम डिब्बे बेकार हो गए।
चुनाव हारने के बावजूद शोर शराबा या हंगामा खड़ा करने की बजाय सज्जन इलाके में सक्रिय रहते हैं। जनता से इनका नाता रहे या ना रहे, मगर जिसे इन्होंने अपना बनाया है, वह हमेशा सज्जन के लिए काम करते हुए दिख जाते हैं। सही मायने में तो सज्जन की असली ताकत यही लोग हैं, जो दिखावे के बगैर जान देने के लिए भी तैयार रहते हैं। हर साल पत्रकारों को सज्जन कुमार अपने सरकारी आवास (सांसद नहीं रहने पर भी किसी और सांसद के आवास पर) पत्रकारों को सालाना पार्टी देना कभी नहीं भूलते। पार्टी के दिन सैकड़ों पत्रकारों को लाने और वापस पहुंचाने के वास्ते दर्जनों गाड़ी हमेशा खड़ी रहती हैं। ठेठ देहाती परम्परा में सज्जन की पार्टी में गंवई अंदाज से लिट्टी-चोखा से लेकर गन्ना, मकई भूंजा समेत लजीज खाने का मजमा सा लग जाता है। दो या तीन बार मुझे भी इसमें शामिल होने का अवसर मिला है। शायद यह इकलौता पत्रकार पार्टी होता है जिसमें नवोदित से लेकर संपादकों को भी आना रास आता है। संपादकों में सर्वसुलभ आलोक मेहता के दर्शन भी यहां पर होना परम आवश्यक है।
सज्जन में शालीनता कूट-कूट कर भरी है। यही शराफत मीडिया को भाता है। मीडिया से नाता होने के बावजूद क्या कमाल है अगर कोई सज्जन का इंटरव्यू लेकर दिखाए या 1984 के बारे में बात भी कर ले। मुलाकात की पहला ही शर्त होती है कि 1984 पर नो एनी सवाल। महज एक सांसद होने के बाद भी आन बान और शान में सज्जन के सामने वीआईपी लोग भी दम मारते नजर आएंगे। इसमें कोई शक नहीं यदि 1984 के साथ सज्जन का कोई नाता नहीं होता तो इनका पोलिटिकल सफर कुछ और होता। शायद सज्जन का सूरज कभी नहीं डूबता(वैसे सूरज आज भी चमक रहा है)। अपने पराजित विधायक भाई रमेश को सांसद बनवा देना केवल सज्जन के बूते में ही था। इसके ठोस आधार भी है कि पिछले 15 साल में केवल एक बार सांसद होने के बाद भी जनता से भले ही इनका साथ कम हो गया हो, मगर साथ देने वाले अपनों से सज्जन का साथ कभी कम नहीं हुआ है, जिसके बूते ही सज्जन को दुर्ज्जन कहने का साहस आज किसी में नहीं है। भले ही परिसीमन के बाद राजधानी के राजनीतिक क्षेत्रों में भौगोलिक बदलाव आ गया, मगर विभिन्न आरोपों के बावजूद मादीपुर गांव के मूल निवासी भूत(पूर्व) सांसद सज्जन कुमार को आज भी बाहरी दिल्ली और मीडिया को मैनेज करने में बेताज बादशाह ही माना जाता है।
लेखक अनामी शरण बबल दिल्‍ली में पत्रकार हैं.

बैकुंठ धाम पर भंडारे / डॉ.स्वामी प्यारी कौड़ा के दिन*

 *🙏🙏🙏🙏🙏 तेरे सजदे में सर झुका रहे,  यह आरज़ू अब दिल में है।  हर हुक्म की तामील करें,  बस यह तमन्ना अब मन में है।। तेरी आन बान शान निराल...