Friday, February 25, 2011

kabir/ पंजाब के कबीर हैं सैयद हाशम शाह

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पंजाब के कबीर हैं सैयद हाशम शाह

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सैयद हाशम शाह की सदाओं ने जगदेव कलां को दरवेश बना दिया है। यह देखने में भले ही आम गांवों की तरह लगता हो मगर इसकी घुमावदार गलियों में अमन और भाईचारे की दरिया बहती है। हरे भरे खेतों से घिरे इस गांव की मिट्टी में सस्सी और पुन्नूं की मोहब्बत की सौंधी खुशबू है और हवाओं में फिरकापरस्ती के खिलाफ बगावत का पैगाम। पंजाब में अमृतसर से अजनाला की ओर जाने वाली सड़क पर बसा है जगदेव कलां। मशहूर सूफी शायर हाशम शाह का जन्म 1753 में इसी गांव में हुआ था। मौजूदा पाकिस्तान में नरोवाल जिले के थरपल गांव में 1823 में इंतकाल से पहले हाशम शाह ने अपनी ज्यादातर जिंदगी जगदेव कलां में ही गुजारी। सूफियों के कादिरी सिलसिले से ताल्लुक रखने वाले हाशम शाह को पंजाब का कबीर कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा।
उन्होंने मोहब्बत को इबादत का जरिया बनाया और अमन और मजहबों के बीच भाईचारे को अपनी शायरी का मकसद। सीधे सादे लफ्जों में लिखे गए अपने दोहरों में उन्होंने हिंदू और मुसलमान दोनों मजहबों के दकियानूसों और फिरकापरस्तों को खूब खरी खोटी सुनाई और आम लोगों के उनसे सावधान किया -
वेद कताब पढ़न चतुराई अते जब तब साध बनावे
पगवे पेस करन किस कारन ओ मानदा खोट लुकावे
मूरख जा वड़े उस वेड़े अते ओखद जनम गंवावे
हाशम मुकत नसीब जिना दे सोई दर्द मानदा बुलावे।
(वेद और पुराण पढ़ना तो चालाकी है। लोग ऐसा इसलिए करते हैं कि उन्हें विद्वान समझा जाए। वे अपने मन का खोट छिपाने के लिए ही भगवा कपड़े पहनते हैं। बेवकूफ लोग ही उनके पास जाकर अपनी जिंदगी गंवाते हैं। जिनके नसीब में मुक्ति लिखी है वे तो गरीबों के पास जाकर उनकी सेवा करते हैं।)
रब दा आशक होन सुखाला ए बहुत सुखाड़ी बाजी
गोशा पकड़ रहे हो साबर फेर तसबी बने नमाजी
सुख आराम जगत बिख सोभा अते वेख होवे जग राजी
हाशम खाक रुलावे गलिया ते एह काफर इश्क मजाजी।
(खुदा का आशिक होना बहुत आसान और सुखद है। एक कोने में बैठ कर चुपचाप तसबीह फेरते रहो। इससे आराम मिलेगा, दुनिया में इज्जत होगी और लोग तुम्हें देख कर खुश होंगे। लेकिन काफिरों की तरह का यह बर्ताव अंत में आदमी को धूल में मिला देता है।)
हाशम शाह मानते थे कि अल्लाह के नजदीक पहुंचने का सबसे आसान रास्ता मोहब्बत है। इसलिए उन्होंने शीरीं और फरहाद, सोहनी और महिवाल तथा सस्सी और पुन्नूं की लोक कथाओं को नया रूप दिया। उनके मुताबिक किस्सा सस्सी पुन्नूं को सुनने या पढ़ने से इंसान रहस्यवाद के उस मुकाम तक पहुंच जाता है जहां इश्क, आशिक और माशूक एक हो जाते हैं। इस किस्से की 124 चौपाइयों में उन्होंने दो इश्कजदा दिलों के दर्द को बेहद खूबसूरती से कागज पर उतारा है। इस किस्से में सस्सी की कब्र तक पुन्नूं के पहुंचने और दोनों की रूहों के एक हो जाने का जिक्र खास तौर से दिल को छू जाता है -
आखे ओह फकीर पुन्नूं नूं खोल हकीकत सारी
आहि नार परी दी सूरत गरमी मरी विकारी
जपती नाम पुन्नूं दा आहि दर्द इश्क दी मारी
हाशम नाम मकान न जाना आहि कौन विकारी।
(फकीर ने पुन्नूं के सामने सारी हकीकत बयान की। उसने कहा कि यह बदकिस्मत औरत कौन और कहां की थी उसे नहीं मालूम। लेकिन रेगिस्तान की गरमी से बेहाल होकर दम तोड़ते वक्त भी इस परी सी खूबसूरत औरत की जबान पर अपने आशिक पुन्नूं का ही नाम था।)
गल सुन होत जमीन ने डिग्गा खा कलेजे कानि
खुल गई गोर पिया विच कबरे फेर मिले दिल जानी
खातर इश्क गई रल मिट्टी सूरत हुस्न जनानी
हाशम इश्क कमाल सस्सी दा जग विच रहे कहानी।
(सस्सी की मौत की खबर सुन कर पुन्नूं दिल को थामे उसकी कब्र पर धम से बैठ जाता है। अचानक कब्र खुलती है और दोनों प्रेमी फिर से एक हो जाते हैं। एक खूबसूरत औरत इश्क की खातिर खुद को मिट्टी में मिला देती है। हाशम शाह कहते हैं कि सस्सी का इश्क बेनजीर है और इन दोनों की कहानी हमेशा याद की जाएगी।)
हाशम शाह के वालिद करीम शाह बढ़ई को जगदेव कलां के लोग बाबा हाजी के नाम से जानते हैं और गांव में बनी उनकी मजार मजहबी एकता की मिसाल है। गांव में कोई भी मुसलमान नहीं है। बाबा हाजी की मजार की देखभाल एक सिख करता है। जुमेरात को जगदेव कलां और उसके आसपास के गांवों के सिख और हिंदू बड़ी तादाद में मजार पर जमा होते हैं। हर साल जेठ के इक्कीसवें दिन मजार पर लगने वाले मेले में हिस्सा लेने के लिए देश भर और पाकिस्तान से भी बाबा हाजी के मुरीद जगदेव कलां आते हैं।
मजार में बाबा हाजी के अलावा उनके एक मुरीद की भी कब्र है। उसके बारे में कहानी है कि वह सौदागर था जो एक रात जगदेव कलां में ठहरा। सुबह हुई तो उसका ऊंट मर चुका था। उसने बाबा हाजी के चमत्कारों के बारे में सुन रखा था इसलिए रोते हुए उनके पास मदद मांगने के लिए पहुंचा। बाबा हाजी ने ऊंट को जिंदा कर दिया और सौदागर से अपनी मंजिल की ओर रवाना होने को कहा। इस पर सौदागर ने कहा कि उसे उसकी मंजिल मिल चुकी है और अब वह बाबा हाजी को छोड़ कर कहीं नहीं जाएगा।
हाशम शाह के बारे में कुछ लोग मानते हैं कि वह महाराजा रणजीत सिंह के दरबारी थे। दरअसल रणजीत सिंह की ससुराल जगदेव कलां में ही थी। गांव में उनके नाम से बने तालाब के खंडहर अब भी मौजूद हैं। मगर हाशम शाह ने अपनी किताबों में रणजीत सिंह का जिक्र कहीं भी नहीं किया। इसके अलावा राजाओं के बारे में उन्होंने जो विचार जाहिर किए उनसे भी नहीं लगता कि वह किसी राजा के दरबार में रहे होंगे -
कै सुन हाल हकीकत हाशम हुण दिया बादशाहां दी
जुल्मों कुक गए अस्मानी दुखियां रोस दिलां दी
आदमियां दी सूरत दिस दी राकस आदमखोर
जालम कोर पलीत जनाहिं खौफ खुदाओ कोर
बस हुण होर ना कैह कुज जियो रब राखे रहना
एह गल नहिं फकीरा लायक बुरा किसी दा कहना।
(आज के बादशाहों के सताए लोगों की चीखें आसमान तक पहुंचती हैं। इन बादशाहों के चेहरे इंसानों के हैं और करतूतें राक्षसों की। इन आदमखोर और वहशी काफिरों को खुदा का भी खौफ नहीं है। इससे ज्यादा क्या कहें - किसी की बुराई करना फकीरों के लिए अच्छा नहीं। इसलिए अल्लाह की जैसी मर्जी हो चुपचाप वैसे ही रहना है।)
हाशम शाह जमीन के शायर थे लिहाजा उन्होंने अवाम से बातचीत के लिए आम आदमी की जुबान पंजाबी को चुना। लेकिन सूफीवाद के बारे में अपने लेखन में उन्होंने फारसी का सहारा लिया। इन दोनों ही जुबानों में उनकी गजब की पकड़ थी और वह दुरूह बातों को भी सीधे सपाट ढंग से कहने में माहिर थे। पंजाब में सूफीवाद के प्रसार में हाशम शाह का बड़ा रोल रहा है। उनका गांव जगदेव कलां समाज पर फिर से हावी होते रूढि़वाद और मजहबी जुनून के मौजूदा दौर में इंसानियत और भाईचारे की मिसाल है। बाबा हाजी की मजार पर टिमटिमाते नन्हे से चिराग की रोशनी बेशक बहुत दूर तक नहीं जा सके मगर हाशम शाह के विचार दुनिया को हमेशा रोशन करते रहेंगे।
लेखक पार्थिव कुमार यूनिवार्ता से जुड़े हुए हैं.

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