Sunday, March 31, 2013

राजस्थान का इतिहास











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राजस्थान का स्थापत्य - हवेली ,राजप्रासाद एवं महल स्थापत्य



राजप्रासाद एवं महल स्थापत्य
प्राचीन ग्रंथों में राजप्रासाद वास्तु का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। राजस्थान को इतिहास में राजाओं के प्रदेशके नाम से भी जाना गया है। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक था कि राजा अपने रहने के विस्तृत आवास बनाते। दुर्भाग्य से अब राजस्थान के प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल की संधिकाल के राजप्रासादों के खण्डहर ही शेष रहे हैं। मेनाल, नागदा आदि स्थान के राजप्रासादों के खण्डहर यह बताते
हैं कि वे सादगी युक्त थे। इनमें संकरे दरवाजे एवं खिड़कियों का अभाव है, जो सुरक्षा के कारणों से रखे गये हैं। 

           मध्यकाल में राजप्रासाद विशाल, भव्य एवं अलंकृत बनने लगे। पूर्व मध्यकाल में अधिकांश राजप्रासाद किलों में ही देखने को मिलते हैं। इन राजप्रासादों में राजा एवं उसके परिवार के अतिरिक्त
उसके बन्धु-बान्धव तथा अतिविशिष्ट नौकरशाही रहा करती थी। इस युग में भी कई वास्तुविद् हुए जिनमें मण्डन, नापा, भाणा, विद्याधर आदि प्रमुख हैं। कुम्भायुगीन प्रख्यात शिल्पी मण्डन का विचार है कि राजभवन नगर के मध्य में अथवा नगर के एक तरफ किसी ऊँचे स्थान पर बनाना चाहिये। उसने जनाना एवं मर्दाना महलों को सुगम मार्गों से जोड़े जाने की व्यवस्था सुझाई है। उसने अन्य महलों को भी एक-दूसरे से जोड़ने तथा सभी को एक इकाई का रूप देने पर बल दिया है। कुम्भाकालीन राजप्रासादा सादे थे किन्तु बाद के काल में महलों की बनावट एवं शिल्प में परिवर्तन दिखाई देता है। 15वीं शताब्दी के पश्चात् महलों में मुगल प्रभाव देखा जा सकता है। अब इन महलों में तड़क-भड़क देखी जा सकती है। फव्वारे, छोटे बाग-बगीचे, बेल-बूँटे, संगमरमर का प्रयोग, मेहराब, गुम्बज आदि रूपों में मुगल प्रभाव को इन इमारतों में देखा जा सकता है। उदयपुर के महलों में अमरसिंह के महल कर्णसिंह का जगमन्दिर, जगतसिंह द्वितीय के समय के प्रीतम निवास महल, जगनिवास महल, आमेर के दीवाने आम, दीवाने खास, बीकानेर के कर्णमहल, शीशमहल, अनूप महल, रंगमहल, जोधपुर का फूल महल आदि पर मुगल प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। सत्रहवी शताब्दी के बाद कोटा, बूँदी, जयपुर आदि में निर्मित महलों में स्पष्टतः मुगल प्रभाव दिखाई देता है। मुगल प्रभाव के कारण राजप्रासादों में दीवाने आम, दीवाने खास, चित्रशालाएँ, बारहदरियाँ, गवाक्ष - झरोखे, रंग महल आदि को स्थान मिलने लगा। इस प्रकार के महलों में जयपुर का सिटी पैलेस, उदयपुर का सिटी पैलेस प्रमुख है। राजस्थान के महलों में डीग के महलों का विशिष्ट स्थान है। डीग के महल जाट नरेश सूरजमल द्वारा निर्मित है। डीग के महलों के चारों ओर छज्जे (कार्निस) हैं, जो प्रभावोत्पादक है। डीग के महलों एवं इनमें बने उद्यानों का संयोजन विशेष कौशल का परिचय कराता है। यह जल महल के नाम से भी प्रख्यात है। डीग के महलों में गोपाल भवन विशेष है।


हवेली स्थापत्य
राजस्थान में बड़े-बड़े सेठ साहूकारों तथा धनी व्यक्तियों ने अपने निवास के लिये विशाल हवेलियों का निर्माण करवाया। ये हवेलियाँ कई मंजिला होती थी। शेखावाटी, ढूँढाड़, मारवाड़ तथा मेवाड़  क्षेत्रों की
हवेलियाँ स्थापत्य की दृष्टि से भिन्नता लिए हुये हैं। शेखावाटी क्षेत्र की हवेलियाँ अधिक भव्य एवं कलात्मक है। जयपुर, जैसलमेर, बीकानेर, तथा शेखावाटी के रामगढ़, नवलगढ़, फतहपुर, मुकु ंदगढ़, मण्डावा, पिलानी, सरदार शहर, रतनगढ़ आदि कस्बों में खड़ी विशाल हवेलियाँ आज भी अपने स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। राजस्थान की हवेलियाँ अपने छज्जों, बरामदों और झरोखें पर बारीक नक्काशी के लिए प्रसिद्ध हैं।

           जैसलमेर की हवेलियाँ राजपूताना के आकर्षण का केन्द्र रही है। यहाँ की पटवों की हवेली अपनी शिल्पकला, विशालता एवं अद्भुत नक्काशी के कारण प्रसिद्ध है। यह सेठ गुमानचन्द बापना ने बनवाई थी। यह पाँच मंजिला हवेली शहर के मध्य स्थित है। इस हवेली के जाली-झरोखें बरबस ही पर्यटक को आकर्षित करते हैं। पटवों की हवेली के अतिरिक्त जैसलमेर, में स्थित सालिमसिंह की हवेली का शिल्प-सौन्दर्य भी बेजोड़ है। इस नौ खण्डी हवेली के प्रथम सात खण्ड पत्थर के और ऊपरी दो खण्ड लकड़ी के बने हुये थे। बाद में लकड़ी के दोनों खण्ड उतार लिये गये। जैसलमेर की नथमल की हवेली भी शिल्पकला की दृष्टि से अपना अनूठा स्थान रखती है। इस हवेली का शिल्पकारी का कार्य हाथी और लालू नामक दो भाइयों ने इस संकल्प के साथ शुरू किया था कि वे हवेली में प्रयुक्त शिल्प को दोहरायेंगे नहीं, इसी कारण इसका शिल्प अनूठा है।

           बीकानेर की प्रसिद्ध बच्छावतों की हवेलीका निर्माण सोलहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कर्णसिंह बच्छावत ने करवाया था। इसके अतिरिक्त बीकानेर में मोहता, मूंदड़ा, रामपुरिया आदि की हवेलियाँ अपने
शिल्प वैभव के कारण विख्यात है। बीकानेर की हवेलियाँ लाल पत्थर से निर्मित है। इन हवेलियों में ज्यॉमितीय शैली की नक्काशी है एवं आधार को तराश कर बेल-बूटे, फूल-पत्तियाँ आदि उकेरे गये हैं।
इनकी सजावट में मुगल, किशनगढ़ एवं यूरोपीय चित्रशैली का प्रयोग किया गया है।
          शेखावाटी की हवेलियाँ अपने भित्तिचित्रों के लिए विख्यात है। शेखावाटी की स्वर्णनगरी के रूप में विख्यात नवलगढ़ (झुंझुनू) में सौ से ज्यादा हवेलियाँ अपनी शिल्प आभा बिखेरे हुये है। यहाँ की हवेलियों में रूप निवास, भगत, जालान, पोद्दार और भगेरियाँ की हवेलियाँ प्रसिद्ध हैं। बिसाऊ (झुंझुनूं) में नाथूराम पोद्दार की हवेली, सेठ जयदयाल केठिया की तथा सीताराम सिंगतिया की हवेली प्रसिद्ध है। झुंझुनू में टीबड़ेवाला की हवेली तथा ईसरदास मोदी की हवेली अपने शिल्प वैभव के कारण अलग ही छवि लिए हुए हैं। डूंडलोद (झुंझुनूं) में सेठ लालचन्द गोयनका, मुकुन्दगढ़ (झुंझुनू) में सेठ राधाकृष्ण एवं केसरदेव कानेड़िया की हवेलियाँ, चिड़ावा (झुंझुनू) में बागड़िया की हवेली, महनसर (झुंझुनू) की सोने-चाँदी की हवेली, श्रीमाधोपुर (सीकर) में पंसारी की हवेली प्रसिद्ध है। झुंझुनूं जिले की ये ऊँची-ऊँची हवेलियाँ बलुआ पत्थर, ईंट, जिप्सम एवं चूना, काष्ठ तथा ढलवाँ धातु के समन्वय से निर्मित अपने अन्दर भित्ति चित्रों की छटा लिये हुए हैं।

           सीकर में गौरीलाल बियाणी की हवेली, रामगढ़ (सीकर) में ताराचन्द रूइया की हवेली समकालीन भित्तिचित्रों के कारण प्रसिद्ध है। फतहपुर (सीकर) में नन्दलाल देवड़ा, कन्हैयालाल गोयनका की हवेलियाँ भी भित्तिचित्रों के कारण प्रसिद्ध है। चूरू की हवेलियों में मालजी का कमरा, रामनिवास गोयनका की हवेली, मंत्रियों की हवेली इत्यादि प्रसिद्ध है। खींचन (जोधपुर) में लाल पत्थरों की गोलेछा एवं टाटिया परिवारों की हवेलियाँ भी कलात्मक स्वरूप लिए हुए है।
      जोधपुर में बड़े मियां की हवेली, पोकरण की हवेली, राखी हवेली, टोंक की सुनहरी कोठी, उदयपुर में बागौर की हवेली, जयपुर का हवामहल, नाटाणियों की हवेली, रत्नाकार पुण्डरीक की हवेली, पुरोहित
प्रतापनारायण जी की हवेली इत्यादि हवेली स्थापत्य के विभिन्न रूप हैं। राजस्थान में मध्यकाल के वैष्णव मंदिर भी हवेलियों जैसे ही बनाये गये हैं। इनमें नागौर का बंशीवाले का मंदिर, जोधपुर का रणछोड़जी का मंदिर, घनश्याम जी का मंदिर, जयपुर का कनक वृंदावन आदि प्रमुख हैं। देशी-विदेशी पर्यटकों को लुभानें तथा राजस्थानी स्थापत्य कला को संरक्षण देने के लिए वर्तमान में अनेक हवेलियों का जीर्णोद्धार किया जा रहा है।

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Saturday, March 16, 2013

आगरा : विशेषताओं का शहर है आगरा

आगरा विशेषताओं का शहर


हर आदमी की तरह हर शहर की भी एक पहचान होती है। कुछ विशेषताएं होती हैं और कुछ घटनायें उससे जुड़ी रहती हैं। इस दृष्टि से दिल्ली की पहचान कुतुबमीनार है, जयपुर की हवामहल, चित्तौड़ की विजय स्तम्भ, उदयपुर की झीलें और लेक पैलेस, जैसलमेर की सोनार किला, उज्जैन की महाकालेश्वर, वाराणसी की काशी विश्वनाथ, हैदराबाद की चार मीनार आदि-आदि। आगरा की पहचान नि:संदेह ताजमहल है और इसे सिटी ऑफ ताज कहा जाता है। ताज के कारण ही आगरा न केवल पूरे भारत में बल्कि विश्व के सब देशों में जाना जाता है। भारत आने वाले हर विदेशी पर्यटक की पहली पसंद ताज देखना होती है। ताज की सुन्दरता ने सब तरह के लोगों को मोहित किया है और उन्होंने इस पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। हर नवविवाहित जोड़े की इच्छा रहती है कि वह प्रेम का अमर स्मारक ताज देखे।
आगरा को सिकंदर लोदी ने 1504 ई. में बसाया था ताकि इटावा, बयाना, धोलपुर, ग्वालियर, कोल आदि जागीरों पर पूर्ण नियंत्रण रखा जा सके, लेकिन 1505 ई. में आगरा में भयंकर भूचाल आया, जिससे धन-जन की बहुत क्षति हुई। वैसे आगरा की प्रसिध्दि व शानो-शौकत मुगलकाल से शुरू हुई। मुगलों ने इसको देश की राजधानी बनाया। मुगल शासकों अकबर, जहांगीर, शाहजहां ने यहां कई शानदार और भव्य इमारतें बनवाई और उनको बड़ी खूबी से सजाया संवारा। मुगलकाल में जब एक अंग्रेज यात्री ने आगरा व फतेहपुर सीकरी को देखा तो कहा कि यह दोनों शहर इतने बड़े हैं कि इनके मुकाबले में लन्दन एक छोटी बस्ती लगता है।
आगरा का प्रमुख आकर्षण बेशक ताज है जिसकी सुन्दरता व भव्यता को निहारने देश-विदेश के हर साल लाखों लोग आते हैं। इससे अच्छी खासी आय होती है और विदेशी मुद्रा भी प्राप्त होती है। ताज की गिनती विश्व के आश्चर्यों में होती है। ताज की तरह ही यमुना के किनारे पर संगमरमर में बना हुआ एत्मादुदोला है जो आकार में छोटा-सा मगर सुन्दरता में ताज से भी अच्छा है। इसे नूरजहां ने अपने पिता मिर्जा गियास बेग की याद में बनवाया था। ताज महल इसी से प्रेरणा पाकर ही बनाया गया था। अकबर का भव्य और विशाल मकबरा भी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। आगरा का लाल पत्थर से बना हुआ सुदृढ़ और अच्छी तरह संरक्षित किला भी दर्शनीय है। इसमें कई महल, आंगन और एक संगमरमर की मस्जिद भी है। बादशाह शाहजहां इसी किले में आठ साल तक बेटे औरंगजेब का बंदी रहकर ताज को देखते-देखते 1666 ई. में मर गया। किले के नाम पर आगरा का एक प्रमुख स्टेशन आगरा फोर्ट है, जो भव्य जामा मस्जिद और किले के बीच स्थित है और शहर से सटा हुआ है।
दर्शनीय इमारतों के पश्चात दूसरे नम्बर पर आगरा में पैरों की शान व शोभा बढ़ाने वाले कई तरह के जूते हैं जिनकी मांग न केवल पूरे देश में है बल्कि देश के बाहर दूसरे देशों में भी भेजे जाते हैं। इनसे से भी पर्याप्त विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। जूते आगरा में हींग के कारण बनने शुरू हुए। मुगलकाल में हींग अफगानिस्तान से चमड़े के बोरों में भरकर आती थी। हींग निकालकर बोरे अलग कर दिये जाते थे, जब यह अधिक संख्या में इकट्ठे हो गए तो इनके उपयोग को सोचा गया और जूते बनाये जाने लगे। आज भी हींग की मण्डी में आगरा में जूतों का एक प्रमुख बाजार है। जब मण्डी और बाजार की बात चली तो आगरा का एक प्रचलित वाक्य याद आ गया- 63 मण्डी, 64 बाजार है आगरा का विस्तार।
तीसरे स्थान पर आता है आगरा का स्वादिष्ट पेठा जो देश के कोने-कोने में जाता है और अब तो विदेशों में भी जाने लगा है। पेठा-सूखा व गीला (अंगूरी) कई किस्मों में बनाया जाता है। आगरा में पेठे की शुरुआत शाहजहां के काल में हुई जब उनके राजवैद्य को यमुना में बहता हुआ बीज मिला जिसे उन्होंने उसे यमुना के किनारे पर उगाया तो सुन्दर पेठे का फल तैयार हुआ। उस फल को चाशनी में पकाकर खाने योग्य बनाया गया। बेगम मुमताज को पेठा अत्यधिक पसंद था और शाहजहां उसे अपनी शाही मिठाई का दर्जा देते थे। पेठे के साथ ही आगरा की चटपटी और मसालेदार नमकीन दालमोंठ है जो लोगों को बहुत भाती है। आगरा में पेठे का एक अलग बाजार है तथा अनेक दुकानें हैं जो ज्यादातर रेलवे स्टेशनों और बस व टैम्पो स्टैण्ड के आसपास बनी हुईं हैं। पेठा की दुकानों पर दालमोठ भी रहती है।
आज का आगरा एक मुकम्मल महानगर है जहां सब तरह की सुविधाएं मौजूद है। यह शहर शिक्षा का बड़ा केन्द्र है जहां सब तरह की शिक्षा के लिये अनेक कॉलेज, संस्थान व संस्थाएं हैं। आगरा यूनिवर्सिटी देश की पुरानी यूनिवर्सिटियों में से एक है। एक समय राजस्थान, मध्यप्रदेश और यूपी के सारे कॉलेज सिवाय अलीगढ़, वाराणसी, इलाहाबाद के इसके तहत होते थे।
आगरा का दयालबाग क्षेत्र जो राधास्वामी मत का मुख्यालय है, शिक्षा का बड़ा केन्द्र है। अब इसको डीम्ड यूनिवर्सिटी मान लिया गया है। यहां सब तरह की टेक्निकल शिक्षा भी उपलब्ध है। दयालबाग में हजूर साहिब की समाधि जो एक शताब्दी से बन रही है बड़ी भव्य, कलात्मक और नयनाभिराम है।
चिकित्सा की दृष्टि से भी आगरा अति उत्तम है। यहां हर बीमारी के लिए एक से बढ़कर एक अच्छे डॉक्टर मौजूद हैं। आगरा का एसएन मेडिकल कॉलेज देश के पुराने चिकित्सा संस्थानों में से है। आगरा का मेंटल हॉस्पिटल बहुत बड़ा और पुराना है जो उत्तर भारत में माना हुआ है। यह भी आगरा को एक पहचान दिलाता है और आगरा का पर्याय बन चुका है। अब भी कोई आदमी जब उल्टी-सीधी हरकतें करता है तो कहा जाता है कि चिन्ता मत कर आगरा पास ही है।
धार्मिक दृष्टि से भी आगरा बड़ा महत्वपूर्ण है। यहां सब धर्मों को मानने वालों के पूजा स्थल हैं। जिनमें से कई तो दर्शनीय हैं। शहर में सबसे पवित्र और माननीय पूजा स्थल मनकामनेश्वर मंदिर है, जो आगरा फोर्ट स्टेशन और जामा मस्जिद के पास है। इसके दर्शन करने लोग दूर-दूर से आते हैं। एक दूसरा शिव मंदिर ईदगाह स्टेशन के पास रावली में है जो पुराना है, लेकिन इसकी भी मान्यता कम नहीं है। आगरा में दशहरा के दौरान राम बारात बड़ी भव्य व शानदार निकाली जाती है। रामबारात का जुलूस उत्तर भारत में सबसे बड़ा माना जाता है। इसमें झांकियां बड़ी साज-सज्जा से हाथी, ऊंटों और रथों पर निकाली जाती हैं जो शहर के प्रमुख बाजारों में होकर रात भर जाती हैं। दूर-दूर से लाखों लोग इसको देखने आते हैं। दशहरा का एक और आकर्षण यहां की जनकपुरी है जो बारी-बारी से शहर के किसी न किसी बाजार में बनाई जाती है। इसकी सफाई सजावट और रोशनी बड़ी दिलकश व सुन्दर होती है जिसको देखने शहर के कोने-कोने से बड़ी संख्या में लोग आते हैं। यह भी रात भर शोभा प्रदान करती है। आगरा शहर के चारों ओर शिव मंदिर बल्केश्वर, पृथ्वीनाथ, राजेश्वर और कैलाश स्थित है, जो मराठा काल (वर्ष1772-1803) में बनवाए गए थे। यहां श्रावण महीने के हर सोमवार को बारी-बारी से मेला लगता है जिसमें दूर-दूर से हजारों लोग पूजा करने आते हैं।
आगरा की प्रमुख घटनाओं में एक है छत्रपति शिवाजी का औरंगजेब जैसे क्रूर बादशाह की जेल से बड़ी चतुराई, सूझबूझ और साहस से भाग निकलना। इस घटना का औरंगजेब को जीवन भर बड़ा मलाल रहा। आगरा की दूसरी अद्भुत और विस्मयकारी किन्तु विस्तृत घटना है अमर सिंह राठौर का शौर्य व साहस। इस वीर ने शाहजहां के भरे दरबार में उसके एक मंत्री सलाबत खान को कत्ल कर दिया जबकि बादशाह के दरबार में तो कोई ऊंची आवाज में बात भी नहीं कर सकता था। अमर सिंह को कोई भी सैनिक पकड़ नहीं सका। किले के दरवाजे बंद कर दिये मगर राठौर वीर किले की ऊंची फसील से घोड़े सहित चौड़ी खांई को पार करते हुए नीचे कूद गया। घोड़ा तो मर गया लेकिन अमर सिंह बच निकला। ऐसा विलक्षण और साहसिक कार्य शायद ही विश्व में किसी दूसरे व्यक्ति ने किया हो। किन्तु बड़े खेद की बात है कि इस अद्वितीय वीर योध्दा की याद में कोई मूर्ति नहीं लगाई गई है जैसा कि शिवाजी महाराज की लगाई गई है। मेरा आगरा प्रशासन और नगर निगम से अनुरोध है कि इस वीर की प्रतिमा घोड़े सहित उसी स्थान पर लगाई जाये जहां वह गिरा था। मूर्ति लगने से देश विदेश के पर्यटक जो बड़ी संख्या में आगरा आते हैं अमर सिंह के पराक्रम और वीरता को जानेंगे और प्रेरणा लेंगे। इससे देश का गौरव बढ़ेगा।
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