Deo surya mandir,Deo kund [Aurangabad].Bihar.me chhat pooja ke awasar par umade shradhalu.
Thursday, March 26, 2015
नए अंदाज में देव सूर्यमंदिर -824202
उदयचलगामी सूर्य को अर्घ्य के साथ चैती छठ व्रत संपन्न
धीरज पांडेय, चंदन कुमार सिंह
सूर्य नगरी देव स्थित पवित्र सूर्यकुन्ड में लाखों व्रतियों ने उदयीमान सुर्य को आज अपना दुसरा अध्र्य अर्पित किया। छोटे से इस कुन्ड के चारों तरफ मानो श्रद्धालुओं का हुजूम उमड पडा था। कुछ इस हद तक कि मानों तील रखने भर की जगह भी खाली नहीं बचा हो। हर कोई इस फिराक में था कि वह जल्द से जल्द कुन्ड तक पहूँचे और धार्मिक दृश्टीकोण से अति महत्वपूर्ण इस कुन्ड में डूबकी लगाकर भगवान भाष्कर को अपना अध्र्य अर्पित कर सके। गौरतलब है कि देव में छठ पूजा का अनुश्ठान करने का एक अलग महत्व है। ऐसी मान्यता है कि भगवान सूर्य यहाँ साक्षात विद्यमान हैं और जो कोई भी सच्चे मन से यहाँ आ कर छठी मईया की पूजा अराधना करता है, भगवान उनकी मनोकामना अवश्य पूरी करते हैं। अपना अध्र्य अर्पण कर छठ व्रती पोखरे से दंडवत करते हुये सुर्य मंदिर पहुंचते हैं जहां तीनों रूपों में विराजमान भगवान भाष्कर के दर्शन करते हैं । गौरतलब है कि पुरे विश्व में देव ही एक ऐसा स्थान है जहां छठ व्रती यानि उदयाचल , मध्याचल एवं अस्ताचलगामी पवित्र सुर्यकुण्ड मे तीनो पहरअपना अध्र्य अर्पण करते हैं ।
Monday, March 23, 2015
विक्रम संवत्सर
प्रस्तुति- अशोक सुमन
विक्रम संवत
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विवरण | 'विक्रम संवत' अत्यंत प्राचीन संवत है। भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत 'विक्रम संवत' ही है। |
आरम्भकर्ता | सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य |
शुरुआत | लगभग 2,068 वर्ष यानी 57 ईसा पूर्व में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से |
पौराणिक महत्त्व | पुराणों के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण किया था, इसलिए इस पावन तिथि को 'नव संवत्सर' पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। |
शास्त्रीय मान्यता | शास्त्रीय मान्यतानुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि से शुद्ध होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर ओम भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि च इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए। |
विशेष | चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का भी रहा हो, स्वयं चुकाकर 'विक्रम संवत' की शुरुआत की थी। |
अन्य जानकारी | सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से 'विक्रम संवत' का आरम्भ हुआ था। |
- इन्हें भी देखें: पंचांग, राष्ट्रीय शाके एवं हिजरी संवत
शास्त्रों व शिलालेखों में उल्लेख
'विक्रम संवत' के उद्भव एवं प्रयोग के विषय में कुछ कहना कठिन है। यही बात 'शक संवत' के विषय में भी है। किसी विक्रमादित्य राजा के विषय में, जो ई. पू. 57 में था, सन्देह प्रकट किए गए हैं। इस संवत का आरम्भ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से (नवम्बर, ई. पू. 58) और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (अप्रैल, ई. पू. 58) से माना जाता है। बीता हुआ विक्रम वर्ष ईस्वी सन+57 के बराबर है। कुछ आरम्भिक शिलालेखों में ये वर्ष कृत के नाम से आये हैं[1]।विद्वान मतभेद
विक्रम संवत के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन 78 और कुछ लोग ईसवी सन 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। फ़ारसी ग्रंथ 'कलितौ दिमनः' में पंचतंत्र का एक पद्य 'शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श' का भाव उद्धृत है। विद्वानों ने सामान्यतः 'कृत संवत' को 'विक्रम संवत' का पूर्ववर्ती माना है। किन्तु 'कृत' शब्द के प्रयोग की व्याख्या सन्तोषजनक नहीं की जा सकी है। कुछ शिलालेखों में मावल-गण का संवत उल्लिखित है, जैसे- नरवर्मा का मन्दसौर शिलालेख। 'कृत' एवं 'मालव' संवत एक ही कहे गए हैं, क्योंकि दोनों पूर्वी राजस्थान एवं पश्चिमी मालवा में प्रयोग में लाये गये हैं। कृत के 282 एवं 295 वर्ष तो मिलते हैं, किन्तु मालव संवत के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं मिलते। यह भी सम्भव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया तो वह 'मालव-गणाम्नात' या 'मालव-गण-स्थिति' के नाम से पुकारा जाने लगा। किन्तु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले विक्रम संवत की ओर ही संकेत करते हैं, तो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ वर्षों तक प्रयोग में आते रहे, क्योंकि हमें 480 कृत वर्ष एवं 461 मालव वर्ष प्राप्त होते हैं।यह मानना कठिन है कि कृत संवत का प्रयोग कृतयुग के आरम्भ से हुआ। यह सम्भव है कि 'कृत' का वही अर्थ है जो 'सिद्ध' का है, जैसे- 'कृतान्त' का अर्थ है 'सिद्धान्त' और यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। 8वीं एवं 9वीं शती से विक्रम संवत का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है। संस्कृत के ज्योति:शास्त्रीय ग्रंथों में यह शक संवत से भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए यह सामान्यतः केवल संवत नाम से प्रयोग किया गया है। 'चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ' के 'वेडरावे शिलालेख' से पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर 'चालुक्य विक्रम संवत' चलाया, जिसका प्रथम वर्ष था - 1076-77 ई.।
नव संवत्सर
'विक्रम संवत 2072' का शुभारम्भ 21 मार्च, सन् 2015 को चैत्र मास के शुक्ल पक्ष, प्रतिपदा से है। पुराणों के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण किया था, इसलिए इस पावन तिथि को नव संवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है, क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव शृंगार किया जाता है। लोग नववर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन वर्ष का संवत्सर फल सुनते हैं।शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर ओम भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि च इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाएं।' नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।
राष्ट्रीय संवत
भारतवर्ष में इस समय देशी विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है, किंतु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत यदि कोई है तो वह 'विक्रम संवत' ही है। आज से लगभग 2,068 वर्ष यानी 57 ईसा पूर्व में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से विक्रम संवत का भी आरम्भ हुआ था।नये संवत की शुरुआत
प्राचीन काल में नया संवत चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी लोगों को ऋण-मुक्त करना आवश्यक होता था। राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से कर्ज़ चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया संवत चलाया। भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीन काल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक 'नवरात्र' का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्य तिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है।दरअसल, भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी, जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धंवंतरि जैसे महान वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे।
राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान
पिछले दो हज़ार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक द्दष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत के अनुसार नहीं। विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं।टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नन्द-यूप शिलालेख में 282 कृत वर्ष; तीन यूपों के मौखरी शिलालेखों में 295 कृत वर्ष; विजयगढ़ स्तम्भ-अभिलेख में 428; मन्दसौर में 461 तथा गदाधर में 480
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Wednesday, March 18, 2015
शहीद भगत सिंह पर देश को नाज है मगर लाज नहीं
- जिन्हे नाज है हिन्द पे वे कहाँ है? शहीद भगत सिंह साहेब आप सुन रहे हैं?
आप जहाँ जेल में अपने मित्र बटुकेश्वर दत्त के साथ बंद थे, जहाँ 14 क्रांतिकारियों को फाँसी पर लटकाया गया था, उस शहीद-स्थल के दीवारों पर दिल्ली के लोग पेशाब करते हैं !SBS Hindi added 2 new photos.आखिर कहाँ खो गया दिल्ली का वो पुराना जेल जहाँ हमारे शहीद हँसते हँसते फाँसी चढ़ गए थे ?भारत की राजधानी दिल्ली के ह्रदय में बसा वो एक स्थान, जहाँ स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में १३ क्रांतिकारियों को फांसी पर लटकाया गया था, उसके तो "पौराणिक-नामों-निशान" लोगों ने, अधिकारियों ने मिटा दीये --, महज़ एक पत्थर रखकर और उसे चाहर दिवारी से घेर कर; परन्तु आपको सुनकर बेहद अफ़सोस होगा की दिल्ली के लोग भी "उस शहीद-स्थल की दीवारों पर शाम के अंधेरों में गन्दा करने में पीछे नहीं रहते। अपनी कहानी को आगे बढ़ने के लिए हमने बात की है श्री विजय जयाड़ा से जो दिल्ली सरकार में एक वरिष्ठ शिक्षक भी हैं और दिल्ली स्थित सभी पुरातत्वों, ऐतिहासिक स्थानों, भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से जुडी सभी वस्तुओं पर काफी दिनों से शोध कर रहे हैं। प्रस्तुति कुमुद मिरानी, कॉन्सेप्ट शिवनाथ झा .
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- Ashish Jha इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है..ये लोग किस जाति से थे इसका उल्लेख कीजिए ना..गुजरात से इनका क्या संबंध था ये बताइये ना...अंग्रेज के एजेंट थे या पाकिस्तान के एजेंट थे इसका खुलासा कीजिए..जो देश गांधी का नहीं हुआ वो इनका होगा..सोचना ही मूर्खता था..बेकार फालतू में इन लोगों ने आत्महत्या की, क्या जरुरत थी मरने की। दो चार ले दे कर सांसद बन जाते।
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- Bhairab Lal Das बटुकेश्वर दत्त दिल्ली में ऐसे ही घूम रहे थे पुरानी जगहों को खोज रहे थे। एक मैदान में कुछ बच्चे गेंद खेल रहे थे। बटुकेश्वर दत्त ने अपने साथ व्यक्ति को कहा कि यहां ही कहीं दिल्ली जेल थी और आगे आनेवाली पीढ़ी इसे देखने से वंचित हो जाएगी। शिवनाथ जी को और रिसर्च करने की आवश्यकता है।
Anami Sharan Babal भारतीय सत्ता जिसको न पानी दे तो लोग क्या करेंगे मूत करके ही तो बेचारे नमन करेगे हम भारतीय अपने शहीदों को कितना माने कोई एक दो तीन हो तब ना शहीद हो तो कोई श्री मती गांधी की तरह या राजीव गांधी की तरह तब न पूरा देश माने कि क्या हुआ
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पूज्य हुज़ूर का निर्देश
कल 8-1-22 की शाम को खेतों के बाद जब Gracious Huzur, गाड़ी में बैठ कर performance statistics देख रहे थे, तो फरमाया कि maximum attendance सा...
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