Friday, December 18, 2015

दक्षिण की मीरा – आंडाल




दक्षिण की मीरा - आंडाल


दक्षिण भारत में श्री विल्लीपुत्तूर नामक एक प्रसिद्ध तीर्थ है। वह राज्य के रामनाद जिले में है। वहां विष्णु का एक पुराना मंदिर है, लेकिन लोग उस मंदिर को ही देखने के लिए वहां नहीं जाते हैं। श्री विल्लीपुत्तूर का नाम इसलिए प्रसिद्ध हुआ है कि वह दक्षिण की एक महान भक्त-कवयित्री आंडाल की जन्मभूमि है। उत्तर भारत में जिस तरह मीरा के पदों का प्रचार है, उसी तरह दक्षिण भारत में आंडाल के पद घर-घर गाये जाते हैं दक्षिण के हर विष्णु मंदिर में उसकी मूर्ति प्रतिष्ठित है और लोग श्रद्धा से उसकी पूजा करते हैं।

पुराने समय में श्री विल्लीपुत्तुर के आसपास का प्रदेश जंगलों में घिरा था। वहां पहले आदिवासी लोग रहा करते थे। उन आदिवासियों में 'मल्लि' नाम की कोई नामी महिला हुई थी, जिसके कारण वह इलाका 'मल्लिनाहु' कहलाता था। मल्लि के लड़के का नाम 'विल्ली' था। वह भी बड़ा प्रभावशाली निकला। उसने एक बार आसपास के जंगलों को साफ करना शुरू किया। जंगल साफ करते-करते अचानक उसे एक बहुत ही पुराना विष्णु मंदिर मिला। उसने उस मंदिर का उद्धार किया ओर उसके चारों ओर एक गांव बसाया। विल्ली के नाम पर ही यह गांव 'श्रीविल्लीपुत्तुर' कहलाया। यह अब दक्षिण का एक महान पुण्यक्षेत्र बन गया है।

आज से कोई तेरह सौ साल पहले श्रीविल्लीपुत्तूर में एक आलवार भक्त रहते थे। उनका असली नाम वैसे विष्णुचित्त था, किन्तु लोग उनको पेरियालवार कहते थे। आलवार दक्षिण के प्राचीन वैष्णव भक्तों को कहते हैं,

जिनकी संख्या बारह है। बारहों आलवारों में पेरियालवार का बहुत ऊंचा स्थान है। पेरियालवार शब्द का अर्थ ही होता है—महान आलवार। आंडाल उन्हीं की पालिता कन्या थी।

पेरियालवार बड़ें ही ज्ञानी और भावुक भक्त थे। अपनी कुटिया के आगे उन्होंने एक फुलवारी लगा रखी थी। रंग-बिरंगे फूल उसमें खिला करते थे। फूलों को खिलते देखकर उनको लगता, जैसे भगवान ही प्रसन्न होकर मुस्करा रहे हैं। रोज बड़े तड़के वे उठते और फुलवारी में जाकर ताजे फूल तोड़ते।

भगवान के लिए उन फूलों को माला वह अपने-आप तैयार करते थे। भगवान की पूज-अर्चना करना और उनकी महिमा गाना ही उनका रोज का काम था।

सदा की तरह एक दिन पेरियालवार बड़े सवेरे उठे। फुलवारी में उस दिन बहुत सारे फूल खिले थे। सुबह की ठंडी हवा और फूलों की मधुर गंध ने उनके मन को पुलकित कर दिया था। फूल तोड़ते समय वह भावों में डूबकर भगवान की महिमा का गान करने लगे। फूलों की डलिया भर चली थी कि अचानक उन्होंने एक तुलसी के पौधे के नीचे किसी चीज को हिलते-डुलते देखा। उनको बड़ा कौतूहल हुआ। पास जाने पर उन्होंने देखा तो उनके अचरज का ठिकाना न रहा। वहां एक नवजात बच्ची पड़ी हुई थी। फूल की तरह उस कोमल बच्ची को उन्होंने पुलकित हो तुरंत गोद में उठा लिया।

वह भागे-भागे मंदिर में गये और भगवान की मूर्ति के सामने उस बच्ची

को रखकर कहने लगे, "हे प्रभो, मैं आज एक अनूठा फूल तुम्हारे लिए लाया हूं। यह बच्ची तुमने दी है, तुमको ही भेंट करता हूं।"

कहते हैं, पेरियलवार को उसी समय आकाशवाणी सुनाई दी, "इसका नाम गोदा रखना और अपनी बेटी की तरह इसका पालन-पोषण करना।"

तमिल में 'गोदा' शब्द का अर्थ होता है-'फूलों की माला-सी सुन्दर'। गोदा वास्तव में वैसी ही सुन्दर थी।

भक्तराज की पुत्री होने के कारण गोदा के मन पर भक्ति के संस्कार शुरू से ही जमते गये। फूल तोड़ना, माला गूंथना, पूजा की सामग्री जुटाना आदि सब कामों में वह अपने पिता की मदद करती। पिता जब गाते, तब वह भी उनके साथ गाती। भगवान की आराधना के सिवा बाप-बेटी को और कोई काम नहीं था। इस सबका असर धीरे-धीरे गोदा पर यह पड़ा कि उसने मान लिया, उसका जीवन केवल भगवान के लिए है। वह दिन-रात भगवान के ही बारे में सोचा करती। उनको कौन-सा फूल पसन्द आयेगा, कैसी माला पहनकर वे प्रसन्न होंगे—इसी तरह की बातों पर वह घंटों विचार किया करती थी।

एक दिन मंदिर के पुजारी ने पेरियालवार से कहा, "आपको माला भगवान की पूजा के योग्य नहीं है, क्योंकि किसी ने उसे पहनकर अपवित्र कर दिया है।" पेरियालवार को इस पर सहसा विश्वास नहीं हुआ, लेकिन उन्होंने कुछ कहा नहीं। ताजे फूलों की दूसरी माला तैयार की और भगवान को चढ़ाई। लेकिन दूसरे दिन भी वही बात हुई। जो माला वह घर से पूजा के लिए ले गये थे, उसे लेने से पुजारी ने फिर इन्कार कर दिया। यही नहीं, उसने माला में से एक बाल निकालकर दिखाते हुए कहा, "आप स्वयं देख लीजिये। इस माला को किसी ने पहना है। कई फूलों की पंखुड़ियां भी मसली हुई-सी लगती हैं।"

पेरियालवार यह सुनकर चिंता में पड़ गये। भगवान को चढ़ाई जानेवाली माला कौन पहन सकता है! माला तो गोदा तैयार करती है। वह पहन लेगी, ऐसा सोच भी नहीं जा सकता। फिर बात क्या है? प्रभु की यह कैसी माया है! इस तरह के विचारों में काफी देर तक खोये रहे।

दूसरे दिन पेरियालवर जरा पहले ही नह-धोकर मंदिर जाने के लिए तैयार हो गये। गोदा कुटिया के अन्दर थी। उन्होंने आवाज दी, "बेटी, माला तैयार हो गई क्या?"

लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला। पेरियालवार ने झांककर देखा तो स्तब्ध रह गये। पुजारी के कथन की सचाई उनकी आंखों के आगे थी। गोदा शीशे के सामने बैठी थी। भगवान के लिए जो माला उसने तैयार की थी, वह उसके गले में झूल रही थीं वह उस माला को देखती, उसकी शोभा को निहारती, धीरे-धीरे कुछ बुदबुदाती जा रही थी।

पेरियालवार ने झुँझलाकर कहा, "अरी नासमझ! तू यह क्या कर रही है?"

गोदा का ध्यान भंग हुआ। वह चौंकी, फिर पिता को देखकर तुरन्त संभल गई। गले से माला निकालते हुए वह बोली, "कुछ नहीं पिताजी, देखिये, आज मैंने कितनी सुन्दर माला बनाई है!"

भोली गोदा का यह उत्तर पिता के नहीं भाया। जीवन में पहली और शायद आखिरी बार उन्हें क्राध आया था। वह गरज उठे, "तूने सर्वनाश कर डाला! भगवान की माला पहनकर अपवित्र कर दी। ऐसी मूर्खता आखिर तूने कैसे की?"

गोदा इतनी भोली थी कि पिता के क्रोध से डरने के बदले खिल-खिलाकर हंस पड़ी। बोली, "पिताजी, आप इतने नाराज क्यों होते हैं? आज यह कोई नई बात तो नहीं है। मैं तो रोज ही माला गूंथती हूं और पहनकर देख लेती हूं कि अच्छी बनी या नहीं। जो माला मुझे ही नहीं जंचेगी, वह भला उन्हें कैसे पसन्द आयेगी?"

पेरियालवार ने गोदा का यह जवाब सुनकर अपना सिर पीट लिया—"इस मूरख से बात करना व्यर्थ है। भगवान मुझे कभी क्षमा नहीं करेंगे। महीनों से मैं अपवित्र माला ही उनको चढ़ाता रहा हूं। आखिर दोष मेरा ही है। प्रभु के लिए माला तो मुझे स्वयं अपने हाथों से गूंथनी थी!" इतना कहते-कहते वह बहुत अशान्त हो उठे और जल्दी-जल्दी दूसरी माला गूंथने लगे, क्योंकि पूजा का समय पास ही था।

पिता का ऐसा रंग-ढंग देखकर गोदा को लगा कि कोई बड़ी बात हो गई है। वह पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ी-की-खड़ी रह गई। उसके हाथ से वह माला छूटकर नीचे जा गिरी, जिसे उसने बड़े जतन से तैयार किया था। इतनी सुन्दर माला इससे पहले वह कभी नहीं गूंथ पाई थी। भगवान इसे पाकर कितने प्रसन्न होंगे, यही सोचकर वह मगन थी, लेकिन यह क्या हो गया अचानक! उसके माला पहन लेने मात्र से भगवान क्यों नाराज होने लगे! यह सोचते सोचते वह विचलित हो उठी। इसी बीच पेरियालवार ने दूसरी माला तैयार कर ली। वह गोदा से कुछ बोले बिना ही मंदिर चले गये। उसको साथ चलने के लिए भी नहीं कहा। यह देखकर उसकी आंखों में आंसू उमड़ आये। बड़ी देर तक वह सामने पड़ी हुई माला को अपने आंसुओं से भिगोती रही।

पेरियालवार दिन-भर बहुत ही उदास रहे। कुछ खाया-पिया भी नहीं। रात में बड़ी देर तक उनको नींद नहीं आई। आधी रात बीते जब उनकी आंख लगी तो उन्होंने एक सपना देखा। श्रीरंगम के शेषशायी भगवान रंगनाथ कह रहे थे, "भक्तराज, व्यर्थ क्यों दुखी होते हो! तुमने कोई अपराध नहीं किया है। मैं गोदा के प्रेम के वश में हूं। उसकी पहनी हुई माला मुझे बहुत प्रिय है। आगे से मुझे वही भेंट करना!"

विष्णुभक्त पेरियालवार मारे आनन्द के गदगद् हो उठे। भगवान के चरणों में गिरने को उन्होंने जो चेष्टा की, तो सहसा उनकी आंख खुल गई। वह हड़बड़ाकर उठ बैठे। उन्होंने उसी समय गोदा की ओर देखा। वह एक कोने में चटाई पर पड़ी सो रही थी। चेहरा देखने से ऐसा लगता था, मानो वह काफी रात गये तक जागती और आंखू बहाती रही है। पेरियालवार दीपक के मंद प्रकाश में एकटक उसको देखते रहे। उन्हें सहसा ख्याल आया कि इसने भी आज दिन-भर कुछ खाया-पिया नहीं होगा। स्नेह और करुणा का सागर उनके हृदय में लहराने लगा। तुरंत उन्होंने गोदा को जगाया और आनंद के आंसू बरसाते हुए बोले, "बेटी, तू धन्य है! तेरे कारण आज मैं भी धन्य हो गया। अभी स्वयं भगवान ने मुझे दर्शन दिये हैं। अब मैं जान पाया कि तूने उन्हें अपने प्रेम के वश में कर लिया है। गोदा की जगह आज से मैं तुझे आंडाल कहूंगा।"

बस, गोदा उसी समय से आंडाल के नाम से प्रसिद्ध हुई। 'आंडाल' शब्द का अर्थ होता है—'अपने प्रेम से दूसरे को वश में करनेवाली'।

संयोग की बात कि उसी रात भगवान ने मंदिर के पुजारी को भी सपने में आदेश दिया कि आगे से गोदा की पहनी हुई माला को लेने से इन्कार न करे।

आंडाल अब सयानी हो गई। भगवान के प्रति उसका प्रेम-भाव इतना गहरा हो गया था कि वह कुमारी कन्या की तरह भगवान के साथ अपने ब्याह की कल्पना करने लगी। वह रहती थी श्रीविल्लीपुत्तूर में, लेकिन उसका मन सदा गोकुल की गलियों और वृन्दावन के कुंजों में विहार करता था। वह सोचा करती कि कृष्ण ही मेरे दूल्हा हैं और उन्हीं के साथ मेरा ब्याह होगा। भावविभोर होकर वह कृष्ण की लीलाओं का गान करने लगती। उस समय उसके मुंह से अपने-आप नये-नये पद निकलने लगते। ये मधुर पद ही आगे 'तिरुप्पावै' और 'नाच्चियार तिरुमोलि' के पद कहलाये।

एक रात आंडाल ने सपना देखा कि भगवान कृष्ण के साथ उसके ब्याह का समय समीप आ गया है। धूमधाम से उसके विवाह की तैयारियां हो रही हैं और मण्डप सजाया जा रहा है। सवेरे जागने पर उसने यह बात अपनी सखियों से कही। विवाह के अवसर पर जो प्रथाएं उन दिनों प्रचलित थीं, उन पर कई मधुर पर रच डाले। आज भी तामिलनाडु में विवाह के मंगल अवसर पर वे पद गाये जाते हैं।

पेरियालवार को अब आंडाल के विवाह की चिंता सताने लगी। एक रात भगवान ने फिर स्वप्न में उन्हें दर्शन दिये और कहा, "भक्तराज, आंडाल अब विवाह-योग्य हो गई है। उसको लेकर श्रीरंगम के मन्दिर में आओ। मैं उसका पाणिग्रहण करूंगा।"

पेरियालवार अपने आराध्य का आदेश कैसे टाल सकते थे! भगवान की धरोहर भगवान को सौंप दी जाय, यह उनके लिए बड़ी प्रसन्नता की बात थी। उन्होंने यात्रा की तैयारियां शुरू कर दीं।

मदुरै में उन दिनों पांड्य राजा राज करते थे। एक रात उन्हें भगवान ने स्वप्न में आदेश दिया कि वह आंडाल को श्रीविल्लीपुत्तूर से श्रीरंग ले आयें। इसी तरह का स्वप्न श्रीरंगम के मंदिर के पुजारियों को भी आया फिर क्या था, सब-से-सब श्रीविल्लीपुत्तूर आ धमकें विष्णुप्रिया आंडाल चरणों की धूल सबने अपने सिर पर ली और राजसी धूमधाम से उसकी सवारी निकली। वह सजी-सजाई दुलहिन की भांति डोली में बैठी थी। पेरियालवार एक सजे हुए हाथी पर बैठे भगवान की महिमा गाते जा रहे थे। आगे-पीछे रथों, हाथियों, घोड़ों और पैदल सैनिकों की लंबी कतारें थीं। तरह-तरह के बाजे बज रहे थे। दसों दिशाओं से लोगों की भीड़ उमड़ रही थी। रास्तों के किनारे लोग छतों पर से फूलों की वर्षा कर रहे थे। ऐसा लगता था, मानो कोई राजकुमारी अपने पति के देश जा रही हो।

मीलों की यात्रा करके वह जुलूस श्रीरंगम पहुंचा। कावेरी के किनारे पर स्थित भगवान रंगनाथ के मंदिर के सामने जाकर वह रुका। आंडाल डोली से उतरी। मंदिर के गर्भ-गृह में उसने प्रवेश किया। शेषशायी भगवान रंगनाथ की मूर्ति को देखते ही वह रोमांचित हो उठी। धीरे-धीरे वह आगे बढ़ी और भगवान के चरणों में बैठ गई। लेकिन यह क्या! लोगों ने दूसरे ही क्षण चकित होकर देखा कि आंडाल वहां नहीं है। वह सबके देखते-देखते अदृश्य हो गई। भगवान की मूर्ति में समा गई।

कहते हैं मीराबाई भी इसी तरह भगवान की मूर्ति में समा गई थीं। भक्ति-भाव की यह चरम सीमा है, जब भगवान और भक्त एकाकार हो जाते हैं।

पेरियालवार का हृदय इस घटना से व्याकुल हो उठा। कुछ भी हो, आखिर उन्होंने आंडाल को अपनी बेटी की तरह पाला था। वह शोक के महासागर में डूब गये। उन्होंने अपने-आपको संभाला और सब भगवान की लीला है ऐसा समझकर संतोष किया।

कहते हैं, उस अवसर पर उन्हें यह आकाशवाणी सुनाई दी थी, "भक्तराज, तुमने आंडाल को नहीं पहचाना। उसके रूप में तो स्वयं भूदेवी ने जन्म लिया था। तुम व्यर्थ क्यों दु:खी होते हो! मेरी प्रिया आंडाल मुझसे आ मिली है, इससे तो तुमको प्रसन्न होना चाहिए। तुम भी अब जल्दी ही मुझसे आ मिलोगे।"

आंडाल के कारण श्रीविल्लीपुत्तूर की महिमा बहुत बढ़ गई। वहां हर साल रंगनाथ की (आंडाल) और रंगनाथ (भगवान विष्णु) का विवाहोत्सव आज भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

रंगनाथ के साथ ही रंगनायकी के रूप में आज आंडाल की पूजा दक्षिण में सब जगह होती है।

दक्षिण के हर विष्णु-मंदिर में उसकी प्रतिमा मिलती है। वहां ऐसा घर शायद ही मिलेगा, जिसकी दीवार पर उसके चित्र न हों। 'तिरुप्पावै' और 'शूडिकोडुत्त नाच्चियार तिरुमोलि' के मधुर पदो के कारण तो वह अमर रहेगी। 'गोदा' का दूसरा अर्थ 'वाणी की देवी' करें, तो वह भी उस पर ठीक ही उतरेगा।

उत्तर भारत के चैतन्य, विद्यापति, सूर, तुलसी, कबीर और मीरा से भी सैकड़ों साल पहले दक्षिण में कई महान् भक्त पैदा हुए। उन भक्तों में शैव भी थे और वैष्णव भी। शिव के भक्त नायन्मार नाम से प्रसिद्ध हुए। भक्ति-भावना में बेसूध होकर उन भक्तों ने बहुत सारे मूल्यवान प्राचीन भक्ति-साहित्य इन्हीं नायन्मार और आलवार भक्तों की देन है।

आलवारों में आंडाल की लोकप्रियता सबसे अधिक है। उसके रचे पद 'नालायिर दिव्य प्रबंधम्' के पहले भाग में मिलते हैं। यह उस महान ग्रंथ का नाम है, जिसमें बारहों आलवारों के पदों का संग्रह है। तामिलनाडु में यह पवित्र ग्रंथ दूसरे वेद के समान पूजित है। ग्रंथ के चार भाग हैं। हर भाग में लगभग एक हजार पद हैं। पदों की संख्या चार हजार होने के कारण ही इसका नाम 'नालायिर' (चार हजार) पड़ा है।

आंडाल ने कुल मिलाकर १८३ पद रचे। पहले के तीस पद 'तिरुप्पवै' के पद कहलाते हैं और बाकी १५३ पद 'शुडिकोडुत्त नाच्चियार तिरुमोलि' के।

तामिलनाडु में मार्गशीर्ष (अगहन) मास का विशेष महत्व है। यह महीना वहां 'तिरुप्पावै' का महीना माना जाता है।'तिरुप्पावै' शब्द 'तिरु' और 'पावै' शब्दों के मिलने से बना है। तमिल में 'तिरु' का अर्थ 'श्री' होता है और 'पावै' का अर्थ है 'व्रत' या 'त्योहार'। अत: 'तिरुप्पावै' को हम 'श्रीव्रत' भी कह सकते हैं। मार्गशीर्ष महीने में यह त्योहार हर साल बड़े उत्साह से मनाया जाता है। यह त्योहार खासकर महिलाओं के लिए है। विवाहित स्त्रियां सुख-सुहाग के लिए और कुमारियाँ मनचाहे वर के लिए इस व्रत को रखती हैं। तड़के उठकर वे स्नान के लिए जाती हैं और 'तिरुप्पावै' के पद गाती हैं। जगह-जगह पर कथाएं होती हैं। भगवान की महिमा के साथ ही आंडाल के यश का गान होता है।

तिरुप्पावै त्योहार से सम्बन्धित होने के कारण आँडाल के तीस पदों को 'तिरुप्पावै' कहा जाता है। भागवत में गोपिकाओं के एक व्रत का वर्णन है। शायद आँडाल को उसी से प्रेरणा मिली। गोपिकाओं के जीवन से ही मिलता-जुलता उसका अपना जीवन था। गोपिकाओं की तरह ही उसके जीवन का एक मात्र उद्देश्य था अपने प्रियतम कृष्ण को प्रसन्न रखना।

'तिरुप्पावै' के पद 'प्रभाती' या 'जागरण-गीत' जैसे हैं। उनमें कुछ सखियों द्वारा दूसरी सखियों, कृष्ण और नन्दगोप आदि को जगाने का वर्णन है।

कहते हैं, एक बार गोकुल की गोपिकाओं को कृष्ण से मिलने की मनाही कर दी गई। गाँव के बड़े-बड़े को कृष्ण की हरकतें पसन्द नहीं थीं। लेकिन उन्हीं दिनों अचानक अकाल पड़ा। पानपी न पड़ने से हरियाली सूख गई। पशु मरने लगे। वर्षा बुलाने को यह जरूरी हो गया कि गोकुल के किशोर-किशारियों का दल 'कात्यायनी व्रत' का उत्सव मनाये। कृष्ण तो बड़े-बूढ़ों की बात सुनने वाले नहीं थे, इसलिए उनको मनाने के लिए गोपिकाओं को कहा गया। इस तरह गोपिकाओं को कृष्ण से मिलने की छूट देनी ही पड़ी। वे बड़े उछाह से एक-एक कर सखियों को जगाती हुई कृष्ण के पास पहुंची और उनको उत्सव की सफलता के लिए राजी किया। आंडाल के 'तिरुप्पावै' के पदों की रचना का मूल-आधार यही पौराणिक कथा है।

'तिरुप्पावै' के सभी पद बड़े सरल, मधुर और गाने योग्य हैं। वे मन को रसमय कर देते हैं। केवल भारत में ही नहीं, बल्कि दूर-दूर के देशों मे भी इनका प्रचार है। दो हजार मील दूर स्याह देश में भी 'तिरुप्पावै' के पद गाये जाते हैं।

'शूडिकोडुत्त' नाच्चियार तिरुमोलि' आँडाल के १५३ फुटकर पदों का संग्रह है।'शूडिकोडुत्त नाच्चियार' का अर्थ है, 'पहले माला पहनने वाली रमणी' और 'तिरुमोलि' का अर्थ है 'दिव्य वाणी'। आंडाल भगवान से पहले स्वयं माला पहन लेती थी, उसी का संकेत यहाँ पर है। आंडाल की यह दिव्य वाणी सचमुच अनुपम है। मीरा की भाँति वह भी कृष्ण को अपना पति मानती थी। उसके मन में जब भी जो भाव उठते थे, उन्हें वह पदों का रूप दे डालती थी। किसी पद में प्रेम की प्रबलता है तो किसी में विरह की व्याकुलत है। किसी पद में वह कृष्ण के उलाहना देती है तो किसी में मिलन का विश्वास प्रकट करती है।

आँडाल और मीरा दोनों ही कृष्ण के प्रेम-रस में सराबोर थीं। दोनों ही कृष्ण को अपना प्रियतम मानती थी। दोनों उन्हीं की प्रेम-भावना में जीवनभर बेसूध रहीं। दोनों के ही मधुर पद जन-जन के कण्ड में बसे हुए हैं।

संबंधित कड़ियाँ

  1. हमारे संत महात्मा
    1. गुरू नानक
    2. नरसी महेता
    3. चैतन्य महाप्रभु
    4. दक्षिण की मीरा – आंडाल

बाहरी कडियाँ

No comments:

Post a Comment

_होली खेल है जाने सांवरिया_*.......

 *🌹रा धा स्व आ मी🌹* *_होली खेल है जाने सांवरिया_* *_सतगुरु से सर्व–रंग मिलाई_* फागुन मास रँगीला आया।  घर घर बाजे गाजे लाया।।  यह नरदेही फा...