Friday, January 20, 2023

राम_के_तुलसी 1/ देवेन्द्र सिकरवार

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वटवृक्ष के नीचे एक चबूतरे पर महात्मा अपनी मधुर वाणी से रामकथा गा रहे थे और नीचे बैठे श्रोता उस भावजगत में डूबकर आत्मविभोर थे। 


भीड़ में सबसे पीछे एक असाधारण व्यक्तित्व का पुरुष भी बैठा हुआ था जिसने अपना चेहरा अपनी पगड़ी से ढंका हुआ था लेकिन उसके व्यक्तित्व व विशाल नेत्रों में जाने क्या आकर्षण था कि महात्माजी की दृष्टि उसकी ओर बार-बार जा रही थी। 


सहसा उनकी दृष्टि अभी-अभी आये वृद्ध स्त्री पुरुषों की 

ओर पड़ी जो उन्हें दूर से ही प्रणाम कर वहीं खड़े हो गए। 


महात्मा ने उन्हें इशारे से पास बुलाया। 


"महाराज हम भील हैं, हम भी रामकथा सुनना चाहते हैं।"

 सकुचाते हुये उनके अगुआ वृद्ध ने कहा। 


"तो वहाँ क्यों खड़े हो? समीप आओ वत्स, यहाँ से कथा

 अच्छे से सुनाई देगी।"- महात्मा ने उन्हें आमंत्रित किया। 


सहसा भीड़ में भिनभिनाहट शुरू हो गयी। 


"क्या बात है?" महात्मा ने पूछा


"महाराज जी, यह कोल भील क्या जानें कथा का मर्म? 

अभी कल शराब पीकर उत्पात मचाएंगे और हमारा 

रस भंग होगा।" भीड़ के एक प्रौढ़ व्यक्ति ने कहा। 


लगभग सभी व्यक्ति उससे सहमत प्रतीत हो रहे थे। 


महात्मा के शांत चेहरे पर खिन्नता उभरी परंतु उन्होंने अपनी मधुर, शांत वाणी में कहा, "कैसी बातें करते हो वत्स? क्या भूल गए कि इन कोल भीलों के पूर्वजों ने मेरे राम का साथ उस समय दिया था जब वे भैया लखन लाल के साथ अकेले रह गए थे।" 


"वह ठीक है महाराज लेकिन ये यहाँ बैठेंगे तो यहाँ का वातावरण दूषित होगा और आपने भी तो रामचरित मानस में कोलों, चांडालों आदि को निकृष्ट बताया है।"


"संदर्भरहित व लोक प्रचलित मुहावरों के  आधार पर अनर्गल व्याख्या न करो पुत्र। मेरे राम जिनके साथ चौदह वर्ष रहे उन पुण्यात्माओं के वंशज हैं यह। इनको तो मैं अपने चाम के जूते भी पहनाऊँ तो भी कम हैं  क्योंकि मैं तो राम के दासों का दास हूं जबकि ये तो उनके सहयोगी रहे।" संत के स्वर में आवेश था। 


"अरे, छोड़ो मेरी बात को। कम से कम अपने राजा की ओर तो देखो कि किस तरह वह इन कोल भीलों को भाई की तरह मानता है। कम से कम उससे ही सीखो।" 


लेकिन भीड़ पर कोई असर नहीं हुआ और एक-एक करके लोग सरक गये सिर्फ पीछे वाला असाधारण व्यक्ति अपने स्थान पर विराजमान रहा। 


अप्रभावित संत ने भीलों को बिठाया और 

पुनः परिवेश में रामकथामृत बहने लगा। 


कथा समाप्त हुई। 


भीलों ने जंगली फल कथा में अर्पित किए और खड़े हो गए। 


"कुछ कहना चाहते हो?" 


अगुआ वृद्ध अचकचा गया। 


"जी..वो....हम आपके चरणस्पर्श करना चाहते हैं।" 

हिचकते हुये वृद्ध ने कहा। 


संत की आँखों में आँसू आ गए। 


"मेरे राम के मित्र थे आप लोग और मैं राम का दास। मैं आप लोगों से चरणस्पर्श नहीं करवा सकता...." रुंधे कंठ से संत ने कहा और भील वृद्ध को गले लगा लिया। 


भील अभिभूत थे। 


उनके जाने के बाद संत ने उस व्यक्ति को पास बुलाया। 


"बहुत दुःखी दिखते हो भैया।" 


आगुंतक की आंखें छलछला आईं और उसका सिर झुक गया। 


"मेरे देश पर मुगलों ने कब्जा कर लिया है और अब कोई आशा नहीं बची है।" आगुंतक ने निराश स्वर में कहा। 


"जब तक महाराणा प्रताप जीवित हैं तब तक निराशा की कोई बात नहीं।" संत के स्वर में गर्जना थी। 


आगन्तुक की आंखों से आँसू बह निकले... 

और वह संत के चरणों को पकड़कर बैठ गया। 


"मैं ही वह अभागा प्रताप ही हूँ, गोस्वामी जी।" 

आगुन्तक ने टूटे ढहते स्वर में मुँह पर से वस्त्र हटाते हुए कहा। 


उस युग के दो अप्रतिम व्यक्तित्व एक दूसरे के 

आमने सामने थे- 


'महाराणा प्रताप और गोस्वामी तुलसीदास"


एक राम का रक्त वंशज और एक राम का अनन्य भक्त। 


गोस्वामीजी की आंखों में आश्चर्य के भाव उभरे और 

कंधों से पकड़कर महाराणा को उठाया,


"ये कैसा अनर्थ करते हैं राणाजी? मेरे राम का रक्त जिसकी धमनियों में दौड़ रहा है उसे यह कातरता शोभा नहीं देती।" 


"पर मैं नितांत अकेला रह गया हूँ गोस्वामीजी।" 


"क्या मेरे राम वन में अकेले नहीं थे? पर क्या उन्होंने सीता मैया को ढूंढने से हार मान ली थी?" 


"तुम कहते हो कि अकेले हो तो राम की राह क्यों नहीं चलते?" 


महाराणा की आँखों में प्रश्न था..........????


"प्रभु राम ने रावण से युद्ध किसके साथ मिलकर किया था?"

 मुस्कुराते हुए तुलसी ने पूछा। 


"वानरों के साथ।" 


"तो पहचानिये अपने वानरों को, हनुमानों को। ये वनवासी भील आपके लिए वही वानर हैं।" ओजस्वी स्वर में उन्होंने कहा। 


"मैंने स्वयं देखा है कि इन कोल भीलों के मन में तुम्हारे लिए कितना सम्मान है। तुमने ही तो कहा था न कि राणी जाया भीली जाया भाई-भाई!" 


महाराणा की बुझी हुई आंखों में चमक उभरने लगी। 


"इन भीलों को, इन वनों को ही अपनी शक्ति बनाओ राणा जी। मेरे राम सब मंगल करेंगे।" 

संत ने आशीर्वाद दिया। 


हिंदू स्वतंत्रता का सूर्य अपने पूरे तेज से महाराणा प्रताप की आंखों में दमक उठा। 


देवेन्द्र सिकरवार 

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