Tuesday, May 31, 2011
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राजधानी में वेश्याओं की बस्ती प्रेमनगर from .'s blog
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vigyaan ke rochach samachaar nayee jaan kaari se bharapoor
akhilesh pal
·
Apr 5
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नया साल मुबारक हो, नए वर्ष कि शुभकामनाएं, Wish U and Yr family a very Happy New Year 2011. ऐसे न जान... more
Neeraj Kumar Chinmay
·
Jan 2
|
प्रेमनगर में सब कुछ है प्रेम के सिवा - अनामी शरण बबल
दिल्ली में गौतम बुद्ध रोड कहां पर है? इसका जवाब शायद ही कोई दे पाए, मगर दिल्ली में जीबीरोड कहां पर है ? इसका जबाव लगभग हर दिल्लीवासी के पास है। नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास जीबीरोड यानी गौतमबुद्धा रोड में जिस्म की मंडी है। जहां पर सरकारी और पुलिस के तमाम दावों के बावजूद पिछले कई सदियों से जिस्म का बाजार फल फूल रहा है। मगर दिल्ली के एक गांव में भी जिस्म का धंधा होता है। वेश्याओं के इस गांव या बस्ती के बारे में क्या आपको पता है? बाहरी दिल्ली के गांव रेवला खानपुर के पास प्रेमनगर एक ऐसा ही गांव है, जहां पर रोजाना शाम( वैसे यह मेला हर समय गुलजार होता है) ढलते ही यह बस्ती रंगीन हो जाती है। हालांकि पुलिस प्रशासन और कथित नेताओं द्वारा इसे उजाड़ने की यदा-कदा कोशिश भी होती रहती है, इसके बावजूद बदनाम प्रेमनगर की रंगीनी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। अलबत्ता, महंगाई और आधुनिकता की मार से प्रेमनगर में क्षणिक प्यार का धंधा उदास जरूर होता जा रहा है।
आज से करीब 14 साल पहले अपने दोस्त और बाहरी दिल्ली के सबसे मजबूत संपर्क सूत्रों में एक थान सिंह यादव के साथ इस प्रेमगनर बस्ती के भीतर जाने का मौका मिला। ढांसा रोड की तरफ से एक चाय की दुकान के बगल से निकल कर हमलोग बस्ती के भीतर दाखिल हुए। चाय की दुकान से ही एक बंदा हमारे साथ हो लिया। कुछ ही देर में हम उसके घर पर थे। उसने स्वीकार किया कि धंधा के नाम पर बस्ती में दो फाड़ हो चुका है। एक वर्ग इस पुश्तैनी धंधे को बरकरार रखना चाहता है, तो दूसरा वर्ग अब इस धंधे से बाहर निकलना चाहता है। हमलोग किसके घर में बैठे थे, इसका नाम तो अब मुझे याद नहीं है, मगर (सुविधा लिए उसका नाम राजू रख लेते हैं) राजू ने बताया प्रेमनगर में पिछले 300 से भी ज्यादा समय से हमारे पूर्वज रह रहे है। अपनी बहूओं से धंधा कराने के साथ ही कुंवारी बेटियों से भी धंधा कराने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता। आमतौर पर दिन में ज्यादातर मर्द खेती, मजदूरी या कोई भी काम से घर से बाहर निकल जाते है, तब यहां की औरते( लड़कियां भी) ग्राहक के आने पर निपट लेती है। इस मामले में पूरा लोकतंत्र है, कि एक मर्द(ग्राहक) द्वारा पसंद की गई वेश्या के अलावा और सारी धंधेवाली वहां से बिना कोई चूं-चपड़ किए फौरन चली जाती है। ग्राहक को लेकर घर में घुसता ही घर के और लोग दूसरे कमरे में या बाहर निकल जाते है। यानी घर में उसके परिजनों की मौजूदगी में ही धंधा होने के बावजूद ग्राहक को किसी प्रकार का कोई भय नहीं रहता है।
देखने में बेहद खूबसूरत करीब 30 साल की ( तीन बच्चों की मां) पानी लेकर आती है। एकदम सामान्य शिष्टाचार और एक अतिथि की तरह सत्कार कर रही धन्नो( नाम तो याद नहीं,मगर आसानी के लिए उसे धन्नो नाम मान लेते है) और उसके पति के अनुरोध पर हमलोग करीब एक घंटे तक वहां रहकर जानकारी लेते रहे। इस दौरान हमें विवश होकर राजू और धन्नों के यहां चाय पीनी पड़ी। राजू ने बताया कि रेवला खानपुर में कभी प्रेमबाबू नामक कोई ग्राम प्रधान हुआ करते थे, जिन्होंने इन कंजरों पर दया करके रेवला खानपुर ग्रामसभा की जमीन पर इन्हें आबाद कर दिया। ग्रामसभा की तरफ से पट्टा दिए जाने की वजह से यह बस्ती पुरी तरह वैधानिक और मान्य है। अपना पक्का मकान बना लेने वाले राजू से धंधे के विरोध के बाबत पूछे जाने पर वह कोई जवाब नहीं दे पाया। हालांकि उलने यह माना कि घर का खर्च चलाने में धन्नों की आय का भी एक बड़ा हिस्सा होता है। घर से बाहर निकलते समय थान सिंह ने धन्नों के छोटे बच्चे को एक सौ रूपए थमाया। रूपए को वापस करने के लिए धन्नो और राजू अड़ गए। खासकर धन्नो बोली, नहीं साब मुफ्त में तो हम एक पैसै नहीं लेते।
काफी देर तक ना नुकूर करने के बाद अंततः वे लोग किसी तरह नोट रखने को राजी हुए।
खासकर प्रेमनगर शाम को आबाद होता है, जब ढांसा रोड पर इस बस्ती के आस पास दर्जनों ट्रकों का रेला लग जाता है। देर रात तक बस्ती में देह का व्यापार चलता रहता है। करीब एक साल के बाद प्रेमनगर में फिर दोबारा आने का मौका मिला। 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के मतदान के दिन बाहरी दिल्ली का चक्कर काटते हुए हमारी गाड़ी रेवलाखानपुर गांव के आसपास थी। हमारे साथ हरीश लखेड़ा(अभी अमर उजाला में) और कांचन आजाद ( अब मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पीआरओ) साथ थे। एकाएक चुनाव के प्रति वेश्याओं की रूचि को जानने के लिए गाड़ी को प्रेमनगर की तरफ मोड़ दिया। हमारे साथ आए दोनों पत्रकार मित्रों के संकोच के बावजूद धड़धड़ाते हुए मै वहां पर जा पहुंचा, जहां पर सात-आठ वेश्याएं(महिलाएं) बैठी थी। मुझे देखते ही एक उम्रदराज महिला का चेहरा खिल उठा। मुझे संबोदित करती हुई एक ने कहा बहुत दिनों के बाद इधर कैसे आना हुआ ? मैं भी वहां पर बैठ सहज होने की कोशिश की। तभी महिला ने टोका ये सब बाबू (दूर कार से उतरकर हरीश और कांचन मेरा इंतजार कर रहे थे) भी क्या तुम्हारे साथ ही है ? एक दूसरी महिला ने चुटकी ली। आज तो तुम बाबू फौज के साथ आए हो। बात बदलते हुए मैंने कहा आज चुनाव है ना, इन बाबूओं को मतदान कहां कहां पर कैसे होता है, यहीं दिखाने निकला था। अपनी बात को जारी रखते हुए मैने सवाल किया क्या तुमलोग वोट डालकर आ गई ? मैने एकको टोका बड़ी मस्ती में बैठी हो, किसे वोट दी। मेरी बात सुनकर सारी महिलाएं (और लड़कियां भी) खिलखिला पड़ी। खिलखिलाते हुए किसी और ने टोका बड़ा चालू हो बाबू एक ही बार में सब जान लोगे या कुछ खर्चा-पानी भी करोगे। गलती का अहसास करने का नाटक करते हुए फट अपनी जेब से एक सौ रूपए का एक नोट निकालकर मैनें आगे कर दिया। नोट थामने से पहले उसने कहा बस्सस। मैने फौरन कहा, ये तो तुमलोग के चाय के लिए है, बाकी बाद में। मैंने उठने की चेष्टा की भी नहीं कि एक बहुत सुंदर सी महिला ने अपने शिशु को किसी और को थमाकर सामने के कमरे के दरवाजे पर जाकर खड़ी हो गयी। उधर जाने की बजाय मैं वहीं पर खड़ा होकर दोनों हाथ ऊपर करके अपने पूरे बदन को खोलने की कोशिश की। इस पर एक साथ कई महिलाएं एक साथ सित्कार सी उठी, हाय यहां पर जान क्यों मार रहे हो। बदन और खाट अंदर जाकर तोड़ो ना। फिर भी मैं वहीं पर खड़ा रहा और चुनाव की चर्चा करते हुए यह पूछा कि किसे वोट दी ? मेरे सवाल और मेरी मौजूदगी को बड़े अनमने तरीके से लेती हुई सबों ने जवाब देने की बजाय अपना मुंह बिदकाने लगी।
तभी मैने देखा कि 18-20 साल के दो लडके न जाने किधर से आए और इतनी सारी झुंड़ में बैठी महिलाओं की परवाह किए बगैर ही दनदनाते हुए कमरे में घुस गए। दरवाजे पर मेरे इंतजार में खड़ी वेश्या भी कमरे में चली गई। दरवाजा अभी बंद नहीं हुआ था, लिहाजा मैं फौरन कमरे की तरफ भागा तो एक साथ कई महिलाओं ने आपति की और जरा सख्त लहजे में अंदर जाने से रोका। सबों की अनसुनी करते हुए दूसरे ही पल मैं कमरे में था। जहां पर लड़कों से लेनदेन को लेकर मोलतोल हो रहा था। एकाएक कमरे में मुझे देखकर उसका लहजा बदल गया। उसने बाहर जाकर किसी और के लिए बात करने पर जोर देने लगी। फौरन 100 रूपए का नोट दिखाते हुए मैनें जिद की, जब मेरी बात हो गई है, तब दूसरे से मैं क्यों बात करूं ? सख्त लहजे में उसने कहा मैं किसी की रखैल नहीं हूं जो तुम भाव दिखा रहे हो। फिलहाल तेरी बारी खत्म अब बाहर जाओ। कमरे से बाहर निकलते ही तमाम वेश्याओं का चेहरा लाल था। बाबू धंधे का कोई लिहाज होता है। किसी एक ने मेरे उपर कटाक्ष किया क्या तुम्हें वोट डालना है? या किसे वोट डाली हो यह पूछते ही रहोगे ? इस पर सारी खिलखिला पड़ी। मैं भी ठिठाई से कहा यहां पर नहीं किसी को तीन चार घंटे के लिए भेजो गाड़ी में और पैसा बताओ ? इस पर सबों ने अपनी अंगूली को दांतों से दबाते हुए बोल पड़ी। हाय रे दईया पैसे वाला है। किसी ने पूरी सख्ती से कहा कोई और मेम को ले जाना अपने साथ गाड़ी में, प्रेमनगर की हम औरतें बाहर गाड़ी में नहीं जाती। इस बीच कहीं से चाय बनकर आ गई। फौरन नरम पड़ती हुई वेश्याओं ने चाय पीने का अनुरोध किया। मैनें नाराजगी दिखाते हुए फिर कभी आने का घिस्सा पीटा जवाब दोहराया। इस बीच अब तक खुला कमरा भीतर से बंद हो चुका था। लौटने के लिए मैं मुड़ा तो दो एक ने चीखकर कटाक्ष किया। वर्मा( साहब सिंह वर्मा) हो या सोलंकी( स्थानीय विधायक धर्मदेव सोलंकी) सब भीतर से खल्लास हैं ,बाबू। प्रेमनगर के बारे में दो तीन खबरों के छपने के बाद तब पॉयनीयर में (बाद में इंडियन एक्सप्रेस) में काम करने वाली ऐश्वर्या(अभी कहां पर है, इसका पता नही) ने मुझसे प्रेमनगर पर एक रिपोर्ट कराने का आग्रह किया। यह बात लगभग 2000 की थी। हमलोग एक बार फिर प्रेमनगर की उन्ही गलियों की ओर निकल पड़े। साथ में एक लड़की को लेकर इन गलियों में घूमते देख कर ज्यादातर वेश्याओं को बड़ी हैरानी हो रही थी। कई तरह की भद्दी और अश्लील टिप्पणियों से वे लोग हमें नवाजती रही। मैने कुछ उम्रदराज वेश्याओं को बताया कि ये एक एनजीओ से जुड़ी हैं और यहां पर वे आपलोग की सेहत और रहनसहन पर काम करने आई हैं। ये एक बड़ी अधिकारी है, और ये कई तरह से आपलोग को फायदा पहुंचाना चाहती है। मेरी बातों का इनपर कोई असर नहीं पड़ा। उल्टे टिप्पणी की कि ऐसी ऐसी बहुत सारी थूथनियों को मैं देख चूकी हूं। कईयों ने उपहास किया अपनी हेमा मालिनी को लेकर जल्दी यहां से फूटो अपना और मेरा समय बर्बाद ना करो। मैने बल देकर कहा कि चिंता ना करो हमलोग पूरा पैसा देकर जाएंगे। इतना सुनते ही कई वेश्याएं आग बबूला सी हो गई। एक ने कहा बाबू यहां पर रोजाना मेला लगता है, जहां पर तुम जैसे डेढ़ सौ बाबू आकर अपनी थैली दे जाते है। पैसे का रौब ना गांठों। यहां तो हमारे मूतने से भी पैसे की बारिश होती है, अभी तुम बच्चे हो। हमलोगों की आंखें नागीन सी होती है, एक बार देखने पर चेहरा नहीं भूलती। तुम तो कई बार शो रूम देखने यहां आ चुके हो। दम है तो कमरे में चलकर बाते कर। मैनें फौरन क्षमा मांगते हुए किसी तरह वेश्याओं को शांत करने की गुजारिश में लग गया। एक ने कहा कि हमलोगों को तुम जितना उल्लू समझते हो, उतना हम होती नहीं है। बड़े बड़े फन्ने तीसमार खांन यहां मेमना बनकर जाते है। हम ईमानदारी से केवल अपना पैसा लेती है। एक वेश्या ने जोड़ा, हम रंड़ियों का अपना कानून होता है, मगर तुम एय्याश मर्दो का तो कोई ईमान ही नहीं होता। एकाएक वेश्याओं के इस बौछार से मैं लगभग निरूतर सा हो गया। महिला पत्रकार को लेकर फौरन खिसकना ही उचित लगा। एक उम्रदराज वेश्या से बिनती करते हुए पूछा कि क्या इसे पूरे गांव में घूमा दूं? सहमति मिलने पर हमलोग प्रेमनगर की गलियों को देखना शुरू किया। अब हमलोगों ने फैसला किया कि किसी से उलझने या सवाल जवाब करने की बजाय केवल माहौल को देखकर ही हालात का जायजा लेना ज्यादा ठीक है। हमलोग एक गली में प्रवेश ही किए थे कि गली के अंतिम छोर पर दो लड़कियां और दो लड़कों के बीच पैसे को लेकर मोलतोल हो रही थी। 18-19 साल के लड़के 17-18 साल का मासूम सी लड़कियों को 20 रूपए देना चाह रहे थे, जबकि लड़कियां 30 रूपए की मांग पर अड़ी थी। लगता है जब बात नहीं बनी होगी तो एक लड़की बौखला सी गई और बोलती है. साले जेब में पैसे रखोगे नहीं और अपना मुंह लेकर सीधे चले आओगे अपनी अम्मां के पास आम चूसने। चल भाग वरना एक झापड़ दूंगी तो साले तेरा केला कटकर यहीं पर रह जाएगा। शर्म से पानी पाना से हो गए दोनों लड़के हमलोगों के मौके पर आने से पहले ही फूट गए। मैं बीच में ही बोल पड़ा, क्या हुआ इतना गरम क्यों हो। इस पर लगभग पूरी बदतमीजी से एक बोली मंगलाचरण की बेला है, तेरा हंटर गरम है तो चल वरना तू भी फूट। मैने बड़े प्यार से कहा कि चिंता ना कर तू हमलोग से बात तो कर तेरे को पैसे मिल जाएंगे। मैनें अपनी जेब से 50 रूपए का एक नोट निकाल कर आगे कर दिया। नोट को देखकर हुड़की देती हुई एक ने कहा सिर पर पटाखा बांधकर क्या हमें दिखाने आया है, जा मरा ना उसी से। मैने झिड़की देते हुए टोका इतनी गरम क्यों हो रही है, हम बात ही तो कर रहे है। गंदी सी गाली देती हुई एक ने कहा हम बात करने की नहीं नहाने की चीज है। कुंए में तैरने की हिम्मत है तो चल बात भी करेंगे और बर्दाश्त भी करेंगे। दूसरी ने अपने साथी को उलाहना दी, तू भी कहां फंस रही है साले के पास डंड़ा रहेगा तभी तो गिल्ली से खेलेगा। दोनों जोरदार ठहाका लगाती हुई जाने लगी। मैं भी बुरा सा मुंह बनाते हुए तल्ख टिप्पणी की, तू लोग भी कम बदतमीज नहीं है। यह सुनते ही वे दोनों फिर हमलोगों के पास लौट आई। वेश्या के घर में इज्जत की बात करने वाला तू पहला मर्द है। यहां पर आने वाला मर्द हमारी नहीं हमलोगों के हाथों अपनी इज्जत उतार कर जाता है। मैने बात को मोड़ते हुए कहा कि ये बहुत बड़ी अधिकारी है और तुमलोग की सेहत और हालात पर बातचीत करके सरकार से मदद दिलाना चाहती है। इस पर वे लोग एकाएक नाराज हो गई। बिफरते हुए एक ने कहा हमारी सेहत को क्या हुआ है। तू समझ रहा है कि हमें एड(एड़स) हो गया है। तुम्हें पता ही नहीं है बाबू हमें कोई क्या चूसेगा , चूस तो हमलोग लेती है मर्दो को। तपाक से मैनें जोड़ा अभी लगती तो एकदम बच्ची सी हो, मगर बड़ी खेली खाई सी बाते कर रही है। इस पर रूखे लहजे में एक ने कहा जाओ बाबू जाओ तेरे बस की ये सब नहीं है तू केवल झुनझुना है। उनलोगों की बाते सुनकर जब मैं खिलखिला पड़ा, तो एक ने एक्शन के साथ कहा कि मैं चौड़ा कर दूंगी न तो तू पूरा की पूरा भीतर समा जाएगा। गंदी गंदी गालियों के साथ वे दोनों पलक झपकते गली पार करके हमलोगों की नजरों से ओझल हो गई। पूरा मूड उखड़ने के बाद भी भरी दोपहरी में हमलोग दो चार गलियों में चक्कर काटते हुए प्रेमनगर से बाहर निकल गए।
दो साल पहले 2009 में एक बार फिर थान सिंह यादव के साथ मैं प्रेमनगर में था। करीब आठ साल के बाद यहां आने पर बहुत कुछ बदला बदला सा दिखा। ज्यादातर कच्चे मकान पक्के हो चुके थे। गलियों की रंगत भी बदल सी गयी थी। कई बार यहा आने के बाद भी यहां की घुमावदार गलियां मेरे लिए पहेली सी थी। गांव के मुहाने पर ही एक अधेड़ आदमी से मुलाकात हो गई। हमलोंगों ने यहां आने का मकसद बताते हुए किसी ऐसी महिला या लोगों से बात कराने का आग्रह किया, जिससे प्रेमनगर की पीड़ा को ठीक से सामने रखा जा सके। पत्रकार का परिचय देते हुए उसे भरोसे में लिया। हमने यह भी बता दिया कि इससे पहले भी कई बार आया हूं,मगर अपने परिचय को जाहिर नहीं किया था। अलबता पहले भी कई बार खबर छापने के बावजूद हमने हमेशा प्रेमनगर की पीड़ा को सनसनीखेज बनाने की बजाय इस अभिशाप की नियति को प्रस्तुत किया था।
यह हमारा संयोग था कि बुजुर्ग को मेरी बातों पर यकीन आ गया, और वह हमें अपने साथ लेकर घर आ गया। घर में दो अधेड़ औरतों के सिवा दो जवान विवाहिता थी। कई छोटे बच्चों वाले इस घर में उस समय कोई मर्द नहीं था। घर में सामान्य तौर तरीके से पानी के साथ हमारी अगवानी की गई। दूसरे कमरे में जाकर मर्द ने पता नहीं क्या कहा होगा। थोड़ी देर में चेहरे पर मुस्कान लिए चारों महिलाएं हमारे सामने आकर बैठ गई। इस बीच थान सिंह ने अपने साथ लाए बिस्कुट, च़ाकलेट और टाफी को आस पास खड़ें बच्चों के बीच बाट दिया। बच्चों के हाथों में ढेरो चीज देखकर एक ने जाकर गैस खोलते हुए चाय बनाने की घोषणा की। इस पर थान सिंह ने अपनी थैली से दो लिटर दूध की थैली निकालते हुए इसे ले जाने का आग्रह किया। इस पर शरमाती हुई चारों औरतों ने एक साथ कहा कि घर में तो दूध है। बाजी अपने हाथ में आते देखकर फिर थान सिंह ने एक महिला को अपने पास बुलाया और थैली से दो किलो चीनी के साथ चाय की 250 ग्राम का एक पैकेट और क्रीम बिस्कुट के कुछ पैकेट निकाल कर उसे थमा दिया। पास में खड़ी महिला इन सामानों को लेने से परहेज करती हुई शरमाती रही। सारी महिलाओं को यह सब एक अचंभा सा लग रहा था। एक ने शिकायती लहजे में कहा अजी सबकुछ तो आपलोगों ने लाया है तो फिर हमारी चाय क्या हुई। मैने कहा अरे घर तुम्हारा, किचेन से लेकर पानी, बर्तन, कप प्लेट से लेकर चाय बनाने और देने वाली तक तुम लोग हो तो चाय तो तुमलोग की ही हुई। अधेड़ महिला ने कहा बाबू तुमने तो हमलोगों को घर सा मान देकर तो एक तरीके से खरीद ही लिया। दूसरी अधेड़ महिला ने कहा बाबू उम्र पक गई. हमने सैकड़ों लोगों को देखा, मगर तुमलोग जैसा मान देने वाला कोई दूसरा नहीं देखा। यहां तो जल्दी से आकर फौरन भागने वाले मर्दो को ही देखते आ रहे है।
इस बीच हमने गौर किया कि बातचीत के दौरान ही घर में लाने वाले बुजुर्ग पता नहीं कब बगैर बताए घर से बाहर निकल गए। वजह पूछने पर एक अधेड़ ने बताया कि बातचीत में हमलोग को कोई दिक्कत ना हो इसी वजह से वे बाहर चले गए। हमने बुरा मानने का अभिनय करते हुए कहा कि यह तो गलत है मैंने तो उन्हें सबकुछ बता दिया था। खैर इस बीच चाय भी आ गई।
चारों ने लगभग अपने हथियार डालते हुए कहा अब जो पूछना है बाबू बात कर सकते हो। बातचीत का रूख बताते ही एक ने कहा बाबू तुम तो चले जाओगे, मगर हमें परिणाम भुगतना पड़ेगा। एक बार फिर इमोशनल ब्लैकमेलिंग करते हुए मैने साफ कहा कि यदि तुम्हें हमलोगों पर विश्वास नहीं है तो मैं भी बात करना नहीं चाहूंगा यह कहकर मैंने अपना बोरिया बिस्तर समेटना चालू कर दिया। जवान सी वेश्या तपाक से मेरे बगल में आकर बैठती हुई बोली अरे तुम तो नाराज ही हो गए। हमने तो केवल अपने मन का डर जाहिर किया था। शिकायती लहजे में मैंने भी तीर मारा कि जब मन में डर ही रह जाए तो फिर बात करने का क्या मतलब? इस पर दूसरी ने कहा बाबू हमलोगों को कोई खरीद नहीं सकता, मगर तुमने तो अपनी मीठी मीटी बातों में हमलोगों को खरीद ही लिया है। अब मन की सारी बाते बताऊंगी। फिर करीब एक घंटे तक अपने मन और अपनी जाति की नियति और सामाजिक पीड़ा को जाहिर करती रही।
बुजुर्ग सी महिला ने बताया कि हमारी जाति के मर्दो की कोई अहमियत नहीं होती। पहले तो केवल बेटियों से ही शादी से पहले तक धंधा कराने की परम्परा थी, मगर पिछले 50-60 साल से बहूओं से भी धंधा कराया जाने लगा। हमारे यहां औरतों के जीवन में माहवारी के साथ ही वेश्यावृति का धंधा चालू होता है, जो करीब 45 साल की उम्र तक यानी माहवारी खत्म(रजोनिवृति) तक चलता रहता है। इनका कहना है कि माहवारी चालू होते ही कन्या का धूमधाम से नथ उतारी जाती है। गुस्सा जाहिर करती हुई एक ने कहा कि नथ तो एक रस्म होता है, मगर अब तो पुलिस वाले ही हमारे यहां की कौमा्र्य्य को भंग करना अपनी शान मानते है। नाना प्रकार की दिक्कतों को रखते हुए सबों ने कहा कि शाम ढलते ही जो लोग यहां आने के लिए बेताब रहते हैं, वही लोग दिन के उजाले में हमें उजाड़ने घर से बाहर निकालने के लिए लोगों कों आंदोलित करते है। एक ने कहा कि सब कुछ गंवाकर भी इस लायक हमलोग नहीं होती कि बुढ़ापा चैन से कट सके। हमारे यहां के मर्द समाज में जलील होते रहते हैं। बच्चों को इस कदर अपमानित होना पड़ता है कि वे दूसरे बच्चों के कटाक्ष से बचने के लिए हमारे बच्चे स्कूल नहीं जाते और पढ़ाई में भी पीछे ही रह जाते है। नौकरी के नाम पर निठ्ठला घूमते रहना ही हमारे यहां के मर्दो की दिनचर्या होती है। अपनी घरवाली की कमाई पर ही ये आश्रित होते है।
एक ने कहा कि जमाना बदल गया है। इस धंधे ने रंगरूप बदल लिया है,मगर हमलोग अभी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे है। बस्ती में रहकर ही धंधा होने के चलते बहुत तरह की रूकावटों के साथ साथ समाज की भी परवाह करनी पड़ती है। एक ने बताया कि हम वेश्या होकर भी घर में रहकर अपने घर में रहते है। हम कोठा पर बैठने वाली से अलग है। बगैर बैलून (कंडोम) के हम किसी मर्द को पास तक नहीं फटकने देती। यही कारण है कि बस्ती की तमाम वेश्याएं सभी तरह से साफ और भली है।
यानी डेढ सौ से अधिक जवान वेश्याओ के अलावा, करीब एक सौ वेश्याओं की उम्र 40 पार कर गई है। एक अधेड़ वेश्या ने कहा कि लोगों की पसंद 16 से 25 के बीच वाली वेश्याओं की होती है। यह देखना हमारे लिए सबसे शर्मनाक लगता है कि एक 50 साल का मर्द जो 10-15 साल पहले कभी उसके साथ आता था , वही मर्द उम्रदराज होने के बाद भी आंखों के सामने बेटी या बहू के साथ हमबिस्तर होता है और हमलोग उसे बेबसी के साथ देखती रह जाती है। एक ने कहा कि उम्र बढ़ने के साथ ही वेश्या अपने ही घर में धोबी के घर में कुतिया जैसी हो जाती है। इस पर जवान वेश्याओं ने ठहाका लगाया, तो मंद मंद मुस्कुराती हुई अधेड़ वेश्याओं ने कहा कि हंमलोग भी कभी रानी थी, जैसे की तुमलोग अभी है। इस पर सबों ने फिर ठहाका लगाया। हमलोग भी ठहाका लगाकर उनका साथ दिया। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद फिर मैनें कहा कुछ और बोलो? किसी ने बेबसी झलकाती हुई बोली और क्या बोलू साहब ? बोलने का इतना कभी मौका कोई कहां देता है ? यहां तो खोलने का दौर चलता है। दूसरी जवान वेश्या ने कहा खोलने यानी बंद कमरे में कपड़ा खोलने का ? एक ने चुटकी लेते हुए कहा कि चलना है तो बोलो। एक अधेड़ ने समर्थन करती हुई बोली कोई बात नहीं साब मेहमान बनकर आए थे चाहों तो माल टेस्ट कर सकते हो। एक जवान ने तुरंत जोड़ा साब इसके लिए कोई पैसा भी नहीं लूंगी? हम दोनों एकाएक खड़े हो गए। थान सिंह ने जेब से दो सौ रूपए निकाल कर बच्चों को देते हुए कहा कि अब तुमलोग ही नही चाहती हो कि हमलोगबात करें। इस पर शर्मिंदा होती हुई अधेड़ों ने कहा कि माफ करना बाबू हमारी मंशा तुमलोगों को आहत करने की नहीं थी। हमलोग प्रेमनगर से बाहर हो गए, मगर इस बार इन वेश्याओं की पीड़ा काफी समय तक मन को विह्वल करता रहा। इस बस्ती की खबरें यदा-कदा पास तक आती रहती है। ग्लोवल मंदी मंदी से भले ही भारत समेत पूरा संसार उबर गया हो, मगर अपना सबकुछ गंवाकर भी प्रेमनगर की वेश्याए इस मंदी से कभी ना उबर पाई है और लगता है कि शायद ही कभी अर्थिक तंगी से उबर भी नहीं पाएगी ?
Sabhar:-http://www.firstnewslive.com
दिल्ली में गौतम बुद्ध रोड कहां पर है? इसका जवाब शायद ही कोई दे पाए, मगर दिल्ली में जीबीरोड कहां पर है ? इसका जबाव लगभग हर दिल्लीवासी के पास है। नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास जीबीरोड यानी गौतमबुद्धा रोड में जिस्म की मंडी है। जहां पर सरकारी और पुलिस के तमाम दावों के बावजूद पिछले कई सदियों से जिस्म का बाजार फल फूल रहा है। मगर दिल्ली के एक गांव में भी जिस्म का धंधा होता है। वेश्याओं के इस गांव या बस्ती के बारे में क्या आपको पता है? बाहरी दिल्ली के गांव रेवला खानपुर के पास प्रेमनगर एक ऐसा ही गांव है, जहां पर रोजाना शाम( वैसे यह मेला हर समय गुलजार होता है) ढलते ही यह बस्ती रंगीन हो जाती है। हालांकि पुलिस प्रशासन और कथित नेताओं द्वारा इसे उजाड़ने की यदा-कदा कोशिश भी होती रहती है, इसके बावजूद बदनाम प्रेमनगर की रंगीनी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। अलबत्ता, महंगाई और आधुनिकता की मार से प्रेमनगर में क्षणिक प्यार का धंधा उदास जरूर होता जा रहा है।
आज से करीब 14 साल पहले अपने दोस्त और बाहरी दिल्ली के सबसे मजबूत संपर्क सूत्रों में एक थान सिंह यादव के साथ इस प्रेमगनर बस्ती के भीतर जाने का मौका मिला। ढांसा रोड की तरफ से एक चाय की दुकान के बगल से निकल कर हमलोग बस्ती के भीतर दाखिल हुए। चाय की दुकान से ही एक बंदा हमारे साथ हो लिया। कुछ ही देर में हम उसके घर पर थे। उसने स्वीकार किया कि धंधा के नाम पर बस्ती में दो फाड़ हो चुका है। एक वर्ग इस पुश्तैनी धंधे को बरकरार रखना चाहता है, तो दूसरा वर्ग अब इस धंधे से बाहर निकलना चाहता है। हमलोग किसके घर में बैठे थे, इसका नाम तो अब मुझे याद नहीं है, मगर (सुविधा लिए उसका नाम राजू रख लेते हैं) राजू ने बताया प्रेमनगर में पिछले 300 से भी ज्यादा समय से हमारे पूर्वज रह रहे है। अपनी बहूओं से धंधा कराने के साथ ही कुंवारी बेटियों से भी धंधा कराने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता। आमतौर पर दिन में ज्यादातर मर्द खेती, मजदूरी या कोई भी काम से घर से बाहर निकल जाते है, तब यहां की औरते( लड़कियां भी) ग्राहक के आने पर निपट लेती है। इस मामले में पूरा लोकतंत्र है, कि एक मर्द(ग्राहक) द्वारा पसंद की गई वेश्या के अलावा और सारी धंधेवाली वहां से बिना कोई चूं-चपड़ किए फौरन चली जाती है। ग्राहक को लेकर घर में घुसता ही घर के और लोग दूसरे कमरे में या बाहर निकल जाते है। यानी घर में उसके परिजनों की मौजूदगी में ही धंधा होने के बावजूद ग्राहक को किसी प्रकार का कोई भय नहीं रहता है।
देखने में बेहद खूबसूरत करीब 30 साल की ( तीन बच्चों की मां) पानी लेकर आती है। एकदम सामान्य शिष्टाचार और एक अतिथि की तरह सत्कार कर रही धन्नो( नाम तो याद नहीं,मगर आसानी के लिए उसे धन्नो नाम मान लेते है) और उसके पति के अनुरोध पर हमलोग करीब एक घंटे तक वहां रहकर जानकारी लेते रहे। इस दौरान हमें विवश होकर राजू और धन्नों के यहां चाय पीनी पड़ी। राजू ने बताया कि रेवला खानपुर में कभी प्रेमबाबू नामक कोई ग्राम प्रधान हुआ करते थे, जिन्होंने इन कंजरों पर दया करके रेवला खानपुर ग्रामसभा की जमीन पर इन्हें आबाद कर दिया। ग्रामसभा की तरफ से पट्टा दिए जाने की वजह से यह बस्ती पुरी तरह वैधानिक और मान्य है। अपना पक्का मकान बना लेने वाले राजू से धंधे के विरोध के बाबत पूछे जाने पर वह कोई जवाब नहीं दे पाया। हालांकि उलने यह माना कि घर का खर्च चलाने में धन्नों की आय का भी एक बड़ा हिस्सा होता है। घर से बाहर निकलते समय थान सिंह ने धन्नों के छोटे बच्चे को एक सौ रूपए थमाया। रूपए को वापस करने के लिए धन्नो और राजू अड़ गए। खासकर धन्नो बोली, नहीं साब मुफ्त में तो हम एक पैसै नहीं लेते।
काफी देर तक ना नुकूर करने के बाद अंततः वे लोग किसी तरह नोट रखने को राजी हुए।
खासकर प्रेमनगर शाम को आबाद होता है, जब ढांसा रोड पर इस बस्ती के आस पास दर्जनों ट्रकों का रेला लग जाता है। देर रात तक बस्ती में देह का व्यापार चलता रहता है। करीब एक साल के बाद प्रेमनगर में फिर दोबारा आने का मौका मिला। 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के मतदान के दिन बाहरी दिल्ली का चक्कर काटते हुए हमारी गाड़ी रेवलाखानपुर गांव के आसपास थी। हमारे साथ हरीश लखेड़ा(अभी अमर उजाला में) और कांचन आजाद ( अब मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पीआरओ) साथ थे। एकाएक चुनाव के प्रति वेश्याओं की रूचि को जानने के लिए गाड़ी को प्रेमनगर की तरफ मोड़ दिया। हमारे साथ आए दोनों पत्रकार मित्रों के संकोच के बावजूद धड़धड़ाते हुए मै वहां पर जा पहुंचा, जहां पर सात-आठ वेश्याएं(महिलाएं) बैठी थी। मुझे देखते ही एक उम्रदराज महिला का चेहरा खिल उठा। मुझे संबोदित करती हुई एक ने कहा बहुत दिनों के बाद इधर कैसे आना हुआ ? मैं भी वहां पर बैठ सहज होने की कोशिश की। तभी महिला ने टोका ये सब बाबू (दूर कार से उतरकर हरीश और कांचन मेरा इंतजार कर रहे थे) भी क्या तुम्हारे साथ ही है ? एक दूसरी महिला ने चुटकी ली। आज तो तुम बाबू फौज के साथ आए हो। बात बदलते हुए मैंने कहा आज चुनाव है ना, इन बाबूओं को मतदान कहां कहां पर कैसे होता है, यहीं दिखाने निकला था। अपनी बात को जारी रखते हुए मैने सवाल किया क्या तुमलोग वोट डालकर आ गई ? मैने एकको टोका बड़ी मस्ती में बैठी हो, किसे वोट दी। मेरी बात सुनकर सारी महिलाएं (और लड़कियां भी) खिलखिला पड़ी। खिलखिलाते हुए किसी और ने टोका बड़ा चालू हो बाबू एक ही बार में सब जान लोगे या कुछ खर्चा-पानी भी करोगे। गलती का अहसास करने का नाटक करते हुए फट अपनी जेब से एक सौ रूपए का एक नोट निकालकर मैनें आगे कर दिया। नोट थामने से पहले उसने कहा बस्सस। मैने फौरन कहा, ये तो तुमलोग के चाय के लिए है, बाकी बाद में। मैंने उठने की चेष्टा की भी नहीं कि एक बहुत सुंदर सी महिला ने अपने शिशु को किसी और को थमाकर सामने के कमरे के दरवाजे पर जाकर खड़ी हो गयी। उधर जाने की बजाय मैं वहीं पर खड़ा होकर दोनों हाथ ऊपर करके अपने पूरे बदन को खोलने की कोशिश की। इस पर एक साथ कई महिलाएं एक साथ सित्कार सी उठी, हाय यहां पर जान क्यों मार रहे हो। बदन और खाट अंदर जाकर तोड़ो ना। फिर भी मैं वहीं पर खड़ा रहा और चुनाव की चर्चा करते हुए यह पूछा कि किसे वोट दी ? मेरे सवाल और मेरी मौजूदगी को बड़े अनमने तरीके से लेती हुई सबों ने जवाब देने की बजाय अपना मुंह बिदकाने लगी।
तभी मैने देखा कि 18-20 साल के दो लडके न जाने किधर से आए और इतनी सारी झुंड़ में बैठी महिलाओं की परवाह किए बगैर ही दनदनाते हुए कमरे में घुस गए। दरवाजे पर मेरे इंतजार में खड़ी वेश्या भी कमरे में चली गई। दरवाजा अभी बंद नहीं हुआ था, लिहाजा मैं फौरन कमरे की तरफ भागा तो एक साथ कई महिलाओं ने आपति की और जरा सख्त लहजे में अंदर जाने से रोका। सबों की अनसुनी करते हुए दूसरे ही पल मैं कमरे में था। जहां पर लड़कों से लेनदेन को लेकर मोलतोल हो रहा था। एकाएक कमरे में मुझे देखकर उसका लहजा बदल गया। उसने बाहर जाकर किसी और के लिए बात करने पर जोर देने लगी। फौरन 100 रूपए का नोट दिखाते हुए मैनें जिद की, जब मेरी बात हो गई है, तब दूसरे से मैं क्यों बात करूं ? सख्त लहजे में उसने कहा मैं किसी की रखैल नहीं हूं जो तुम भाव दिखा रहे हो। फिलहाल तेरी बारी खत्म अब बाहर जाओ। कमरे से बाहर निकलते ही तमाम वेश्याओं का चेहरा लाल था। बाबू धंधे का कोई लिहाज होता है। किसी एक ने मेरे उपर कटाक्ष किया क्या तुम्हें वोट डालना है? या किसे वोट डाली हो यह पूछते ही रहोगे ? इस पर सारी खिलखिला पड़ी। मैं भी ठिठाई से कहा यहां पर नहीं किसी को तीन चार घंटे के लिए भेजो गाड़ी में और पैसा बताओ ? इस पर सबों ने अपनी अंगूली को दांतों से दबाते हुए बोल पड़ी। हाय रे दईया पैसे वाला है। किसी ने पूरी सख्ती से कहा कोई और मेम को ले जाना अपने साथ गाड़ी में, प्रेमनगर की हम औरतें बाहर गाड़ी में नहीं जाती। इस बीच कहीं से चाय बनकर आ गई। फौरन नरम पड़ती हुई वेश्याओं ने चाय पीने का अनुरोध किया। मैनें नाराजगी दिखाते हुए फिर कभी आने का घिस्सा पीटा जवाब दोहराया। इस बीच अब तक खुला कमरा भीतर से बंद हो चुका था। लौटने के लिए मैं मुड़ा तो दो एक ने चीखकर कटाक्ष किया। वर्मा( साहब सिंह वर्मा) हो या सोलंकी( स्थानीय विधायक धर्मदेव सोलंकी) सब भीतर से खल्लास हैं ,बाबू। प्रेमनगर के बारे में दो तीन खबरों के छपने के बाद तब पॉयनीयर में (बाद में इंडियन एक्सप्रेस) में काम करने वाली ऐश्वर्या(अभी कहां पर है, इसका पता नही) ने मुझसे प्रेमनगर पर एक रिपोर्ट कराने का आग्रह किया। यह बात लगभग 2000 की थी। हमलोग एक बार फिर प्रेमनगर की उन्ही गलियों की ओर निकल पड़े। साथ में एक लड़की को लेकर इन गलियों में घूमते देख कर ज्यादातर वेश्याओं को बड़ी हैरानी हो रही थी। कई तरह की भद्दी और अश्लील टिप्पणियों से वे लोग हमें नवाजती रही। मैने कुछ उम्रदराज वेश्याओं को बताया कि ये एक एनजीओ से जुड़ी हैं और यहां पर वे आपलोग की सेहत और रहनसहन पर काम करने आई हैं। ये एक बड़ी अधिकारी है, और ये कई तरह से आपलोग को फायदा पहुंचाना चाहती है। मेरी बातों का इनपर कोई असर नहीं पड़ा। उल्टे टिप्पणी की कि ऐसी ऐसी बहुत सारी थूथनियों को मैं देख चूकी हूं। कईयों ने उपहास किया अपनी हेमा मालिनी को लेकर जल्दी यहां से फूटो अपना और मेरा समय बर्बाद ना करो। मैने बल देकर कहा कि चिंता ना करो हमलोग पूरा पैसा देकर जाएंगे। इतना सुनते ही कई वेश्याएं आग बबूला सी हो गई। एक ने कहा बाबू यहां पर रोजाना मेला लगता है, जहां पर तुम जैसे डेढ़ सौ बाबू आकर अपनी थैली दे जाते है। पैसे का रौब ना गांठों। यहां तो हमारे मूतने से भी पैसे की बारिश होती है, अभी तुम बच्चे हो। हमलोगों की आंखें नागीन सी होती है, एक बार देखने पर चेहरा नहीं भूलती। तुम तो कई बार शो रूम देखने यहां आ चुके हो। दम है तो कमरे में चलकर बाते कर। मैनें फौरन क्षमा मांगते हुए किसी तरह वेश्याओं को शांत करने की गुजारिश में लग गया। एक ने कहा कि हमलोगों को तुम जितना उल्लू समझते हो, उतना हम होती नहीं है। बड़े बड़े फन्ने तीसमार खांन यहां मेमना बनकर जाते है। हम ईमानदारी से केवल अपना पैसा लेती है। एक वेश्या ने जोड़ा, हम रंड़ियों का अपना कानून होता है, मगर तुम एय्याश मर्दो का तो कोई ईमान ही नहीं होता। एकाएक वेश्याओं के इस बौछार से मैं लगभग निरूतर सा हो गया। महिला पत्रकार को लेकर फौरन खिसकना ही उचित लगा। एक उम्रदराज वेश्या से बिनती करते हुए पूछा कि क्या इसे पूरे गांव में घूमा दूं? सहमति मिलने पर हमलोग प्रेमनगर की गलियों को देखना शुरू किया। अब हमलोगों ने फैसला किया कि किसी से उलझने या सवाल जवाब करने की बजाय केवल माहौल को देखकर ही हालात का जायजा लेना ज्यादा ठीक है। हमलोग एक गली में प्रवेश ही किए थे कि गली के अंतिम छोर पर दो लड़कियां और दो लड़कों के बीच पैसे को लेकर मोलतोल हो रही थी। 18-19 साल के लड़के 17-18 साल का मासूम सी लड़कियों को 20 रूपए देना चाह रहे थे, जबकि लड़कियां 30 रूपए की मांग पर अड़ी थी। लगता है जब बात नहीं बनी होगी तो एक लड़की बौखला सी गई और बोलती है. साले जेब में पैसे रखोगे नहीं और अपना मुंह लेकर सीधे चले आओगे अपनी अम्मां के पास आम चूसने। चल भाग वरना एक झापड़ दूंगी तो साले तेरा केला कटकर यहीं पर रह जाएगा। शर्म से पानी पाना से हो गए दोनों लड़के हमलोगों के मौके पर आने से पहले ही फूट गए। मैं बीच में ही बोल पड़ा, क्या हुआ इतना गरम क्यों हो। इस पर लगभग पूरी बदतमीजी से एक बोली मंगलाचरण की बेला है, तेरा हंटर गरम है तो चल वरना तू भी फूट। मैने बड़े प्यार से कहा कि चिंता ना कर तू हमलोग से बात तो कर तेरे को पैसे मिल जाएंगे। मैनें अपनी जेब से 50 रूपए का एक नोट निकाल कर आगे कर दिया। नोट को देखकर हुड़की देती हुई एक ने कहा सिर पर पटाखा बांधकर क्या हमें दिखाने आया है, जा मरा ना उसी से। मैने झिड़की देते हुए टोका इतनी गरम क्यों हो रही है, हम बात ही तो कर रहे है। गंदी सी गाली देती हुई एक ने कहा हम बात करने की नहीं नहाने की चीज है। कुंए में तैरने की हिम्मत है तो चल बात भी करेंगे और बर्दाश्त भी करेंगे। दूसरी ने अपने साथी को उलाहना दी, तू भी कहां फंस रही है साले के पास डंड़ा रहेगा तभी तो गिल्ली से खेलेगा। दोनों जोरदार ठहाका लगाती हुई जाने लगी। मैं भी बुरा सा मुंह बनाते हुए तल्ख टिप्पणी की, तू लोग भी कम बदतमीज नहीं है। यह सुनते ही वे दोनों फिर हमलोगों के पास लौट आई। वेश्या के घर में इज्जत की बात करने वाला तू पहला मर्द है। यहां पर आने वाला मर्द हमारी नहीं हमलोगों के हाथों अपनी इज्जत उतार कर जाता है। मैने बात को मोड़ते हुए कहा कि ये बहुत बड़ी अधिकारी है और तुमलोग की सेहत और हालात पर बातचीत करके सरकार से मदद दिलाना चाहती है। इस पर वे लोग एकाएक नाराज हो गई। बिफरते हुए एक ने कहा हमारी सेहत को क्या हुआ है। तू समझ रहा है कि हमें एड(एड़स) हो गया है। तुम्हें पता ही नहीं है बाबू हमें कोई क्या चूसेगा , चूस तो हमलोग लेती है मर्दो को। तपाक से मैनें जोड़ा अभी लगती तो एकदम बच्ची सी हो, मगर बड़ी खेली खाई सी बाते कर रही है। इस पर रूखे लहजे में एक ने कहा जाओ बाबू जाओ तेरे बस की ये सब नहीं है तू केवल झुनझुना है। उनलोगों की बाते सुनकर जब मैं खिलखिला पड़ा, तो एक ने एक्शन के साथ कहा कि मैं चौड़ा कर दूंगी न तो तू पूरा की पूरा भीतर समा जाएगा। गंदी गंदी गालियों के साथ वे दोनों पलक झपकते गली पार करके हमलोगों की नजरों से ओझल हो गई। पूरा मूड उखड़ने के बाद भी भरी दोपहरी में हमलोग दो चार गलियों में चक्कर काटते हुए प्रेमनगर से बाहर निकल गए।
दो साल पहले 2009 में एक बार फिर थान सिंह यादव के साथ मैं प्रेमनगर में था। करीब आठ साल के बाद यहां आने पर बहुत कुछ बदला बदला सा दिखा। ज्यादातर कच्चे मकान पक्के हो चुके थे। गलियों की रंगत भी बदल सी गयी थी। कई बार यहा आने के बाद भी यहां की घुमावदार गलियां मेरे लिए पहेली सी थी। गांव के मुहाने पर ही एक अधेड़ आदमी से मुलाकात हो गई। हमलोंगों ने यहां आने का मकसद बताते हुए किसी ऐसी महिला या लोगों से बात कराने का आग्रह किया, जिससे प्रेमनगर की पीड़ा को ठीक से सामने रखा जा सके। पत्रकार का परिचय देते हुए उसे भरोसे में लिया। हमने यह भी बता दिया कि इससे पहले भी कई बार आया हूं,मगर अपने परिचय को जाहिर नहीं किया था। अलबता पहले भी कई बार खबर छापने के बावजूद हमने हमेशा प्रेमनगर की पीड़ा को सनसनीखेज बनाने की बजाय इस अभिशाप की नियति को प्रस्तुत किया था।
यह हमारा संयोग था कि बुजुर्ग को मेरी बातों पर यकीन आ गया, और वह हमें अपने साथ लेकर घर आ गया। घर में दो अधेड़ औरतों के सिवा दो जवान विवाहिता थी। कई छोटे बच्चों वाले इस घर में उस समय कोई मर्द नहीं था। घर में सामान्य तौर तरीके से पानी के साथ हमारी अगवानी की गई। दूसरे कमरे में जाकर मर्द ने पता नहीं क्या कहा होगा। थोड़ी देर में चेहरे पर मुस्कान लिए चारों महिलाएं हमारे सामने आकर बैठ गई। इस बीच थान सिंह ने अपने साथ लाए बिस्कुट, च़ाकलेट और टाफी को आस पास खड़ें बच्चों के बीच बाट दिया। बच्चों के हाथों में ढेरो चीज देखकर एक ने जाकर गैस खोलते हुए चाय बनाने की घोषणा की। इस पर थान सिंह ने अपनी थैली से दो लिटर दूध की थैली निकालते हुए इसे ले जाने का आग्रह किया। इस पर शरमाती हुई चारों औरतों ने एक साथ कहा कि घर में तो दूध है। बाजी अपने हाथ में आते देखकर फिर थान सिंह ने एक महिला को अपने पास बुलाया और थैली से दो किलो चीनी के साथ चाय की 250 ग्राम का एक पैकेट और क्रीम बिस्कुट के कुछ पैकेट निकाल कर उसे थमा दिया। पास में खड़ी महिला इन सामानों को लेने से परहेज करती हुई शरमाती रही। सारी महिलाओं को यह सब एक अचंभा सा लग रहा था। एक ने शिकायती लहजे में कहा अजी सबकुछ तो आपलोगों ने लाया है तो फिर हमारी चाय क्या हुई। मैने कहा अरे घर तुम्हारा, किचेन से लेकर पानी, बर्तन, कप प्लेट से लेकर चाय बनाने और देने वाली तक तुम लोग हो तो चाय तो तुमलोग की ही हुई। अधेड़ महिला ने कहा बाबू तुमने तो हमलोगों को घर सा मान देकर तो एक तरीके से खरीद ही लिया। दूसरी अधेड़ महिला ने कहा बाबू उम्र पक गई. हमने सैकड़ों लोगों को देखा, मगर तुमलोग जैसा मान देने वाला कोई दूसरा नहीं देखा। यहां तो जल्दी से आकर फौरन भागने वाले मर्दो को ही देखते आ रहे है।
इस बीच हमने गौर किया कि बातचीत के दौरान ही घर में लाने वाले बुजुर्ग पता नहीं कब बगैर बताए घर से बाहर निकल गए। वजह पूछने पर एक अधेड़ ने बताया कि बातचीत में हमलोग को कोई दिक्कत ना हो इसी वजह से वे बाहर चले गए। हमने बुरा मानने का अभिनय करते हुए कहा कि यह तो गलत है मैंने तो उन्हें सबकुछ बता दिया था। खैर इस बीच चाय भी आ गई।
चारों ने लगभग अपने हथियार डालते हुए कहा अब जो पूछना है बाबू बात कर सकते हो। बातचीत का रूख बताते ही एक ने कहा बाबू तुम तो चले जाओगे, मगर हमें परिणाम भुगतना पड़ेगा। एक बार फिर इमोशनल ब्लैकमेलिंग करते हुए मैने साफ कहा कि यदि तुम्हें हमलोगों पर विश्वास नहीं है तो मैं भी बात करना नहीं चाहूंगा यह कहकर मैंने अपना बोरिया बिस्तर समेटना चालू कर दिया। जवान सी वेश्या तपाक से मेरे बगल में आकर बैठती हुई बोली अरे तुम तो नाराज ही हो गए। हमने तो केवल अपने मन का डर जाहिर किया था। शिकायती लहजे में मैंने भी तीर मारा कि जब मन में डर ही रह जाए तो फिर बात करने का क्या मतलब? इस पर दूसरी ने कहा बाबू हमलोगों को कोई खरीद नहीं सकता, मगर तुमने तो अपनी मीठी मीटी बातों में हमलोगों को खरीद ही लिया है। अब मन की सारी बाते बताऊंगी। फिर करीब एक घंटे तक अपने मन और अपनी जाति की नियति और सामाजिक पीड़ा को जाहिर करती रही।
बुजुर्ग सी महिला ने बताया कि हमारी जाति के मर्दो की कोई अहमियत नहीं होती। पहले तो केवल बेटियों से ही शादी से पहले तक धंधा कराने की परम्परा थी, मगर पिछले 50-60 साल से बहूओं से भी धंधा कराया जाने लगा। हमारे यहां औरतों के जीवन में माहवारी के साथ ही वेश्यावृति का धंधा चालू होता है, जो करीब 45 साल की उम्र तक यानी माहवारी खत्म(रजोनिवृति) तक चलता रहता है। इनका कहना है कि माहवारी चालू होते ही कन्या का धूमधाम से नथ उतारी जाती है। गुस्सा जाहिर करती हुई एक ने कहा कि नथ तो एक रस्म होता है, मगर अब तो पुलिस वाले ही हमारे यहां की कौमा्र्य्य को भंग करना अपनी शान मानते है। नाना प्रकार की दिक्कतों को रखते हुए सबों ने कहा कि शाम ढलते ही जो लोग यहां आने के लिए बेताब रहते हैं, वही लोग दिन के उजाले में हमें उजाड़ने घर से बाहर निकालने के लिए लोगों कों आंदोलित करते है। एक ने कहा कि सब कुछ गंवाकर भी इस लायक हमलोग नहीं होती कि बुढ़ापा चैन से कट सके। हमारे यहां के मर्द समाज में जलील होते रहते हैं। बच्चों को इस कदर अपमानित होना पड़ता है कि वे दूसरे बच्चों के कटाक्ष से बचने के लिए हमारे बच्चे स्कूल नहीं जाते और पढ़ाई में भी पीछे ही रह जाते है। नौकरी के नाम पर निठ्ठला घूमते रहना ही हमारे यहां के मर्दो की दिनचर्या होती है। अपनी घरवाली की कमाई पर ही ये आश्रित होते है।
एक ने कहा कि जमाना बदल गया है। इस धंधे ने रंगरूप बदल लिया है,मगर हमलोग अभी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे है। बस्ती में रहकर ही धंधा होने के चलते बहुत तरह की रूकावटों के साथ साथ समाज की भी परवाह करनी पड़ती है। एक ने बताया कि हम वेश्या होकर भी घर में रहकर अपने घर में रहते है। हम कोठा पर बैठने वाली से अलग है। बगैर बैलून (कंडोम) के हम किसी मर्द को पास तक नहीं फटकने देती। यही कारण है कि बस्ती की तमाम वेश्याएं सभी तरह से साफ और भली है।
यानी डेढ सौ से अधिक जवान वेश्याओ के अलावा, करीब एक सौ वेश्याओं की उम्र 40 पार कर गई है। एक अधेड़ वेश्या ने कहा कि लोगों की पसंद 16 से 25 के बीच वाली वेश्याओं की होती है। यह देखना हमारे लिए सबसे शर्मनाक लगता है कि एक 50 साल का मर्द जो 10-15 साल पहले कभी उसके साथ आता था , वही मर्द उम्रदराज होने के बाद भी आंखों के सामने बेटी या बहू के साथ हमबिस्तर होता है और हमलोग उसे बेबसी के साथ देखती रह जाती है। एक ने कहा कि उम्र बढ़ने के साथ ही वेश्या अपने ही घर में धोबी के घर में कुतिया जैसी हो जाती है। इस पर जवान वेश्याओं ने ठहाका लगाया, तो मंद मंद मुस्कुराती हुई अधेड़ वेश्याओं ने कहा कि हंमलोग भी कभी रानी थी, जैसे की तुमलोग अभी है। इस पर सबों ने फिर ठहाका लगाया। हमलोग भी ठहाका लगाकर उनका साथ दिया। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद फिर मैनें कहा कुछ और बोलो? किसी ने बेबसी झलकाती हुई बोली और क्या बोलू साहब ? बोलने का इतना कभी मौका कोई कहां देता है ? यहां तो खोलने का दौर चलता है। दूसरी जवान वेश्या ने कहा खोलने यानी बंद कमरे में कपड़ा खोलने का ? एक ने चुटकी लेते हुए कहा कि चलना है तो बोलो। एक अधेड़ ने समर्थन करती हुई बोली कोई बात नहीं साब मेहमान बनकर आए थे चाहों तो माल टेस्ट कर सकते हो। एक जवान ने तुरंत जोड़ा साब इसके लिए कोई पैसा भी नहीं लूंगी? हम दोनों एकाएक खड़े हो गए। थान सिंह ने जेब से दो सौ रूपए निकाल कर बच्चों को देते हुए कहा कि अब तुमलोग ही नही चाहती हो कि हमलोगबात करें। इस पर शर्मिंदा होती हुई अधेड़ों ने कहा कि माफ करना बाबू हमारी मंशा तुमलोगों को आहत करने की नहीं थी। हमलोग प्रेमनगर से बाहर हो गए, मगर इस बार इन वेश्याओं की पीड़ा काफी समय तक मन को विह्वल करता रहा। इस बस्ती की खबरें यदा-कदा पास तक आती रहती है। ग्लोवल मंदी मंदी से भले ही भारत समेत पूरा संसार उबर गया हो, मगर अपना सबकुछ गंवाकर भी प्रेमनगर की वेश्याए इस मंदी से कभी ना उबर पाई है और लगता है कि शायद ही कभी अर्थिक तंगी से उबर भी नहीं पाएगी ?
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पत्रकारिता के आदि पुरूष नारद
कारिता के आदि पुरूष देवर्षि नारद
मृत्युंजय दीक्षित
सृष्टिकर्ता
प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद। त्रिकालदर्शी पुरूष नारद देव, दानव
और मानव सभी के कार्यों में सहायक देवर्षि नारद। देवर्षि नारद एक ऐसे महान
व्यक्तित्व के स्वामी व सांसारिक घटनाओं के ज्ञाता थे कि उनके परिणामों तक
से भी वे भली भांति परिचित होते थे। वे शत्रु तथा मित्र दोनों में ही
लोकप्रिय थे। आनन्द, भक्ति, विनम्रता, ज्ञान, कौशल के कारण उन्हें देवर्षि
की पद्वि प्राप्त थी। ईश्वर भक्ति की स्थापना तथा प्रचार-प्रसार के लिए ही
नारद जी का अवतार हुआ। देवर्षि नारद व्यास वाल्मीकि और शुकदेव जी के गुरू
रहे। श्रीमद्भागवत एवं रामायण जैसे अत्यंत पवित्र व अदभुत ग्रन्थ हमें नारद
जी की कृपा से ही प्राप्त हुए हैं। प्रहलाद, ध्रुव और राजा अम्बरीश जैसे
महान व्यक्तित्वों को नारद जी ने ही भक्ति मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
देव नारद ब्रहमा, शंकर, सनत कुमार, महर्षि कपिल, स्वायम्भुव मनु आदि 12
आचार्यों में अन्यतम हैं। वराह पुराण में देवर्षि नारद को पूर्व जन्म में
सारस्वत् नामक एक ब्राह्मण बताया गया है। जिन्होंने ‘ओं नमो नारायणाय’ इस
मंत्र के जप से भगवान नारायण का साक्षात्कार किया और पुनः ब्रह्मा जी के 10
मानस पुत्रों के रूप में अवतरित हुए। देवर्षि नारद तीनों लोको में बिना
बाधा के विचरण करने वाले परम तपस्वी तथा ब्रह्म तेज से संपन्न हैं। उन्हें
धर्म बल से परात्पर परमात्मा का ज्ञान है। उनका वर्ण गौर शिर पर सुंदर शिखा
सुशोभित है। उनके शरीर में एक प्रकार की दिव्य क्रांति उज्जवल ज्योति
निकलती रहती है। वे देवराज इंद्र द्वारा प्राप्त श्वेत, महीन तथा दो दिव्य
वस्त्रों को धारण किये रहते हैं। ईश्वरीय प्रेरणा से लगातार कार्य किये
रहते हैं। वे संपूर्ण वेदान्त शास्त्र के ज्ञाता परम तेजस्वी तपस्वी और
ब्रह्म तेज से सम्पन्न हैं। वे आनुशांगिक धर्मों के भी ज्ञाता हैं। उनके
हृदय में संशय लेशमात्र भी नहीं है। वे धर्म निपुण तथा नाना धर्मों के
विशेषज्ञ हैं। लोप, आगम धर्म तथा वृत्ति संक्रमण के द्वारा प्रयोग में आए
हुए एक शब्द की अनेक अर्थों में विवेचना करते में सक्षम हैं। कृष्ण युग में
वे गोपियों के सबसे बड़े हित साधक बने। नारद जी ने ही कृष्ण युग में
गोपियों का वर्चस्व स्थापित किया। प्रथम पूज्य देव गणेश जी को नारद जी का
ही मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ था।देवर्षि नारद भारतीय जीवन दर्शन में अत्यंत श्रेष्ठ हैं। उन्हें हनुमान जी का मन कहा गया है अर्थात् उन्हें इस बात का पता रहता था कि लोगों के मन में क्या चल रहा है। वे आदि संवाहक और आदि पत्रकार थे। देश के प्रथम समाचार-पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रथम पृष्ठ पर भी नारद जी का उल्लेख हुआ है। सत्य नारायण जी की कथा के प्रथम श्लोक से पता चलता है कि देवर्षि नारद का सब कुछ समाज के लिए अर्पित था। देवर्षि नारद जी के द्वारा रचित अनेक ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है ः- जिसमें प्रमुख हैं नारद पंचरात्र, नारद महापुराण, वृहन्नारदीय उपपुराण, नारद स्मृति ,नारद भक्ति सूत्र, नारद परिव्राजकोपनिषद् आदि।
उनके समय में संचार के इतने साधन नहीं थे फिर भी उन्हें हर घटना के विषय में जानकारी रहती थी तथा वे हर घटना को कल्याणकारी मार्ग पर ले जाते थे। देवर्षि नारद जिसे प्रेरणा लेकर आज के पत्रकार भी नये आयाम स्थापित कर सकते हैं।
* लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
Saturday, May 28, 2011
POEM घोटालों
POEM घोटालों
घोटालों से A,B,C,D सीखे
ए 2 ज़ेड औफ घोटाला... (18+)
by Sachin Khare
मित्रों,
आज आपके समक्ष घोटाला वर्णमाला प्रस्तुत कर रहा हूँ.. आशा है की आपको पसंद आयेगी,, और उम्मीद करता हूँ की आप इससे अपनें बच्चों को बचानें का पूरा प्रयास करेंगे...
"ए" से आदर्श सोसायटी घोटाला,
"बी" से बोफोर्स घोटाला,
"सी" से चारा घोटाला,
"डी" से डी डी ए/ दिनेश डालमिया स्टॉक घोटाला,
"इ" से एनरोन घोटाला,
"ऍफ़" से फर्जी पासपोर्ट घोटाला,
"ग(जी)" से गुलाबी चना घोटाला,
"एच" से हथियार/ हवाला/हसन अली खान टेक्स घोटाला.
बस.. बस... नहीं बोलिये भाईसाहब. आज तो मै पूरी ए, बी,सी, डी.. सुनाके ही रहूँगा. ठीक है...
"आई" से आई पी एल घोटाला,
"जे" से जगुआर/ जीप घोटाला,
"के" से कॉमन वेअल्थ गेम्स /केतन पारीख सिक्यूरिटी घोटाला ,
"एल" से लोटरी / एल आई सी घोटाला,
"एम्" से मनरेगा/ मधु कोड़ा माइन घोटाला,
"एन" से नागरवाला घोटाला,
"ओ" से आयल/ ओरिसा माइन घोटाला,
"पी" से पनडुब्बी/ पंजाब सिटी सेण्टर घोटाला,
"क्यू" से कोटा परमिट घोटाला,
"आर" से राशन/ राईस एक्सपोर्ट घोटाला,
"एस" सत्यम/शेयर/सागौन प्लान्टेशन घोटाला,
"टी" से तेलगी/टेलिकॉम/ टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला,
"यू" से यूरिया/ यू टी आए. घोटाला,
"वी" से वीसा (कबूतरबाज़ी) घोटाला,
"डब्लू" वेपन/ व्हीट घोटाला,
"एक्स " एक्सेस बैंक घोटाला,
"वाय" से यार्न घोटाला,
"जेड" से ज़मीन घोटाला.
Thursday, May 19, 2011
प्रेमचंद पर लाल-पीली आंखें
प्रेमचंद पर लाल-पीली आंखें
October 25th, 2010
आलोचना
वेद प्रकाश
प्रेमचंद की नीली आंखें: धर्मवीर; वाणी प्रकाशन मूल्य: 995 रु। आईएसबीएन- 978-93-5000-220-9
लेखक की यह पुस्तक प्रेमचंद पर उनकी पिछली पुस्तक प्रेमचंद : सामंत का मुंशी का ही अगला चरण है औरमातृसत्ता, पितृसत्ता और जारसत्ता शृंखला का खंड तीन। जहां प्रेमचंद :सामंत का मुंशी ‘कफऩ’ पर केंद्रित थी वहीं यह रंगभूमि पर केंद्रित है। पर यह किताब रंगभूमि से कहीं ज्यादा ‘चमारों’, उनके चित्रण और उस समय की ‘चमार’ राजनीति पर केंद्रित है। धर्मवीर ‘चमार’ शब्द पर बहुत आग्रह करते हैं और यह शब्द पूरी पुस्तक में तकियाकलाम की तरह बार-बार आता है। दरअस्ल धर्मवीर चमारों को एक अलग नस्ल मानते हैं और हर बात में कहते हैं, चमार ऐसा नहीं कर सकते, चमार ऐसे नहीं हो सकते। धर्मवीर खुद को ‘चमारों’ का स्वयंभू नेता और चमारों का ‘महान’ विचारक मानकर अपने उच्च कोटि के विचार प्रस्तुत करते हैं।
धर्मवीर की तर्कप्रणाली जातिवादी, पुरुषवादी और फासीवादी है। साहित्य और कला के बारे में उन्होंने जो विचार इस पुस्तक के तैंतीसवें अध्याय ‘घेरे में जार’ में व्यक्त किए हैं, वे नाजिय़ों की याद दिलाते हैं। साहित्य और कला को कोसने के लिए वह अपनी गवाही में प्लेटो को उद्धृत करते हैं। उनके मुताबिक ”कलाकार नकलची होता है। नकलची आदमी असल आदमी की कीमत को नहीं समझता। इसलिए, नकल करना केवल मनोरंजन करना है, जीवन का कोई गंभीर मसला हल करना नहीं।’’ (पृ. 658) अगर कला का काम केवल मनोरंजन करना है, जीवन की समस्याओं पर बात करना नहीं तो ऐसी कला के साथ क्या किया जाना चाहिए। लीजिए उन्हीं के मुखारविंद से सुनिऐ, ”क्रांति और बदलावों के समय में ऐसी कला को फूँका भले ही न जाए, तत्काल के लिए एक ओर तो किया ही जा सकता है।’’ (पृ. 659)
वह यहीं तक नहीं रुकते। कलाकार के बारे में उनके विचार यों व्यक्त होते हैं, ”कोई कलाकार बंदर की तरह कितनी भी खों-खों कर के नकल करे, लेकिन वह सच में बंदर नहीं बन सकता।’’ (पृ। 662) अब कलाकार के चरित्र पर भी कुछ प्रकाश डल जाए तो अच्छा है। ”हिंदू साहित्यकार नकल नहीं करता बल्कि धोखा देता है। वह अपने जीवन में साधु नहीं होता, लेकिन साहित्य में साधु बना रहता है। नकलची होने की तुलना में यह खतरनाक मसला है।’’ (पृ. 662) तो कलाकार या साहित्यकार को क्या करना चाहिए जिससे वे समाज के लिए उपयोगी बनेंगें। ”भला, जो व्यक्ति यह नहीं लिख सकता कि सिगरेट और शराब का सेवन नहीं करना चाहिए और जारकर्म से दूर रहना चाहिए, उसे साहित्यकार कैसे कहा जा सकता है?—यह समाज के अहित में लगा हुआ आदमी है।’’ (पृ.665)
साहित्यकारों को क्या करना चाहिए यह आपने जान लेने के बाद प्रेमचंद को क्या करना चाहिए था : ”ईमानदारी यह होती कि प्रेमचंद या तो स्वामी अछूतानंद की जीवनी और विचार पर एक किताब लिख देते या गांधी की जीवनी और विचार पर एक किताब लिख देते। पर उन्होंने इन में से कोई काम नहीं किया। जब इन दो मूल कामों में से कोई काम नहीं किया, तो जो किया, वह गुड़-गोबर एक कर दिया। यही कुल रंगभूमि है।’’ (पृ.671)
और अगर साहित्यकार फिर भी काबू में नहीं आएं तो? ”साहित्य को सभ्यता और कानून के दायरे में खुल कर खेलने की मनाही नहीं है।… लेकिन, यदि उनके साहित्य से समाज में व्यभिचार फैलता है तो उन्हें घेरे में जरूर लाया जाएगा। अपराध के मामले में लेखक को विशेष माफी नहीं मिल सकती। तब वह अन्य पेशे वालों की तरह सामान्य मनुष्य और आम नागरिक हो जाता है।’’ (पृ.687)
साहित्य और कला के बाद अब जऱा प्रेमचंद पर आएं। धर्मवीर को दूसरों को निपटाने में बहुत मज़ा आता है। जब कबीर पर पुस्तकें लिखीं तो हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर पुरुषोत्तम अग्रवाल तक सबको निपटा दिया। इसके बाद उनकी कृपा दृष्टि प्रेमचंद पर पड़ी।
धर्मवीर रंगभूमि को उपन्यास मानने के बजाय एक रिपोर्ट मानकर उसमें उस वक्त की ‘अपनी’ सोच और सच्चाइयों को ढूंढते हैं और न पाने पर झल्लाने लगते हैं। और प्रेमचंद को दोष देते हैं कि उन्होंने उस समय की चमारों की सच्चाइयों को बयान नहीं किया और किताब को चमारों के नजरिये से नहीं लिखा, उनका सही चित्रण नहीं किया, अत: वह महान रचनाकार कैसे हो सकते हैं। इस पुस्तक को पढ़ते समय, खासकर स्वामी अछूतानंद वाला अध्याय पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगा कि अगर धर्मवीर ने साहित्यिक आलोचना लिखने के बजाय राजनीतिक आलोचना लिखी होती तो कैसा होता। तब प्रतिपक्ष में प्रेमचंद के स्थान पर गांधी होते और मज़ा आता।
लेकिन उन्होंने साहित्यिक आलोचना लिखी है और प्रेमचंद को उन चीजों का दोषी माना है, जो उन्होंने लिखीं ही नहीं। दूसरे उन्हें प्रेमचंद से शिकायत है कि उन्होंने ‘चमारों’ का सही चित्रण नहीं किया। वैसे तो प्रेमचंद ने कहीं यह दावा नहीं किया कि उनका यह उपन्यास दलित समस्या पर है और न ही उनके आलोचकों ने रंगभूमि को अछूत समस्या पर केंद्रित माना है। फिर धर्मवीर को उनसे शिकायत क्यों है? उन के अनुसार प्रेमचंद ने सबसे बड़ी ग़लती यह की कि उन्होंने रंगभूमि के नायक को चमार क्यों दिखा दिया। अगर चमार दिखाना ही था तो उसे स्वामी अछूतानंद का प्रतिरूप क्यों नहीं बनाया?
इसका जवाब भी वह खुद ही देते हैं। उनके अनुसार प्रेमचंद हिंदू यानी ब्राह्मणवादी और ज़मींदारी मानसिकता के व्यक्ति थे और उस समय हिंदुओं को ‘चमारों’ के आंदोलन से बहुत खतरा था इसलिए इस खतरे का साहित्यिक मुकाबला करने के लिए उन्होंने रंगभूमि के नायक को चमार बनाया और वह भी पूरी तरह हिंदू परंपरा में रंगा हुआ ‘चमार’। ‘चमार’ शब्द का रह रह कर इस्तेमाल करने के लिए क्षमा चाहता हूं परंतु लेखक को समझने के लिए इस शब्द का जि़क्र करना ज़रूरी है।
पुस्तक के पांचवे अध्याय ‘स्वामी अछूतानंद और सूरदास की तुलनाएं’ में रंगभूमि के पात्र ‘सूरदास’ में उस समय के सामाजिक क्रांतिकारी अछूतानंद को ढूंढते हैं। और न मिलने पर क्रुद्ध हो जाते हैं। फिर उसमें साजिशें ढूंढऩे लगते हैं।
‘चमार’ के बाद इस पुस्तक का दूसरा केंद्रीय विचार ‘जारसत्ता’ है। समाज में चारित्रिक शुद्धता का उनका आग्रह इतना प्रबल है कि इसके लिए वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं। लेकिन उनकी ये चारित्रिक शुद्धता पूरी तरह पुरुषवादी है।
धर्मवीर की न्यायबुद्धि के अनुसार माधव का अपनी पत्नी को तड़पते देखना जायज था क्योंकि उसके गर्भ में ठाकुर का बच्चा पल रहा था। वह पूरी शिद्दत से खोज करते हैं कि बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा कैसे आया। इसके तीन कारण हो सकते हैं–एक, बुधिया का अपनी मर्जी से रंगरेलियां मनाने ठाकुरों के घर जाना, जिसके दौरान उसे यह बच्चा ठहर गया था? यदि ऐसा था तो यह बात उचित मालूम पड़ सकती है कि माधव अपना बच्चा न होने के कारण बुधिया से बेमुरव्वती बरते। तब माधव के अमानवीय व्यवहार को कुछ हद तक ठीक माना जा सकता है। परंतु धर्मवीर स्वयं ऐसा नहीं मानते इसलिए यह संभावना खारिज हो जाती है।
दूसरे, उस गांव की प्रथा के कारण बुधिया को पहली रात ठाकुर की हवेली में गुजारनी पड़ी और उसी दौरान उसे यह बच्चा ठहर गया। और तीसरे, घर का खर्च चलाने के लिए उसे खेतों में घास काटने और ठाकुर की हवेली में अनाज पीसने जाना पड़ता था, उस दौरान वह ठाकुर के किसी नौजवान लड़के की गुंडागर्दी का शिकार हो गई थी।
धर्मवीर दूसरे और तीसरे नंबर की संभावनाओं को मानते हैं। इसके लिए वे ना जाने कहाँ-कहाँ से सामग्री जुटा कर यह साबित करते हैं कि चमारों की स्त्रियों से खेतों में बलात्कार होना या शादी की पहली रात जमींदार के घर गुजारना उस समय की साधारण बात थी जिसके लिए पूरी तरह ठाकुर और जमींदार जिम्मेवार थे। यह ठीक है कि सामंती और सत्ताधारी लोग अपने यहां काम करने वाली मजदूरनियों का दैहिक शोषण करते हैं। एक गंभीर सामाजिक-आर्थिक समस्या है, जिसे जनआंदोलन चला कर सामाजिक समानता पा कर ही रोका जा सकता है।
लेकिन धर्मवीर ऐसे नहीं सोचते। वह ठाकुर को जिम्मेवार मानते हैं और प्रेमचंद पर भी बरसते हैं कि वह ठाकुर के इस अन्याय का विरोध नहीं करते। लेकिन उनके क्रोध का सबसे ज्यादा शिकार ‘बुधिया’ बनती है। वह उन ‘चमारियों’ को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं जो चमारों के अलावा किसी अन्य से प्रेम करें। अपनी पुस्तक प्रेमचंद सामंत का मुंशी में तो उन्हें अंतर्जातीय विवाह भी दलित कौमों का मज़ाक उड़ाना लगता है, ‘तब अनिता भारती क्या कह रही हैं? दलित कौमें हारी हुई हैं—और इसका सबसे खतरनाक अर्थ यह है कि उनकी औरतें उनकी नहीं हैं। इसलिए, जब कोई दलित नारी जात तोडऩे की बात कहती है तो लगता है मानों वह दलित कौमों की ज्यादा मजाक उड़ा रही है क्योंकि तब गैर दलितों द्वारा उड़ाई मजाक कम पड़ती है।’ (प्रेमचंद- सामंत का मुंशी, प्रथम संस्करण, पृ.53)
धर्मवीर के अनुसार बुधिया का बलात्कार होना असली समस्या नहीं है। असली समस्या है उसका किसी ठाकुर या किसी गैर-दलित द्वारा बलात्कार होना। बल्कि अगर वह अपनी मर्जी से किसी ब्राह्मण या ठाकुर को पसंद करती है तो भी वह उतनी ही बड़ी दोषी है। क्योंकि तब उनकी औरतें उनकी नहीं रह जाएंगी।
क्या कसूर है बुधिया का? बुधिया का खेतों में घास खोदने जाना या ठाकुर की हवेली में चक्की पीसने जाना या अपने पेट भरने का संघर्ष करते हुए ठाकुर या उसके गुर्गों के अत्याचार का शिकार हो जाना। क्या बुधिया को अपने पति का साथ देते हुए घर में बैठकर भूखों मरना चाहिए था? या अपने नाकारा पति-परमेश्वर और ससुर की भूख मिटाने के लिए खेतों से घास काटनी चाहिए थी, या ठाकुर की हवेली में जा कर चक्की पीसनी चाहिए थी। दोनों ही कामों में उसके यौन शोषण की आशंका थी। और ऐसी स्थिति में माधव का सारे दिन कामचोरी करना धर्मवीर की दृष्टि में शायद बड़ा पवित्र काम था। इसीलिए वह अपने साढ़े सात सौ पृष्ठों के इस ग्रंथ में ठाकुरों और जमींदारों को तो खूब गरियाते हैं, प्रेमचंद तो खैर उनके प्रेम का प्रसाद पाते ही हैं, उनके दुर्वासा क्रोध से बुधिया भी बच नहीं पाती। बल्कि अगर उनके तर्कों को ध्यान से देखें तो वह बुधिया का बलात्कार हो जाने के लिए दोषी खुद बुधिया को मानते हैं, जमींदार या ठाकुर को कम। और बुधिया आखिर अधिक दोषी क्यों न हो, वह औरत जो है, और वह भी एक दलित औरत। वह धर्मवीर जैसे आईएएस अधिकारी का बिगाड़ ही क्या सकती है।
जब से धर्मवीर ने ‘हिंदू विवाह की तानाशाही’ लेख लिखा है, और जिस तरह वह उसके कारण चर्चित हुए हैं, ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा’, उससे उन्होंने अपने समय को बेतुकी बातों में लगा कर जाया किया है। लोकायती वैष्णव विष्णु प्रभाकर, सीमंती उपदेश (सं।) और हिंदी की आत्मा लिखने वाले धर्मवीर जब कबीर पर कलम चलाते हैं तो अपनी समझ और ज्ञान को भुलाकर जल्द लोकप्रिय होने के लिए कागज़ पर कागज रंगते चले जाते हैं। पर कोई महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात नहीं कह पाते। उनका सारा लेखन पूरे इतिहास को ब्राह्मण बनाम चमार में बदल देना है, उन्हें बहुजन समाज के वाल्मीकि, खटिक और जुलाहे भी पसंद नहीं आते। वह केवल खुद को और अपनी जाति को ब्राह्मणों के स्थान पर बैठा देना चाहते हैं।
सच यह है कि धर्मवीर का लेखन भी उसी तरह जातिवाद और घृणा से भरा हुआ है जैसे मनुस्मृति और दूसरे हिंदू ग्रंथ। फर्क इतना ही है कि मनुस्मृति ब्राह्मणों का गुणगान करती है तो धर्मवीर चमारों का। यह सामंतवादी मानसिकता की विचित्रता है कि गुलामी सिर चढ़ कर बोलने लगती है। गुलाम गुलामी का खात्मा नहीं करना चाहता, बल्कि खुद मालिक बन कर वही कुछ करना चाहता है, जो उसका मालिक करता था। ये ब्राह्मणवाद और जातिवाद का नशा है जो लेखक के सिर चढ़ कर बोल रहा है। इसीलिए आलोचक तेज सिंह की यह बात सही है कि ”इस बात पर मतभेद हो सकता है कि प्रेमचंद सामंत के मुंशी थे या नहीं, लेकिन यह निश्चित है कि धर्मवीर ब्राह्मणवाद के पक्के सामंत बन गए हैं।’’
वेद प्रकाश
प्रेमचंद की नीली आंखें: धर्मवीर; वाणी प्रकाशन मूल्य: 995 रु। आईएसबीएन- 978-93-5000-220-9
लेखक की यह पुस्तक प्रेमचंद पर उनकी पिछली पुस्तक प्रेमचंद : सामंत का मुंशी का ही अगला चरण है औरमातृसत्ता, पितृसत्ता और जारसत्ता शृंखला का खंड तीन। जहां प्रेमचंद :सामंत का मुंशी ‘कफऩ’ पर केंद्रित थी वहीं यह रंगभूमि पर केंद्रित है। पर यह किताब रंगभूमि से कहीं ज्यादा ‘चमारों’, उनके चित्रण और उस समय की ‘चमार’ राजनीति पर केंद्रित है। धर्मवीर ‘चमार’ शब्द पर बहुत आग्रह करते हैं और यह शब्द पूरी पुस्तक में तकियाकलाम की तरह बार-बार आता है। दरअस्ल धर्मवीर चमारों को एक अलग नस्ल मानते हैं और हर बात में कहते हैं, चमार ऐसा नहीं कर सकते, चमार ऐसे नहीं हो सकते। धर्मवीर खुद को ‘चमारों’ का स्वयंभू नेता और चमारों का ‘महान’ विचारक मानकर अपने उच्च कोटि के विचार प्रस्तुत करते हैं।
धर्मवीर की तर्कप्रणाली जातिवादी, पुरुषवादी और फासीवादी है। साहित्य और कला के बारे में उन्होंने जो विचार इस पुस्तक के तैंतीसवें अध्याय ‘घेरे में जार’ में व्यक्त किए हैं, वे नाजिय़ों की याद दिलाते हैं। साहित्य और कला को कोसने के लिए वह अपनी गवाही में प्लेटो को उद्धृत करते हैं। उनके मुताबिक ”कलाकार नकलची होता है। नकलची आदमी असल आदमी की कीमत को नहीं समझता। इसलिए, नकल करना केवल मनोरंजन करना है, जीवन का कोई गंभीर मसला हल करना नहीं।’’ (पृ. 658) अगर कला का काम केवल मनोरंजन करना है, जीवन की समस्याओं पर बात करना नहीं तो ऐसी कला के साथ क्या किया जाना चाहिए। लीजिए उन्हीं के मुखारविंद से सुनिऐ, ”क्रांति और बदलावों के समय में ऐसी कला को फूँका भले ही न जाए, तत्काल के लिए एक ओर तो किया ही जा सकता है।’’ (पृ. 659)
वह यहीं तक नहीं रुकते। कलाकार के बारे में उनके विचार यों व्यक्त होते हैं, ”कोई कलाकार बंदर की तरह कितनी भी खों-खों कर के नकल करे, लेकिन वह सच में बंदर नहीं बन सकता।’’ (पृ। 662) अब कलाकार के चरित्र पर भी कुछ प्रकाश डल जाए तो अच्छा है। ”हिंदू साहित्यकार नकल नहीं करता बल्कि धोखा देता है। वह अपने जीवन में साधु नहीं होता, लेकिन साहित्य में साधु बना रहता है। नकलची होने की तुलना में यह खतरनाक मसला है।’’ (पृ. 662) तो कलाकार या साहित्यकार को क्या करना चाहिए जिससे वे समाज के लिए उपयोगी बनेंगें। ”भला, जो व्यक्ति यह नहीं लिख सकता कि सिगरेट और शराब का सेवन नहीं करना चाहिए और जारकर्म से दूर रहना चाहिए, उसे साहित्यकार कैसे कहा जा सकता है?—यह समाज के अहित में लगा हुआ आदमी है।’’ (पृ.665)
साहित्यकारों को क्या करना चाहिए यह आपने जान लेने के बाद प्रेमचंद को क्या करना चाहिए था : ”ईमानदारी यह होती कि प्रेमचंद या तो स्वामी अछूतानंद की जीवनी और विचार पर एक किताब लिख देते या गांधी की जीवनी और विचार पर एक किताब लिख देते। पर उन्होंने इन में से कोई काम नहीं किया। जब इन दो मूल कामों में से कोई काम नहीं किया, तो जो किया, वह गुड़-गोबर एक कर दिया। यही कुल रंगभूमि है।’’ (पृ.671)
और अगर साहित्यकार फिर भी काबू में नहीं आएं तो? ”साहित्य को सभ्यता और कानून के दायरे में खुल कर खेलने की मनाही नहीं है।… लेकिन, यदि उनके साहित्य से समाज में व्यभिचार फैलता है तो उन्हें घेरे में जरूर लाया जाएगा। अपराध के मामले में लेखक को विशेष माफी नहीं मिल सकती। तब वह अन्य पेशे वालों की तरह सामान्य मनुष्य और आम नागरिक हो जाता है।’’ (पृ.687)
साहित्य और कला के बाद अब जऱा प्रेमचंद पर आएं। धर्मवीर को दूसरों को निपटाने में बहुत मज़ा आता है। जब कबीर पर पुस्तकें लिखीं तो हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर पुरुषोत्तम अग्रवाल तक सबको निपटा दिया। इसके बाद उनकी कृपा दृष्टि प्रेमचंद पर पड़ी।
धर्मवीर रंगभूमि को उपन्यास मानने के बजाय एक रिपोर्ट मानकर उसमें उस वक्त की ‘अपनी’ सोच और सच्चाइयों को ढूंढते हैं और न पाने पर झल्लाने लगते हैं। और प्रेमचंद को दोष देते हैं कि उन्होंने उस समय की चमारों की सच्चाइयों को बयान नहीं किया और किताब को चमारों के नजरिये से नहीं लिखा, उनका सही चित्रण नहीं किया, अत: वह महान रचनाकार कैसे हो सकते हैं। इस पुस्तक को पढ़ते समय, खासकर स्वामी अछूतानंद वाला अध्याय पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगा कि अगर धर्मवीर ने साहित्यिक आलोचना लिखने के बजाय राजनीतिक आलोचना लिखी होती तो कैसा होता। तब प्रतिपक्ष में प्रेमचंद के स्थान पर गांधी होते और मज़ा आता।
लेकिन उन्होंने साहित्यिक आलोचना लिखी है और प्रेमचंद को उन चीजों का दोषी माना है, जो उन्होंने लिखीं ही नहीं। दूसरे उन्हें प्रेमचंद से शिकायत है कि उन्होंने ‘चमारों’ का सही चित्रण नहीं किया। वैसे तो प्रेमचंद ने कहीं यह दावा नहीं किया कि उनका यह उपन्यास दलित समस्या पर है और न ही उनके आलोचकों ने रंगभूमि को अछूत समस्या पर केंद्रित माना है। फिर धर्मवीर को उनसे शिकायत क्यों है? उन के अनुसार प्रेमचंद ने सबसे बड़ी ग़लती यह की कि उन्होंने रंगभूमि के नायक को चमार क्यों दिखा दिया। अगर चमार दिखाना ही था तो उसे स्वामी अछूतानंद का प्रतिरूप क्यों नहीं बनाया?
इसका जवाब भी वह खुद ही देते हैं। उनके अनुसार प्रेमचंद हिंदू यानी ब्राह्मणवादी और ज़मींदारी मानसिकता के व्यक्ति थे और उस समय हिंदुओं को ‘चमारों’ के आंदोलन से बहुत खतरा था इसलिए इस खतरे का साहित्यिक मुकाबला करने के लिए उन्होंने रंगभूमि के नायक को चमार बनाया और वह भी पूरी तरह हिंदू परंपरा में रंगा हुआ ‘चमार’। ‘चमार’ शब्द का रह रह कर इस्तेमाल करने के लिए क्षमा चाहता हूं परंतु लेखक को समझने के लिए इस शब्द का जि़क्र करना ज़रूरी है।
पुस्तक के पांचवे अध्याय ‘स्वामी अछूतानंद और सूरदास की तुलनाएं’ में रंगभूमि के पात्र ‘सूरदास’ में उस समय के सामाजिक क्रांतिकारी अछूतानंद को ढूंढते हैं। और न मिलने पर क्रुद्ध हो जाते हैं। फिर उसमें साजिशें ढूंढऩे लगते हैं।
‘चमार’ के बाद इस पुस्तक का दूसरा केंद्रीय विचार ‘जारसत्ता’ है। समाज में चारित्रिक शुद्धता का उनका आग्रह इतना प्रबल है कि इसके लिए वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं। लेकिन उनकी ये चारित्रिक शुद्धता पूरी तरह पुरुषवादी है।
धर्मवीर की न्यायबुद्धि के अनुसार माधव का अपनी पत्नी को तड़पते देखना जायज था क्योंकि उसके गर्भ में ठाकुर का बच्चा पल रहा था। वह पूरी शिद्दत से खोज करते हैं कि बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा कैसे आया। इसके तीन कारण हो सकते हैं–एक, बुधिया का अपनी मर्जी से रंगरेलियां मनाने ठाकुरों के घर जाना, जिसके दौरान उसे यह बच्चा ठहर गया था? यदि ऐसा था तो यह बात उचित मालूम पड़ सकती है कि माधव अपना बच्चा न होने के कारण बुधिया से बेमुरव्वती बरते। तब माधव के अमानवीय व्यवहार को कुछ हद तक ठीक माना जा सकता है। परंतु धर्मवीर स्वयं ऐसा नहीं मानते इसलिए यह संभावना खारिज हो जाती है।
दूसरे, उस गांव की प्रथा के कारण बुधिया को पहली रात ठाकुर की हवेली में गुजारनी पड़ी और उसी दौरान उसे यह बच्चा ठहर गया। और तीसरे, घर का खर्च चलाने के लिए उसे खेतों में घास काटने और ठाकुर की हवेली में अनाज पीसने जाना पड़ता था, उस दौरान वह ठाकुर के किसी नौजवान लड़के की गुंडागर्दी का शिकार हो गई थी।
धर्मवीर दूसरे और तीसरे नंबर की संभावनाओं को मानते हैं। इसके लिए वे ना जाने कहाँ-कहाँ से सामग्री जुटा कर यह साबित करते हैं कि चमारों की स्त्रियों से खेतों में बलात्कार होना या शादी की पहली रात जमींदार के घर गुजारना उस समय की साधारण बात थी जिसके लिए पूरी तरह ठाकुर और जमींदार जिम्मेवार थे। यह ठीक है कि सामंती और सत्ताधारी लोग अपने यहां काम करने वाली मजदूरनियों का दैहिक शोषण करते हैं। एक गंभीर सामाजिक-आर्थिक समस्या है, जिसे जनआंदोलन चला कर सामाजिक समानता पा कर ही रोका जा सकता है।
लेकिन धर्मवीर ऐसे नहीं सोचते। वह ठाकुर को जिम्मेवार मानते हैं और प्रेमचंद पर भी बरसते हैं कि वह ठाकुर के इस अन्याय का विरोध नहीं करते। लेकिन उनके क्रोध का सबसे ज्यादा शिकार ‘बुधिया’ बनती है। वह उन ‘चमारियों’ को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं जो चमारों के अलावा किसी अन्य से प्रेम करें। अपनी पुस्तक प्रेमचंद सामंत का मुंशी में तो उन्हें अंतर्जातीय विवाह भी दलित कौमों का मज़ाक उड़ाना लगता है, ‘तब अनिता भारती क्या कह रही हैं? दलित कौमें हारी हुई हैं—और इसका सबसे खतरनाक अर्थ यह है कि उनकी औरतें उनकी नहीं हैं। इसलिए, जब कोई दलित नारी जात तोडऩे की बात कहती है तो लगता है मानों वह दलित कौमों की ज्यादा मजाक उड़ा रही है क्योंकि तब गैर दलितों द्वारा उड़ाई मजाक कम पड़ती है।’ (प्रेमचंद- सामंत का मुंशी, प्रथम संस्करण, पृ.53)
धर्मवीर के अनुसार बुधिया का बलात्कार होना असली समस्या नहीं है। असली समस्या है उसका किसी ठाकुर या किसी गैर-दलित द्वारा बलात्कार होना। बल्कि अगर वह अपनी मर्जी से किसी ब्राह्मण या ठाकुर को पसंद करती है तो भी वह उतनी ही बड़ी दोषी है। क्योंकि तब उनकी औरतें उनकी नहीं रह जाएंगी।
क्या कसूर है बुधिया का? बुधिया का खेतों में घास खोदने जाना या ठाकुर की हवेली में चक्की पीसने जाना या अपने पेट भरने का संघर्ष करते हुए ठाकुर या उसके गुर्गों के अत्याचार का शिकार हो जाना। क्या बुधिया को अपने पति का साथ देते हुए घर में बैठकर भूखों मरना चाहिए था? या अपने नाकारा पति-परमेश्वर और ससुर की भूख मिटाने के लिए खेतों से घास काटनी चाहिए थी, या ठाकुर की हवेली में जा कर चक्की पीसनी चाहिए थी। दोनों ही कामों में उसके यौन शोषण की आशंका थी। और ऐसी स्थिति में माधव का सारे दिन कामचोरी करना धर्मवीर की दृष्टि में शायद बड़ा पवित्र काम था। इसीलिए वह अपने साढ़े सात सौ पृष्ठों के इस ग्रंथ में ठाकुरों और जमींदारों को तो खूब गरियाते हैं, प्रेमचंद तो खैर उनके प्रेम का प्रसाद पाते ही हैं, उनके दुर्वासा क्रोध से बुधिया भी बच नहीं पाती। बल्कि अगर उनके तर्कों को ध्यान से देखें तो वह बुधिया का बलात्कार हो जाने के लिए दोषी खुद बुधिया को मानते हैं, जमींदार या ठाकुर को कम। और बुधिया आखिर अधिक दोषी क्यों न हो, वह औरत जो है, और वह भी एक दलित औरत। वह धर्मवीर जैसे आईएएस अधिकारी का बिगाड़ ही क्या सकती है।
जब से धर्मवीर ने ‘हिंदू विवाह की तानाशाही’ लेख लिखा है, और जिस तरह वह उसके कारण चर्चित हुए हैं, ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा’, उससे उन्होंने अपने समय को बेतुकी बातों में लगा कर जाया किया है। लोकायती वैष्णव विष्णु प्रभाकर, सीमंती उपदेश (सं।) और हिंदी की आत्मा लिखने वाले धर्मवीर जब कबीर पर कलम चलाते हैं तो अपनी समझ और ज्ञान को भुलाकर जल्द लोकप्रिय होने के लिए कागज़ पर कागज रंगते चले जाते हैं। पर कोई महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात नहीं कह पाते। उनका सारा लेखन पूरे इतिहास को ब्राह्मण बनाम चमार में बदल देना है, उन्हें बहुजन समाज के वाल्मीकि, खटिक और जुलाहे भी पसंद नहीं आते। वह केवल खुद को और अपनी जाति को ब्राह्मणों के स्थान पर बैठा देना चाहते हैं।
सच यह है कि धर्मवीर का लेखन भी उसी तरह जातिवाद और घृणा से भरा हुआ है जैसे मनुस्मृति और दूसरे हिंदू ग्रंथ। फर्क इतना ही है कि मनुस्मृति ब्राह्मणों का गुणगान करती है तो धर्मवीर चमारों का। यह सामंतवादी मानसिकता की विचित्रता है कि गुलामी सिर चढ़ कर बोलने लगती है। गुलाम गुलामी का खात्मा नहीं करना चाहता, बल्कि खुद मालिक बन कर वही कुछ करना चाहता है, जो उसका मालिक करता था। ये ब्राह्मणवाद और जातिवाद का नशा है जो लेखक के सिर चढ़ कर बोल रहा है। इसीलिए आलोचक तेज सिंह की यह बात सही है कि ”इस बात पर मतभेद हो सकता है कि प्रेमचंद सामंत के मुंशी थे या नहीं, लेकिन यह निश्चित है कि धर्मवीर ब्राह्मणवाद के पक्के सामंत बन गए हैं।’’
फिल्मों में दांपत्य जीवन
फिल्मों में दांपत्य जीवन
भारतीय
सिनेमा में दांपत्य जीवन का चित्रण कई स्थानों पर देखने को मिलता है।
फिल्म निर्मातानिर्देशक उदारीकृत अर्थव्यवस्था में पतिपत्नी के बीच
वादविवाद, टकराव, लड़ाईझगड़ा एवं तलाक(संबंध विच्छेद) को सिनेमा के सुनहले
पर्दें पर उकेर रहे हैं। कुल मिलाकर निर्माताओं निर्देशकों का एक मात्र
लक्ष्य भारतीय संस्कृति तथा भारतीयविवाह संस्था को श्रेष्ठ साबित करते हुए
दिखाई देता है। परंतु हां, जीवन के उतारच़ाव में ये फिल्में मानवीय
झंझावातों को दिखा तो रही हैं पर ये नहीं सोचती कि किस प्रकार उसे सुदृ़
किया जाए। क्या दांपत्य जीवन का भारतीय दर्शन सफल हो सकता है? क्या
पतिपत्नी अलगाव होना ठीक है? भारतीय नारी मात्र पति के पदचिह्नों पर हीं
चलेगी या उसका भी कुछ आस्तित्व हो सकता है क्या? क्या वैवाहिक मूल्य बदल
रहे हैं? फिल्मों में प्रायः यह दिखाई देता है कि स्त्री अपने वासना तथा धन
की सुख के लिए कुछ भी करने को तैयार है।
“जिस्म” की बिपासा वसु तथा “7 खुन माफ” की प्रियंका चोपड़ा बदलते
भारतीयजीवनमूल्यों की निमित्त मात्र है। सुख की प्राप्ति के लिए यीशु के
शरण में जाती है। उसका दांपत्य जीवन पुरूष के धोखाधड़ी तथा बचकानी आदतों से
आजिज होकर कुछ गलत कदम उठाती है। मूलतः दांपत्य जीवन विश्वास तथा समर्पण का
संगम है। जहां पतिपत्नी गृहस्थी रूपी गाड़ी को चलाते हैं। ‘शतरंज के मोहरे’
में यह अनमोल विवाह तथा सेक्स समस्या को लेकर है तो दीपा मेहता के ‘फायर’
में पतिपत्नी द्वारा एक दूसरे के बीच दूरी के कारण है। यह ‘आपकी कसम’ में
दांपत्य जीवन में विश्वास तथा विवेक शून्यता के कारण।
प्रेमशास्त्र(कामसूत्र) और ‘हवस’ में पत्नी एक ओर सेक्स समस्या से पीड़ित है
तो दूसरी ओर अनमोल विवाह के कारण वह पति से पीड़ित है।
हिन्दी सिनेमा ने दांपत्य जीवन के हरेक पहलुओं को छूने का प्रयास किया है। हां, लेकिन इसमें जाति प्रथा, शैक्षणिक स्तर, असमान आर्थिक स्तर, रंगनस्ल, अनमेल विवाह, अंतर्धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय के साथ ही साथ विचार, रहनसहन तथा व्यवसाय के कारण टुटतेबिखरते दांपत्य जीवन को देखा जा सकता है।
50 से 70 के दशक में दांपत्य जीवन में उतारच़ाव को तो सामान्य स्तर पर देखा जा सकता है। परंतु 1980 से 2010 के दशक में स्त्री (की छवि) एवं दांपत्य जीवन को स्वछंद एवं उन्मुक्त दिखाने के चलन ने भारतीय जीवनमूल्यों पर होते प्रहार के तरफ इंगित करता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सिनेमा तथा साहित्य समाज का दर्पण तो है ही लेकिन अति नाटकीयता इसके स्वरूप को नष्ट कर रहे हैं जिसे निर्माताओं, निर्देशकों तथा नायकोंनायिकाओं को विचार करना होगा। अन्यथा भारतीय समाज पर गलत प्राव पड़ेगा।
जब मनुष्य अति कामुक, व्यस्त तथा अस्तव्यस्त जीवन सा हो जाता है तो ‘दिल तो बच्चा है जी’’ की स्थिति आती है। हास्यव्यंग्य से ओतप्रोत इस फिल्म के कथावस्तु में तीनों विभिन्न प्रकृति के हैं। एक तलाकशुदा, एक ऐसे पत्नी के तलाश में है जो उसके प्रति समर्पित हो तथा दूसरा भारतीयजीवन मूल्यों के नजदीक रहने वाले पत्नी की खोज में है। तीसरा, रंगीन मिजाज है जिसका एकमात्र उद्देश्यृ कई स्ति्रयों के साथ यौन संबंधों को स्थापित करना। इस प्रकार फिल्मों में दिखाई देता है। ‘मर्डर’ व ‘जिस्म’ की विपासा जीवन साथी की खोज में न रहकर यौन ईच्छाओं के संतुष्टी को ही सबकुछ मान बैठती है।
‘कोरा कागज’ में लड़की कोरा कागज पर तलाक का दस्तखत करती है उसी वक्त नौकर कहता है “बेटी तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर करने से ही जीवन के संबंध टुट सकते है क्या? तुम पति को भूल पाओगी क्या?’’ लेकिन वे फिर मिल जाते हैं?
हिन्दी सिनेमा ने दांपत्य जीवन के हरेक पहलुओं को छूने का प्रयास किया है। हां, लेकिन इसमें जाति प्रथा, शैक्षणिक स्तर, असमान आर्थिक स्तर, रंगनस्ल, अनमेल विवाह, अंतर्धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय के साथ ही साथ विचार, रहनसहन तथा व्यवसाय के कारण टुटतेबिखरते दांपत्य जीवन को देखा जा सकता है।
50 से 70 के दशक में दांपत्य जीवन में उतारच़ाव को तो सामान्य स्तर पर देखा जा सकता है। परंतु 1980 से 2010 के दशक में स्त्री (की छवि) एवं दांपत्य जीवन को स्वछंद एवं उन्मुक्त दिखाने के चलन ने भारतीय जीवनमूल्यों पर होते प्रहार के तरफ इंगित करता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सिनेमा तथा साहित्य समाज का दर्पण तो है ही लेकिन अति नाटकीयता इसके स्वरूप को नष्ट कर रहे हैं जिसे निर्माताओं, निर्देशकों तथा नायकोंनायिकाओं को विचार करना होगा। अन्यथा भारतीय समाज पर गलत प्राव पड़ेगा।
जब मनुष्य अति कामुक, व्यस्त तथा अस्तव्यस्त जीवन सा हो जाता है तो ‘दिल तो बच्चा है जी’’ की स्थिति आती है। हास्यव्यंग्य से ओतप्रोत इस फिल्म के कथावस्तु में तीनों विभिन्न प्रकृति के हैं। एक तलाकशुदा, एक ऐसे पत्नी के तलाश में है जो उसके प्रति समर्पित हो तथा दूसरा भारतीयजीवन मूल्यों के नजदीक रहने वाले पत्नी की खोज में है। तीसरा, रंगीन मिजाज है जिसका एकमात्र उद्देश्यृ कई स्ति्रयों के साथ यौन संबंधों को स्थापित करना। इस प्रकार फिल्मों में दिखाई देता है। ‘मर्डर’ व ‘जिस्म’ की विपासा जीवन साथी की खोज में न रहकर यौन ईच्छाओं के संतुष्टी को ही सबकुछ मान बैठती है।
‘कोरा कागज’ में लड़की कोरा कागज पर तलाक का दस्तखत करती है उसी वक्त नौकर कहता है “बेटी तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर करने से ही जीवन के संबंध टुट सकते है क्या? तुम पति को भूल पाओगी क्या?’’ लेकिन वे फिर मिल जाते हैं?
भारतीय जीवन ने दांपत्य जीवन को समझौता नहीं माना है। उसने तो उसे सात
जन्मों का बंधन(संस्कार) माना है। अग्नि को साक्षी मानकर पतिपत्नी एक
पत्नी व॔त का संक ल्प लेते हैं।
फिल्म साहित्य का लक्ष्य विविधताओं, कुठाओं तथा मनोविकारों से ग॔सित
पतिपत्नी को त्राण दिलाने से है न कि विष घोलने से। फिल्म, लेखक, नायक,
नायिका, निर्माता, निर्देशक, गीतकार, तथा सहयोगियों का लक्ष्य टुटते बिखरे
दांपत्य जीवन को सबल एवं सशक्त बनाने से होना चाहिए। ती हमारे सपनों का
संगठित, स्वस्थ एवं एकात्म भारतबन सकता है। पतिपत्नी का मात्र यौन संबध तक
ही केंद्रित होकर जीवन साथी एवं मित्र
भव का होना परमावश्यक नहीं है तथा उसका आधार दांपत्य प्रेम के साथ ही
भारतीय मूल्यों एवं मानदंडो की मान्यता पर केंद्रित होना चाहिए। आज के
जमाने में जहां भारतीय समाज से मूल्य, प्रथा, परंपरा, सभ्यता और संस्कृति
के नाम पर सांस्कृतिक संस्कृति विकृतिकरण के द्वारा नंगा नाच हो रहा है।
ऐसे समय में भारतीय मूल्यों की स्थापना के लिए तथा सफल दाम्पत्य जीवन के
स्वप्न का साकार करने के लिए सार्थक सिनेमा की अवश्यकता है जो पतिपत्नी के
संबंधों को सृदृ़ कर सके।
‘लेखक, पत्रकार, फिल्म समीक्षक, कॅरियर लेखक, मीडिया लेखक एवं
हिन्दुस्थान समाचार में कार्यकारी फीचर संपादक तथा ‘आधुनिक सभ्यता और
महात्मा गांधी’ विषय पर डी. लिट्. कर रहे हैं।
(नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार)
(नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार)
May 18th, 2011 | Tags: फिल्मों में दांपत्य जीवन | Category: लेख | Print This Post
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नीतीश सरकार में सोलह साल का भगोड़ा है कैबिनेट मंत्री
नीतीश सरकार में सोलह साल का भगोड़ा है कैबिनेट मंत्री
: पटना से प्रकाशित दैनिक 'सन्मार्ग' का खुलासा
: पटना में नीतीश के तलवे चाटने वाले सारे बड़े अखबारों के लिए पटना से
प्रकाशित दैनिक सन्मार्ग ने एक उदाहरण पेश करते हुए मंगलवार को अपवने मुख्य
पृष्ठ पर एक ऐसी खबर छापी है, जिसने सरकार की नींद उड़ा दी है। अपराधी
प्रवृति के लागों को अपने मंत्रिमंडल में जगह न देने के नीतीश के इरादे
कितने मजबूत हैं इसका खुलासा सन्मार्ग ने किया है।
अप्रत्याशित और भारी बहुमत के साथ दूसरी
बार सत्ता पर काबिज नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में सहकारिता मंत्री पद पर
काबिज औरंगाबाद के भाजपा विधायक रामाधार सिंह कानून की नजर में पिछले 16
वर्षों से फरार है। बिहार सरकार में एक महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री रामाधार
सिंह पर औरंगाबाद जिले के मदनपुर थाने में 1992 में ही भादवि की
धारा188,153 ए-1 के तहत दंगा भड़काने की कोशिश और भड़काऊ भाषण देने संबंधी
प्राथमिकी दर्ज करायी गई थी। इस मामले में रामाधार लगभग डेढ़ माह तक जेल में
भी रहे। बाद में जमानत पर रिहा होने के बाद वह इस मामले की सुनवाई में एक
भी तारिख पर कोर्ट नहीं गए।
अंतत: कोर्ट ने 1995 में उन्हें भगोड़ा
घोषित कर संबंधित अभिलेख जिला अभिलेखागार में जमा कराने का निर्देश दे
दिया। भड़ास4मीडिया को कोर्ट के उस आदेश की प्रतिलिपि भी हाथ लगी है, जिसमें
न्यायाधीश ने रामाधार सिंह को भगोड़ा और फरार घोषित कर मामले की फाइल बंद
करने का आदेश दिया है। पटना में चर्चा है कि प्रिंट मीडिया के कई पत्रकारों
को इस मामले की भनक थी, पर किसी ने इस मामले को उठाने की साहस नहीं की।
पटना से प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया ने घूमा-फिराकर इस मामले को थोड़ा जरूर
उठाया है। सन्मार्ग में रामाधर सिंह के मामले के खुलासे के बाद विपक्ष को
नीतीश के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा मिल गया है, जिसे विपक्ष भुनाने की कोशिश
अवश्य कर सकता है।
नीतीश सरकार में सोलह साल का भगोड़ा है कैबिनेट मंत्री
: पटना से प्रकाशित दैनिक 'सन्मार्ग' का खुलासा
: पटना में नीतीश के तलवे चाटने वाले सारे बड़े अखबारों के लिए पटना से
प्रकाशित दैनिक सन्मार्ग ने एक उदाहरण पेश करते हुए मंगलवार को अपवने मुख्य
पृष्ठ पर एक ऐसी खबर छापी है, जिसने सरकार की नींद उड़ा दी है। अपराधी
प्रवृति के लागों को अपने मंत्रिमंडल में जगह न देने के नीतीश के इरादे
कितने मजबूत हैं इसका खुलासा सन्मार्ग ने किया है।
अप्रत्याशित और भारी बहुमत के साथ दूसरी
बार सत्ता पर काबिज नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में सहकारिता मंत्री पद पर
काबिज औरंगाबाद के भाजपा विधायक रामाधार सिंह कानून की नजर में पिछले 16
वर्षों से फरार है। बिहार सरकार में एक महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री रामाधार
सिंह पर औरंगाबाद जिले के मदनपुर थाने में 1992 में ही भादवि की
धारा188,153 ए-1 के तहत दंगा भड़काने की कोशिश और भड़काऊ भाषण देने संबंधी
प्राथमिकी दर्ज करायी गई थी। इस मामले में रामाधार लगभग डेढ़ माह तक जेल में
भी रहे। बाद में जमानत पर रिहा होने के बाद वह इस मामले की सुनवाई में एक
भी तारिख पर कोर्ट नहीं गए।
अंतत: कोर्ट ने 1995 में उन्हें भगोड़ा
घोषित कर संबंधित अभिलेख जिला अभिलेखागार में जमा कराने का निर्देश दे
दिया। भड़ास4मीडिया को कोर्ट के उस आदेश की प्रतिलिपि भी हाथ लगी है, जिसमें
न्यायाधीश ने रामाधार सिंह को भगोड़ा और फरार घोषित कर मामले की फाइल बंद
करने का आदेश दिया है। पटना में चर्चा है कि प्रिंट मीडिया के कई पत्रकारों
को इस मामले की भनक थी, पर किसी ने इस मामले को उठाने की साहस नहीं की।
पटना से प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया ने घूमा-फिराकर इस मामले को थोड़ा जरूर
उठाया है। सन्मार्ग में रामाधर सिंह के मामले के खुलासे के बाद विपक्ष को
नीतीश के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा मिल गया है, जिसे विपक्ष भुनाने की कोशिश
अवश्य कर सकता है।
अल्पसंख्यक नेतृत्व की तरह दिशाहीन होती उर्दू पत्रकारिता
अल्पसंख्यक नेतृत्व की तरह दिशाहीन होती उर्दू पत्रकारिता
संजय कुमार
भारतीय
मीडिया में हिन्दी व अंग्रेजी की तरह उर्दू समाचार पत्रों का हस्तक्षेप
नहीं दिखता है। वह तेवर नहीं दिखता जो हिन्दी या अंग्रेजी के पत्रों में
दिखता है। आधुनिक मीडिया से कंधा मिला कर चलने में अभी भी यह लड़खड़ा रहा
है।यों तो देश के चर्चित उर्दू अखबरों में आठ राज्यों से छप रहा ‘रोजनामा’ हैदराबाद से ‘सियासत’ और ‘मुंसिफ’, मुंबई का ‘इंकलाब’, दिल्ली से ‘हिन्दुस्तान एक्सप्रैस’ व ‘मिलाप’, कनाटर्क से ‘दावत’ और पटना से ‘कौमी तन्जीम’ सहित अन्य उर्दू पत्र इस कोशिश में लगे हैं कि उर्दू पत्रकारिता को एक मुकाम दिया जाए। लेकिन बाजार और अन्य समस्याओं के जकड़न से यह निकल नहीं पा रहा है। देखा जाये तो उर्दू पत्रकारों की स्थिति बद से बदतर है तो महिला पत्रकार नहीं के बराबर हैं। यह इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार से प्रकाशित एक दर्जन से ज्यादा उर्दू अखबरों में एक भी महिला श्रमजीवी पत्रकार नहीं है। पटना से प्रकाशित एक बड़ा उर्दू अखबार अपने पत्रकारों को पांच हजार से बीस हजार रूपये महीना तनख्वाह देता है जबकि मंझोल और छोट उर्दू अखबारों में शोषण जारी है।
वहाँ पत्रकारों को तनख्वाह सरकारी दफ्तरों में कार्यरत आदेशपाल से भी कम मिलता है। वहीं अखबारों पर आरोप है कि वे विज्ञापनों के लिए निकल रही हैं। एक आध उर्दू पत्र दिख जाते हैं बाकि की फाइलें बनती है। एक ओर वर्षों से बिहार सहित देष भर में बडे/मंझोले/छोटे उर्दू अखबार उर्दू भाषी जनता के लिए अपनी परंपरागत तरीके से अखबार निकाल रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर उर्दू अखबरों के प्रकाशन क्षेत्र में कारपोरेट जगत घुसपैठ कर उनकी नींद उड़ा रही है। सहारा ग्रुप तो पहले ही आ चुका है अब इस क्षेत्र में हिन्दी के बड़े अखबार घराने कूदने की पूरी तैयारी की चुकें हैं। ऐसे में पांरम्परिक उर्दू अखबारों के समक्ष चुनौतियों का दौर शुरू होने जा रहा है।
इसमें कोई शक नहीं कि देश में उर्दू पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत के नवनिर्माण में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। लेकिन, हकीकत यह है कि मीडिया के झंझावाद ने लोकतंत्र के चौथे खम्भे को मजबूत बनाने में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता के योगदान को आज दरकिनार कर दिया गया है। उर्दू पत्र व पत्रकार अपने बजूद के लिए आज हर मुकाम पर संघर्ष कर रहे हैं। इसके लिए किसी ने उर्दू पत्रकारिता की हालत बंदर के हाथ में नारियल जैसी बताया, तो किसी ने उर्दू पत्रकारिता को आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर चलते हुए। उर्दू पत्रकारिता की बदहाल दषा और दिशा पर कई पत्रकारों से बातचीत हुई। कई सवालों को खंगाला गया।
उर्दू दैनिक ‘कौमी तन्जीम’ पटना के संपादक एस.एम. अजमल फरीद सच को स्वीरकते हुए कहते है, सच है कि वर्तमान समय में उर्दू अखबारात अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में उतनी गति हासिल नहीं कर पा रहे हैं जितना कि इसका स्वर्णिम इतिहास रहा है। चाहे वो आधुनिक तकनीक अपनाने, विषय वस्तु विषेशज्ञ पत्रकारों की टीम तैयार करने या आज खुद को बिल्कुल नये रूप में ढालने की बात हो। इनका दायरा थोड़ा सीमित है। उर्दू भाषा जिसकी महत्ता और उच्चारण की मधुरता को स्वीकार तो सब कोई करता है लेकिन इसके विकास के लिए सामूहिक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं और इसको एक विषेश वर्ग से जोड़कर देखा जाने लगा है। श्री फरीद कहते हैं कि इन सब के बावजूद एक सीमित संसाधन में उर्दू अखबारात पाठक वर्ग तक बेहतर अखबार पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे हैं और अच्छी संख्या में उर्दू अखबारात पाबंदी से प्रकाशित हो रहे हैं। उर्दू अखबारात की प्रसार संख्या और पाठकों की संख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है।
उर्दू अखबारात का महत्व अंग्रेजी या हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में इस मायने में अब भी बरकरार है कि सकारात्मक पत्रकारिता उर्दू अखबारों का मूल उद्देश्य है जहां अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों में पश्चिमी संस्कृति पूरी तरह हावी नजर आती है। खबरों से लेकर तस्वीरों की प्रस्तुति में जिस तरह का खेल अंग्रेजी और हिन्दी अखबारों में खेला जा रहा है। इससे उर्दू अखबारात अब भी बहुत हद तक सुरक्षित हैं। समाचार या लेख की प्रस्तुति में भी इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि भारतीय परंपरा और गंगा-यमुनी संस्कृति का ही समावेश हो। पाठक वर्ग का ध्यान रखते हुए भले ही अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफी या जुल्म की खबरों को थोड़ी प्राथमिकता मिलती है लेकिन इसमें सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे यह अब भी उर्दू अखबारों का बड़ा लक्ष्य होता है।
श्री फरीद जोर देकर कहते है कि हाल के वर्षों में कारपोरेट घरानों का आकर्षण भी उर्दू अखबारों की ओर बढ़ा है और अब कारपोरेट घराने भी उर्दू अखबार निकाल रहे हैं, जिससे इस बात की आषंका बढ़ गई है कि भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को बरकरार रखते हुए अबतक उर्दू पत्रकारिता जो एक स्वस्थ समाज की कल्पना के साथ आगे बढ़ रही थी वो बाधित हो सकती है, क्योंकि कारपोरेट घरानों के उर्दू अखबार भी पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित नजर आते हैं और अपने पाठकवर्ग के विचारों की अनदेखी करते हुए उनपर एक नयी संस्कृति थोपने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार ख़ुर्शीद हाशमी कहते है कि मुझे उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा दोनों गड़बड़ नजर आती है। मेरी नजर में उर्दू पत्रकारिता की हालत आज वैसी ही है जैसी बंदर के हाथ में नारियल की होती है। बंदर नारियल के साथ कब तक खेलेगा, कब उसे पानी में उछाल देगा या कब उसे किसी के सिर पर दे मारेगा, कहना मुश्किल है।
यह स्थिति इसलिए है कि उर्दू पत्रकारिता मुख्यतः आज भी निजी हाथों में हैं। उर्दू पत्रकारिता के भाग्य विधाता वह लोग बने बैठे हैं, जो न उर्दू जानते हैं और न पत्रकारिता का ज्ञान रखते हैं। यह लोग उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के मालिक होते हैं। मालिक होने के नाते नीति-निर्धारक से लेकर संपादक और व्यवस्थापक तक सब कुछ यही लोग होते हैं। वे जैसा चाहते हैं, करते हैं। उनकी नजर में पत्रकारों की कोई अहमियत नहीं होती है। वह उन्हें क्लर्क या एजेन्ट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, इसलिए अधिक तेज या पढ़े-लिखे लोग उनको रास नहीं आते, वैसे भी अधिक पढ़े-लिखे लोग महंगे होंगे, और यह लोग चीफ एंड वेस्ट में विश्वास रखते हैं। ऐसी स्थिति में अगर कोई तेज पत्रकार आ भी जाता है तो वह उनकी उपेक्षा का शिकार हो जाता है। उसकी हर बात और हर राय की अनदेखी करके उसे उसकी औकात बता दी जाती है। वे कहते हैं कि हम बिजनेस करने के लिए आये हैं, और बिजनेस कैसे करना है, यह हम जानते हैं, लेकिन वास्तव में वह बिजनेस करना भी नहीं जानते, इसलिए वह उर्दू की सेवा या पत्रकारिता तो करते ही नहीं, ढंग से बिजनेस भी नहीं कर पाते हैं।
श्री हाशमी कहते हैं, उर्दू पत्रकारिता में अब कारपोरेट सेक्टर ने भी पांव पसारना शुरू कर दिया है। वैसे तो वहां भी कुछ समझौते होते हैं और कई बार अयोग्य लोगों को कमान सौंप दी जाती है, जो अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए अपने से भी अधिक अयोग्य लोगों को लाकर पत्रकारिता की कबर खोदने का प्रयास करते हैं, फिर भी निजी हाथों की तुलना में कारपोरेट सेक्टर में स्थिति अच्छी है। मगर समस्या यह है कि कारपोरेट सेक्टर का नाम सुनते ही उर्दू के पाठक भड़क उठते हैं। उन्हें लगता है कि कारपोरेट जगत के अखबार उनकी आवाज मजबूती के साथ नहीं उठा सकते और उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकते हैं।
उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार और पटना कामर्स कालेज के पत्रकारिता विभाग के काडिनेटर तारिक फातमी का मानना है कि उर्दू पत्रकारिता आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ी है जहाँ दूर-दूर तक बेहतर भविष्य के लिए रौशनी की कोई किरण दिखाई नहीं देती है। उर्दू प्रेस के मालिकान उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर चाहे जितने भी आशांवित हों लेकिन दरअसल एक कडवी सच्चाई यह भी है की उर्दू पत्रकारों का भविष्य उस अँधेरे कुँए की तरह है जहाँ से न रौशनी की उम्मीद की जा सकती और न प्यास बुझाने के लिए पानी की, दूसरे शब्दों में कहें तो उर्दू पत्रकार आज अपने भविष्य को लेकर एक अनिश्चितता के स्थिति से गुजर रहा है और अपने भविष्य की इसी अनिश्चिता के कारण वह परेशान भी है। दुखी भी। जो लोग उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास की बातें करते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए की जिन लोगों ने उर्दू पत्रकारिता की नीवं रखी थी उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि समाज और मानवता की सेवा करना था, लेकिन आज स्थिति उलट गई है।
आज उर्दू प्रेस मालिकों का एक मात्र उद्देश्य सरकारी और निजी विज्ञापनों को प्रकाशित करके पैसा कमाना और उर्दू समाचार पत्रों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकारों से बेशर्मी के साथ उनका शोषण करना मात्र है। आप बिहार से प्रकाशित किसी भी उर्दू समाचार पत्रों के कार्यालयों में चाहे वो कौमी तंजीम, फारूकी तंजीम, पिनदार, संगम, प्यारी उर्दू हो या कार्पोरेट जगत द्वारा प्रकाशित रोजनामा उर्दू सहारा, का भ्रमण करे तो आपको वहां कार्यरत पत्रकारों दशा देख कर मेरे दावे की पुष्टि हो जाएगी कौमी तंजीम, के संपादक उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर खुशफहमी के शिकार हैं, सच्चाई यह है की भविष्य उर्दू पत्रकारिता का नहीं उनका जरूर उज्जवल है क्योंकि उर्दू समाचार पत्र के मालिक हैं, वह स्वय पत्रकार नहीं, उन्हें संपादक का पद विरासत में मिला है, उन्होंने कभी चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती सर्दी या भरी बरसात में मीलों पैदल चल कर समाचारों का संकलन नहीं किया। इसलिए उन्हें उस दर्द का एहसास नहीं होगा, जो दो हजार से पांच हजार की पगार पर बारह-बारह घंटों तक दफ्तर में बेगारी करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों को होता है।
यही हाल बिहार से प्रकाशित होने वाले सभी दैनिक समाचार पत्रों का है, पिन्दार, फारूकी तंजीम,संगम, इन सभों के वर्तमान मालिकों (तथाकथित संपादकों) का पत्रकारिता से कोई लेना-देना कभी नहीं रहा। इन तथाकथित संपादकों में कोई किरानी की नौकरी करता था तो कोई चिकित्सक है, कोई ठेके पर समाचार पत्र निकाल रहा है, तो कोई कमीशन पर विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए समाचार पत्र का संपादक बना बैठा है। जाहिर है जब स्थिति इतनी भयावह हो तो उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। सचाई तो ये है की आज पूरे देश विशेष कर बिहार में उर्दू पत्रकारिता उसी तरह दिशाहीन है जिस तरह देश का अल्पसंख्यक नेतृत्व, जिस तरह अल्पसंख्यक समुदाय आज मुस्लिम नेताओं के हाथों छला जा रहा है उसी तरह तथाकथित संपादकों द्वारा उर्दू पाठक और उर्दू समाचर पत्रों में कार्य करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों का शोषण और दोहन जारी है।
बिहार की उर्दू पत्रकारिता आज सत्ता के इर्द -गिर्द घूम रही है । हर समाचार पत्र सरकारी विज्ञापन पाने के लिए वर्तमान सरकार की हर सही-गलत नीतियों का समर्थन करना अपना धर्म और फर्ज समझता है ,पद और सम्मान पाने के लिए उर्दू समाचार पत्रों के कुछ पत्रकार सत्ता के गलियारों में नेताओं के आगे-पीछे दुम हिलाते और चापलूसी करते देखे जा सकते हैं। जाहिर है जब एक पत्रकार पद, पैसा और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए राजनीतिज्ञों के पास अपना आत्मसम्मान गिरवी रख दे तो उस समाचार पत्र या पत्रकार से समाज कल्याण, मानव सेवा, भाषा, देश, राज्य और समाज के विकास में भागीदारी निभाने की आशा करना बेमानी है। देश और विशेष कर बिहार की उर्दू पत्रकारिता में आज जोश ,जज्बा और क्षमता नहीं है कि वह किसी बड़े आन्दोलन की अगवाई कर सके?
दूसरी ओर ‘बिहार की खबरें’ के संपादक अंजुम आलम कहते हैं कि बिहार से सर्वप्रथम प्रकाषित होने वाला पत्र भी उर्दू था। इसके बावजूद इसकी वर्तमान दषा उत्साहवर्द्धक नहीं है। हालांकि अभी भी पटना सहित राज्य से दर्जनों उर्दू दैनिक एवं पचासों पत्रिकायें प्रकाशित हो रही हैं परंतु इनका स्तर उस बुलंदी पर नहीं है, जिसकी उम्मीद की जाती है। बिहार में उर्दू को द्वितीय राजभाषा का भी दर्जा प्राप्त है। उर्दू समाचार पत्रों को राज्य सरकार से विज्ञापन भी मिलता है। सरकारी विज्ञापनों के कारण उर्दू समाचार पत्रों की आर्थिक स्थिति सम्पन्न नहीं तो संतोषजनक अवश्य है। इसके बावजूद उर्दू पत्रकारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।
परिणाम स्वरूप युवा पीढ़ी उर्दू पत्रकारिता की ओर आकर्षित नहीं हो रही है। इस कारण आने वाले दिनों में उर्दू समाचार पत्रों को संकटमय स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। अखबार मालिकों को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। श्री अंजुम आलम कहते है कि स्वतंत्रता के बाद से गुलाम सरवर, शीन मुजफ्फरी, शाहिद राम नगरी इत्यादि उर्दू पत्रकारों, जो मील का पत्थर छोड़ा था वहां तक आज कोई नहीं पहुंच पाया है। मौजूदा उर्दू पत्रकारिता जगत में आज भी कई अच्छे पत्रकार सक्रिय हैं। परंतु, उनकी दशा से नई नस्ल प्रभावित नहीं हो पा रही है। आज का युवा वर्ग इसे करियर के रूप में अपनाने का इच्छुक नजर नहीं आ रहा है। उर्दू में अभी बिहार से कई रंगीन एवं आकर्षक उर्दू समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन सीमित समाचार नेटवर्क का अभाव पाठकों को खटकता है। उर्दू समाचार पत्र सामान्यतः आम लोगों द्वारा प्रकाशित होते थे। परंतु हाल के वर्षों में सहारा इंडिया ने इस क्षेत्र में भी कदम रखा है।
उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार राशिद अहमद का मानना है कि भारत की राजनीति विशेष रूप से स्वतंत्रता संग्राम में अदम्य भूमिका निभाने वाली उर्दू पत्रकारिता आज हिन्दी और अंग्रेजी की तुलना में पिछड़ गई है। यह एक कटु सत्य है मगर यह भी सच है कि जहां एक ओर इसके पिछड़ेपन की बात में कहानी और कल्पना अधिक है वहीं इसके पिछड़ेपन के आयाम भी विचारनीय हैं। उर्दू पत्रकारिता का पिछड़ापन पत्रकारिता के मूल तत्व से जुड़ा हुआ नहीं है क्योंकि अगर मुद्दों और सामाजिक सरोकारों की बात करें, तो समय की मांग और समस्या के मूल्यांकन में यह पीछे नहीं रही, तुलनात्मक अध्ययन करते समय कुछ बातों की अनदेखी की जाती है, जिसके कारण नतीजा गलत निकलता है।
समाचार पत्र के सरोकारों का सीधा नाता उसके पाठकवर्ग से होता है। समाज की विस्तृत तस्वीर पेश करने के साथ-साथ समाचार पत्र और उससे जुड़े पत्रकार उस पूरे फ्रेम में अपने पाठक के स्थान तलाश करते हैं और उचित स्थान न मिल पाने के कारण और उससे जुड़ी समस्याओं का मूल्यांकन करते हैं। अंग्रेजी हिन्दी पत्रकारिता का विश्लेषण करते समय तो पाठक तत्व का विशेष ध्यान रखा जाता है मगर उर्दू पत्रकारिता के विश्लेषण के समय उसके पाठक तत्व को अनदेखा करके उसे उर्दू और हिन्दी के पाठक तत्व की कसौटी पर परखा जाता है। कहने का मतलब केवल इतना है कि उर्दू पत्रकारिता की बदहाली मुद्दों और सरोकारों से दूर रहने की नहीं है बल्कि आर्थिक पिछड़ेपन की कहानी है।
समाचार पत्र का अर्थ विज्ञापन से जुड़ा हुआ है। मगर उर्दू समाचार पत्रों को हमेशा विज्ञापन के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। संघर्षरत रहना पड़ता है। विज्ञापन सरकारी हो या गैर सरकारी। व्यापारी भी उर्दू पाठक को अपना उपभोक्ता तो जरूरत समझते हैं। उसके हाथ अपना सामान अधिक से अधिक बेचने का प्रयास तो जरूर करते हैं। मगर उन तक पहुंचने का रास्ता वह उर्दू समाचार पत्र के स्थान पर दूसरी भाषाओं के समाचार पत्रों में तलाश करते हैं। यह मानना होगा कि आर्थिक तंगी के कारण नई तकनीक अपनाने में उर्दू पत्रकारिता पिछड़ जाती है। वह नए प्रयास नहीं कर पाती, यह भी सही है कि आर्थिक तंगी के कारण उर्दू समाचार पत्र अपने पत्रकारों को उतनी और सुविधायें नहीं दे पाते जितना हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारों को मिलती है। इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
वरिष्ठ उर्दू पत्रकार इमरान सगीर कहते है शुरूआती दौर में उर्दू अखबारों को यह गौरव हासिल था कि उर्दू अखबार के संपादक या पाठक किसी विशेष वर्ग के नहीं हुआ करते थे, बल्कि यह पूरे तौर से सामान्य वर्ग के लिए था। लेकिन समय के साथ-साथ परिवर्तन यह हुआ कि उर्दू अखबार एक विशेष वर्ग तक सीमित होने लगा। ये उर्दू पत्रकारिता के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है। आज हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारिता में बड़ी क्रांति आयी है, लेकिन इसकी अपेक्षा उर्दू पत्रकारिता को उतनी गति नहीं मिल पा रही है। हिन्दी और अंग्रेजी समाचार-पत्रों की तुलना में आधुनिक तकनीक को अपनाने में अब भी उर्दू अखबरात संघर्षरत हैं, इसका कारण स्पष्ट है कि सरकारी स्तर पर इसे अपेक्षाकृत सहयोग नहीं मिल पाता वहीं निजी या व्यवसायिक विज्ञापनों से भी उर्दू समाचार-पत्रों को उतनी आमदनी नहीं हो पाती जिससे की आर्थिक रूप से संपन्न हो सकें।
इन सबके बावजूद सीमित संसाधनों में उर्दू अखबरात सकारात्मक सोच के साथ उर्दू पत्रकारिता के सफर को आगे बढ़ा रहे हैं। उर्दू अखबरात की सबसे बड़ी खूबी ये है कि ये आम आदमी का अखबार होने का धर्म निभाते हैं। हिन्दी या अंग्रेजी समाचार-पत्रों तक आम लोगों की पहुंच आसान नहीं हो पाती, वहीं उर्दू अखबार तक समाज में हाशिये पर खड़ा व्यक्ति की भी आसानी से पहुंच सकता है। अर्थात् समाज का कोई व्यक्ति उर्दू अखबारों से बिल्कुल जुड़ा हुआ महसूस करता है। ये उर्दू अखबारों की लोकप्रियता का बड़ा कारण है। उर्दू अखबारों की विश्वसनीयता और महत्ता इसके पाठक वर्ग में इसे लेकर भी है, कि ये उनके साथ होने वाली किसी भी स्तर पर नाइंसाफी की आवाज प्रमुखता से उठाते हैं, ऐसी खबरों को प्रमुखता से सामने लाते हैं, जिन्हें भेदभाव के नतीजे में अंग्रेजी या हिन्दी समाचार-पत्रों में या तो जगह नहीं दी जाती या फिर उन्हें तोड़-मरोड़कर संक्षेप में किसी कोने में जगह दी जाती है। ऐसे में उर्दू समाचार पत्र ही उनकी उत्सुकता दूर कर पाते हैं।
आज के आधुनिक युग में दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लोगों को उर्दू अखबार नहीं मिल पाता, वैसे गांव के लोग अब भी उर्दू अखबार के दफ्तर से डाक के माध्यम से अखबार मंगाते हैं, और दो-तीन दिन पुरानी ही सही लेकिन इसे पढ़ना जरूर पसंद करते हैं। डाक से अखबार मंगा का कर पढ़ने का शौक उर्दू अखबारों की अहमियत का एक बड़ा उदाहरण है। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल ही कहा जायेगा।
उर्दू पत्रकारिता में महिलाएं नहीं के बराबर है। बल्कि उर्दू पत्रकारिता से कोसो दूर है। स्वतंत्र उर्दू पत्रकार डा0 सुरैया जबीं कहती है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में नई क्रांति तो आयी अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तुलना में न सही लेकिन उर्दू पत्रकारिता में भी क्रांति आयी है। बड़ी संख्या में उर्दू समाचार-पत्र नये रंग-रूप में प्रकाशित किये जा रहे हैं। जहां आधुनिक तकनीक का प्रयोग भी हो रहा है। समाचारों की प्रस्तुति में सीमित दायरे से बाहर निकलकर अब उर्दू अखबारों में भी सामान्य खबरें पढ़ने को मिलती हैं। अलग-अलग विषयों पर साप्ताहिक विशेषांक भी प्रकाशित होते हैं, और अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तरह खुद को स्थापित कर रहे हैं।
यह उर्दू पत्रकारिता के लिए एक शुभ संकेत हैं। पहले उर्दू अखबारों में खबरों का दायरा बिल्कुल सीमित था। वर्तमान में उर्दू पत्रकारिता के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण बात ये भी है कि बिहार की उर्दू प्रिंट मीडिया में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है, क्योंकि उर्दू अखबारों में महिला मीडियाकर्मियों को इन्ट्री नहीं मिल पाती, आज कालेजों में उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स भी चलाये जा रहे हैं। उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त करने वालों में बड़ी संख्या छात्राओं की भी है, लेकिन इन्हें भी उर्दू अखबारों के दफ्तरों में इन्ट्री नहीं मिल पा रही है। उर्दू पत्रकारिता की सेवा से महिलाओं की दूरी अब भी कायम है, ये दुर्भाग्यपूर्ण है और ये दूरी मिटनी चाहिए।
बिहार हो या देश का कोई हिस्सा उर्दू पत्रकारिता की दशा-दिशा को प्रभावित करने वाले कारणों पर उर्दू पत्रकारों ने जो विचार दिये वह सवाल छोड़ जाते हैं। उर्दू पत्रकारिता की बदहाली के पीछे आर्थिक तंगी, भाषा, कारपोरेट घराना और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव जहां महत्वपूर्ण हैं वहीं पर राजनीतिक-सामाजिक कारण भी अहम है। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद शुरूआती दौर की तरह आज यह अपने शिखर पर नहीं है। इसके सिमट जाने से उर्दू एक वर्ग/समुदाय तक ही रह गयी है। शुरूआती दौर में यह किसी एक वर्ग/समुदाय तक ही समीति नहीं थी बल्कि गैरमुस्लिम विद्वान उर्दू समाचार पत्रों के संपादन किया करते थे। आज ढूंढ़ने पर भी गैरमुस्लिम विद्वान नहीं मिलेगें जो उर्दू के अखबारों का संपादन करते हो ? इसके पीछे वजह जो भी रही हो एक वजह साफ है कि उर्दू को मुसलमनों की भाषा से जोड़ कर देखा गया। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद भी उर्दू अखबार गैरमुस्लिम घरों में नहीं जाता है।
May 18th, 2011 | Tags: उर्दू पत्रकारिता | Category: मीडिया | Print This Post
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