Thursday, May 19, 2011

प्रेमचंद पर लाल-पीली आंखें

प्रेमचंद पर लाल-पीली आंखें

October 25th, 2010
आलोचना
वेद प्रकाश
प्रेमचंद की नीली आंखें: धर्मवीर; वाणी प्रकाशन मूल्य: 995 रु। आईएसबीएन- 978-93-5000-220-9
लेखक की यह पुस्तक प्रेमचंद पर उनकी पिछली पुस्तक प्रेमचंद : सामंत का मुंशी का ही अगला चरण है औरमातृसत्ता, पितृसत्ता और जारसत्ता शृंखला का खंड तीन। जहां प्रेमचंद :सामंत का मुंशी ‘कफऩ’ पर केंद्रित थी वहीं यह रंगभूमि पर केंद्रित है। पर यह किताब रंगभूमि से कहीं ज्यादा ‘चमारों’, उनके चित्रण और उस समय की ‘चमार’ राजनीति पर केंद्रित है। धर्मवीर ‘चमार’ शब्द पर बहुत आग्रह करते हैं और यह शब्द पूरी पुस्तक में तकियाकलाम की तरह बार-बार आता है। दरअस्ल धर्मवीर चमारों को एक अलग नस्ल मानते हैं और हर बात में कहते हैं, चमार ऐसा नहीं कर सकते, चमार ऐसे नहीं हो सकते। धर्मवीर खुद को ‘चमारों’ का स्वयंभू नेता और चमारों का ‘महान’ विचारक मानकर अपने उच्च कोटि के विचार प्रस्तुत करते हैं।
धर्मवीर की तर्कप्रणाली जातिवादी, पुरुषवादी और फासीवादी है। साहित्य और कला के बारे में उन्होंने जो विचार इस पुस्तक के तैंतीसवें अध्याय ‘घेरे में जार’ में व्यक्त किए हैं, वे नाजिय़ों की याद दिलाते हैं। साहित्य और कला को कोसने के लिए वह अपनी गवाही में प्लेटो को उद्धृत करते हैं। उनके मुताबिक ”कलाकार नकलची होता है। नकलची आदमी असल आदमी की कीमत को नहीं समझता। इसलिए, नकल करना केवल मनोरंजन करना है, जीवन का कोई गंभीर मसला हल करना नहीं।’’ (पृ. 658) अगर कला का काम केवल मनोरंजन करना है, जीवन की समस्याओं पर बात करना नहीं तो ऐसी कला के साथ क्या किया जाना चाहिए। लीजिए उन्हीं के मुखारविंद से सुनिऐ, ”क्रांति और बदलावों के समय में ऐसी कला को फूँका भले ही न जाए, तत्काल के लिए एक ओर तो किया ही जा सकता है।’’ (पृ. 659)
वह यहीं तक नहीं रुकते। कलाकार के बारे में उनके विचार यों व्यक्त होते हैं, ”कोई कलाकार बंदर की तरह कितनी भी खों-खों कर के नकल करे, लेकिन वह सच में बंदर नहीं बन सकता।’’ (पृ। 662) अब कलाकार के चरित्र पर भी कुछ प्रकाश डल जाए तो अच्छा है। ”हिंदू साहित्यकार नकल नहीं करता बल्कि धोखा देता है। वह अपने जीवन में साधु नहीं होता, लेकिन साहित्य में साधु बना रहता है। नकलची होने की तुलना में यह खतरनाक मसला है।’’ (पृ. 662) तो कलाकार या साहित्यकार को क्या करना चाहिए जिससे वे समाज के लिए उपयोगी बनेंगें। ”भला, जो व्यक्ति यह नहीं लिख सकता कि सिगरेट और शराब का सेवन नहीं करना चाहिए और जारकर्म से दूर रहना चाहिए, उसे साहित्यकार कैसे कहा जा सकता है?—यह समाज के अहित में लगा हुआ आदमी है।’’ (पृ.665)
साहित्यकारों को क्या करना चाहिए यह आपने जान लेने के बाद प्रेमचंद को क्या करना चाहिए था : ”ईमानदारी यह होती कि प्रेमचंद या तो स्वामी अछूतानंद की जीवनी और विचार पर एक किताब लिख देते या गांधी की जीवनी और विचार पर एक किताब लिख देते। पर उन्होंने इन में से कोई काम नहीं किया। जब इन दो मूल कामों में से कोई काम नहीं किया, तो जो किया, वह गुड़-गोबर एक कर दिया। यही कुल रंगभूमि है।’’ (पृ.671)
और अगर साहित्यकार फिर भी काबू में नहीं आएं तो? ”साहित्य को सभ्यता और कानून के दायरे में खुल कर खेलने की मनाही नहीं है।… लेकिन, यदि उनके साहित्य से समाज में व्यभिचार फैलता है तो उन्हें घेरे में जरूर लाया जाएगा। अपराध के मामले में लेखक को विशेष माफी नहीं मिल सकती। तब वह अन्य पेशे वालों की तरह सामान्य मनुष्य और आम नागरिक हो जाता है।’’ (पृ.687)
साहित्य और कला के बाद अब जऱा प्रेमचंद पर आएं। धर्मवीर को दूसरों को निपटाने में बहुत मज़ा आता है। जब कबीर पर पुस्तकें लिखीं तो हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर पुरुषोत्तम अग्रवाल तक सबको निपटा दिया। इसके बाद उनकी कृपा दृष्टि प्रेमचंद पर पड़ी।
धर्मवीर रंगभूमि को उपन्यास मानने के बजाय एक रिपोर्ट मानकर उसमें उस वक्त की ‘अपनी’ सोच और सच्चाइयों को ढूंढते हैं और न पाने पर झल्लाने लगते हैं। और प्रेमचंद को दोष देते हैं कि उन्होंने उस समय की चमारों की सच्चाइयों को बयान नहीं किया और किताब को चमारों के नजरिये से नहीं लिखा, उनका सही चित्रण नहीं किया, अत: वह महान रचनाकार कैसे हो सकते हैं। इस पुस्तक को पढ़ते समय, खासकर स्वामी अछूतानंद वाला अध्याय पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगा कि अगर धर्मवीर ने साहित्यिक आलोचना लिखने के बजाय राजनीतिक आलोचना लिखी होती तो कैसा होता। तब प्रतिपक्ष में प्रेमचंद के स्थान पर गांधी होते और मज़ा आता।
लेकिन उन्होंने साहित्यिक आलोचना लिखी है और प्रेमचंद को उन चीजों का दोषी माना है, जो उन्होंने लिखीं ही नहीं। दूसरे उन्हें प्रेमचंद से शिकायत है कि उन्होंने ‘चमारों’ का सही चित्रण नहीं किया। वैसे तो प्रेमचंद ने कहीं यह दावा नहीं किया कि उनका यह उपन्यास दलित समस्या पर है और न ही उनके आलोचकों ने रंगभूमि को अछूत समस्या पर केंद्रित माना है। फिर धर्मवीर को उनसे शिकायत क्यों है? उन के अनुसार प्रेमचंद ने सबसे बड़ी ग़लती यह की कि उन्होंने रंगभूमि के नायक को चमार क्यों दिखा दिया। अगर चमार दिखाना ही था तो उसे स्वामी अछूतानंद का प्रतिरूप क्यों नहीं बनाया?
इसका जवाब भी वह खुद ही देते हैं। उनके अनुसार प्रेमचंद हिंदू यानी ब्राह्मणवादी और ज़मींदारी मानसिकता के व्यक्ति थे और उस समय हिंदुओं को ‘चमारों’ के आंदोलन से बहुत खतरा था इसलिए इस खतरे का साहित्यिक मुकाबला करने के लिए उन्होंने रंगभूमि के नायक को चमार बनाया और वह भी पूरी तरह हिंदू परंपरा में रंगा हुआ ‘चमार’। ‘चमार’ शब्द का रह रह कर इस्तेमाल करने के लिए क्षमा चाहता हूं परंतु लेखक को समझने के लिए इस शब्द का जि़क्र करना ज़रूरी है।
पुस्तक के पांचवे अध्याय ‘स्वामी अछूतानंद और सूरदास की तुलनाएं’ में रंगभूमि के पात्र ‘सूरदास’ में उस समय के सामाजिक क्रांतिकारी अछूतानंद को ढूंढते हैं। और न मिलने पर क्रुद्ध हो जाते हैं। फिर उसमें साजिशें ढूंढऩे लगते हैं।
‘चमार’ के बाद इस पुस्तक का दूसरा केंद्रीय विचार ‘जारसत्ता’ है। समाज में चारित्रिक शुद्धता का उनका आग्रह इतना प्रबल है कि इसके लिए वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं। लेकिन उनकी ये चारित्रिक शुद्धता पूरी तरह पुरुषवादी है।
धर्मवीर की न्यायबुद्धि के अनुसार माधव का अपनी पत्नी को तड़पते देखना जायज था क्योंकि उसके गर्भ में ठाकुर का बच्चा पल रहा था। वह पूरी शिद्दत से खोज करते हैं कि बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा कैसे आया। इसके तीन कारण हो सकते हैं–एक, बुधिया का अपनी मर्जी से रंगरेलियां मनाने ठाकुरों के घर जाना, जिसके दौरान उसे यह बच्चा ठहर गया था? यदि ऐसा था तो यह बात उचित मालूम पड़ सकती है कि माधव अपना बच्चा न होने के कारण बुधिया से बेमुरव्वती बरते। तब माधव के अमानवीय व्यवहार को कुछ हद तक ठीक माना जा सकता है। परंतु धर्मवीर स्वयं ऐसा नहीं मानते इसलिए यह संभावना खारिज हो जाती है।
दूसरे, उस गांव की प्रथा के कारण बुधिया को पहली रात ठाकुर की हवेली में गुजारनी पड़ी और उसी दौरान उसे यह बच्चा ठहर गया। और तीसरे, घर का खर्च चलाने के लिए उसे खेतों में घास काटने और ठाकुर की हवेली में अनाज पीसने जाना पड़ता था, उस दौरान वह ठाकुर के किसी नौजवान लड़के की गुंडागर्दी का शिकार हो गई थी।
धर्मवीर दूसरे और तीसरे नंबर की संभावनाओं को मानते हैं। इसके लिए वे ना जाने कहाँ-कहाँ से सामग्री जुटा कर यह साबित करते हैं कि चमारों की स्त्रियों से खेतों में बलात्कार होना या शादी की पहली रात जमींदार के घर गुजारना उस समय की साधारण बात थी जिसके लिए पूरी तरह ठाकुर और जमींदार जिम्मेवार थे। यह ठीक है कि सामंती और सत्ताधारी लोग अपने यहां काम करने वाली मजदूरनियों का दैहिक शोषण करते हैं। एक गंभीर सामाजिक-आर्थिक समस्या है, जिसे जनआंदोलन चला कर सामाजिक समानता पा कर ही रोका जा सकता है।
लेकिन धर्मवीर ऐसे नहीं सोचते। वह ठाकुर को जिम्मेवार मानते हैं और प्रेमचंद पर भी बरसते हैं कि वह ठाकुर के इस अन्याय का विरोध नहीं करते। लेकिन उनके क्रोध का सबसे ज्यादा शिकार ‘बुधिया’ बनती है। वह उन ‘चमारियों’ को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं जो चमारों के अलावा किसी अन्य से प्रेम करें। अपनी पुस्तक प्रेमचंद सामंत का मुंशी में तो उन्हें अंतर्जातीय विवाह भी दलित कौमों का मज़ाक उड़ाना लगता है, ‘तब अनिता भारती क्या कह रही हैं? दलित कौमें हारी हुई हैं—और इसका सबसे खतरनाक अर्थ यह है कि उनकी औरतें उनकी नहीं हैं। इसलिए, जब कोई दलित नारी जात तोडऩे की बात कहती है तो लगता है मानों वह दलित कौमों की ज्यादा मजाक उड़ा रही है क्योंकि तब गैर दलितों द्वारा उड़ाई मजाक कम पड़ती है।’ (प्रेमचंद- सामंत का मुंशी, प्रथम संस्करण, पृ.53)
धर्मवीर के अनुसार बुधिया का बलात्कार होना असली समस्या नहीं है। असली समस्या है उसका किसी ठाकुर या किसी गैर-दलित द्वारा बलात्कार होना। बल्कि अगर वह अपनी मर्जी से किसी ब्राह्मण या ठाकुर को पसंद करती है तो भी वह उतनी ही बड़ी दोषी है। क्योंकि तब उनकी औरतें उनकी नहीं रह जाएंगी।
क्या कसूर है बुधिया का? बुधिया का खेतों में घास खोदने जाना या ठाकुर की हवेली में चक्की पीसने जाना या अपने पेट भरने का संघर्ष करते हुए ठाकुर या उसके गुर्गों के अत्याचार का शिकार हो जाना। क्या बुधिया को अपने पति का साथ देते हुए घर में बैठकर भूखों मरना चाहिए था? या अपने नाकारा पति-परमेश्वर और ससुर की भूख मिटाने के लिए खेतों से घास काटनी चाहिए थी, या ठाकुर की हवेली में जा कर चक्की पीसनी चाहिए थी। दोनों ही कामों में उसके यौन शोषण की आशंका थी। और ऐसी स्थिति में माधव का सारे दिन कामचोरी करना धर्मवीर की दृष्टि में शायद बड़ा पवित्र काम था। इसीलिए वह अपने साढ़े सात सौ पृष्ठों के इस ग्रंथ में ठाकुरों और जमींदारों को तो खूब गरियाते हैं, प्रेमचंद तो खैर उनके प्रेम का प्रसाद पाते ही हैं, उनके दुर्वासा क्रोध से बुधिया भी बच नहीं पाती। बल्कि अगर उनके तर्कों को ध्यान से देखें तो वह बुधिया का बलात्कार हो जाने के लिए दोषी खुद बुधिया को मानते हैं, जमींदार या ठाकुर को कम। और बुधिया आखिर अधिक दोषी क्यों न हो, वह औरत जो है, और वह भी एक दलित औरत। वह धर्मवीर जैसे आईएएस अधिकारी का बिगाड़ ही क्या सकती है।
जब से धर्मवीर ने ‘हिंदू विवाह की तानाशाही’ लेख लिखा है, और जिस तरह वह उसके कारण चर्चित हुए हैं, ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा’, उससे उन्होंने अपने समय को बेतुकी बातों में लगा कर जाया किया है। लोकायती वैष्णव विष्णु प्रभाकर, सीमंती उपदेश (सं।) और हिंदी की आत्मा लिखने वाले धर्मवीर जब कबीर पर कलम चलाते हैं तो अपनी समझ और ज्ञान को भुलाकर जल्द लोकप्रिय होने के लिए कागज़ पर कागज रंगते चले जाते हैं। पर कोई महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात नहीं कह पाते। उनका सारा लेखन पूरे इतिहास को ब्राह्मण बनाम चमार में बदल देना है, उन्हें बहुजन समाज के वाल्मीकि, खटिक और जुलाहे भी पसंद नहीं आते। वह केवल खुद को और अपनी जाति को ब्राह्मणों के स्थान पर बैठा देना चाहते हैं।
सच यह है कि धर्मवीर का लेखन भी उसी तरह जातिवाद और घृणा से भरा हुआ है जैसे मनुस्मृति और दूसरे हिंदू ग्रंथ। फर्क इतना ही है कि मनुस्मृति ब्राह्मणों का गुणगान करती है तो धर्मवीर चमारों का। यह सामंतवादी मानसिकता की विचित्रता है कि गुलामी सिर चढ़ कर बोलने लगती है। गुलाम गुलामी का खात्मा नहीं करना चाहता, बल्कि खुद मालिक बन कर वही कुछ करना चाहता है, जो उसका मालिक करता था। ये ब्राह्मणवाद और जातिवाद का नशा है जो लेखक के सिर चढ़ कर बोल रहा है। इसीलिए आलोचक तेज सिंह की यह बात सही है कि ”इस बात पर मतभेद हो सकता है कि प्रेमचंद सामंत के मुंशी थे या नहीं, लेकिन यह निश्चित है कि धर्मवीर ब्राह्मणवाद के पक्के सामंत बन गए हैं।’’

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