Tuesday, August 14, 2012

गायब तालाब

Author: 
संजय जैन
Source: 
जनसत्ता, 05 अगस्त 2012

कहानी


तालाब मिला नहीं पर गांव वालों ने भी उम्मीद छोड़ी नहीं है। आज भी साल में एक बार पूर्णिमा को सुबह शुभ मुहूरत में गांव का जत्था राजधानी की ओर निकल पड़ता है। उस दिन रात को गांव वाले जत्थे का इंतजार करते हैं। यह सोचते हुए कि इस बार शायद उनके तालाब की कोई खबर मिल जाए।
कहानी एक गांव की है। वैसा ही गांव जैसा आमतौर पर होता है। गांव की इस कहानी में पाठकों को सुविधा है कि वे इसे किसी भी देश और काल से जोड़ सकते हैं। सदियां बीत गईं इस कहानी को सुनते-सुनाते। किस्सागो बदलते रहे, कहानी भी समय के साथ बदलती रही। इसके बाद भी कहानी को सुनने-सुनाने का तौर तरीका नहीं बदला।

कहानी शुरू होती है। एक गांव था, नाम कुछ भी रख लीजिए। उस गांव में रहने वाले अलग-अलग टोलों में रहते। अलग-अलग जाति, अलग-अलग टोला। पर गांव में बड़ा एका था। लोग एक दूसरे का सुख-दुख बांटते। बड़े-बूढ़े सम्मान पाते। युवा आसमानों में उड़ते, पर बूढ़ों को देख थम जाते। बच्चों के लिए तो हर टोला और टोले के घर खेल के लिए खुले थे। साझा त्योहार मनाने की परंपरा थी गांव में। होली-दीपावली हर टोला बढ़-चढ़कर शामिल होता। रंग उड़ाते, दिए जलाते। हिंदू हों या मुसलमान, कोई अंतर नहीं रहता। इसी तरह ईद हो, मोहर्रम के ताजिए निकले, सब शामिल हो जाते। मन्नत मांगते, रेवड़ियां चढ़ाते। ऐसा था यह गांव।

कुछ ऐसा ही था गांव का तालाब। सबकी जरूरतों को जो पूरा करता बिना किसी भेदभाव के। तालाब था गांव के बाहर। लेकिन लगता नहीं था कि वह गांव का हिस्सा नहीं है, सुबह हो या शाम वहां चहल-पहल लगी रहती । कभी बच्चे तो कभी बड़े और कभी लुगाइयां उसके पास नजर आतीं। तालाब भी सबका स्वागत अपनी बाहें फैलाकर करता। साल का कोई सा भी समय हो वह हमेशा पानी से भरा रहता। उसने तय कर लिया था कि कभी भी पानी खुंटने नहीं देगा।

तालाब कैसे बना, इसकी भी एक कहानी है। जो गांव के बड़े-बूढ़े सुनाते रहते। जब तालाब नहीं था, तब गांव की जरूरतें गांव से थोड़ी दूर बहती नदी से पूरी होती थी। एक साल भीषण सूखा पड़ा, बारिश हुई ही नहीं। अकाल पड़ा, नदी सूख गई। फसल गर्मी से झुलस गई। लोग परेशान। घर में अन्न नहीं और करने को काम नहीं। बात राजा तक पहुंची। राजा को अपनी प्रजा की चिंता रहती थी। राजा ने गांव के पास लोगों के लिए काम खोला। लोग काम करते और शाम को मजदूरी में अनाज ले जाते। यह काम कोई महिनों तक चला। जब तक कि फिर से बारिश का मौसम नहीं आ गया। इस काम की वजह से यह तालाब बना। इसके बनाने में हर घर के पुरखों का पसीना बहा था। शायद इस वजह से गांव के हर बाशिंदे का तालाब से गहरा लगाव था।

एक दिन गजब हो गया, ऐसा तालाब अचानक गायब हो गया। उस दिन लोग रोज की तरह सोए, जब सुबह उठे तो तालाब नहीं था। था तो वहां बस एक सपाट मैदान। मैदान को देखकर कुछ देर तक तो लोगों को समझ ही नहीं पड़ा। ऐसा विचित्र घटना तो गांव के इतिहास में कभी हुई नहीं थी।

जैसे कि परंपरा थी गंभीर मामलों में पंचायत का दखल हमेशा रहता था। गांव में पंचायत बैठी, सारे मामले पर बड़ी गंभीरता से विचार हुआ। इस दौरान अलग-अलग बातें सामने आ रही थीं। काफी बहस के बाद फैसला यह हुआ कि तालाब गायब होना गंभीर मामला है, इसलिए इसकी शिकायत हाकिमों से करनी चाहिए। अच्छा यह होगा कि सूबे के हाकिम से गांव के कुछ लोग जरूर मिलें और पूरा मामला उन्हें बताएं। सबने पंचायत के फैसले पर सहमति दी। दूसरे दिन गांव में समझदार समझे जाने वाले बीस-पचीस लोगों का जत्था तैयार हो गया। जत्थे में जाने वालों की लुगाइयों ने एक वक्त का खाना बांध कर रख दिया। जत्थे को गांव की सीमा तक विदा करने गांव वाले आए। उम्मीदों से भरा जत्था दोपहर तक सूबे के मुख्य शहर में पहुंच गया। रास्ते में बिना रुके हाकिम के दफ्तर पहुंचे तो सूरज सिर पर आ गया था। दो लोग हाकिम के दफ्तर गए. बाकी सबने एक बड़े बरगद की छाया में डेरा डाल दिया। थोड़ी देर बाद ये दो लोग वापस आ गए। ये दोनों खबर लाए थे कि बड़े हाकिम तो दफ्तर में हैं नहीं, छुट्टी पर हैं। यह सुनकर लोग थोड़े से निराश हो गए। पर पूरी बात सुनी तो पता हुआ छोटे हाकिम हैं। दफ्तर में और उनसे मिला जा सकता है।

गांव वाले खुश हो गए, अब तो बस एक पखवाड़े की बात है, ईश्वर क्यों नहीं चाहेगा। हाकिम कह रहा है तो भरोसा तो करना ही पड़ेगा। तालाब तो मिल ही जाएगा। इस खुशी के साथ खुश होते हुए जत्था गांव लौट पड़ा।
इतना सुनते ही पूरा जत्था जा पहुंचा छोटे हाकिम के दफ्तर में। छोटे हाकिम इस वक्त अपनी प्रिय आराम की मुद्रा में थे। एक साथ इतने गांव वालों को देख कर चौंके, फिर पूछा कि क्या माजरा है? तो लोग शुरू हो गए। साहब, हमारे गांव का तालाब गायब हो गया है। पूरी कहानी सुनने के बाद छोटे हाकिम ने उन्हें समझाया।......अरे, भोले लोगों, राजकाज ऐसे नहीं चलता। जो भी समस्या है, एक दरख्वास्त बनाकर लाओ। लिहाजा, दल हाकिम के दफ्तर से फिर बाहर निकल गया। हाकिम के दफ्तर के बाहर एक नकलनवीस बैठा था। उसकी भेंट पूजा कर उसे पूरा मामला समझाया। नकलनवीस ने उनकी समस्या को समझकर एक दरख्वास्त बना दी। दरख्वास्त लेकर ये लोग दौड़े-दौड़े फिर छोटे हाकिम के पास पहुंचे। इस उम्मीद के साथ कि तालाब गांव में वापस आ जाएगा। लेकिन, ऐसा कुछ चमत्कार हुआ नहीं, छोटे हाकिम ने दरख्वास्त रोक ली। और कहा-जांच कराते हैं, कुछ पता चला तो खबर करेंगे। गांव वाले थोड़े से निराश हुए। लेकिन, छोटे हाकिम पर भरोसाकर गांव लौट चले। गांव पहुंचे तो गांव में उनका इंतजार हो रहा था बेसब्री से। दिन भर की उत्सुकता का अंत हुआ। गांव की सभा इस उम्मीद से खत्म हुई कि जल्दी ही छोटे हाकिम अपने तालाब के बारे में कोई खबर भेजेंगे।

पर दिन पर दिन गुजरते गए। छोटे हाकिम से कोई खबर आई नहीं। गांव वाले रोज तालाब की खाली जगह को देखते और ठंडी सांस भर कर रह जाते। उनकी अधीरता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। जब उम्मीद का एक कतरा तक नहीं बचा तो फिर एक बार गांव की चौपाल पर पंचायत बैठी। सबने अपनी-अपनी समझ से बात रखी फिर सब की सहमति से तय किया गया कि इस बार जाकर बड़े हाकिम से मिला जाए। उनको समस्या बताई जाए। यह भी बताया जाए कि छोटे हाकिम ने कुछ किया नहीं। तय हो गया कि अगली भोर में गांव का जत्था निकल पड़े। रात रुकना पड़े तो रुक जाए पर बड़े हाकिम से मिलकर ही आए। लुगाइयों को बता दिया गया कि दल में जाने वालों के लिए दो दिन का खाना साथ में बांध दें। इस बार गांव के एक मात्र बांके पंडित से पंचांग दिखाकर मुहूरत भी निकलवाया गया। ताकि शुभ मुहूरत में गांव का जत्था प्रस्थान करे और काम को पूरा करके ही लौटे।

अगले दिन भोर में शुभ मुहूरत में जत्था निकल पड़ा। दोपहर होते-होते सूबे की राजधानी पहुंच गया। भाग्य अच्छा था या शुभ मुहूरत में निकलने का प्रभाव कि बड़े हाकिम दफ्तर में मिल गए। बड़े हाकिम, सचमुच बड़े हाकिम जैसा लगते थे। गर्व और गरिमा से भरे हुए। उसने गौर से गांव वालों की बातें सुनी। कुछ प्रश्न भी पूछे, जैसे कब से तालाब गांव में था, गायब होने से पहले आखिरी बार किसने देखा था। इस गांव वालों से कोई बैर तो नहीं था, आदि-आदि। जत्थे में गए लोगों को अच्छा लगा, बड़े हाकिम की रुचि देखकर। आखिर में बड़े हाकिम ने कहा-एक पखवाड़े का समय दो। मैं खोज करवाता हूं। ईश्वर ने चाहा तो आपका तालाब मिल जाएगा। गांव वाले खुश हो गए, अब तो बस एक पखवाड़े की बात है, ईश्वर क्यों नहीं चाहेगा। हाकिम कह रहा है तो भरोसा तो करना ही पड़ेगा। तालाब तो मिल ही जाएगा। इस खुशी के साथ खुश होते हुए जत्था गांव लौट पड़ा।

जत्था गांव पहुंचा। बताया बस अब तो एक पखवाड़े की बात है, अपना तालाब मिला ही समझों, बड़े हाकिम ने बोल दिया है। गांव में त्योहार का माहौल बन गया। उस रात कोई सोया नहीं, खूब गाना बजाना हुआ, तुकबंदी करने वालों ने तालाब के स्वागत में गाने के लिए कई गीत बना लिए। समय तेजी से गुजरा और एक पखवाड़ा भी बीत गया, पर न तो बड़े हाकिम का कोई दूत आया और न तालाब की कोई खबर ही आई। गांव वाले फिर चिंता में पड़ गए। आखिर करें तो क्या करें?

गांव की चौपाल पर एक बार फिर पंचायत बैठी। इस बार सब पहले से ज्यादा गंभीर थे। लंबे विचार के बाद आखिर तय किया गया कि अब कोई दूसरा चारा नहीं। इस बार सीधे राजा से गुहार लगाई जाए। राजा की छवि जनता में न्यायप्रिय राजा की है। राजा अपनी जनता का बहुत ख्याल रखता है। गांव वालों को पूरी उम्मीद थी कि राजा के दरबार में उनकी जरूर सुनी जाएगी और तालाब मिल जायेगा।

लौटते वक्त जत्थे को लोगों को कुएं मिलने से खुश होना था, पर तालाब नहीं मिलने से दुखी थे। ऐसी ही प्रतिक्रिया गांव वालों की भी थी, खैर राजा को इससे क्या वह तो अपने कौल का पक्का था।
फिर एक दिन सुबह-सुबह गांव वालों का जत्था निकल पड़ा। इस बार मंजिल है राजा का दरबार। दोपहर होते-होते जत्था राजधानी पहुंच गया। राजा के दरबार में प्रवेश करना इतना आसान नहीं था। लेकिन सरपंच ने भी धूप में बाल सफेद नहीं किए हैं। दरबान को कैसे रिश्वत देकर पटाया जाता है, इसका उन्हें अच्छा-खासा अनुभव है। खैर जैसे-तैसे जत्था राजा के दरबार में पहुंच गया। जत्थे के लोगों ने देखा कि, भव्य सिंहासन पर राजा बैठे हैं, दरबार लगा है, मंत्रिगण भी अपने-अपने स्थानों पर बैठे हैं। फरियादी खड़े होकर फरियाद कर रहे हैं। राजा सबको ध्यान से सुन रहे हैं। फिर अपना निर्णय सुना रहे हैं। निर्णय को सुनकर भीड़ राजा की जय-जयकार कर रही है। कुछ देर इंतजार के बाद इस जत्थे का नंबर आ गया। जत्थे की ओर से सरपंच ने फरियाद पेश की।.....हुजूर, हमारे गांव का तालाब गायब हो गया है, बाप दादाओं का तालाब था। हुजूर, रातोंरात कहां चला गया, पता नहीं..।

राजा ने गंभीरता से पूरी कहानी सुनी। सुनकर अपने प्रमुख मंत्री को आदेश दिया-इन गांववालों का तालाब तुरंत ढूंढा जाए। एक सप्ताह में सारी जानकारी पेश की जाए। फिर मुस्कराकर इन भोले-भाले गांव वालों से कहा-आप लोग निश्चिंत होकर जाइए। एक सप्ताह में आपको आपका तालाब मिल जाएगा।

एक बार फिर जत्था लौट पड़ा। इस बार उत्साह थोड़ा था, पर राजा पर भरोसा ज्यादा था। इस बार तो तालाब मिलना ही चाहिए। गांव पहुंचकर सबको जानकारी दी गई। उस रात जब गांव सोने गया तो उसके साथ उम्मीद भी थी कि अब तालाब मिल जाएगा। उधर, राजा के निर्देश मिलते ही मंत्री सक्रिय हो गए। खुफिया विभाग के अमले को जिम्मेदारी सौंप दी गई। लंबी खोजबीन और पूछताछ के बाद जो जानकारी मिली उससे मंत्री थरथरा गया। मंत्री ने तुरंत राजा से एकांत में मिलने का समय मांग लिया। मामला राजा के अंतःपुर से जुड़ गया था, इससे वह बहुत ज्यादा घबरा गया था। लेकिन, निर्माण विभाग का मुखिया, राजा की प्रिय रानी का मुहलगा है। यह पूरा दरबार जानता है।

दो दिन बाद रात के पहले पहर मंत्री डरते-डरते राजा के महल में पहुचा। राजा ने उसे देखते ही कहा जल्दी बताओ, हमें जाना है, हमारी प्रिय पटरानी इंतजार कर रही हैं। मंत्री ने डरते-डरते कहा उस गांव के तालाब के बारे में पता चल गया है। उस तालाब को रातों-रात हमारा निर्माण विभाग उठा लाया था। फिर उसने डरते-डरते कहा-अब वह पटरानी जी के महल में शोभा बढ़ा रहा है। उसकी बात को सुनकर राजा ने याद करने का प्रयास किया तो उसे कुछ-कुछ याद आया। कुछ समय पहले पटरानी ने हठ की थी कि उसे महल में तालाब चाहिए, वह भी सुबह होने से पहले-पहले। राजा ने तब तुरंत निर्माण विभाग के मुखिया को बुलाया और आदेश दिया। और उसने सुबह होने से पहले रानी के महल में तालाब स्थापित करा दिया। तब राजा ने उसे खुश होकर पुरस्कार भी दिया था। लेकिन, उसने बेचारे गांव वालों का तालाब चुराया था, यह नहीं जानता था। राजा न्यायप्रिय था, यह हम पहले से जानते हैं। इससे उसे लग रहा था कि उसके अनजाने में गांव वालों के साथ अन्याय हो गया है। जैसा कि वह विपत्ति के समय अक्सर करता था। उसने तुरंत अपने प्रमुख सलाहकार को बुलाया।

सलाहकार के आते ही मंत्री, सलाहकार और राजा में मंत्रणा शुरू हो गई। राजा ने रानी को खबर करा दी, आ नहीं सकूंगा। सुबह होते-होते तीनों ने मामले को समझ लिया और तय कर लिया कि अब कैसे और किस तरह से मामले का अंत करना है।

उधर, सप्ताह बीतते ही गांव से जत्था फिर राजधानी की ओर चल पड़ा। इस बार जत्थे में कुछ युवा भी थे। दोपहर होते-होते जत्था राजा के दरबार में। इस बार जत्थे को दरबान ने भी नहीं रोका। बेरोकटोक जत्था दरबार में पहुंच गया। जत्थे का नंबर भी इस बार जल्दी आ गया। राजा ने जत्थे के लोगों का अभिवादन भी स्वीकार किया। फिर पूरी गंभीरता से कहा, ‘हमने आपके गांव के तालाब की बहुत खोज-बीन कराई है।’ खोजबीन का काम अभी भी चल रहा है। इस बीच हमने तय किया है कि आपके गांव में चारों दिशाओं पर चार सुंदर कुएं आपके काम आएगें। जब तालाब मिल जाएगा, ये कुएं अतिरिक्त मदद करेंगे। जैसे ही तालाब मिलेगा। आपको खबर कर दी जाएगी। इतना सुनते ही दरबार में राजा की जय-जयकार होने लगी। लोग कहने लगे, ऐसा न्यायप्रिय राजा दीपक लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा। जत्थे के लोगों ने राजा का आभार व्यक्त किया और फिर लौट चले।

लौटते वक्त जत्थे को लोगों को कुएं मिलने से खुश होना था, पर तालाब नहीं मिलने से दुखी थे। ऐसी ही प्रतिक्रिया गांव वालों की भी थी, खैर राजा को इससे क्या वह तो अपने कौल का पक्का था। अगले ही दिन निर्माण विभाग के दर्जनों कारीगर गांव पहुंच गए। कुओं का निर्माण शुरू हो गया।

एक बार फिर से गांव की पंचायत बैठी। सबने विचार किया, मिलकर तय किया कि जब तक तालाब नहीं मिलता, समय-समय पर जत्था राजधानी जाता रहेगा। कभी न कभी तो हमारा तालाब मिलेगा। तब से बरसों-बरस बीत गए। शुरू में महीने-महीने जत्था जाता रहा। फिर तीन माह, फिर छह माह में, फिर साल में एक बार।

तब से परंपरा ये बन गई। साल में एक बार जत्था गांव से राजधानी जाता है। अपने गांव के तालाब को याद करते हुए राजा को याद दिलाने के लिए। तालाब मिला नहीं पर गांव वालों ने भी उम्मीद छोड़ी नहीं है। आज भी साल में एक बार पूर्णिमा को सुबह शुभ मुहूरत में गांव का जत्था राजधानी की ओर निकल पड़ता है। उस दिन रात को गांव वाले जत्थे का इंतजार करते हैं। यह सोचते हुए कि इस बार शायद उनके तालाब की कोई खबर मिल जाए।

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