Saturday, August 18, 2012

अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना जन्मसिद्ध अधिकार है

अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना जन्मसिद्ध अधिकार है !
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(राष्ट्रभाषा-दिवसः 14 सितम्बर)
लॉर्ड मैकाले ने कहा थाः 'मैं यहाँ की शिक्षा-पद्धति में ऐसे कुछ संस्कार डाल जाता हूँ क आने वाले वर्षों में भारतवासी अपनी ही संस्कृति से घृणा करेंगे... मंदिर में जाना पसंद नहीं करेंगे... माता पिता को प्रणाम करने में तौहीन महसूस करेंगे... वे शरीर से तो भारतीय होंगे लेकिन दिलोदिमाग से हमारे ही गुलाम होंगे....'
हमारी शिक्षा-पद्धति में उसके द्वारा डाले गये संस्कारों का प्रभाव आज स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। आज के विद्यार्थी पढ़-लिख के ग्रेजुएट होकर बेरोजगार हो नौकर बनने के लिए भटकते रहते हैं।
महात्मा गाँधी के शब्दों में- "करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इंसाफ पाना हो तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना पड़े ! हिंदुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग हैं। प्रजा की हाय अंग्रेजों पर नहीं बल्कि हम लोगों पर पड़ेगी।"
अंग्रेजी का हमारे जीवन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ता है, इस पर गांधी जी ने कहाः "विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में जो बोझ दिमाग पर पड़ता है वह असह्य है। यह बोझ केवल हमारे बच्चे ही उठा सकते हैं लेकिन उसकी कीमत उन्हें ही चुकानी पड़ती है। वे दूसरा बोझ उठाने के लायक नहीं रह जाते। इससे हमारे ग्रेजुएट अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज की शक्ति, विचार करने की ताकत, साहस, धीरज, बहादुरी, निडरता आदि गुण बहुत ही क्षीण हो जाते हैं। इससे हम नयी योजनाएँ नहीं बना सकते, बनाते हैं तो उन्हें पूरा नहीं कर सकते। कुछ लोग जिनमें उपरोक्त गुण दिखाई देते हैं, अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते हैं।
गांधी जी ने आगे कहा कि "माँ के दूध के साथ जो संस्कार मिलते हैं और जो मीठे शब्द सुनाई देते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा लेने से टूट जाता है। हम ऐसी शिक्षा के शिकार होकर मातृद्रोह करते हैं।"
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी मातृभाषा को बड़े सम्मान से देखा और कहा था कि "अपनी भाषा में शिक्षा पाना जन्म सिद्ध अधिकार है। मातृभाषा में शिक्षा दी जाय या नहीं, इस तरह की कोई बहस होना ही बेकार है।" उनकी मान्यता थी की 'जिस तरह हमने माँ की गोद में जन्म लिया है, उसी तरह मातृभाषा की गोद में जन्म लिया है। ये दोनों माताएँ हमारे लिए सजीव और अपरिहार्य हैं।'
गाँधी जी ने मातृभाषा-प्रेम को व्यक्त करते हुए कहा कि "मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियाँ क्यों न हों, मैं उससे उसी तरह चिपका रहूँगा जिस तरह अपनी माँ की छाती से। वही मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है। मैं अंग्रेजी को उसकी जगह प्यार करता हूँ लेकिन अंग्रेजी उस जगह को हड़पना चाहती है जिसकी वह हकदार नहीं है तो मैं उससे सख्त नफरत करूँगा। मैं इसे दूसरी जबान के तौर पर जगह दूँगा लेकिन विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम, स्कूलों में नहीं। वह कुछ लोगों के सीखने की चीज हो सकती है, लाखों करोड़ों की नहीं। रूस ने बिना अंग्रेजी के विज्ञान में इतनी उन्नति की है। आज अपनी मानसिक गुलामी की वजह से ही हम यह मानने लगे हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम चल नहीं सकता। मैं इस चीज को नहीं मानता।"
विद्यार्थियों को मातृभाषा में शिक्षा देना मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप से अति आवश्यक है, क्योंकि विद्यालय आने पर बच्चे यदि अपनी भाषा को व्यवहार में आयी हुई देखते हैं तो वे विद्यालय में आत्मीयता का अनुभव करने लगते हैं। साथ ही उन्हें सब कुछ यदि उन्हीं की भाषा में पढ़ाया जाता है तो उनके लिए सारी चीजों को समझना बहुत ही आसान हो जाता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी 'निज भाषा' कहकर मातृभाषा के महत्त्व व प्रेम को अपने निम्नलिखित बहुचर्चित दोहे में व्यक्त किया हैः
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति का मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
उन्नति पूरी हैं तबहिं, जब घर उन्नति होय।
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।
रवीन्द्रनाथजी ने जापान का दृष्टान्त देते हुए बताया है कि "इस देश में जितनी उन्नति हुई है, वह वहाँ की अपनी भाषा जापानी के कारण है। जापान ने अपनी भाषा की क्षमता पर भरोसा किया और अंग्रेजी के प्रभुत्व से जापानी भाषा को बचाकर रखा।"
जापानी इसके लिए धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि वे अमेरिका जाते हैं तो वहाँ भी अपनी मातृभाषा में ही बातें करते हैं। ....और हम भारतवासी ! भारत में रहते हैं फिर भी अपनी हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं में अंग्रेजी के शब्दों की मिलावट कर देते हैं। गुलामी की मानसिकता ने ऐसी गंदी आदत डाल दी है कि उसके बिना रहा नहीं जाता। आजादी मिले 64 वर्ष से भी अधिक समय हो गया, बाहरी गुलामी की जंजीर तो छूटी लेकिन भीतरी गुलामी, दिमागी गुलामी अभी तक नहीं गयी।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने चिंतन-प्रक्रिया से गुजरते हुए जनसामान्य के लिए इस महत्त्वपूर्ण विचार को प्रस्तुत किया कि "अनावश्यक को जिस परिमाण में हम अत्यावश्यक बना डालेंगे, उसी परिमाण से हमारी शक्ति का अपव्यय होता चला जायेगा। यूरोप के समान हमारे पास सम्बल नहीं है। यूरोपवालों के लिए जो सहज है हमारे लिये वही भारतस्वरूप हो जाता है। सुगमता, सरलता और सहजता ही वास्तविक सभ्यता है। अत्यधिक आयोजन की जटिलता एक प्रकार की बर्बरता है।"
अतः अपनी मातृभाषा की गरिमा को पहचानें। अपने बच्चों को अंग्रजी में शिक्षा दिलाकर उनके विकास को अवरूद्ध न करें। उन्हें मातृभाषा में पढ़ने की स्वतन्त्रता देकर उनके चहुँमुखी विकास में सहभागी बनें। कोई भी ऐसे माता-पिता नहीं होंगे, जो अपने पुत्र-पुत्रियों की भलाई या उन्नति न चाहते होंगे। चाहते ही हैं, सिर्फ आवश्यकता है तो अपनी विचारधारा बदलने की।

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