Tuesday, September 18, 2012

'स्मृतियों में रूस / (यात्रा संस्मरण) / शिखा वाषर्णेय




- अखिलेश शुक्ल 
  पत्रकार शिखा वाषर्णेय की पुस्तक ‘‘स्मृतियों में रूस’’ डायमंड़ बुक्स दिल्ली से हाल ही में प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक यात्रा वर्णन, रिपोतार्ज तथा संस्मरण का मिला जुला रूप है। लेकिन इसकी भाषा शैली तथा सरस प्रवाह के कारण यह यात्रा वृतांत के अधिक नजदीक है। हिंदी साहित्य में यात्रा वृतांत की पहली किताब हरदेवी की ‘‘लंदन यात्रा’’ है। यह सन् १८८३ ई. में ओरियंटल प्रेस लाहौर से प्रकाशित हुई थी। उसके पश्चात यह विधा भगवानदास वर्मा, दामोदर व्यास, स्वामी सत्यदेव, देवी प्रसाद, श्रीधर पाठक, लक्ष्मीशंकर मिश्र, रमाशंकर व्यास से निरंतर फलती फूलती रही है। राहुल सांकृत्यायन जी का इस विधा के क्षेत्र में सर्वोपरि योगदान रहा है। जिनके यात्रा वृतांत मेरी तिब्बत यात्रा, किन्नर देश में, रूस में पच्चीस साल, हिमालय परिचय आदि आज भी बड़े चाव से पढ़े जाते हैं। उनके यात्रा वृतांत अन्य यायावर लेखकों के लिए आज भी मार्गदर्शक का कार्य कर रहे हैं।

यात्रा वृतांत मूल रूप में डायरी, संस्मरण, आत्मकथा, जीवनी आदि विधाओं से एक साहित्यिक रचना का रूप ग्रहण करती है। शिखा वाष्णैय का समीक्षित संग्रह भी अन्य विधाओं को आत्मसात कर संक्षेप में रूस की सामाजिक सांस्कृतिक विरासत, परंपरा, प्राकृतिक सौन्दर्य, स्थितियों, घटनाओं को सामने लाता है। १२ अध्यायों मे विभाजित ‘स्मृतियों में रूस’ कभी यात्रा वृतांत सा लगता है तो कहीं संस्मरण पढ़ने का सुखद अनुभव प्रदान करता है। इसलिए इसे ‘यात्रा संस्मरण’ कहना अधिक उचित होगा।

पहले अध्याय में यात्रा शुरू करने के अनुभव पाठक को अपने से लगते हैं। इसे पढ़ते हुए यह प्रतीत होता है कि किस तरह से सुखद वातावरण में शिखा ने अपनी रूस यात्रा की तैयारी की थी। इससे यह भी ज्ञात होता है कि उस परिवार की मानसिक स्थिति किस तरह की होती है जिसका कोई सदस्य विदेश में कई बरस तक रहने के लिए जाता है। 
माता पिता की चिंता, विदेश जाने की तैयारी तथा परिवार की आकांक्षाओं अपेक्षाओं पर खरा उतरना परदेश जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति की अहम जबावदारी होती है। इस पर शिखा पूरी तरह से खरी उतरी है। एक अध्याय में शिखा ने मार्मिक तथा ह्दयस्पर्शी विवरण प्रस्तुत किया है -‘‘आखिरकार हमारा दोस्त खीज गया आौर झल्लाकर बोला, ‘‘चाय दे दे मेरी माँ.....’’ और तुरंत ही जबाब मिला, ‘चाय खोचिश’। रूस की भाषा एवं व्याकरण की ओर यह वाकया संकेत करता है। इससे पाठक को पता चलता है कि किस हद तक रूसी भाषा संस्कृत के व्याकरण के नजदीक है। इसलिए उसे सीखना बहुत अधिक कठिन नहीं है। रूस के निवासियों में दूसरे देश विशेषकर भारत के लोगों के प्रति अधिक सहृदयता है। संस्मरण के रूप में लिखे ‘वो कौन थी?’ अध्याय में वे उन्हें मिले सहयोग को विस्तार से याद करती चलती हैं। इसी वजह से वे रूस में अपने अगले पांच वर्ष सहज रूप से रहकर अध्ययन कर सकीं थीं।

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन कभी न कभी वह महत्वपूर्ण बिंदू आता है, जिसमें जीवन संघर्षो, मुश्किलों से जूझना पड़ता है। उन परिस्थितियों का विवरण अनेक स्थानों पर सहज रूप से आया है।

उस वक्त रूस के बदलते आर्थिक परिवेश में जीवन यापन के लिए धन होने के बाद भी कुछ प्राप्त नहीं होता था। इस स्थिति पर उन्होंने रूसी भाषा सीखकर काबू पाया था। इसपर अधिकार होने के कारण वे वहाँ सैलानियों तथा यात्रियों का मार्गदर्शन कर अच्छा खासा धन अर्जित कर लेती थीं। यही वह जरिया था जिसने मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान मुश्किलें कम की थीं। शिखा ने रूस की गिरती आर्थिक स्थिति तथा बढ़ती महँगाई पर एक अर्थशास्त्री की भाँति विचार किया है। स्टेशन पर किसी तरह से रहकर जीवन यापन करते हुए उन्होंने मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी में जगह बनायी? यह विवरण पाठकों को प्रेरित करता है। यहाँ वे कभी भावुक हो उठती हैं तो कभी किसी दार्शनिक की भाँति गहराई से जीवन संघर्षो के बारे में सोचती दिखाई देती हैं।

टूटते देश में बनता भविष्य अध्याय के अंतर्गत शिखा वाष्णैय ने रूस की राजनीतिक हलचल पर अपनी कलम कुशल विश्लेषक की भाँति चलाई है। यहाँ वे किसी पत्रकार के समान रूस की सामाजिक परिस्थितियों, आर्थिक सुधारों, बदलती लोकतांत्रिक व्यवस्था पर तर्क संगत विचार रखती हैं। जीवन यापन की वस्तुएँ खरीदना जहाँ इस दौर में कठिन था वहीं कैरियर बनाने की चाह तो आसमान से चाँद सितारे तोड़ लाने जैसी थी। यह भाग शिखा जी की पत्रकारिता की अच्छी मिशाल है। कुछ मस्ती कुछ तफरीह’ अध्याय में उन्होंने स्पष्ट किया है कि अध्ययन के दौरान ही उनके लेख अमर उजाला, आज तथा दैनिक जागरण आदि समाचार पत्रों में प्रकाशित होने लगे थे। धीरे धीरे ही सही शिखा अपनी पहचान एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में स्थापित करने की पायदानों पर थीं। इसी दौरान एस्टोनिया की राजधानी तालिन घूमने का विचार उनके मन में आता है। यह रोचक वर्णन पाठकों को बाँधे रखता है।

मास्को हर दिल के करीब अध्याय में उन्होंने रूस के लोक संगीत, नृत्य तथा थियेटर का विश्लेषणात्मक तथा सरस वर्णन किया है। लेनिन की समाधि (जहाँ उनका शरीर रसायनों में संरक्षित करके रखा गया है) में स्थानीय निवासियों की अटूट श्रद्धा का वर्णन शिखा ने राहुल सांकृताययन की भाषा शैली के अनुरूप किया है। जिसे पढ़कर लेनिन के प्रति अगाध श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। रूस और समोबार में शिखा ने वहाँ की सामाजिक स्थितियों, रीति रिवाजों, खानपान आदि पर अधिकार पूर्वक लेखन किया है। समोबार एक तरह का कलात्मक जग होता है जिसमें चाय भरी जाती है। समोबार को प्रतीक के रूप में वहाँ के बाजार और रीनक (प्रायवेट बाजार/माल) से पाठकों को वे जोड़े रखने में कामयाब रही हैं।

हिंद से दूर में वे रूसी भाषा के ज्ञान व उसके उपयोग का ब्यौरा प्रस्तुत करती हैं। जिससे पता चलता है कि कैसे उन्होंने एक दुभाषिए के रूप में कार्य करने में सफलता पायी थी। रूस के प्राचीनतम नगर कीवस्काया का रोचक वर्णन पाठकों के मन में कीव घूमने की इच्छा जाग्रत करने में सफल रहा है। टोलस्टाय गोर्की और यह नन्हा दिमाग तथा स्वर्ण अक्षर और सुनहरे भविष्य में भी वे रूस में गुजारे गए अपने अंतिम वर्षो को याद करती है।

शिखा वाष्णैय का यह यात्रा संस्मरण उनकी रूस यात्रा का भले ही परिचयात्मक संग्रह हो लेकिन इससे रूस के संबंध में साहित्य के पाठकों को बहुत कुछ जानकारी मिलती है। उम्मीद की जाना चाहिए की जल्दी ही वे अपने रूस प्रवास को अधिक विस्तार से लिखेगीं। जिससे मास्को से नई दिल्ली तक बँधे हुए तंतुओं में एक बार फिर से आत्मीयता, सहयोग, सह्दयता तथा विश्वास की भावना प्रवाहित होने लगेगी।


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