Monday, October 16, 2023

संत मत की परम्परा और राधास्वामी संत मत / उदय वर्मा


 भारत मेंअनादि काल से संत मत की परंपरा की अविच्छिन्न धारा प्रवाहित होती रही है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अपने अध्यात्मिक साधना के सफर में सद्गुरुओं और संतों ने हर स्तर पर  भारतीय चेतना की  प्रगति को शिखरचुम्बी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। राधास्वामी भी एक ऐसा ही पंथ है, जिसके गुरु महाराजों ने अपने अनुनायियों को आत्म कल्याण और परमार्थ के मार्ग पर चलने  के लिए प्रेरित किया ।

     राधास्वामी पंथ में भक्ति का मूल स्वर प्रेम भक्ति ही है , जिसका स्थायी संदेश मानव कल्याण की सर्वोच्च संभावनाओं की तलाश है। इस मत के पथिकों में गुरु महाराज के प्रति जो प्रेम की पराकाष्ठा मिलती है, वह दास्य भाव की भक्ति से गुम्फित हो कर अपने चरम पर पहुंचती है और भक्त खुद को गुरु चरणों में अर्पित कर धन्य हो जाते हैं। नदियां समुद्र में मिल कर पूर्ण होती हैं और अपना अस्तित्व मिटा कर समुद्र बन जाती हैं, यानी मुक्ति  पाती है, वैसे ही गुरु चरणों में समर्पित भक्त अपना कर्म पूरा करने के उपरांत अंततः गुरु में विलीन हो कर मुक्ति प्राप्त करते हैं राधास्वामी लोक में स्थान पाते हैं।


   वास्तव में राधास्वामी मत के गुरुओं  का पूरा अभियान मानव मुक्ति की साधना की प्रेम-कथा है। राधास्वामी आध्यात्मिक आन्दोलन जीवधारियों को उसकी सहज रागदीप्त चेतना से जोड़ कर एक ऐसे समाज की रचना का पक्षधर है, जिसमें आध्यात्मिक,नैतिक और आत्मिक उत्थान के सारे साधन सहज सुलभ हो। इस अर्थ में राधास्वामी आन्दोलन एक ऐसा पंथ है जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्ग खोलता है। 

  राधास्वामी पंथ की स्थापना १८६१ में श्री सेठ शिव दयाल सिंह महाराज ने की थी। चूंकि सेठ शिव दयाल सिंह महाराज जी की पत्नी का नाम राधा था, इसलिए उन्हें राधास्वामी भी कहा जाता था, यही कारण है कि उनके द्वारा स्थापित पंथ का नाम राधास्वामी पड़ा। जिस दिन राधास्वामी मत आमजनों के बीच अवतरित हुआ था, वह दिन विद्या और ज्ञान की देवी की आराधना का दिन था। महाराज जी ने अपने पंथ की स्थापना के लिए वसंत पंचमी के पावन दिन को ही क्यों चुना, इस विषय में उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा।  लेकिन हमें यह कहना पड़ेगा कि राधास्वामी मत गुह्य धार्मिक मत है और इस मत का अनुयायी कोई भी हो सकता है। इस पंथ के अनुसार जीवधारी अपनी उच्चतम क्षमताओं को सिर्फ शब्द नाम जप द्वारा प्रकट कर सकते हैं। राधास्वामी मत के अनुसार पहले सतपुरूष निराकार था, फिर उसने आकार ग्रहण किया। इससे पहले कोई रचना नहीं हुई थी, कुछ था तो शून्य था, बाद में शब्द प्रकट हुआ , फिर रचना शुरू हुई। पहले सतलोक,  फिर सत् पुरूष की कला से तीनों लोकों का विस्तार हुआ। राधास्वामी पंथ के अनुसार  इन तीनों लोकों से ऊपर राधास्वामी लोक है। हालांकि इस स्थापना से सनातन की मान्यता अलग है। 

  राधास्वामी पंथ में नाम और सत्संग यानी सच्चे लोगों की सभा का विशेष महत्व है। इस पंथ में भक्त नाम भक्ति और सत्संग के माध्यम से एक ऐसी दुनिया रचते हैं, जिसमें न कोई बड़ा होता है न छोटा, न कोई अमीर होता है न गरीब, न कोई ऊंच होता है न नीच। सब बराबर होते है। हुजूर के दरवार में आ कर सभी नाकारात्मक भावनाएं नष्ट हो जाती हैं और सब हजूर के हो जाते हैं और हजूर सब के। इस मरहले पर यह कहा जा सकता है कि राधास्वामी मत सामाजिक समरसता का पंथ है, जिसका उद्देश्य  कर्मकांडी उलझनों में उलझे बिना सत्संग के माध्यम से पंथियों को सत् का साक्षात्कार कराना है और समरस समाजिक चेतना का विकास करना है।

   राधास्वामीपंथी सत्संग के माध्यम से आत्म शुद्धि के साथ हजूर के शरणागत होते हैं और अपना भूत, भविष्य, यहां तक कि अपना सब कुछ मालिक पर छोड़ देते हैं। राधास्वामी पंथियों की मालिक के प्रति यह समर्पण-भक्ति की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है।

  राधास्वामी मत के संस्थापक शिवदयाल साहब के राधास्वामी लोक गमन के बात राधास्वामी सम्प्रदाय वस्तुत:  दो शाखाओं में विभाजित हो गया। मुख्य शाखा तो आगरा में ही रही ,जबकि दूसरी शाखा अमृतसर में व्यास नदी के तट पर स्थापित की गयी, जिसे व्यास की राधास्वामी शाखा के रूप में जाना जाता है। इन दोनों शाखाओं के अनुयायी भारत में बड़ी संख्या में तो हैं ही, विश्व के अनेकानेक देशों में भी इनका विस्तार मिलता है। यह राधास्वामी पंथ के बढ़ते महत्व को दर्शाता है।


 - उदय वर्मा

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