Friday, December 28, 2012

सेक्‍स के प्रति‍ 'कामसूत्र' का नजरि‍या

 
 
 
 
 

शनिवार, 21 नवम्बर 2009


      सेक्स भारतीय भारतीय चिन्तन में सिर्फ शारीरिक क्रिया नहीं है। बल्कि कला रूप भी है। भारतीय समाज में एक स्कूल ऐसा भी था जिसका सेक्स के प्रति भौतिकवादी रवैयया रहा है। सेक्स को संस्कृति के साथ जोड़कर देखा गया है। संस्कृत साहित्य में कामुक इमेजों का सांस्कृतिक संदर्भ में ही विमर्श सामने आता है। कामसूत्र में संभोग से लेकर चुम्बन तक के जितने भी प्रकारों का वर्णन है उनके केन्द्र में शरीर से ज्यादा महत्व संस्कृति को दिया गया है। यहां तक कि स्त्री-पुरूष के मानकों और गुणों को भी संस्कृति के संदर्भ में ही व्याख्यायित किया गया है। कामसूत्र में सेक्स का स्वप्न के जरिए अथवा मन:स्थिति के रूप में वर्णन नहीं मिलता।बल्कि यथार्थ रूप में व्यक्ति की स्वतंत्र पहचान के रूप में वर्णन मिलता है। सेक्स वहां व्यक्तिगत है। कामसूत्रकार के लिए सेक्स बीमारी या सामाजिक इल्लत नहीं है।

कामसूत्र में स्त्री-पुरूष के एक-एक अंग की बनावट,आकृति,आकार आदि का विवेचन मिलता है। अंगों के रूप आदि की व्याख्या के पीछे मूल लक्ष्य है स्त्री-पुरूष के बीच समान जोड़े बनाना। स्त्री-पुरूष सबंध तय करते समय गलतियां न हों, और सेक्स के प्रति जागरूकता बनी रहे। कामसूत्र में सेक्स धार्मिक नजरिए से मुक्त है। कामसूत्र का केन्द्रीय लक्ष्य है समाज में प्रचलित काम या सेक्स विरोधी मिथों और कपोल कल्पनाओं का खण्डन करना। सेक्स को सामान्यजन क विमर्श बनाना।
         सेक्स लंबे समय से सामान्यजन के विमर्श के दायरे से गायब था,समाज में तरह-तरह की काम संबंधी ऊल-जुलूल बातें प्रचलन में थीं। कामसूत्र की पध्दति संवाद की पध्दति है। जयमंगला टीकाकार ने उसमें अन्य शास्त्रकारों के अनुभवों और व्याख्याओं को शामिल किया। इसके कारण भारत जैसे वैविध्यों से भरे समाज में संभोग,चुम्बन,आलिंगन,स्पर्श,मैथुन आदि की क्रियाओं के बारे में जातीय  आधार पर रूचि या स्वीकृति,अरूचि या अस्वीकृति के भाव को जान सकते हैं।
        सेक्स और शरीर संबंधी जो सूचनाएं कामसूत्र में हैं और उन सूचनाओं के बारे में अन्यान्य शास्त्रकारों ने क्या लिखा है उसका जितना व्यवस्थित वर्णन जयमंगला टीककार ने किया है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। इनमें सैध्दान्तिक विमर्श के सूत्र छिपे हैं। कामसूत्रकार ने सामान्यत: स्वीकृत एटीट्यूटस और संस्कारों को महत्व दिया है साथ ही अपने दार्शनिक नजरिए की भी उपेक्षा नहीं की है। साथ ही वात्स्यायन का दार्शनिक नजरिया पाठ में उपलब्ध है। इसके अलावा जयमंगला टीकाकार ने जिस तरह अन्यान्य विचारकों के विचारों को पेश किया है उससे दो बातें निकलती हैं ,पहली बात यह कि सेक्स विमर्श की लंबी परंपरा रही है, यह ऐसा विषय नहीं था जिस पर सामाजिक स्तर पर संवाद,विमर्श आदि न किया जाए। दूसरी बात यह निकलती है कि सेक्स विमर्श इकहरा नहीं रहा है।बल्कि बहुरंगी रहा है।स्त्री और पुरूष की एक कोटि नहीं रही है,बल्कि अनेक कोटियां रही हैं। इसका अर्थ यह है कि स्त्री और पुरूष इन दो कोटियों की एकायामी व्याख्या हमारे भारतीय विमर्श का हिस्सा कभी नहीं रही।नैतिकता,सांस्कृतिक मान्यताओं के अलग-अलग क्षेत्र या प्रान्तों और जातियों में भिन्न किस्म के रूप रहे हैं। भारत के स्त्री और पुरूष एक से नहीं थे। बल्कि बहुरंगी थे।
        कामसूत्रकार ने सेक्स से संबंधित जिस किसी भी पहलू को उठाया है उसमें साझा और परंपरागत मान्यताओं को आधार बनाया है।इससे एक तथ्य यह उजागर होता है कि भारत में अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग सेक्स मान्यताएं प्रचलन में थीं। काम क्रिया के विभिन्न रूपों और इनके साथ जुड़े संबंध का व्यवस्थित वर्णन किया गया है। किसी भी काम-क्रिया और उसके साथ जुड़े संबंध पर कामसूत्रकार ने नैतिक रूप में मूल्य निर्णय नहीं किया है।नैतिक निर्णय कालान्तर में टीकाकारों ने जरिए आए हैं।
          वात्स्यायन ने कामसूत्र में जिन  64कलाओं का विवेचन किया है उन्हें वे कामसूत्र की अंगभूत विद्या कहते हैं।कामसूत्र का मूल प्रयोजन है मोक्ष प्राप्त करना। भरत के पहले कला को शिल्प के नाम से जाना जाता था। भरतपूर्व ब्राह्मण ग्रंथों और संहिताओं में कला की बजाय शिल्प का इस्तेमाल किया गया है। तत्कालीन आचार्य किसी भी विषय या कृत्य में निहित कौशल को कला मानते थे।वात्स्यायन की कला सूची देखने से स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि में कला का साधारण अर्थ स्त्री-प्रसाधन और वशीकरण है।जिस क्रिया से, जिस कौशल से कामिनियाँ प्रसन्न हों, वशीभूत हो जाएं वही कला है। वात्स्यायन की इस दृष्टि में आनंद और रसानुभूति ही प्रमुख है। सामान्यत: उपयोगी और ललित दोनों ही प्रकार की कलाएँ कला-कोटि में परिगणित होती थीं। कामसूत्रकार की सबसे प्रमुख विशेषता है कि वह वर्गीकरण की पध्दति का इस्तेमाल नहीं करता। अपितु परिगणन की पध्दति का इस्तेमाल करता है।
कामसूत्र में 'विद्यासमुद्देश प्रकरण' नामक अध्याय है। जिसमें आरंभ में ही कहा गया है कि धर्मशास्त्र,अर्थशास्त्र के अध्ययन के साथ ही कामशास्त्र का भी अध्ययन करना चाहिए।साथ ही यह भी माना है कि स्त्री और पुरूष में मौलिक भेद है। स्त्री को कामशास्त्र का अध्ययन कराया जाना चाहिए जिससे उसे पुरूषधारा में मिलाकर मुक्ति की अधिकारिणी बनाया जा सके।
कामसूत्रकार स्त्री-पुरूष में भिन्नता को मानता है ,इन दोनों की आनन्दानुभूति  में भिन्नता,क्रिया में भिन्नता को स्वीकार करता है।साथ ही इन दोनों में समान तत्वों की वकालत भी करता है। भेद की चर्चा करते हुए वह अभेद की ओर जाता है। अभेद की चर्चा करते हुए भेद की ओर नहीं जाता। भेदों का संबंध शरीर, संस्कृति, राज्य, लिंगावस्था आदि से है। कामसूत्र में सेक्स की आनंद के रूप में व्याख्या यथार्थवादी पैमाने से की गई है। स्वप्न के रूप में नहीं। यथार्थ रूप में काम-क्रियाओं, संभोग, मैथुन आदि का विवरण स्वयं प्रगति का लक्षण है। प्रत्येक क्रिया का वर्णन और प्रभाव बताने के बाद निष्कर्ष में पूर्वानुमान चले आए हैं।
         कामसूत्र में मूलत: तीन तरह के सेक्स का वर्णन मिलता है। पहला सामान्य सेक्स, दूसरा असामान्य सेक्स, तीसरा समलैंगिक सेक्स। सामान्य सेक्स वह है जो वैध है,कानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त है। असामान्य सेक्स वह है जिसमें असामान्य कामुक क्रियाएं शामिल हैं। 'संवेशन विधि प्रकरणम्' नामक अध्याय में दो तरह की संभोग क्रियाओं की चर्चा की है इनमें एक है संवेशन प्रकार और दूसरा है चित्ररत । संवेशन प्रकार में उन क्रियाओं का वर्णन है जिनका सामान्यतया शिष्टसमाज इस्तेमाल करता है। किन्तु चित्ररत में वर्णित क्रियाओं का निकृष्ट स्वभाव के लोग इस्तेमाल करते हैं। चित्ररत में संभोग की अदभुत विधियों को शामिल किया गया है। उल्लेखनीय है कि अधिकांश पोर्न फिल्मों में चित्ररत आसनों का प्रयोग किया जाता है। इसमें 1.स्थिररत, 2. अवलम्बितक,3.धेनुक,4.संघाटक, 5.गोयूथिक,6.सामूहिक संभोग,गुदा मैथुन को शामिल किया है।
वात्स्यायन के मुताबिक मैथुन क्रिया सबसे श्रेष्ठ क्रिया है।यही वजह है कि मैथुन कला रूप अब तक के श्रेष्ठ कला रूप माने गए हैं।मैथुन को भारतीय परंपरा परमतत्व मानती है। कहा भी है '' मैथुनं परमं तत्वं सृष्टिस्थित्यन्तकारणम्।'' यह भी लिखा है '' मैथुनात् जायते सिध्दिर्ब्रह्मज्ञानं  सुदुर्लभम्।'' इसी परिप्रेक्ष्य में वात्स्यायन ने मैथुन क्रिया को मान्मथ क्रिया या आसन कहकर 'योग' कहा है।
कामसूत्र में संभोग के लिए पत्नी या प्रेमिका, रखैल,वेश्या, युवा लड़की आदि की केटेगरी की चर्चा है।  असल में कामसूत्रकार ने स्त्री की अवस्था को पुरूष के साथ संबंध के स्तर को देखकर निर्धारित किया है।मसलन् अपनी पत्नी के साथ किए गए संभोग को वह अनुकूल गतिविधि मानता है।
     उल्लेखनीय है कि स्त्री जाति के प्रति वात्स्यायन,बृहस्पति आदि का स्त्रीविरोधी रवैयया रहा है। वात्स्यायन ने धर्मशास्त्र में सुनिश्चित आठ प्रकार के विवाहों-ब्राह्म,प्राजापत्य,आर्ष,दैव, गान्धर्व, आसुर,पैशाच और राक्षस- में से पहले चार विवाह का समर्थन किया है और बाकी चार का विरोध किया है। कामसूत्र में गन्धर्व आदि चार प्रकार के विवाह रूपों ,लड़की -लड़के के गुणों और क्रियाओं का सुझाव तीसरे अध्याय के बालोपक्रमणम् नामक अध्याय में दिया है। इन विवाह रूपों में मैत्री संबंध स्थापित करने पर खास तौर पर जोर है। इस अध्याय में यह बात उभरकर सामने आयी है कि प्रेमविवाह अवैध नहीं वैध होता है। इस प्रकरण और अधिकरण के विशेषज्ञ घोटकमुख लड़का-लड़की के बीच बचपन से पनप रहे प्यार को बुरा नहीं मानते। अधर्म नहीं मानते। यहाँ तक कि गान्धर्व, पैशाच,राक्षस और आसुर विवाह को भी धर्मानुकूल मानते हैं। कामसूत्रकार का मानना है संभोग काल की सभी प्रकार की क्रियाएँ हर समय और हर स्त्री में नहीं की जा सकतीं। काम-क्रिया के उन्हीं रूपों का इस्तेमाल किया जाए जो स्त्रियों के अनुकूल हों, जिसे वे पसन्द करती हों और देशाचार के अनुसार हों। इसके अलावा व्यक्तिगत पहल और व्यक्तिवादी प्रयासों को कामसूत्रकार ने तरजीह दी है। व्यक्ति की पहल और उसका निर्णय व्यक्ति के निजी हित-अहित के बारे में पहले सोचना चाहिए  ,ये ऐसे बुनियादी तत्व हैं जो कामसूत्र में व्यक्तिवाद की पहली अभिव्यक्ति हैं। कामसूत्र में व्यक्ति के हित और समाज के हितों में कोई अन्तर्विरोध नहीं है।

(लेखक -जगदीश्‍वर चतुर्वेदी,सुधासिंह )







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