प्रस्तुति - स्वामी शरण /
आत्म स्वरूप /संत शरण. ।
आत्म स्वरूप /संत शरण. ।
महाभारत कथा भाग २६७
*भीष्म को वसुओं द्वारा दिव्यास्त्र की प्राप्ति*
भीष्मजी कहते हैं- राजेन्द्र! तदनन्तर मैं रात के समय एकान्त में शय्यापर जाकर ब्राह्मणों, पितरों, देवताओं, निशाचरों, भूतों तथा राजर्षियों को मस्तक झुकाकर प्रणाम करने के पश्चात् मन-ही-मन इस प्रकार चिन्ता करने लगा । आज बहुत दिन हो गये, जमदग्निनन्दन परशुरामजी के साथ यह मेरा अत्यन्त भयंकर और महान् अनिष्टकारक युद्ध चल रहा है । परंतु मैं महाबली, महापराक्रमी विप्रवर परशुरामजी को समरभूमि में युद्ध के मुहाने पर किसी तरह जीत नहीं सकता । यदि प्रतापी जमदग्नि कुमार को जीतना मेरे लिये सम्भव हो तो प्रसन्न हुए देवगण रात्रि में मुझे दर्शन दें। राजेन्द्र! ऐसी प्रार्थना करके बाणों से क्षत-विक्षत हुआ मैं रात्रि के अन्त में प्रभात के समय दाहिनी करवट से सो गया। महाराज! कुरूक्षेत्र! तत्पश्चात् जिन ब्राह्मण शिरोमणियों ने रथ से गिरने पर मुझे थाम लिया और उठाया था तथा ‘डरो मत’ ऐसा कहकर सान्त्वना दी थी, उन्हीं लोगों ने मुझे सपने-में दर्शन दे मेरे चारों ओर खडे होकर जो बात कही थी, उसे बताता हुं, सुनों ।‘गंगापुत्र! उठो। भयभीत न होओ। तुम्हें कोई भय नहीं हैं। कुरूनन्दन! हम तुम्हारी रक्षा करतें हैं, क्योंकि तुम हमारे ही स्वरूप हो । ‘जमदग्निकुमार परशुराम तुम्हें किसी प्रकार युद्ध में जीत नहीं सकेंगे। भरतभूषण! तुम्हीं रणक्षेत्र में परशुराम पर विजय पाओगे । ‘भारत! यह प्रस्वापनास्त्र नामक अस्त्र है, जिसके देवता प्रजापति हैं। विश्वकर्मा ने इसका अविष्कार किया हैं। यह तुम्हें भी परम प्रिय है। इसकी प्रयोगविधि तुम्हें स्वत: ज्ञात हो जायगी; क्योंकि पूर्व शरीर में तुम्हें भी इसका पूर्ण ज्ञान था। इस पृथ्वी पर कही किसी भी पुरूष को इसका ज्ञान नहीं हैं । ‘महाबाहो! इस अस्त्र का स्मरण करो और विशेषरूप से इसी का प्रयोग करो। निष्पाप राजेन्द्र! यह अस्त्र स्वयं ही तुम्हारी सेवा में उपस्थित हो जायगा। ‘कुरूनन्दन! उसके प्रभाव से तुम सम्पूर्ण महापराक्रमी नरेशों पर शासन करोगे। राजन्! उस अस्त्र से परशुरामजी का नाश नहीं होगा । ‘इसलिये मानद! तुम्हें कभी इसके द्वारा पाप से संयोग नहीं होगा। तुम्हारे अस्त्र के प्रभाव से पीड़ित होकर जमदग्निकुमार परशुराम चुपचाप सो जायंगे । ‘भीष्म! तदनन्तर अपने उस प्रिय अस्त्र के द्वारा युद्ध में विजयी होकर तुम्हीं उन्हें सम्बोधनास्त्र द्वारा पुन: जगाकर उठाओगे । ‘कुरूनन्दन! प्रात:काल रथपर बैठकर तुम ऐसा ही करो; क्योंकि हम लोग सोये अथवा मरे हुए को समान ही समझते हैं ।‘राजन्! परशुराम की कभी मृत्यु नहीं हो सकती; अत: इस प्राप्त हुए प्रस्ताव नामक अस्त्र का प्रयोग करो’ । राजन्! ऐसा कहकर वे वसुस्वरूप सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण अदृश्य हो गये। वे आठों समान रूपवाले थे। उन सबके शरीर तेजोमय प्रतीत होते थे ।
*भीष्म तथा परशुरामजी का एक दूसरे पर शक्ति और ब्रह्मस्त्र का प्रयोग*
भीष्म्जी कहते हैं- भारत! तदनन्तर रात बीतने पर जब मेरी नींद खुली, तब उस स्वप्न की बात को सोचकर मुझे बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ ।भारत! तदनन्तर मेरा और परशुरामजी का भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो समस्त प्राणियों के रोंगटे खडे कर देनेवाला और अद्भूत था । उस समय भृगुनन्दन परशुरामजी ने मुझपर बाणों की झड़ी लगा दी। भारत! तब मैंने अपने सायकसमूहों से उस बाण वर्षा को रोक दिया । तब महातपस्वी परशुराम पुन: मुझपर अत्यन्त कुपित हो गये। पहले दिन का भी कोप था ही। उससे प्रेरित होकर उन्होंने मेरे ऊपर शक्ति चलायी । उसका स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान भयंकर था। उसकी प्रभा यमदण्ड़ के समान थी और उस संग्राम में अग्नि के समान प्रज्वलित हुई वह शक्ति मानो सब ओर से रक्त चाट रही थी ।भरतश्रेष्ठ! कुरूकुलरत्न! फिर आकाशवर्ती नक्षत्र के समान प्रकाशित होने वाली उस शक्ति ने तुरंत आकर मेरे गले की हंसली पर आघात किया । लाल नेत्रों वाले महाबाहु दुर्योधन! परशुरामजी के द्वारा किये हुए उस गहरे आघात से भयंकर रक्त की धारा वह चली। मानो पर्वत से गैरिक धातुमिश्रित जल का झरना झर रहा हो तब मैंने भी अत्यन्त कुपित हो सर्पविष के समान भयंकर मृत्युतुल्य बाण लेकर परशुरामजी के ऊपर चलाया । उस बाण ने विप्रवर वीर परशुरामजी के ललाट में चोट पहुंचायी। महाराज! उसके कारण वे शिखरयुक्त पर्वत के समान शोभा पाने लगे । तब उन्होंने भी रोष में आकर काल और यम के समान भयंकर शत्रुनाशक बाण को हाथ में ले धनुष को बलपूर्वक खींचकर उसके ऊपर रक्खा । राजन्! उसका चलाया हुआ वह भयंकर बाण फुफकारते हुए सर्प के समान सनसनाता हुआ मेरी छाती पर आकर लगा। उससे लहूलुहान होकर मैं पृथ्वी पर गिर पड़ा । पुन: चेत में आने पर मैंने बुद्धिमान् परशुरामजी के ऊपर पुज्वलित वज्र के समान एक उज्जवल शक्ति चलायी । वह शक्ति उन ब्राह्मणशिरोमणि की दोनों भुजाओं के ठीक बीच में जाकर लगी। राजन्! इससे वे विह्वल हो गये और उनके शरीर में कंपकंपी आ गयी । तब उनके महातपस्वी मित्र अकृतव्रण ने उन्हें हृदय से लगाकर सुन्दर वचनों द्वारा अनके प्रकार से आश्वासन दिया । तदनन्तर महाव्रती परशुरामजी धैर्ययुक्त हो क्रोध और अमर्ष में भर गये और उन्होंने परम उत्तम ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया । तब उस अस्त्र का निवारण करने के लिये मैंने भी उत्तम ब्रह्मास्त्र का ही प्रयोग किया। मेरा वह अस्त्र प्रलयकाल का-सा हृदय उपस्थित करता हुआ प्रज्वलित हो उठा । भरतवंशशिरोमणे! वे दोनों ब्रह्मास्त्र मेरे तथा परशुरामजी के पास न पहुंचकर बीच में ही एक दूसरे से भिड़ गये ।प्रजानाथ! फिर तो आकाश में केवल आग की ही ज्वाला प्रकट होने लगी। इससे समस्त प्राणियों को बड़ी पीड़ा हुई भारत! उन ब्रह्मास्त्रों के तेज से पीड़ित होकर ॠषि, गन्धर्व तथा देवता भी अत्यन्त संतप्त हो उठे ।फिर तो पर्वत, वन और वृक्षोंसहित सारी पृथ्वी डोलने लगी। भूतल के समस्त प्राणी संतप्त हो अत्यन्त विषाद करने लगे ।राजन्! उस समय आकाश जल रहा था। सम्पूर्ण दिशाओं में धूम व्याप्त हो रहा था। आकाशचारी प्राणी भी आकाश में ठहर न सके। तदनन्तर देवता, असुर तथा राक्षसोंसहित सम्पूर्ण जगत् में हाहाकार मच गया। भारत! ‘यही उपयुक्त अवसर है’ ऐसा मानकर मैंने तुरंत ही प्रस्वापनास्त्र को छोड़ने का विचार किया। फिर तो उन ब्रह्मवादी वसुओं के कथनानुसार उस विचित्र अस्त्र का मेरे मन में स्मरण हो आया ।
*देवताओं के मना करने से भीष्म का प्रस्वापनास्त्र को प्रयोग में न लाना तथा पितर, देवता और गंगा के आग्रह से भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति*
भीष्मजी कहते हैं- राजन्! कौरवनन्दन! तदनन्तर ‘भीष्म! प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग न करो’ इस प्रकार आकाश में महान् कोलाहल मच गया। तथापि मैंने भृगुनन्दन परशुरामजी को लक्ष्य करके उस अस्त्र को धनुष पर चढा ही लिया। मुझे प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग करते देख नारदजी ने इस प्रकार कहा- । ‘कुरूनन्दन! ये आकाश में स्वर्गलोक के देवता खडे हैं। ये सबके सब इस समय तुम्हें मना कर रहे हैं, तुम प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग न करो । ‘परशुरामजी तपस्वी, ब्राह्मणभक्त, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण और तुम्हारे गुरू हैं। कुरूकुलरत्न! तुम किसी तरह भी उनका अपमान न करो’ । राजेन्द्र! तत्पश्चात् मैंने आकाश में खडे हुए उन ब्रह्मवादी वसुओं को देखा। वे मुसकराते हुए मुझसे धीरे-धीरे इस प्रकार बोले- । ‘भरतश्रेष्ठ! नारदजी जैसा कहते हैं, वैसा करो। भरतकुलतिलक! यहीं सम्पूर्ण जगत् के लिये परम कल्याण कारी होगा’ । तब मैंने उस महान् प्रस्वापनास्त्र को धनुष से उतार लिया और उस युद्ध में विधिपूर्वक ब्रह्मास्त्र को ही प्रकाशित किया । राजसिंह! मैंने प्रस्वापनास्त्र को उतार लिया है- यह देखकर परशुरामजी बडे प्रसन्न हुए। उनके मुख से सहसा यह वाक्य निकल पड़ा कि ‘मुझ मन्दबुद्धि को भीष्म ने जीत लिया’ । इसके बाद जमदग्नि कुमार परशुरामने अपने पिता जमदग्नि को तथा उनके भी माननीय पिता ॠचीक मुनि को देखा। वे सब पितर उन्हें चारों ओर से घेरकर खडे हो गये और उस समय उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले । पितरों ने कहा- तात! फिर कभी किसी प्रकार भी ऐसा साहस न करना। भीष्म और विशेषत: क्षत्रिय के साथ युद्धभूमि में उतरना अब तुम्हारे लिये उचित नहीं हैं । भृगुनन्दन! क्षत्रिय का तो युद्ध करना धर्म ही है; किंतु ब्राह्मणों के लिये वेदों का स्वाध्याय तथा उतम व्रतों का पालन ही परम धर्म है । यह बात पहले भी किसी अवसर पर हमने तुमसे कही थी। शस्त्र उठाना अत्यन्त भयंकर कर्म है; अत: तुमने यह न करने योग्य कार्य ही किया है । महाबाहो! वत्स! भीष्म के साथ युद्ध में उतरकर जो तुमने इतना विध्वंसात्मक कार्य किया है, कल्याण हो। दुर्धर्ष वीर! तुमने जो धनुष उठा लिया, यही पर्याप्त है। अब इसे त्याग दो और तपस्या करो। देखो, इन सम्पूर्ण देवताओं ने शान्तनु नन्दन भीष्म को भी रोक दिया है। वे उन्हें प्रसन्न करके यह बात कह रहे हैं कि ‘तुम युद्ध से निवृत्त हो जाओ। परशुराम तुम्हारे गुरू हैं। तुम उनके साथ बार-बार युद्ध न करो। कुरूश्रेष्ठ! परशुराम को युद्ध में जीतना तुम्हारे लिये कदापि न्यायासंगत नहीं हैं। गंगापुत्र! तुम इस रणभूमि में अपने ब्राह्मण गुरू का सम्मान करो’ । बेटा परशुराम! हम तो तुम्हारे गुरूजन- आदरणीय पितर हैं। इसलिये तुम्हें रोक रहे हैं। पुत्र! भीष्म वसुओं में से एक वसु हैं। तुम अपना सौभाग्य ही समझो कि उनके साथ युद्ध करके अब तक जीवित हो ।भृगुनन्दन! गंगा और शान्तनु के ये महायशस्वी पुत्र भीष्म साक्षात् वसु ही हैं। इन्हें तुम कैसे जीत सकते हो? अत: यहां युद्ध से निवृत्त हो जाओ । प्राचीन सनातन देवता और प्रजापालक वीरवर भगवान् नर इन्द्रपुत्र महाबली पाण्डव अर्जुन के रूप में प्रकट होंगे तथा पराक्रम सम्पन्न होकर तोनों लोकों में सव्यसाची के नाम से विख्यात होंगे। स्वयम्भू ब्रह्माजी ने उन्हीं को यथासमय भीष्म की मृत्यु में कारण बनाया है । भीष्मजी कहते हैं- राजन्! पितरों के ऐसा कहने पर परशुरामजी ने उनसे इस प्रकार कहा- ‘मैं युद्ध में पीठ नहीं दिखाऊंगा। यह मेरा चिरकाल से धारण किया हुआ व्रत है ।
आज से पहले भी मैं कभी किसी युद्ध से पीछे नहीं हटा हुं। अत: पितामहो! आप लोग अपनी इच्छा के अनुसार पहले देवव्रत भीष्म को ही युद्ध से ही निवृत्त कीजिये। मैं किसी प्रकार पहले स्वयं ही इस युद्ध से पीछे नहीं हटूंगा’ । राजन्! तब वे ॠचीक आदि मुनि नारदजी के साथ मेरे पास आये और इस प्रकार बोले- तात! तुम्हीं युद्ध से निवृत्त हो जाओ और द्विजश्रेष्ठ परशुरामजी का मान रक्खो’ तब मैंने क्षत्रिय धर्म का लक्ष्य करके उनसे कहा- महर्षियो! संसार में मेरा यह व्रत प्रसिद्ध है कि मैं पीठ पर बाणों की चोट खाता हुआ कदापि युद्ध से निवृत्त नहीं हो सकता। मेरा यह निश्चित विचार है कि मैं लोभ से, कायरता या दीनता से, भय से अथवा किसी स्वार्थ के कारण भी क्षत्रियों के सनातन धर्म का त्याग नहीं कर सकता’ । इतना कहकर मैं पूर्ववत् धनुष-बाण लिये दृढ़ निश्चय के साथ समरभूमि में युद्ध करने के लिये डटा रहा। राजन्! तब वे नारद आदि सम्पूर्ण ॠषि और मेरी माता गंगा सब लोग उस रणक्षेत्र में एकत्र हुए और पुन: एक साथ मिलकर भृगुनन्दन परशुरामजी के पास जाकर इस प्रकार बोले-। ‘भृगुनन्दन! ब्राह्मणों का हृदय नवनीत के समान कोमल होता हैं; अत: शान्त हो जाओ। विप्रवर परशुराम! इस युद्ध में निवृत्त हो जाओ। भार्गव! तुम्हारे लिये भीष्म और भीष्म के लिये तुम अवध्य हो । इस प्रकार कहते हुए उन सब लोगों ने रणस्थली को घेर लिया और पितरों ने भृगुनन्दन परशुराम से अस्त्र-शस्त्र रखवा दिया इसी समय मैंने पुन: उन ब्रह्मवादी वसुओं को आकाश में उदित हुए आठ ग्रहों की भांति प्रकाशित होते देखा । उन्होंने समरभूमि में डटे हुए मुझसे प्रेमपूर्वक कहा- ‘महाबाहो! तुम अपने गुरू परशरामजी के पास जाओ और जगत् का कल्याण करो’ अपने सुहृदों के कहने से परशुरामजी को युद्ध से निवृत्त हुआ देख मैंने भी लोक की भलाई करने के लिये उन महर्षियों की बात मान ली । तदनन्तर मैंने परशुरामजी के पास जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। उस समय मेरा शरीर बहुत घायल हो गया था। महातेजस्वी परशुराम मुझे देखकर मुसकराये और प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोल ‘भीष्म! इस जगत् में भूतल पर विचरने वाला कोई भी क्षत्रिय तुम्हारे समान नहीं हैं। जाओ, इस युद्ध में तुमने मुझे बहुत संतुष्ट किया है’।तुम्हारा कल्याण हो।
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