Sunday, April 10, 2011

गढवाल या कुमांयू - साथ रहने को कोई तैयार नहीं


 साथ रहने को कोई तैयार नहीं
अनामी शऱण बबल रहने               
कोई साथ रहने को तैयार नहीं। स्वार्थ हो या रूतबे की आकंक्षा इसके बगैर कोई साथ देने या रहने को  भी राजी नहीं। कल यानी 10 अप्रैल की शाम को बाजार यानी मयूर विहार फेज तीन के बाजार से घर लौटते समय एलआईजी पाकेट ए-2 के एमसीडी पार्क में चारो तरफ टेंट लगे थे। मंच की तरफदेखा तो कूर्वांचल सांस्कृतिक मंच की पट्टी टंगी थी.। कूर्वांचल नाम कुछ अनजाना और नया सा लगा।उतरांचल वनांचल, पूर्वांचल की तर्ज पर मैं कूर्वांचल का प्रादेशिक अर्थ निकाल नहीं पाया। चारो तरफ बेशुमार लगी कुर्सियों को देखकर लग तो रहा था कि कोई बड़ा आयोजन है। मगर है क्या और कहां का यह जानने की इच्छा होने लगी। एक आयोजक टाईप के सज्जन को देख कर मैं अपने आपको रोक नहीं पाया और फौरन कूर्वांचल के बारे में कुछ बताने को कहा। मेरी तरफ गौर से निहारते हुए मेरी जिज्ञासा पर ही सवाल दागा। मैने कहा कि जनाब उतरांचल वनांचल, पूर्वांचल की तरह ही यह कौन सा नया प्रदेश पैदा हो गया या हो रहा है, इसका अनुमान नहीं लगा पा रहा हूं, बस यही मेरी जिज्ञासा है ?
आयोजक की तरह दिखने वाले सज्जन ने जोरदार ठहाका लगाया। और मेरा परिचय जानने की इच्छा प्रकट की। अब बारी ठहाका लगाने की मेरी थी। ठहाका लगाने की नौटंकी या नकल करते हुए कहा कि जनाब परिचय तो आप जैसे महान लोगों की होती है। अपना तो कोई परिचय ही नहीं है। ना नाम से ना काम से। क्या बिना परिचय वाले को आप कुछ बताना नहीं चाहेंगे ? मेरी बातों को सुनकर चश्में की पीछे से घूरते हुए मुझे कहा नहीं जनाब  आप कोई सामान्य आदमी तो नहीं ? मामले को रहस्यमयी बनाते हुए मैं भी रस लेने लगा। सीबीआई या आईएसआई में से जिसे आप मान ले मैं उसी का एजेंट या जासूस हूं। मेरी बातों पर वे खिलखिला पडे़। तैश खाते हुए बोले आप तो मजाक करने लगे। मैंने तपाक से कहा मजाक तो आप कर रहे है हुजूर।मैंतो बस सामान्य सा सवाल किया था। थोड़ा बेवकूफ किस्म का आदमी हूं , जो कूर्वांचल का मतलब नहीं जानता हूं।
थोड़ा लज्जित और शर्मसार होते हुए महोदय ने बताया कि उत्तराखंड में गढ़वाल और कुमांयू दो मंडल होते है। कूर्वांचल यानी कुमांयू के पूरे इलाके का यह संगठन है। बारी मेरे चौंकने की थी। आमतौर पर पहाड़ी सभ्यता संस्कृति एकता सामाजिक सदभाव के बीच एक ही क्षेत्र में अंतर विभाजन या मतभेद की आशंका से मैं हैरान सा था। कुमांयू इलाके के महान विभूति ने अपनी बात जारी रखी। उनकी पीड़ा थी कि गढ़वाली संगीत सभ्यता, सांस्कृतिक एकता और निरंतर सक्रियता से कुमांयू मंड़ल की कोई पहचान ही उभर कर सामने नहीं आती है। मैंने फिर टोका यानी आपलोग भी अब अपनी पहचान के लिए जागरूक हो गए हैं। उन्होनें पिंजड़े में बंद तोते की तरह अपना गर्दन हिलाया। मैं भी उनके उत्साह पर जोरदार खुशी जाहिर की और  पूछा तो आपलोग उन्हें भी बुलाएंगे ना ? मेरी बात सुनते ही उनका पारा गरम हो गया। उपेक्षा की पीड़ा को प्रकट करते हुए कहा कि वे हमें कौन से बुलाते थे कि हम उन्हें बुलाएंगे। जोरदार आयोजन की तमाम व्यवस्था ही हमलोग उन्हे यह बताने के लिए कर रहे है कि कूर्वांचलका आयोजन में गढ़वाल से कम नही बहुत आगे है। यानी आयोजन की  जोरदार तैयारी का पूरा रहस्य बस नीचा दिखाने के लिए है ?
मेरे साथ अनमने मन के साथ बातचीच करने के बावजूद उन्हें भी बातचीत में रस आता हुआ प्रतीत हो रहा था। मेरी बात को बुरा ना मानने के बाद भी सीधे तौर पर जोरदार ढंग से इंकार किया नही.....नहीं.... हमलोगों का यह मतलब नहीं है। मैंने पलटवार किया तो फिर क्या मतलब है ? इस पर वे बौखला गए। हमारा कोई भी मतलब हो इससे आपको क्या लेना देना। विचलित हुए बगैर मैने कहा मतलब क्यों नहीं है। एक आयोजन कर रहे है और हजारों दर्शकों के बैठने की व्यवस्था कर रहे है तो हमारा जानने का पूरा अधिकार है। इस पर वे खिलखिला पड़े। मैं भी मुस्कुराते हुए कहा कि बस अंत में एक अर्ज कर दूं कि एक कहावत है जंगल में मोर नाचा किसने देखा ? आप लाखो रूपए खर्च करके कार्यक्रम कर रहे है और जिसको दिखाने के लिए कर रहे है, अगर उसी ने नहीं देखा तो क्या खाक मेहनत की। जनाब गढ़वालियों ने जो गलती आपलोगों को साथ लेकर नहीं चलने की है, वही गलती तो आपलोग भी कर रहे है ? यह कहना तो मेरा दुस्साहस होगा मगर, आपलोग उन्हें चीफ गेस्ट की तरह लाए या बुलाएं  ताकि उन्हें अपनी गलती का अहसास हो। बाकी तो सारे लोग अपने मन की करते ही है। मेरी बातों को सुनकर वे गंभीर हो गए। कहने लगे यह इतना और तुरंत होना आसान नहीं लगता। मैंने उनका हौसला बढ़ाया, कोशिश करके देखिए। एकाएक वे मेरी तरफ आकर मुझे अपनी बांहों में समेट लिया। आप है कौन जरा ये तो बताइए ? मैंने भी उनकी आंखों में आंखे डालकर बोला सीआईडी या आईएसआई का आदमी नहीं हूं। फिर हमदोनो खुलकर हंसने लगे। उन्होने कहा कि आप तो शाम को आएंगे ना ? मैनें आने का वायदा कर घर की तरफ चल दिया।
पहाड़ी लोगों में आमतौर पर काफी मधुर रिश्ता होता है, मगर कुमांयूनियों और गढ़वालियों के बीच के मतभेद और सांस्कृतिक भेदभाव को सुनकर मन दुःखी हो गया। आमतौर पर बिहारियों में एकता नहीं होती है, एक बिहारी होने के बाद भी यह सुनता आ रहा था। प्रत्यक्ष तौर पर इसे करीब पांच साल पहले देख भी लिया। मयूर विहार फेज-3 में एक बिहारी संगठन बना। सरस्वती पूजा के जोरदार आयोजन का प्लान बना। हम बिहारियों को इसके लिए जबरन (अनमने तौर पर ) 1100 रूपए देने भी पड़े। आयोजन भी ऐसा हुआ कि यह कहने में कोई संकोच नही कि वाकई ऐसा आयोजन अभी तक दोबारा नहीं हुआ। ज्यादातर आयोजन अपनी जाति बिरादरीऔर क्षेत्र प्रांत को लेकर ही होता है, मगर सरस्वती पूजा में पूरा इलाका आमंत्रित था और कमसे कम तीन हजार से भी ज्यादा लोगों के ( जिसमें सभी लोगो नें उत्साह के साथ हिस्सा लिया) भोजन में भाग लिया। मगर दूसरे साल यही कार्यक्रम तो हुआ मगर दो गुटों में बंटकर दो पूजा समारोह हुए,मगर कार्यक्रम भी ऐसा कि केवल हमें ही नहीं सैकड़ों लोगों को भी बड़ी निराशा हुई। इसबार मैं 1100 रूपए खुशी-2 देने के लिए तैयार था कि चंदा लेने आए एक गुट ने दूसरे गुट को चंदा नहीं देने की नसीहत भी दी। कारण जानने पर वही पद लालसा और तू बड़ा या मैं की तर्ज की कहानी से बड़ा आघात लगा। तमाम दवाब के बाद भी 251 रूपए देकर अपना पिंड छुडाया। दूसरे ही दिन बिहारी संगठन का दूसरा गुट भी घर पर आ धमका। फिर वही तर्क वही दलीले और बिहारी होने के गौरव का इमोशनल ब्लैकमेलिंग। मैं भी थोड़ा रूखे लहजे में कहा कि गौरव तो है,मगर एक ही साल में पूरे गौरव का आपलोगों ने अचार बना डाला। दोनों गुट मुझे अपने साथ जोड़ने के लिए दाना डालने लगे। मैंने अपने आपको अलग रखने के लिए साफ कहा कि भाईसाहब कुछ मामले में मैं बड़ा बेकार आदमी हूं। एक तो मैं ज्यादा समय नहीं दे सकता और नाही कहीं साथ चलकर चंदा काटने या कटवाने में मदद कर सकता हूं। मेरी साफगोई पर हमारे बिहारी भाईयों को बड़ी निराशा हुई। मैं भी बड़ी निराशा से कहा कि क्या करे यार मेरे अंदर गुण तो बहुत हैं, मगर तथाकथित बिहारियों वाले गुण (वो गुण होता क्या है?)  नहीं है। देखादेखी दूसरे साल तो किसी तरह सरस्वती पूजा हो गया, मगर तीसरे साल से वो भी बंद।
फेज तीन ग्रूप 12 के रेसीजेंस वेलफेयर एसोसिएसन के हर दो साल पर होने वाले चुनाव में हर बार मुझे रखने के लिए दम लगाया जाता था। मैं हर बार किसी तरह बच निकलता था। मगर 2008-2010 चुनाव में तमाम कोशिशो को बाद भी बच नहीं पाया। मेरे पड़ोस वाली आंटी से लेकर मेरे घर के ठीक नीचे वाले साउथ इंडियन ने भी अपने चुनाव की शर्त मेरे रहने पर ही जोड़ दिया तो अनचाहे मन से मेरा चयन हो गया। मुझे आडिटर बनाया गया। आरडब्लूए के अध्यक्ष की सक्रियता उस समय  रूक गई, जब दो साउथ इंडियन की एकता के सामने हम लोग बेमायने से हो गए। मैं यह तो नहीं कह सकता कि इन लोगों ने किसी तरह गड़बड़ी की थी। अपने प्रभाव से बहुत सारा काम फ्री में ही कराया था, मगर खर्चो के आडिट के लिए मेरे जैसे अनाड़ी आडिटर को कोई कागज देना पंसद नहीं किया। लिहाजा बगैर किसी आपति के मैं 2009 से ही हट गया था।
ऐसा तो कई बार हुआ जब किसी सार्वजनिक बस में कंडक्टर द्वारा मां बहन की बेशुमार गालियों के साथबातचीत पर मैंने आपति की। किसी लड़की को छेड़ते या किसी चोर के पाकेट मारते देख कर मैनें फौरन पकड़ लिया। लेडिज के खड़े होने पर भी लेडिज सीट पर बेशरमी से बैठे किसी मर्द को उठाया। हालांकि ज्यादातर महिलाओं के चुपचाप खड़े होने पर भी कभी-2 गुस्सा आता है। कास्मोपोलिटन सिटी में शायद बोलना ही सबसे बड़ा गुनाह होता है। हर मंजिल पर चार फ्लैट वाले चार मंजिली 16 फ्लैट में रहना भी एक सजा से कम नहीं है। छोटे मोटे तकरार को नजरअंदाज कर दे तो शायद मैं इकलौता हो सकता हूं कि मेरा सबों से बोलचाल का रिश्ता है।  16 फ्लैटों में यों तो केवल पांच ही साउथ इंड़ियन है, मगर केवल एक से ही वो भी ठीक मेरे फ्लैटै के नीचे वालों से या तो हम परेशान हैं या वो मुझसे परेशान है। उसके घऱ के ठीक नीचे एक बंगाली परिवार रहता है। पति पत्नी काम करते है, लिहाजा घर में केवल एक बुढ़ी मां और एक बेटी रहती है। इसका लाभ ये है कि उन्हे यह पता ही नही है कि छत से पानी गिरने बूंदे टपकने कपड़ो के पानी चूने या गमलों से पानी गिरने या दीवार या छत टपकने का दर्द क्या होता है।
महानगरों में दो आमने सामने वाले फ्लैटों में रहने वाले यदि बातूनी हो तो इसकी पीड़ा का अंदाजालगाया जा सकता है। सुबह होते ही मलयालयी लैंग्वेज में दोनों तऱफ की महिलाओं की कागवार्ता से रोजाना सुबह शुरू होती है। दो बार तो बात इतनी बिगड़ या बेकाबू हो गई कि आमतौर पर महिलाओं का हमेशा लिहाज करने वाला मैं फट पड़ा और अपशब्दों का प्रयोग कर बैठा। दूसरी बार का मामला भी ऐसा रहा कि चौथी मंजिल पर रहते हुए घर का एक्सटेंशन सबसे बाद में ही करवा सकता था। जब बारी मेरे घर के काम की आई तो निर्माण से होने वाली आवाज, मलवे के गिरने या धूल उड़ने से ठीक मेरे घर का नीचे वाली महिला को फिर दिक्कत होने लगी। रोज रोज की खिच खिच से मैं एकदम आजिज आ गया। मेरी पत्नी भी परेशान थी। वो खुद जाकर बोलती रही कि जब आपका निर्माण हो रहा था तो नीचे वालों को भी परेशानी हो रही थी, मगर इसे तो सहन करना पड़ता है। एक दिन उसके पति ने घर पर आकर शिकायत की तो मैंने बताया कि यार कंस्ट्रक्शन के दौरान तोड़ फोड़ और मलवे को तो सहना ही पड़ता है, इसे कैसे रोका जाए। यही बताओ?  इस पर बड़े तैश के साथ बोला कि मैं यह नहीं जानता पर ये सब बंद करो। इसपर चौंका और  तब मैं भी अपना आपा खो बैठा और कालर पकड़कर बोला कि बंद तो तेरी बोलती होगी। मैं परेशान करने के लिए रोजाना पानी से लेकर मलवा तेरे बरामदे में गिराता हूं तू रोक सके को रोक लेना।
 यानी हम सब रहते भले ही एकसाथ हो मगर हमेशा मनमुटाव और लडने झगड़ने के लिए कारण तलाशते रहते है। किसी भी दफ्तर में  रोजाना आठ दस घंटे साथ रहने के बाद भी एक दूसरों को पिछाड़ने या एक दूसरे के खिलाफ राजनीति करते हैं।किसी ने सही कहा है लोग अपने दुख से ज्यादा दूसरो को सुखी देखकर ही अधिक दुखी होते है।

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