Saturday, September 24, 2011

- प्रेस क्लब / अनामी शरण बबल-9






 
मनजी के मोंटेक जंतर मंतर का कमाल
इंटरनेशनल छाप के अपने ग्रेट(ईमानदार) इकोनॅामिस्ट प्राईम मिनिस्टर ने वाकई कमाल कर दिखाया। अपने लंगोटिया छाप यार मोंटेक अहलूवालिया के साथ मिलकर मनजी ने वह काम कर दिखाया जिसके लिए नेहरू, श्री मती गांधी कभी सपना देखा करती थी। गरीबी हटाओं के लिए पंजा ने क्या क्या जतन नहीं किए, मगर होने हवाने को कुछ नहीं हुआ। मगर कमाल है अपने मनजी  साब ने तो ऐसा मोंटेक बाबा का अहलू पहलू जंतर मंतर फूंका कि रातो रात देश की गरीबी आधी हो गई। गरीबी अमीरी की परिभाषा ही बदल गयी। हालांकि योजना मंदिर के अहलू मोंटेक बाबा की तमाम सरकारी आंकड़ेबाजी के बाद भी देश भर में 41 फीसदी गरीब अभी मोटेंक बाबा को मुंह चिढ़ा रहे है। मनजी साब के इकोनॅामी ने देश की सूरत ही बदल दी कि आज रेहड़ी पटरी से लेकर कुली कबाडी नौकर नौकरानी का काम करने वाले तमाम लोग भी अब बीपीएल यानी सरकार की गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे लोग भी इस लक्ष्मण रेखा को पार कर चुके है। पंजा पार्टी के नेताओं पर गरीबी हटाओ की बजाय गरीब हटाने का आरोप लगता रहा है, मगर मनजी और मोंटेक बाबा ने तो भारत के शब्दकोष से बीपीएल को ही निकालकर प्रशांत सागर में डूबोने की कुचेष्टा की है। वाकई आपलोग धन्य हो मनजी और मोंटेक बाबा ।


सत्ता के लिए मत चूको राहुल


जिस कुर्सी को आप राहुल बाबा यह कहकर ठुकरा रहे है कि अभी संगठन को मजबूत करना है और 2014 में देश की मनजी से प्रदूषित कुर्सी को सुशोभित करेंगे। वाकई यह आपका बड़ा भ्रम है बाबा। मनजी तो इतने शरीफ बमभोले और बमशंकर है कि पंजा को शायद ही 2014 में सत्ता में आने का मौका मिले। यह कोई भविष्यवाणी तो नहीं है, मगर मनजी समेत यूपीए के स्वच्छ सुशासन को देखकर तो शायद आपको भी लग रहा होगा कि मनजी की फ्लॅाप पारी के बाद शायद कुर्सी की आपकी बारी नहीं आए। लिहाजा जनता को मूर्ख बनाना भी अब इतना आसान नहीं रह गया ( हालांकि मतदाता अभी भी भावुक तो है ही) है। फिर अन्ना और रामदेव मामले में तो मनजी ने पार्टी की ऐसी तैसी किरकिरी (बमभोले की अपनी तो कोई इमेज है नहीं) करा दी है कि लोगों को अब सिव्वल और मनजी से एलर्जी होने लगी है । उधर गुजरात की गद्दी से बाहरनिकलने को बेताब मोदी भाई को भी कम आंकना आडवाणी जैसी ही बड़ी भूल हो सकती है। फिर सत्ता तो किसी के बाप की जागीर है नहीं, लिहाजा जिद छोड़कर बाबा अपनी दीदी के साथ सत्ता की बागडोर थामने का मन बनाइए। वरन, ध्यान रहे 2014 की ट्रेन अगर निकल गई तो फिर शायद सत्ता सुख दीवास्वप्न बनकर रह जाएगी। फिर राहुल बाबाजी पूर्व प्रधानमंत्री का तगमा भी चस्पा करने का यह आखिरी मौका और ढाई साल का समय भी है। जिसको फिलहाल चूक गए तो तो तो तो आगे की हालात के लिए आप खुद जिम्मेदार होंगे।


मिशन सदभावना बनाम मिशन पीएम

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का मीडिया मैनेजमेंट के सामने दिल्ली के तमाम नेता और पार्टी इस बार ढेर हो गए। विदेशी अखबारों में 2014 के लिए बतौर पीएम के रूप में मोदी बनाम राहुल की खबर अभी आई नहीं कि मोदी भाई ने मिशन सद्भावना के बहाने मिशन पीएम का पहला खेप अपने पाले में कर डाला। जन मन और धन के बूते सरकारी रकम से विज्ञापनों की बौछार लगाकर इसे एक इंटरनेशनल इवेंट्स बना डाला। मिशन की ऐसी धमक रही कि पीएम का सपना पाल रहे आडवाणी को भी इस रेस से बाहर निकलना पड़ा। अपने मिशन पीएम के लिए मोदी भाई की तैयारी अभी से शुरू हो गई है और यकीन मानिए कि मोदा को अपनी पार्टी पर भी भरोसा कम है, क्योंकि इनकी गद्दी के चारो तरफ कांटे बोने वाले भी कम नहीं है, मगर तमाम दिक्कतों के बाद भी मोदी के पीछे पूरी अपनी बानर सेना है। जिससे निपटने के लिेए बीजेपी समेत कांग्रेस को भी  अभी मशक्कत करनी होगी।


मल्टीकलर के नीतीश कुमार

सुराज, सुशासन और सदभावना के राज काज का नारा बुलंद करके और अपने लालटेन भाई को कॅामा में करके सत्ता संभाल रहे नीतीश बाबू को पहचानना भी इतना सरल नहीं है। सांप्रदायिकता के खिलाफ बीजेपी स्टार नरेन्द्र मोदी तक को बिहार में उपेक्षित कर चुके नीतीश का रंग भी धीरे धीरे उतरने लगा है। फिर भी मल्टीकलर के नीतीश बाबू को पहचानना काफी कठिन है। एक तरफ दबंगों को जेल में डालने वाले सीएम सिवान से एक विधायक की मौत के बाद उनके बाहुबलि सुपुत्र की शादी श्राद्ध में करवा कर कन्या को मुंह दिखाई में उपचुनाव का टिकट थमाते है। मालूम हो कि श्राद्ध में कोई शुभ काम नहीं होने के बाद भी बाहुबली ने राजा (नीतीश) के आदेश पर अपनी शादी की। उधर सांप्रदायिकता से दूरी बनाकर चलने वाले नीतीश ने 11 अक्टूबर से आडवाणी की रथयात्रा को इस शर्त पर हरी झेडी दिखा रहे है कि नरेन्द्र मोदी इस मौके पर नदारद रहेंगे। धन्य हो नीतीश बाबू कि गुड़ खाने से आपको परहेज भले ही  ना हो पर गुलगुले से परहेज करने का ड्रामा ठीक से कर लेते हो।

थोड़ा कम बोलने का क्या लोगे अन्ना

अन्ना जी राजनीति में ज्यादा बोलना हमेशा नुकसानदेह होता है। ताजा मामला रामदेव का आप भी नहीं भूले होंगे ? अपनी बोली और धमकियों से सरकार का ब्लडप्रेशर बढ़ाने वाले रामदेव पर जब सरकारी लाठी चली तो रामदेव जी को महिला कपड़ों में  भागना पड़ा। जन लोकपाल बिल पर भारी सफलता अर्जित करने वाले अन्ना रोजाना कभी राईट टू रिजेक्ट तो कभी राईट टू रिकाल तो कभी किसी और बातों पर सरकार को धमकी देते नजर आ रहे है। अन्ना जी जब जनता ने आपको सिर पर बैठाया है तो जरा कम बोलिए हुजूर ताकि सरकार और जनता का आपके प्रति यकीन बना रहे ।  ज्यादा बोलने पर समाज में लोग राम जेठमलानी हो जाते हैं , जिनका काम केवल भौंकना ही रह जाता है। लंबी पारी के लिए जरा अपने उपर सब्र रखना सीखे महाराज। एक कहावत भी आपको अर्पित कर रहा हूं कि एक साधे सब सधे सब साधे सब बिसराय  ।


महिला लेखन पर एक अनूठा प्रयोग

द संडे इंडियन द्वारा 21 सदी की 111 लेखिकाओं पर एक खास अंक प्रकाशित किया गया। हालांकि अंक को एक सार्थक प्रयास तो कहना ही होगा, क्योंकि एक साथ बड़े पैमाने पर लेखिकाओं को लेखन, वरिष्ठता और योगदान के आधार पर रेटिंग दी गई। अलग अलग ग्रेड में शामिल लेखिकाओं पर कोई टिप्पणी करके इस प्रयास के महत्व को कम करना बेमानी होगा। मगर, श्रेष्ठ 21 लेखिकाओं में कमसे पांच  लेखिकाओं का चयन बहुतों को रास नहीं आया होगा। कमसे कम रमणिका गुप्ता, डा. सरोजनी प्रीतम, सुषमा बेदी के नाम पर तो शायद हर पाठक को आपति हो सकती है। रमणिका और बेदी को तो मैं चर्चा के काबिल ही नहीं मानता। जहां तक बात रही अनामिका और गगन गिल की तो दोनों लेखिकाएं अभी इस लायक क्या लिखा है कि इन्हें श्रेष्ठ 21 लेखिकाओं  में रखा जाए ?  कमसे कम 10 लेखिकाए ऐसी है जो नाम काम ख्याति और योगदान के स्तर पर इन पांचों पर काफी भारी पड़ती है। मगर 111 नामों के चयन में इस तरह की त्रुटियों का हो जाना या रह जाना एकदम स्वाभाविक है। यहां पर इसकी निंदा करने की बजाय संपादन मंडल को बधाई देनी चाहिए, क्योंकि नियत में कोई खोट ना होकर पूरी ईमानदारी थी। कुछ नया करने की ललक थी। महिला लेखन को एक बड़े फलक पर लाने की उत्कंठा थी, जो हर पन्ने पर झलकती है। यही वजह है कि लेखिकाओं की पूरी फौज को एक बारात की तरह एक मंड़प में सजाकर रखने में पत्रिका और इसके संपादक को सफलता मिली।


ये किताबें किसके लिए ?

दिल्ली यमुनापार .के एक प्रकाशक नें मेरे संपादन में प्रेमचंद की पत्रकारिता नामक एक किताब को तीन खंड़ों में प्रकाशित किया है। करीब 1200 पेजी इस किताब का मूल्य रखा है तीन हजार रूपए। जाहिर है कि मैं क्या शायद ही कोई पाठक इसे खरीदकर पढ़ने का साहस कर सकता है। मेरी तो खरीदकर पढ़ने की हिम्मत ही नहीं है। प्रकाशक राघव से मैने पूछा कि यार इसे किसके लिए छापे हो? मेरे सवाल पर वो खिलखिला पड़ा और अपनी मजबूरियां गिनाते हुए खरीद के पीछे के करप्शन का हवाला देकर उसने कहा कि मैं आपको 600 रूपए में तीनों खंड उपलब्ध करवा दूंगा। इसका अभी लोकार्पण नहीं करवाया है, और प्रकाशक को भी इसमें कोई रूचि नहीं है। बेवजह के झमेले में 8-10 प्रतियां फ्री में बांटनी होगी। फिर मेरा मन भी विमोचन कराने या प्रचार का नहीं हो रहा है कि जब मेरी बर्षो की मेहनत ही अगर मूषकों के लिए थी तो फिर जनता के बीच रिलीज की औपचारिकता क्यों ? वाकई धन्य हो प्रकाशक और तेरी लीला अपरम्पार। लेखक सब बेकार बेहाल और मूषको को ताजा मोटा बनाकर तू रहे मालामाल।



राजेन्द्र यादव पर पांखी का हाथी अंक

आमतौर साहित्यिक पत्रिकाओं के मालिक संपादक लोग जब कभी विशेषांक निकालते हैं तो उसका दाम इतना रख देते है कि बड़े मनोरथ से प्रस्तुत अंक की महत्ता ही चौपट दो जाती है। किसी पत्रिका को कितना मोटा माटा निकालना है, यह पूरी तरह प्रबंधकों पर निर्भर करता है। मगर पाठकों की जेब का ख्याल किए बगैर ज्यादा दाम रखना तो उन पाठकों के साथ बेईमानी है जो एक एक पैसा जोड़कर किसी पत्रिका को खरीदते हैं। पांखी का महाविशेषांक 350 पन्नों(इसे 250 पेजी बनाकर ज्यादा पठनीय बनाया जा सकता था) का है। जिसमें हंस के महामहिम संपादक राजेन्द्र यादव को महिमा मंड़ित किया गया है। संपादक प्रेम भारद्वाज ने यादव को मल्टीएंगल से देखने और पाठकों को दिखाने की कोशिश की है। मगर भारी भरकम अंक में यादव के लेखन को नजरअंदाज कर दिया गया। संपादक महोदय यादव पर लेखों और संस्मरणों की झड़ी लगाने की बजाय यादव के 10-12 विवादास्पद संपादकीय, कुछ विवादास्पद आलेख और कालजयी कहानियों को पाठकों के लिए प्रस्तुत करते तो इस हाथी अंक की गरिमा कुछ और बढ़ जाती, मगर यादव की आवारागर्दी, चूतियापा, लफंगई, हरामखोरी, नारीप्रेम बेवफाई, और हरामखोरी को ही हर तरह से ग्लैमराईज्ड करके यादव की यह कैसी इमेज (?) सामने परोस दी गई ?
यही वजह है कि 350 पन्नों के इस महा अंक में रचनाकार संपादक राजेन्द्र यादव की बजाय एक दूसरा लफंगा यादव (आ टपका) है।  जिसके बारे में करीब वाले लोग ही जानते थे। फिर आप किसी अंक को जब बाजार में देते हैं तो यह ख्याल रखना भी परम आवश्यक हो जाता है कि उसका कालजयी मूल्याकंन हो, ना कि 70 रूपए में खरीदकर इसे पढ़ने के बाद कूड़े में फेंकना ही उपयोगी लगे।


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तुस्सी ग्रेट हो गुनाहों के (देवता नहीं) पुतला उर्फ राजेन्द्र यादव..

हिन्दी के कथित विवाद पसंद और अंग्रेजी के अश्लील प्रधान लेखक खुशवंत सिंह से तुलना करने पर भीतर से खुश होने वाले परम आदरणीय प्रात: स्मरणीय हिन्दी के महामहिम संपादक राजेन्द्र यादव जी तुस्सी ग्रेट हो? आपसे इस 45 साला उम्र में 5-6 दफा मिलने और दो बार चाय पीने का संयोग मिला है। इस कारण यह मेरा दावा सरासर गलत होगा कि आप मुझे भी जानते होंगे, पर मैं आपको जानता हूं। आपकी साफगोई का तो मैं भी कायल (एक बार तो घायल भी) हूं। तमाम शिकायतों के बाद भी आपके प्रति मेरे मन में कोई खटास नहीं है। सबसे पहले तो आपने हंस को लगातार 25 साल चलाकर वह काम कर दिखाया है जिसकी तुलना केवल सचिन तेंदुलकर के 99 शतक (सौंवे शतक के लिए फिलहाल मास्टर ब्लास्टर तरस रहे हैं) से ही की जा सकती है। काश. अगर मेरा वश चलता तो यकीन मानिए यादव जी अब तक मैं आपको भारत रत्न की उपाधि से जरूर नवाज चुका होता( यह बात मैं अपने दिल की कह रहा हूं) । हिन्दुस्तान में हिन्दी और खासकर साहित्य के लिए किए गए इस अथक प्रयास को कभी नकारा नहीं जा सकता। सच तो यह भी है यादव जी कि हंस ने ही आपको नवजीवन भी दिया है वरन सोचों कि अपने मित्रों के साथ इस समय तक आप परलोक धाम ( नर्क सा स्वर्ग की कल्पना आप खुद करें) में यमराज से लेकर लक्ष्मी, सरस्वती समेत पार्वती के रंग रूप औप यौवन के खिलाफ साजिश कर रहे होते। मगर धन्य हो यादव जी कि प्रेमचंद के रिश्तेदारों से हंस को लेकर अपनी नाक रगड़ने की बजाय हंसराज कालेज की वार्षिक पत्रिका हंस को ही बड़ी चालाकी से हथियाकर उसे शातिराना तरीके से प्रेमचंद का हंस बना दिया। प्रेमचंद की विरासत थामने का गरूर और उसी परम्परा को आगे ले जाने का अभिमान तो आपके काले काले चश्मे वाले गोरे गोरे मुखड़े पर चमकता और दमकता भी है। हंस को 25 साला बनाकर आपने साबित कर दिया कि आप किस मिट्टी के बने हुए हो। फिर अब किसी खुशवंत से अपनी तुलना पर आपको गौरवान्वित होने की बजाय अब आपको शर्मसार होना चाहिए। सार्थकता के मामले में आप तो खुशवंत के भी बाप  (माफ करना यादव जी खुशवंत सिंह का बाप सर शोभा सिंह तो देशद्रोही और गद्दार था, लिहाजा मैं तो बतौर उदाहरण आपके लिए केवल इस मुहाबरे का प्रयोग कर रहा हूं) होकर कर कोसों आगे निकल गए है। देश में महंगाई चाहे जितनी हो जाए, मगर सलाह हमेशा फ्री में ही मिलता और बिकता है। एक सलाह मेरी तरफ से भी हज्म करे कि जब हंस को 25 साल का जवान बना ही दिया है तो उसको दीर्घायु बनाने यानी 50 साला जीवित रखने पर भी कुछ विचार करे। मुझे पता है कि यमराज भले ही आपके दोस्त (होंगे) हैं पर वे भी आपकी तरह कर्तव्यनिष्ठ हैं, लिहाजा थोड़ी बहुत बेईमानी के बाद भी शायद ही वे आपको शतायु होने का सौभाग्य प्रदान करे। भगवान आपको लंबी आयु और जवां मन दुरूस्त तन दे। लिहाजा यादव के बाद भी हंस दीवित रहे इस पर अब आपको ज्यादा ध्यान देना चाहिए। हालांकि अंत में बता दूं कि हंस में छपी एक कहानी कोरा कैनवस के उपर आपने संपादकीय में विदेशी पांच सात लेखकों का उदाहरण देते हुए बेमेल शादियों की निंदा की थी।, मगर ठीक अपनी नाक के नीचे रह रहे कुछ बुढ़े दोस्तों (अब दिवगंत भी हो गए) की बेमेल शादियों को आप बड़ी शातिराना अंदाज में भूल गए। अपनों को बचाकर दूसरों को गाली देने की शर्मनाक हरकतों को बंद करके सबको एक ही चश्मे से देखना बेहतर होगा। वैसे भी आपको गाली देने वालों की कोई कमी नहीं है, मगर लंबी पारी के लिेए ईमानदारी तो झलकनी चाहिए। अंत में इसी कामना के साथ कबाड़खाने में घुट रहे हंस और प्रेमचंद को गरिमामय बनाने में आपके योगदान को कभी भी नकारा नहीं जा सकता।

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