Saturday, October 3, 2015

चार शताब्दी पुरानी है मैसूर दशहरे की भव्य परंपरा



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  • श्रीकांत पाराशर


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  • कर्नाटक की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले मैसूर के नाम से कई खास चीजें जुड़ी हुई हैं-मैसूर मल्लिगे (विशेष पुष्प), मैसूर के रेशमी वस्त्र, राजमहल, मैसूर पाक (मिष्टान्न), मैसूर पेटा (पगड़ी), मैसूर विल्यदले(पान) तथा और भी बहुत-सारी चीजें। ये सब कुछ मैसूर और इसके जीवन की पहचान हैं लेकिन ये पहचान तब तक अधूरी रहती हैं जब तक इस शहर में पिछले 400 वर्षों से लगातार मनाए जा रहे दशहरा उत्सव की बात न की जाए। यह मैसूर को राज्य के अन्य जिलों और शहरों से अलग करता है। पूर्व में इसे 'नवरात्रि' के नाम से ही जाना जाता था लेकिन वाडेयार राजवंश के लोकप्रिय शासक कृष्णराज वाडेयार के समय में इसे दशहरा कहने का चलन शुरू हुआ। भारत ही नहीं, कई बाहरी देशों में भी इस उत्सव की बढ़ती लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए इस वर्ष राज्य सरकार ने इसे राज्योत्सव(नाद हब्बा) का दर्जा दिया है।
    पारंपरिक उत्साह और धूम-धाम के साथ मनाया जानेवाला यह आसुरी शक्तियों पर देवत्व के विजय का दस दिवसीय उत्सव इस साल अक्टूबर महीने में आ रहा है। शासन और प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर इसकी तैयारियां एक माह पहले से ही शुरू हो चुकी हैं। मैसूर शहर में इसका असर भी दिखने लगा है। हालांकि समय के साथ दशहरा उत्सव में काफी परिवर्तन आए हैं लेकिन इसके साथ जुड़ा उमंग का भाव कतई नहीं बदला है। दशहरा के मौसम के साथ मैसूर पूरी तरह घुल-मिल चुका है।
    दशहरे की इस परंपरा का इतिहास मध्यकालीन दक्षिण भारत के अद्वितीय विजयनगर साम्राज्य के समय से शुरू होता है। हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों द्वारा 12-13 वीं शताब्दी में स्थापित इस साम्राज्य में दशहरा उत्सव मनाया जाता था। इसकी राजधानी हम्पी के दौरे पर पहुंचे कई विदेशी  पर्यटकों ने अपने संस्मरणों तथा यात्रा वृत्तान्तों में इस विषय में लिखा है। इनमें डोमिंगोज पेज, फर्नाओ नूनिज और रॉबर्ट सीवेल जैसे पर्यटक भी शामिल हैं। इन लेखकों ने हम्पी में मनाए जाने वाले दशहरा उत्सव के बारे में काफी विस्तार से लिखा है। विजयनगर शासकों की यही परंपरा वर्ष 1399 में मैसूर पहुंची जब गुजरात के द्वारका से पुरगेरे(मैसूर का प्राचीन नाम) पहुंचे दो भाइयों यदुराय और कृष्णराय ने वाडेयार राजघराने की नींव डाली। यदुराय इस राजघराने के पहले शासक बने। उनके पुत्र चामराज वाडेयार प्रथम ने पुरगेरे का नाम 'मैसूर' रखा। उन्होंने विजयनगर साम्राज्य की अधीनता भी स्वीकार की।
    विजयनगर के प्रतापी शासकों के दिग्दर्शन में वर्ष 1336 से 1565 तक  मैसूर शहर सांस्कृतिक और सामाजिक ऊंचाई की शिखर की तरफ बढ़ता गया। वास्तव में यह पूरे दक्षिण भारत के इतिहास का स्वर्ण युग था। इसी दौर में पुरंदरदास, कनकदास, सर्वज्ञ तथा भक्ति आंदोलन से जुड़ी अन्य विभूतियां सक्रिय रहीं। वर्ष 1565 में तलीकोटे के युध्द में विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद मैसूर वाडेयार राजघराने के आठवें शासक राजा वाडेयार ने मैसूर का प्रशासनिक ढांचा बदला। अब यह एक अधीनस्थ प्रान्त न रहकर स्वतंत्र राज्य बन गया। श्रीरंगपटना के प्रशासक श्रीरंगराय की महत्वाकांक्षा कुछ समय के लिए राजा वाडेयार के लिए चुनौती बनी रही लेकिन वर्ष 1610 में उन्होंने श्रीरंगपटना पर भी अपना नियंत्रण बना लिया। यहीं से उन्हें सोने का वह सिंहासन प्राप्त हुआ जो कथित तौर पर विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर को उनके गुरु विद्यारण्य द्वारा दिया गया था। राजा वाडेयार 23 मार्च 1610 को इस सिंहासन पर आसीन हुए और उन्होंने 'कर्नाटक रत्न सिंहासनाधीश्वर' की उपाधि हासिल की। उन्होंने अपनी राजधानी श्रीरंगपटना को बना लिया और विजयनगर के दशहरा महोत्सव की परंपरा को भी जीवित रखा। इस उत्सव को मनाने के लिए एक स्पष्ट निर्देशिका भी तैयार कीगई। उनकी इच्छा थी कि उनकी आनेवाली पीढ़ियां भी इस उत्सव का स्वरूप उसी प्रकार बनाए रखें जिस स्वरूप में यह विजयनगर शासकों द्वारा मनाया जाता था। इस उत्सव का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि राजा वाडेयार ने अपने निर्देशों में कहा है कि अगर राजघराने के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाए, तो भी दशहरा उत्सव की परंपरा कायम रखी जानी चाहिए। अपने इस निर्देश पर  वह खुद भी कायम रहे। 7 सितम्बर, 1610 में अपने पुत्र नंजा राजा की मृत्यु के ठीक एक दिन बाद ही उन्होंने दशहरा उत्सव का उद्धाटन किया था। यानी इस उत्सव में वे कोई अवरोध नहीं चाहते थे।
    राजा वाडेयार की इस परंपरा को उनके बाद वाडेयार राजघराने के वंशजों ने भी जीवित रखने की कोशिश की है। इस परंपरा को वर्ष 1805 में तत्कालीन वाडेयार शासक मुम्मदि कृष्णराज ने नया मोड़ दिया। उन्हें टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद अंग्रेजों की मदद से राजगद्दी मिली थी इसलिए दशहरे के दौरान अंग्रेजों के लिए उन्होंने विशेष 'दरबार' लगाने की परंपरा शुरू की। इसके साथ ही दशहरा उत्सव वाडेयार राजघराने की बजाय आम जनता का उत्सव बन गया। इस उत्सव को दोबारा राजघराने से जोड़ने की कोशिश कृष्णराज वाडेयार चतुर्थ ने की। उन्होंने शानदार मैसूर राजमहल के निर्माण के बाद दशहरे को दोबारा राजघराने से जोड़ा लेकिन आम जनता इससे दूर नहीं हुई। आज भी मैसूर महल को दशहरे के उत्सव से अलग कर नहीं देखा जा सकता है।
    वाडेयार राजाओं के दशहरा उत्सवों से आज के उत्सवों का चेहरा काफी अलग हो चुका है। अब यह एक अन्तरराष्ट्रीय उत्सव बन गया है। इस उत्सव में शामिल होने के लिए देश और दुनिया के विभिन्न हिस्सों से मैसूर पहुंचने वाले पर्यटक दशहरा गतिविधियों की विविधताओं को देख दंग रह जाते हैं। तेज रोशनी में नहाया मैसूर महल, फूलों और पत्तियों से सजे चढ़ावे, सांस्कृतिक कार्यक्रम, खेल-कूद, गोम्बे हब्बा और विदेशी मेहमानों से लेकर जम्बो सवारी तक हर बात उन्हें खास तौर पर आकर्षित करती है। हालांकि बदलते समय के साथ भारत के धार्मिक अनुष्ठानों से प्रमुख कारक के रूप में धर्म की बातें दूर होती जा रही हैं लेकिन सजग पर्यटक चाहे तो दशहरा उत्सव में धर्म का अंश घरेलू आयोजनों में आज भी देख सकता है।
    उल्लेखनीय है कि चार शताब्दी से लगातार चले आ रहे दशहरा उत्सव में सिर्फ एक वर्ष की रुकावट आईथी। वर्ष 1970 में जब भारत के राष्ट्रपति ने छोटी-छोटी रियासतों के शासकों की मान्यता समाप्त कर दी तो उस वर्ष दशहरे का उत्सव भी नहीं मनाया जा सका था। उस समय न तो मैसूर राजमहल की चकाचौंध देखी जा सकी और न ही लोगों का उत्साह कहीं दिखाई दिया। बहरहाल, इसे दोबारा शुरू करने के लिए वर्ष 1971 में कर्नाटक सरकार ने एक कमेटी गठित की और इसकी सिफारिशों के आधार पर दशहरा को राज्य उत्सव के रूप में दोबारा मनाया जाने लगा। इसके साथ ही राज्य की पर्यटन आय बढ़ाने के लिए भी दशहरा उत्सव को मुख्य भूमिका दी गई। वर्ष 2004 में मैसूर राजघराने के निजी दशहरा उत्सव की झलकियां आम जनता को दिखाने के लिए इंटरनेट के माध्यम से वेबकास्ट भी शुरू किया गया। मैसूर राजवंश के अंतिम उत्तराधिकारी श्रीकांतदत्त नरसिंहराज वाडेयार की कोशिशों से शुरू किए गए इस वेबकास्ट को www.royalsplendourofmysore.com पर देखा जा सकता है। इस वेबसाइट पर वाडेयार राजवंश द्वारा पुराने समय में पूजा-अर्चना के लिए काम में लाए जाने वाले देवी-देवताओं के चित्र भी देखे जा सकते हैं। हालांकि राजमहल परिसर में राजघराने के सदस्यों द्वारा विशेष रूप से मनाए जाने वाले उत्सव में आम जनता को शामिल नहीं किया जाता है लेकिन इस वेबसाइट पर राजघराने द्वारा अपनाई जाने वाली पूजा की विधियों और विभिन्न रस्मों को भी देखा जा सकता है।

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