Wednesday, July 19, 2023

दो धार्मिक कथाएं


 प्रस्तुति _ कृष्ण मेहता: "


और जो प्रेम में जीता है- यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जीवन का गणित बहुत एक दूसरे से शृंखलाबद्ध है- जो प्रेम में जीता है वह हमेशा संतुलित होता है। उसके जीवन में बैलेंस होता है। क्रोध में बैलेंस टूटता है,संतुलन टूटता है; क्योंकि क्रोध में तुम वह कर बैठते हो जो नहीं करना था। क्रोध में तुम वह कर बैठते हो जिसके लिए तुम पछताओगे।

प्रेम से कभी कोई नहीं पछताया है। और अगर तुम प्रेम के कारण पछताए हो तो समझना कि प्रेम नहीं, कुछ और रहा होगा।

 वासना रही होगी, मोह रहा होगा, लोभ रहा होगा, काम रहा होगा; प्रेम नहीं ।

प्रेम के कारण कोई कभी नहीं पछताया। प्रेम पछतावा जानता ही नहीं है।प्रेम का कोई पश्चाताप नहीं है।"

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हर चीज आत्मा (अस्तित्व)के चारों ओर घूमनी चाहिए,इसकी जगह वह घूमती है अहंकार के चारों ओर। क्या किया जा सकता है? रोगमुक्त न होने तक कोई सुखी ,स्वस्थ जीवन कैसे जी सकता है?

प्रेम वह दवा है जो अहंकार के रोग को दूर कर देती है।वह रामबाण दवा है।

अहंकार के रोग में राग-द्वेष,पसंद नापसंद अच्छे लगते हैं।जिस कुपथ्य का निषेध है वही आकर्षित करता है।

अहंकार में एक और चीज होती है-पश्चाताप।

ऐसे कई लोग होते हैं जो जीवन में भूल हुई ऐसा करके हीनभावना की गांठ बांध लेते हैं और दुखी होते रहते हैं।

या दूसरों ने भूल की,वे गलत हैं। उनमें अपराध बोध होना चाहिए।

बोध इतना सुंदर शब्द है,इसे नकारात्मक के साथ जोड़ दिया जाता है जबकि इसे सकारात्मक के साथ जोड़ना चाहिए जो हैं-

प्रेम।

प्रेम कभी नहीं पछताता।

पछतावा जहां है वहां लोभ,मोह,वासना का जोर रहा होगा।क्रोध, ईर्ष्या,घृणा रही होगी।

आदमी अक्सर इनके कारण अपने को बुरा समझने लगता है।

आदमी का ध्यान प्रेम की तरफ जाता ही नही।

यह तो तय है जहां प्रेम होगा वहां ईर्ष्या न होगी,क्रोध न होगा,घृणा न होगी, आरोप -प्रत्यारोप न होंगे कि मैं सही तुम गलत।

इसमें आदमी सुरक्षा चाहता है जबकि एकमात्र प्रेम ही सुरक्षित है।कहते हैं-

'प्रेम है एकमात्र अभेद्य सुरक्षा;

उसे बचा लो।'

जैसा कहते हैं- जो धर्म की रक्षा करता है,धर्म उसकी रक्षा करता है।'

ऐसा ही प्रेम के साथ है।जो प्रेम की रक्षा करता है,प्रेम उसकी रक्षा करता है।

यह कोई महिमामंडन करने की बात नहीं है।इस सत्य का स्पष्ट बोध हो सके इसकी बात है।

अधिकांश लोग इसे स्वीकार लेंगे।

बहुत कम लोग प्रेम के विरोध में खड़े होंगे।वे क्रोध,हिंसा,घृणा,वासनादि का पक्ष लेंगे।दुर्योधन जैसे लोग।

इसे गीता ने तामसी बुद्धि कहा हैं-यह अधर्म को ही धर्म मानती है और धर्म को अधर्म।

यह देखने जैसी बात है ऐसा आदमी सहारा तो मूल तत्व का ही लेता है।घृणा करनेवाला घृणा से प्रेम करता है,प्रेम से घृणा।

अहंकार से प्रेम होता है या नहीं?

ऐसा भी कोई हो सकता है जो अहंकार से घृणा करता हो।

या तो दूसरे के अहंकार से या अपने अहंकार से।

साधक लोग अहंकार से छूटना चाहते हैं। अहंकार अत्यधिक निंदित है। लेकिन मूल में तो यही है-मैं सही, अहंकार गलत।

तो कौन कह रहा है-मैं सही?

क्या यह वही नासमझी नहीं है?

इस मैं सही,दूसरा गलत से तो सारी दुनिया भरी पड़ी है।

बड़ा द्वंद्व है, बहुत उपद्रव है इसके कारण।किसीको इसका पछतावा हो सकता है।पछतावे के मूल में भी अहंकार ही है।

केवल एक चीज बचा सकती है वह है प्रेम।

अहंकार कहता है-तू गलत,मैं सही।या

तू सही,मैं गलत।

स्वयं को गलत मानकर कई लोग जीवन भर घुटते रहते हैं।वे अपना जीवन अपना नर्क बना लेते हैं।

लोग उन्हें अच्छा मानने लगें तो राहत हो या तब भी संशय बना रहे।

यह संशय जीवन को नर्क बना देता है।

'संशयात्मा विनश्यति 'कहा ही है।

आखिर यह सब क्यों?कीचड से कीचड धोने की जद्दोजहद किसलिए?न धो पाने पर असफलता, असमर्थता,दुख का अहसास किसलिए?

यह वही बात है-अंधकार से लडने से अंधकार नहीं जाता।प्रकाश लाओ,दीया जलाओ अंधकार स्वत:विलीन हो जाता है,बिना लडे।

यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि जहां अहंकार है वहां यह उपद्रव है।उसका रस ही इसी बात में हैं-

मैं नहीं तो तू गलत;

तू नहीं तो मैं गलत।

मानों यही एक चीज रह गयी हो करने को।

ऐसे लोग बुरे होते हैं ऐसा नहीं, वस्तुत: उन्हें पता नहीं।

कुछ उदार होकर कह देते हैं-

ठीक है तू भी सही,मैं भी सही।

लेकिन अभी भी वह द्वंद्व तो पूरी तरह से मिटा नहीं है।

जैसे एक आदमी भयभीत है तो दूसरा निर्भय हो जाता है।

निर्भयता में भी भय तो मिला ही हुआ है।भय के आधार पर खड़ी है निर्भयता।निर्भय आदमी को भय का पता है।

सिर्फ एक आदमी है जिसे भय का पता नहीं है।वह स्थितप्रज्ञ है अभय को प्राप्त।

अभय में भय तथा निर्भयता का द्वंद्व नहीं है।यह द्वंद्व तो अहंकार में है।

इसीलिए जहां अभय है वहां प्रेम है।

मैं संघर्ष करता नहीं,आपसे डरता नहीं,न आपसे निर्भय होने की कोशिश करता हूं। अहंकार की लड़ाई ही नहीं है तो और क्या हो सकता है सिवाय प्रेम के?

'प्रेम एक संतुलन देता है।

क्यों कि प्रेम तुम्हारे व्यक्तित्व को एक माधुर्य देता है,एक स्निग्धता देता है।

प्रेम तुम्हारे रोएं रोएं को एक हल्की शांति,एक रस देता है।उस रस के कारण तुम अति पर जाने से बचने लगते हो।

क्यों कि अगर अति पर जाओगे तो रस टूटता है।

उस रस के कारण तुम अति पर नहीं जाते।"

कामक्रोधलोभ शत्रु हैं यह सुनकर आदमी इनसे लडने लगता है।इस लड़ाई की अति में प्रेम तिरोहित हो जाता है।प्रेम वहां होता ही नहीं।जहां लड़ाई है,अति है।

अहंकार असंतोष है।

प्रेम परम संतोष की अनुभूति लिए होता है।

इसकी कोशिश करनी चाहिए।

कामक्रोधलोभ से लड़ाई के मूल में दूसरा होता है जैसे स्त्री,शत्रु,धन।वे शामिल होते हैं।

संघर्ष बढ़ जाता है इसलिए वे व्यक्तिगत ही नहीं, सामाजिक दृष्टि से भी शत्रु साबित होते हैं।

और प्रेम है तो?

'सर्वभूतहितेरता:'

सभी के हित का भाव है तो कहां है व्यक्तिगत द्वंद्व, सामाजिक संघर्ष।

इसके लिए प्रयत्न क्यों नहीं करते?

बदलना पड़ता है। बदलना मुश्किल लगता है। इसलिए वापस लौट जाते हैं अपने अंतर्द्वंद्व की तरफ और सोचते हैं-कैसे मुक्ति मिले इससे?

इस तरह मुक्ति नहीं मिलती।

न अपराध बोध मिटता है।

यह केवल प्रेम की सत्यता के बोध से ही संभव है।

समझ में आ गया तो ठीक,फिर यही होगा।किसीको बौद्धिक रुप से समझ में आ जाता है, व्यवहार में लाना कठिन लगता है।

तो कोई जल्दी नहीं करनी है।

इतना है कि कल्याण कारी चीजों को जीवन में घटने में समय लग सकता है परंतु उससे उन्हें कोई हानि नहीं है।

सूर्य को चाहे जितनी काली घटायेंं घेरे हों मगर उन्हें मिटना ही पड़ता है।

'तमसो मां ज्योतिर्गमय।'

यह भी कहा है-

'धीरे धीरे रे मना धीरे सब कछु होय।माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।।'

यह जो बीच का समय है यह प्रगति का समय होता है। प्रगति सतत होती है तभी तो फल आता है।

यह ऐसा फल है इस पर भरोसा किया जा सकता है।

दूसरों के दोषों पर भरोसा नहीं किया जा सकता मगर अपने गुणों पर तो भरोसा किया ही जा सकता है।जैसे आत्मविश्वास।किसी पर विश्वास हो,चाहे न हो परंतु स्वयं में आत्मविश्वास है तो यह काफी है।

ऐसे ही स्वयं में प्रेम है तो दूसरे के राग-द्वेष,क्रोध घृणा से कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रकाश की उपस्थिति में अंधेरा टिकेगा कैसे?

वह प्रकाश अपना ही है।

बल्कि स्वयं है।

स्वयं प्रकाश।

 हरिहराय नमस्तुभ्यम्*

*श्री शिव महापुराण कथा*


*रुद्र संहिता के तृतीय खंड के पार्वती खंड का बाईसवां अध्याय*


*देवताओं का शिवजी के पास जाना*


 *जब भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती को तपस्या करते-करते अनेक वर्ष बीत गए। परंतु भगवान शिव ने उन्हें वरदान तो दूर अपने दर्शन तक न दिए। तब पार्वती के पिता हिमाचल, उनकी माता मैना और मेरु एवं मंदराचल ने आकर पार्वती को बहुत समझाया तथा उनसे वापस घर लौट चलने का अनुरोध किया। तब उन सबकी बात सुनकर देवी पार्वती ने विनम्रतापूर्वक कहा- हे पिताजी और माताजी! क्या आप लोगों ने मेरे द्वारा की गई प्रतिज्ञा को भुला दिया है? मैं भगवान शिव को अवश्य ही अपनी तपस्या द्वारा प्राप्त करूंगी। आप निश्चिंत होकर अपने घर लौट जाएं। इसी स्थान पर महादेव जी ने क्रोधित होकर कामदेव को भस्म कर दिया था और वनों को अपनी क्रोधाग्नि में भस्म कर दिया था। उन त्रिलोकीनाथ भगवान शंकर को मैं अपनी तपस्या द्वारा यहां बुलाऊंगी। आप सभी यह जानते हैं कि भक्तवत्सल भगवान शिव को केवल भक्ति से ही वश में किया जा सकता है। अपने पिता, माता और भाइयों से ये वचन कहकर देवी पार्वती चुप हो गईं। उन्हें समझाने आए उनके सभी परिजन उनकी प्रशंसा करते हुए वापस अपने घर लौट गए। अपने माता-पिता के लौटने के पश्चात देवी पार्वती दुगुने उत्साह के साथ पुनः तपस्या करने में लीन हो गईं। उनकी अद्भुत तपस्या को देखकर सभी देवता, असुर, मनुष्य, मुनि आदि सभी चराचर प्राणियों सहित पूरा त्रिलोक संतृप्त हो उठा।*


*देवता समझ नहीं पा रहे थे कि पूरी प्रकृति क्यों उद्विग्न और अशांत है। यह जानने के लिए इंद्र व सब देवता गुरु बृहस्पति के पास गए। तत्पश्चात वे सभी मुझ विधाता की शरण में सुमेरु पर्वत पर पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने मुझे हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा मेरी स्तुति की। तब वे मुझसे पूछने लगे कि प्रभु! इस जगत के संतृप्त होने का क्या कारण है? उनका यह प्रश्न सुनकर मैंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के चरणों का ध्यान करते हुए यह जान लिया कि जगत में उत्पन्न हुआ दाह देवी पार्वती द्वारा की गई तपस्या का ही परिणाम है। अतः सबकुछ जान लेने के उपरांत मैं इस बात को श्रीहरि विष्णु को बताने के लिए देवताओं के साथ क्षीरसागर को गया। वहां श्रीहरि सुखद आसन पर विराजमान थे। मुझ सहित सभी देवताओं ने विष्णुजी को प्रणाम कर उनकी स्तुति करना आरंभ कर दिया। तत्पश्चात मैंने श्रीहरि से कहा- हे हरि! देवी पार्वती के उग्र तप से संतृप्त होकर हम सभी आपकी शरण में आए हैं। हम सबकी रक्षा कीजिए। भगवन् हमें बचाइए।*


*हमारी करुण पुकार सुनकर शेषशय्या पर बैठे श्रीहरि बोले- आज मैंने देवी पार्वती की इस घोर तपस्या का रहस्य जान लिया है परंतु उनकी इच्छा को पूरा करना हमारे वश की बात नहीं है। अतः हम सब मिलकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के पास चलते हैं। केवल वे ही हैं जो हमें इस विकट स्थिति से उबार सकते हैं। देवी पार्वती तपस्या के माध्यम से भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। इसलिए भगवान शिव से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि वे देवी पार्वती से विधिवत विवाह कर लें। हम सभी को इस विश्व का कल्याण करने के लिए भगवान शिव से पार्वती का पाणिग्रहण करने का अनुरोध करना चाहिए।*


*भगवान विष्णु की बात सुनकर सभी देवता भयभीत होते हुए बोले- भगवन्! भगवान शिव बहुत क्रोधी और हठी हैं। उनके नेत्र काल की अग्नि के समान दीप्त हैं। हम भूलकर भी भगवान शंकर के पास नहीं जाएंगे। उनका क्रोध सहा नहीं जाएगा। उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया था। हमें डर है कि कहीं क्रोध में वे हमें भी भस्म न कर दें।*


 *इंद्रादि देवताओं की बात सुनकर लक्ष्मीपति श्रीहरि बोले- तुम सब मेरी बातों को ध्यानपूर्वक सुनो! भगवान शिव समस्त देवताओं के स्वामी और भयों का नाश करने वाले हैं। तुम सबको मिलकर कल्याणकारी भगवान शिव की शरण में जाना चाहिए। भगवान शंकर पुराण पुरुष, सर्वेश्वर और परम तपस्वी हैं। हमें उनकी शरण में जाना ही चाहिए भगवान विष्णु के इन वचनों को सुनकर सब देवता त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का दर्शन करने के लिए उस स्थान की ओर चल पड़े, जहां महादेव जी तपस्या कर रहे थे।*


*उस मार्ग में ही देवी पार्वती उत्तम तपस्या में लीन थीं। उनके तप को देखकर सभी देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। तत्पश्चात उनके तप की प्रशंसा करते हुए मैं, श्रीहरि विष्णु और अन्य देवता भगवान शिव के दर्शनार्थ चल दिए। वहां पहुंचकर हम सभी देवता कुछ दूरी पर खड़े हो गए और हमने तुम्हें भगवान शिव के करीब यह देखने के लिए भेजा कि वे कुपित हैं या प्रसन्न । नारद! तुम भगवान शिव के परमभक्त हो तथा उनकी कृपा से सदा निर्भय रहते हो। इसलिए तुम भगवान शिव के निकट गए तथा तुमने उन्हें प्रसन्न देखा। फिर तुम वापस लौटकर हम सभी के पास आए तथा उनकी प्रसन्नता के बारे में हमें बताया। तब हम सब भगवान शिव के करीब गए। भगवान शिव सुखपूर्वक प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए थे। भक्तवत्सल भगवान शिव चारों ओर से अपने गणों से घिरे हुए थे और तपस्वी का रूप धारण करके योगपट्ट पर आसीन थे। मैंने श्रीहरि और अन्य देवताओं ने भगवान शिव शंकर को प्रणाम करके वेदों और उपनिषदों द्वारा ज्ञात विधि से उनकी स्तुति की।*

[7/19, 08:47] Morni कृष्ण मेहता: *ब्रह्मवैवर्त पुराण की कथा*

ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार एक बार नारद जी बड़ी ही जिज्ञासु अवस्था में श्रीहरि नारायण के पास पहुंचे और विनीत स्वर में बोले, हे प्रभु, वैसे तो आप मेरी मनस्थिति समझ ही चुके हैं,

फिर भी मैं आप से ये जानना चाहता हूं कि जो भगवान शंकर पीड़ाहारी हैं, संसार के कष्टों को दूर करने वाले हैं, उन्होंने क्यों अपने पुत्र गणेश जी की के मस्तक को काट दिया. 


श्रीहरि ने सुनाया वृ़त्तांत


इस पर श्रीहरि विष्णु ने कहा, सुनो नारद. तुम्हें इसके लिए एक प्राचीन कथा सुनाता हूं. महादेव के दो भक्त थे. माली और सुमाली. उनका किसी व्याधि को लेकर सूर्यदेव से युद्ध हो गया. माली और सुमाली पर सूर्यदेव ने अपनी तेज शक्ति का प्रयोग कर दिया. उनकी दारुण पुकार सुनकर क्रोधित महादेव ने सूर्य देव पर शूल का प्रहार कर दिया. 


महादेव ने किया सूर्य पर प्रहार

त्रिशूल की चोट से सूर्य की चेतना नष्ट हो गई. वह अपने रथ से नीचे गिर पड़ा. जब कश्यपजी ने देखा कि  मेरा पुत्र मृत अवस्था में हैं तो वह विलाप करने लगे.  उस समय सारे देवताओं में हाहाकार मच गया. संसार में अंधकार छा गया. तब ब्रह्मा के पौत्र तपस्वी कश्यप जी ने शिव जी को शाप दिया. 

वे बोले जैसा आज तुम्हारे प्रहार के कारण मेरे पुत्र की अवस्था हुई, आपको एक दिन स्वयं अपने पुत्र पर त्रिशूल का प्रहार करना होगा.  आपके पुत्र का मस्तक कट जाएगा. 

इसलिए कटा बालगणेश का मस्तक

यह सुनकर भोलेनाथ का क्रोध शांत हो गया. उन्होंने सूर्यदेव की चेतना लौटा दी. इसके बाद ऋषि कश्यप अवाक रह गए और क्षमायाचना करने लगे. जब सूर्यदेव को कश्यप जी के शाप के बारे में पता चला तो उन्होंने सभी का त्याग करने का निर्णय लिया

यह सुनकर देवताओं की प्रेरणा से भगवान ब्रह्मा सूर्य के पास पहुंचे और उन्हें उनके काम पर नियुक्त किया. बाद में जैसा की ऋषि कश्यप का शाप था, गणपति बालक के विवाद से वैसी ही स्थिति बन गई और महादेव को अपने पुत्र का मस्तक काटना पड़ा. इन

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