भविष्य का वध
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अनवरत जीवन चक्र का
अचानक रुकना,
मानो आसमान का
पृथ्वी पर झुकना।
खण्डित होना गर्व का,
विखंडित होना दर्प का।
कैसा ये संकेत?
बताओ न अनिकेत!
अब तो चेतो मानव!
बनना छोड़ो दानव।
प्रकृति को क्यों किया विखंडित?
निश्चित करेगी वो दण्डित-
तुम्हारे किये गए
समस्त दुराचरण
के लिए।
तुम्हारे विध्वंसक आचरण
के लिए।
आओ!अब तो चेत जाएँ,
कुदरत को न सताएँ।
ऐसा न हो कि कल,
केवल हम-
पछताएँ ही पछताएँ।
क्योंकि यह जानते हुए भी कि-
वर्तमान से स्वतंत्र कोई
भविष्य नहीं होता,
और हम
वर्तमान में भविष्य का
करते जा रहे हैं-
वध और केवल वध।।-
दोहा छंद / अपना भारत देश"
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सभी स्वस्थ सानंद हों,ईश हरे त्रय ताप।
विकट समय है देश का,मिटे सभी संताप।-१
कभी अँधेरा था कहाँ,इतना बड़ा महान।
रोक सका है आज तक,होता रहा विहान।।-२
संचित भारत देश में,पुन्य प्रसून अगाध।
भष्म सभी होंगे यहाँ, इनसे शीघ्र निदाध।।३
ऋषि मुनियों की भूमि है,अति पवित्र यह देश।
इसके कण कण में भरा,जिजीविषा संदेश।।-४
धैर्य धरा धरती यहाँ,रत्नों की है खान।
पूरित करती है सदा,खान पान अनुपान।।-५
गंगा जल से है जहाँ, बनता अमृत योग।
रोग शोक शीतल करे,करता सदा निरोग।-६
देता हो जिस देश को,सूरज दिव्य प्रकाश।
निश्चित ही होगा यहाँ, कृमि अणुओं का नाश।।-७
पवन जहाँ इस देश को,देता मलय समीर।
आशंका निर्मूल है,होगा स्वस्थ शरीर।।-८
पत्ता पत्ता है जहाँ, औषधि का भंडार।
देने को आतुर सदा,वृक्ष हमे उपहार।।-९
ऐसे भारत देश में,होगा शीघ्र विनाश।
यहाँ गले में आज जो,फँसा 'कोरोना' फाँस।।-१०
कुछ दिन की ही बात है,घर मे रहो 'दिनेश'।
शीघ्र स्वस्थ हो जाएगा,अपना भारत देश।।-११
२९ मार्च २०२०
7.०० सायं
कविता तुम कौन हो
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कविते!तुम कहाँ रहती हो?
तुम कौन हो?
बताओ न!
क्यों मौन हो?
कविश्रेष्ठ!तो अब सुनो!
तुम जहाँ जहाँ जाओगे
वहीं वहीं मुझे पाओगे
मैं सर्वत्र व्याप्त हूँ,
होती नहीं समाप्त हूँ,
जिसकी बेटी हूँ
उसका नाम है अक्षर
फिर कैसे जाती मर?
मैं हीं वर्तमान हूँ,
भूत में थी व्यवस्थित,
भविष्य के गर्भ में भी
हूँ सुरक्षित।
कुछ उदाहरण बताती हूँ,
इन्हें सुनो और जो
अच्छा लगे,उसे चुनो।
जानते हो कविवर!
मैं ही प्रथम कवि की
चाह हूँ और
क्रौंच युगल की
कराह हूँ।
मैं हीं चूल्हे की आँच पर
सिकी हुई रोटी हूँ तो
किसी चूल्हे की बुझी हुई
राख भी ।
मैं हीं कर्ज में डूबे हुए
किसान की आह हूँ,
तो किसी बैंकर की
साख भी ।
मैं ही तो माँ की गुनगुनाती
लोरी हूँ तो कहीं
बोझ से दबे पिता की
मजबूरी।
मैं हीं तो किसी मासूम की
चीत्कार में हूँ तो
अस्मत लूटने वालों के
धिक्कार में।
किसी मजदूर के भूख में हूँ
तो कहीं महाजन के
संदूक में।
मैं ही देश के गद्दार में हूँ तो
कहीं सीमा पर तने
बंदूक में।
मैं हीं तो कहीं पुण्य में हूँ
तो कहीं पाप में।
छलिया इंद्र के जाल में हूँ
तो कहीं किसी गौतम के
शाप में ।
मैं हीं तो कृष्ण की
गीता में हूँ, तो कहीं
तुलसी की
सीता में।
मैं ही भीष्म की
शरशैया में हूँ तो
तो कहीं वंशी धारी
कृष्ण कन्हैया में।
कवि श्रेष्ठ!मैं कहीं प्रकाश में हूँ
तो कहीं अंधकार में।
किसी संस्कार में हूँ तो
किसी मन के विकार में।
तो हे कविवर!तुम
अपना शब्दभेदी बान
जहाँ जहाँ चलाओगे
वहीं वहीं घायलावस्था में
मुझे पाओगे और
करुण क्रंदन के साथ
मुझे ही गुनगुनाओगे।
दोहा छंद आधारित हिंदी ग़ज़ल
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"फिर से होगी भोर"
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दीप दीप जलता रहे,अँधियारा घनघोर।
आह्वाहन है देश का,फिर से होगी भोर।।
नव ऊर्जा नव जोश से,मन में भर उत्साह।
करें अंत इस क्लेश का,फिर से होगी भोर।।
रोशन होगा देश अब, होगा शीघ्र विनाश।
आया रोग विदेश का,फिर से होगी भोर।।
विपदा के इस काल में, धीरज का संदेश।
पालन हो संदेश का, फिर से होगी भोर।।
नेह डोर को थामकर, जले दीप निर्वाध।
क्षीण न हो आवेश का, फिर से होगी भोर।।
विस्तृत धवल प्रकाश से, मिट जाए चहुँ ओर।
अँधियारा परिवेश का, फिर से होगी भोर।।
छिन्न भिन्न होगा यहाँ, हो जायेगा अंत।
राज्य यहाँ तिमिरेश का,फिर से होगी भोर।।
तमसो मा ज्योतिर्गमय, महामंत्र उपचार।
ऐसे रोग विशेष का,फिर से होगी भोर।।
कण कण आलोकित यहाँ, फैले जगत प्रकाश
कहना यही 'दिनेश' का, फिर से होगी भोर।।
महावीर जयंती के अवसर पर-
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बाल सुलभ कविता
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भगवान महावीर
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जैन धर्म के महाप्रवर्तक,
'महावीर' स्वामी थे एक।
चौबिसवें तीर्थंकर थे वह,
उनसे पहले हुए अनेक।।
धीर वीर ज्ञानी थे ऐसे,
'पंचशील' सिद्धांत बना।
सत्य अहिंसा ब्रह्मचर्य का,
ताना बाना यहाँ तना।।
कुछ भी नहीं इकट्ठा करना,
'अपरिग्रह' कहलाता है।
चोरी करना महापाप है,
जैन धर्म सिखलाता है।।
'जियो और जीने देने' का
यहाँ मार्ग दिखलाया था।
डिगा नहीं अपने पथ से,
'महावीर' कहलाया था।।
आओ मिलकर सभी यहाँ पर,
उनका हम गुणगान करें।
शिक्षाएँ उनकी अपनाकर,
उनका हम सम्मान करें।।
दिनेश श्रीवास्तव
६अप्रैल,२०२०
७.१५ सायं
।।।
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