Thursday, December 8, 2022

कलियुग केवल नाम अधारा,सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा.....

 


प्रस्तुति -  रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 



भगवान के नाम का तो इतना अवर्णनीय महत्व है जो सभी युगों के लिए है पर यहाँ एक प्रश्न उठता है कि कलियुग के लिए ही इसका महत्व क्यों बताया गया है? अन्य युगों में क्या और भी कोई आधार था?


 एक बार कुछ मुनि मिलकर विचार करने लगे कि किस समय में थोड़ा सा पुण्य भी महान फल देता है और कौन उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकते हैं?


 वे जब कोई निर्णय नहीं कर सके,तब निर्णय के लिए मुनि व्यास के पास पहुंचे। व्यासजी उस समय गंगाजी में स्नान कर रहे थे। मुनि मंडली उनकी प्रतीक्षा में गंगाजी के तट पर स्थित एक वृक्ष के पास बैठ गयी……। 


वृक्ष के पास बैठे मुनियों ने देखा कि व्यासजी गंगा में डुबकी लगाकर जल से ऊपर उठे और “शूद्रः साधुः“,”कलिः साधुः” पढ़कर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी…। । जल से ऊपर उठकर ‘योषितः साधु धन्यास्ताभ्यो धन्यरो स्ति कः ‘ कहकर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी…। मुनिगण इसे सुनकर संदेह में पड़ गए। व्यासजी द्वारा कहे गए मन्त्र नदी स्नान-काल में पढ़े जानेवाले मंत्रो में से नहीं थे,वो जो कह रहे थे उसका अर्थ है ‘कलियुग प्रशंसनीय है,शूद्र साधु है,स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं,वे ही धन्य हैं,उनसे अधिक धन्य और कौन है!!!’ 


मुनिगण संदेह के समाधान हेतु आये थे,परन्तु यह सुनकर वे पहले से भी विकट संदेह में पड़ गए और जिज्ञासा से एक दुसरे को देखने लगे……कुछ देर बाद स्नान कर लेने पर नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्यासजी जब आश्रम में आये,तब मुनिगण भी उनके समीप पहुंचे।


 वे सब जब यथायोग्य अभिवादन आदि के अनंतर आसनों पर बैठ गए तब व्यासजी ने उनसे आगमन का उद्देश्य पूछा। मुनियों ने कहा कि हमलोग आपसे एक संदेह का समाधान कराने आये थे,किन्तु इस समय उसे रहने दिया जाए,केवल हमें संभव हो तो यह बतलाया जाए कि आपने स्नान करते समय कई बार कहा था कि ‘कलियुग प्रशंसनीय है,शूद्र साधु है,स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं,वे ही धन्य हैं,सो बात क्या है? 


हमें कृपा करके बताएं। यह जान लेने के बाद हम जिस आतंरिक संदेह के समाधान के लिए आये थे,उसे कहेंगे।


व्यासजी उनकी बातें सुनकर बोले कि मैंने कलियुग,शूद्र और स्त्रियों को जो बार बार साधु,श्रेष्ठ कहा,आपलोग सुनें। जो फल सतयुग में दस वर्ष ब्रह्मचर्य आदि का पालन करने से मिलता है,उसे मनुष्य त्रेता में एक वर्ष,द्वापर में एक मास और कलियुग में सिर्फ एक दिन में प्राप्त कर लेता है…।


 जो फल सतयुग में ध्यान,त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवार्चन करने से प्राप्त होता है,वही कलियुग में सिर्फ इश्वर का नाम-कीर्तन करने से मिल जाता है। कलियुग में थोड़े से परिश्रम से ही लोगों को महान धर्म की प्राप्ति हो जाती है,इन कारणों से मैंने कलियुग को श्रेष्ठ कहा।"


"शास्त्रों में लिखा है कि कलियुग में भगवान का अवतरण होता है 'नाम' के रूप में। कलियुग में जो युग-धर्म है वह है नाम संकीर्तन। भगवान चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है कि कलियुग में केवल हरिनाम ही हमारा उद्धार कर सकता है। इसके अलावा किसी भी अन्य साधना से सद्गति नहीं है। यही बात नानक देव ने भी कही है, 'नानक दुखिया सब संसार, ओही सुखिया जो नामाधार।' 


रामचरितमानस में भी यही लिखा है, कागभुशुण्डि जी गरूड़जी को नाम का महत्व बता रहे हैं,


* एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥


भावार्थ:-(तुलसीदासजी कहते हैं-) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए॥


  किसी भी संत के पास चले जाओ, किसी भी शास्त्र को उठाओ, सब यही इंगित करते हैं कि कलियुग में भगवान का अवतरण उनके नाम के रूप में हुआ है। इसी से उद्धार होगा।


यहां पर मैं एक बात कहना चाहूंगा कि यह भगवद् नाम अन्य भौतिक नामों की तरह जड़ नहीं है। भौतिक जगत में हम देख सकते हैं कि एक व्यक्ति का नाम लक्ष्मीपति है परंतु वह है एक भिखारी। अथवा नयनमणि नाम वाला व्यक्ति एक आँख से काना है। किंतु भगवद् राज्य में ऐसा नहीं होता। लक्ष्मीपति भगवान वास्तव में लक्ष्मी के पति ही हैं व सबसे धनी हैं। गोविंद सभी इंदियों के स्वामी हैं व इंदियां उनकी सेवा में नियुक्त हैं। कृष्ण नाम जिनका है, वे वास्तव में सभी को आकषिर्त करने वाले हैं।


भगवद् नाम हमारी दुष्टों से रक्षा करेगा, हमें इस भव सागर से पार कराएगा, हमें हमारी इच्छानुसार वरदान देगा। वह सब कुछ करेगा, किंतु इसके लिए हमें पूर्ण रूप से समपिर्त होकर नाम कीर्तन करना होगा। यह तभी होगा। आखिर दौपदी ने वस्त्र हरण के समय जब तक पूर्ण शरणागत होकर दोनों हाथ उठा कर भगवान को नहीं पुकारा था, तब तक भगवान नहीं आए थे।"


"एक बार राजा परीक्षित जंगल से गुजर रहे थे तो उन्होंने एक बैल को एक टांग पर खड़ा देखा। जब राजा ने बैल से पूछा तो उसने कुछ स्पष्ट नहीं बताया क्योंकि वे और कोई और नहीं बल्कि स्वयं साक्षात् धर्मराज और धर्मराज कैसे किसी निंदा कर सकते थे? 


तब परीक्षित ने ध्यान बल से पता लगाया कि इनकी ऐसी दशा का जिम्मेदार कलियुग है। राजा ने सोचा कि कलियुग के आने पर संसार में चारों तरफ लूट-पट चोरी डकैती आदि नाना प्रकार के पापकर्मों की वृद्धि हो जायेगी अतः इस कलियुग का अंत कर देना चाहिए। 


जब उन्होंने कलियुग का अंत करने का पूरा मानस बना लिया था तभी उनके मन में एक विचार आया, जिसके कारण उन्होंने कलियुग का अंत करने का विचार त्याग दिया। उन्होंने सोचा कि कलियुग में सभी प्रकार की बुराइयां हैं, लेकिन इस में एक बहुत बड़ी अच्छाई भी है जिसका लाभ कलियुग में सबको प्राप्त होगा और वो वह है कि कलियुग में ईश्वर की प्राप्ति के लिए लोगों को बड़े-बड़े यज्ञ नहीं करने पड़ेंगे। 


सालों-साल तक तपस्या नहीं करनी पड़ेगी केवल एक बार सच्चे मन से जो व्यक्ति एक बार ईश्वर के नाम का उच्चारण करेगा और ईश्वर को याद करेगा बस उसे ही ईश्वर की प्राप्ति हो जायेगी। यह सोचकर उन्होंने उस समय कलियुग पर केवल पूर्णतया नियंत्रण कर लिया लेकिन उसका वध नहीं किया। इसी का उल्लेख तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में किया है -


* सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।

गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार॥


भावार्थ:-हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है, किंतु कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबंधन से छुटकारा मिल जाता है॥


* कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।

जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥


भावार्थ:-सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान्‌ के नाम से पा जाते हैं॥


* कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥

त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥


भावार्थ:-सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥


* द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥

कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥


भावार्थ:-द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥


* कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥

सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥


भावार्थ:-कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है,॥


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