Saturday, December 10, 2011

हिंदी का पाठक बदवा साहित्य नहीं


बदला, साहित्य नहीं
Feb 03, 01:18 pm
नई दिल्ली [संजीव गुप्ता]। संकेत साफ हैं, भले ही हिंदी के मठाधीश इसे स्वीकार नहीं करें। हिंदी का पाठक बदला है, उसका मिजाज बदला है। किताबें वह अब भी खरीदना चाहता है, लेकिन उपन्यास और कविता नहीं। वह ऐसी किताबें मांग रहा है, जो उसके करियर में सहायक हों और उसे जीवन के विविध रूपों का साक्षात कराती हों।
दिल्ली में चल रहा विश्व पुस्तक मेला हिंदी के सीमित संसार का बोध कराता है। रुचि और बिक्री के इस सत्य का बयान कोई और नहीं, किताब छापने वाले प्रकाशक ही कर रहे हैं। हिंदी लेखक न लिखने के कारणों पर बहस कर रहे हैं, और उधर किताबों की दुनिया बदल चुकी है। क्या हिंदी में वह सब है, जो पाठक चाहता है। प्रकाशकों के मुताबिक जिन पुस्तकों में आजकल युवाओं की खासी दिलचस्पी है, उनमें प्रबंधन, व्यक्तित्व विकास, कंप्यूटर साइंस, आईटी, सफलता प्राप्ति के लिए क्या करें, कुकरी, योग, ध्यान, पत्रकारिता, विज्ञान की पुस्तकें शामिल हैं। हिंदी में ऐसी अधिकतर पुस्तकें अनुवाद रूप में हैं।
डायमंड पाकेट बुक्स के नरेंद्र वर्मा कहते हैं, 'आज किसी के पास लंबे-चौड़े उपन्यास पढ़ने का समय नहीं। जो वक्त मिला, उसमें लोग अपने मतलब की पुस्तकें पढ़ना पसंद करते हैं, खासकर करियर संबंधित। शायद ऐसा रोजी-रोटी की चिंता के कारण हो।' बदलाव साहित्य की मांग में साफ दिखता है। प्रभात, वाणी, राजकमल, सामयिक प्रकाशन, हिंदी बुक सेंटर, किताबघर प्रकाशन और अनुभव प्रकाशन के संचालक मानते हैं कि साहित्यिक पुस्तकों के प्रति पाठकों का रुझान काफी बदला है। काव्य संग्रह लगभग हाशिए पर हैं। काव्य संग्रह नामी कवि का हो तो भले बिक जाए, वरना इन्हें कोई नहीं खरीदता। इनकी जगह गजल और व्यंग्य संग्रह ज्यादा बिकते हैं। कहानी संग्रह की तुलना में उपन्यास कम पढ़े जा रहे हैं। हालांकि प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानी संग्रहों की मांग पहले जैसी है। अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद के श्याम निर्मम भी स्वीकार करते हैं कि अब कहानी संग्रह की मांग है, उपन्यास या कविताओं की नहीं।
इसके विपरीत धार्मिक पुस्तकों की मांग पहले जैसी है। आहूजा प्रकाशन के इंद्रमोहन आहूजा बताते हैं कि रामचरित मानस, बाइबिल, गीता, विभिन्न कर्मकांडों की पुस्तकें, आरती संग्रह, कुरान शरीफ, महाभारत की मांग बरकरार है। यह बात अलहदा है कि इन पुस्तकों के खरीदार युवा कम होते हैं, बड़ी उम्र के व्यक्ति और महिलाएं ज्यादा। आहूजा मानते हैं कि 'ट्रेंड' बदला है, लेकिन धार्मिक पुस्तकों की मांग में कमी नहीं है। सामयिक प्रकाशन के महेश भारद्वाज स्पष्ट करते हैं, 'पुस्तक मेलों की तुलना व्यापार मेले या आटो एक्सपो से नहीं की जा सकती। यहां दर्शक नहीं आते, क्योंकि यहां 'देखने' के लिए कुछ नहीं होता। यहां केवल पाठक आता है, इसलिए उनकी संख्या के आधार पर यह तय नहीं हो सकता कि पुस्तकों के प्रति झुकाव बढ़ा है या घट रहा है।'

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