Thursday, March 24, 2011

प्रेमचन्द / प्रेमचन्द और उनकी प्रासंगिकता / संगोष्ठी


प्रेमचन्द और उनकी प्रासंगिकता

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                                                                                                                              जितेन्द्र कुमार "देव"




                   आज भी  प्रेमचन्द के साहित्य के प्रासंगिकता और उपादेय और अन्य संदर्भो को लेकर  प्रेमचंद और प्रेमचंद -  साहित्य एक बिवाद का  विषय बना हुवा है | यदि प्रेमचन्द के प्रासंगिक मानेवाला के लम्बी
कतार है तो अप्रासंगिक सिद्ध करनेवालों की  भी कमी नही है
   प्रेमचंद के पहिले के उपन्यासकारन के परम्परा में बाल  किशनभट्ट , श्रीनिवास दास , राधाचरण गोस्वामी , ठाकुर जग मोहन सिंह , काका गोपाल दास गम्ही ,किसोरी लाल , , देवकी नंदन खत्री आदि रचनाकारों
ने बिबिध विषयों  पर उपन्यासों की रचना की | इनमे से किसी ने तिलिस्मी और
ऐयारी लिख कर अपनी-अपनी कल्पना  शक्ति का परिचय दिया तो कोई
,
जासूसी उपन्यासों की रचना में मसगुल था , तो कोई रीतिकाल के प्रभाव में
आकर प्रेम और रोमांस की अपनी कथा वस्तु का विषय बनाकर पाठको का सरस मनोरंजन
किया 
   वैसे देखा जाये तो प्रेमचन्द के पूर्व की उपन्यास परम्परा में रचनाकार स्वप्न देखता था और मनमाना तिलिस्म बंधता था | जिसका कथा - साहित्य का जीवन से कोई सरोकार न  होकर मात्र मनोरंजन करना था
|   
ऐसी स्थिति  में प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन से जोड़ा और एक नई दिशा
प्रदान किया | उन्होंने उपन्यास को मनोरंजन के क्षेत्र से निकाल कर
तत्कालीन सामाजिक , राजनैतिक , आर्थिक और धार्मिक समस्या को जोड़ा |

             अब प्रश्न यह उठता है की आज उनका साहित्य प्रासंगिक है या इसे इतिहास के पेंदे में डाल देना चाहिए जो की काल और
परिवेश की सीमा में होकर तारीखी और बासी हो गया है | वैसे हम यह भी मानता है कि उनका साहित्य निश्चय ही प्रासंगिक है लेकिन  कल ( भविष्य ) में इतना ही प्रासंगिक रहेगा , यह भी नही कहा जा सकता | तुलसीदास आज
अप्रासंगिक है यह कहना कठिन है लेकिन प्रेमचंद और तुलसीदास कि प्रासंगिकता
एक जैसी है | यदि नही तो इसका कारण निश्चय ही काल और परिवेश है |
  तुलसीदास के समय की जो समाजिक , राजनैतिक , आर्थिक और धार्मिक समस्याए थी उनमे अब बदलाव आ चूका है लेकिन प्रेमचंद के युग की समस्या अब भी ज्वलंत है | वे आज भी उतना नही बदली | सामाजिक व्यवस्था उनकी
विसंगतियो और अन्तर्विरोध आज भी ज्यो के त्यों अपने विकराल रूप में
विद्यमान है तो प्रेमचंद की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह कैसा ??
जो प्रेमचंद की प्रासंगिकता पर प्र्स्नचिंह लगाते है उनसे पूछा जा सकता है कि-
            (१) क्या आज  कमलाचरण ( वरदान ) अपने धनवान बाप की सम्पत्ति का नाजायज प्रयोग करता नही दीखता ?
            (२) क्या आज महंथ रामदास ( सेवासदन ) नही जो "श्री बाके बिहारी " के नाम पर समाज का शोषण करता है , हत्या करवाता है , मंदिरों में वेश्यावृति करता है और रामनामी दुपट्टा ओढ़ कर वासनामयी दृष्टी से वेस्याओ
 
को देखता है ?

            (३) क्या आज ज्वाला सिंह मजिस्ट्रेट ( प्रेमाश्रय ) के चपरासी गाव वालो से बेगार नही वसूलता ?
            (४) क्या आज ज्ञानशंकर (प्रेमाश्रय ) जीवित नही है जो सम्पत्ति और जायजाद की लालच में विधवा गायत्री पर डोरे डालता है और भक्ति का झूठा वेष दिखता है ?
            (५) क्या आज कमलनाथ ( प्रतिज्ञा ) जीवित नही है जो विधवा प्रेमा के इज्जत से खेलना चाहता है ?
            (६) क्या आज प्रेमशंकर ( प्रेमाश्रय ) जन सेवा करते नही दिखाई देता ?
            (७) क्या आज गोश खां ( प्रेमाश्रय ) नही जो किसानो , गरीबो पर जुल्म करता है ?
            (८) क्या आज प्रत्येक दरोगा दयाशंकर ( प्रेमाश्रय ) का प्रतिरूप नही जो धांधली मचाते  है , झूठे मुकदमे और अभियोग बनाते है और किसानो ,गरीबो और दलितों का शोसन करते है ?
            (९) क्या आज नई नवेली पत्नी का वृद्ध पति तोताराम ( निर्मला ) अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए वस्त्र और गहने लाते हुवे नही दिखाई पड़ता और प्रसन्न न कर पाने पर उसपर गलत शंकाए नही करता ?
            (१०) क्या आज सूरदास ( रंगभूमि ) सड़क पर भीख मांगते हुवे नही दिख पड़ते ?
            (११) क्या आज मध्य वर्गीय युवक रमानाथ ( गवन ) बिलकुल मर चूका है जो की मिथ्या प्रदर्सन के लिए गवन करता है ?
            (१२) क्या आज देवीदीन खटिक ( गवन ) नही जो स्वदेस हित अपने पुत्रो को गवाकर भी प्रसन्न है ?
            (१३) क्या हमारे आस पास अनेको विसंगतियो का शिकार हो कर तिल-तिल  मरता हुवा होरी ( गोदान ) नही दीखता ?
            (१४) क्या आज समाज में घिसु और माधव ( कफन ) और हल्कू ( पूस की रात ) जहा तहा नही दिखाई देते ?
            (१५) क्या आज सुमन ( सेवासदन ) नही है जइसे समाज वेश्या बना देता है और दाल मंड्डी पर बैठने को विवस कर देता है ?
            (१६) क्या आज धनाभाव के कारण निर्मला ( निर्मला ) का विवाह चालीस बर्षीय तोताराम से नही होता ?
            (१७) क्या सोफिया ( रंगभूमि ) अपने प्रेमी को खो देने पर तथा अन्य समाजिक कारण से गंगा में प्राण देते नही मिलती ?
            (१८) क्या बुधिया ( कफन ) नही रह गयी जो प्रसव - पीड़ा में छटपटा कर अपने प्राण गवा देती है ?   
 यदि ऐसे चरित्र आज समाज में वस्तुतः नही है तो यह मानने में तनिक भी कठिनाई नही हो सकती की प्रेमचंद अप्रासंगिक है , यदि ऐसे सैकड़ो , हजारों ,लाखो व्यक्ति हमारे आस पास घूम रहे है तो यह कहना तर्क
संगत होगा की प्रेमचंद प्रासंगिक है |
 समाज में आज भी दहेज प्रथा के भयंकर कुपरिणाम देखने को मिलते है | अनमेल विवाह होते है , पखन्डियो के जथे के जथे घूम रहे है | सचरित्र मानव की दुर्गति समाज के हाथो होती है , पुलिस का जुर्म ,अत्याचार और अन्याय किसी से छिपा नही है | रिश्वत का बजार गर्म है ,मिथ्यावादी नेतावो की तादाद प्रतिदिन बढ़ रही है | कहने का मतलब है कि
प्रेमचंद ने जो समस्या उठाई थी या जो बुराइया उस समय समाज में थी वे आज भी उसी रूप में या कहें तो उससे भी विकराल रूप में दिखाई पडती है |
प्रेमचंद मानव की मानवता का उद्घाटन करते है | जिन्दगी की हकीकत से हमारा परिचय कराते है | समाज में बढ़ रहे उत्पीडन , अन्याय और शोसन के विरुद्ध आवाज उठाते  है | यही कारण है कि जो हम प्रेमचन्द साहित्य पढ़ते है
तो ऐसा प्रतीत होता है कि बस प्रेमचंद हमारी ही समस्या का उद्घाटन कर रहे
है |
  वैसे  देखा जाये तो प्रेमचंद किसी वाद या सम्प्रदाय में बध कर नही चले | प्रगतीसिल चिंतक होने के कारण वे सामन्तवाद विरोधी संघर्स के साहित्यकार है |
        (१)  "कफन " कहानी साम्राज्यवाद , सामन्तवाद और हर प्रकार के शोषन का विरोध करने वाली रचना है |
        (२) "प्रेमाश्रय " किसानो और जमीदारो की कहानी है |
        (३)  "कर्मभूमि" में राजनितिक जीवन के आन्दोलन के चित्रण के साथ सामाजिक रुढियो , परमपरावो के विरोध की कहानी है |
        (४) "गोदान"  केवल कृषक जीवन का महाकाव्य नही अपितु सामाजिक शोषन की अद्वितीय दस्तावेज है |
        (५)  "मन्त्र " कहानी भी इसी समप्रैदिकता का परिणाम है |
        (६)   " सवासेर गेहूं " और " पर्स की रात "में गरीबी शोषन का जीवंत चित्रण है |
        (७)  " गरीब की हया " और " बलिदान " आदि कहानियों में भूतो का चित्रण किया गया है | जो एक अंध विश्वास है |
         वस्तुतः मानवतावादी लेखक प्रेमचंद का सारा कथा साहित्य  यथार्त की ठोस भूमि पर आधारित  है जो तत्कालीन राजनैतिक , सामाजिक , आर्थिक और धार्मिक प्रिवेस में रचित होने के बावजूद काल और परिवेश का अतिक्रमण कर
सर्वकालिक बन गया है | अतः हम आज भी देखते है कि आज भी पुनः प्रेमचंद की
आवश्यकता है |


                                                                       ( समाप्त )



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'उनके नाम पर सिर्फ़ मलाई खाई गई'
लेखक सुधीश पचौरी

·         प्रेमचंद ने प्रगतिशील आंदोलन का आधार बहुत पहले रख दिया था
मैं मानता हूँ कि समाज बदलता रहता है. प्रेमचंद का जो समाज था उसके बारे में रुपक में यदि कहें तो बहुत कुछ नहीं बदला है लेकिन ऊपरी तौर पर बहुत कुछ बदल गया है.
बदल इस अर्थ गया है कि जो मासूमियत प्रेमचंद अपनी कहानियों में लाते हैं वह तब भी नहीं थी और अब भी नहीं है. यह हो नहीं सकता कि कोई किसान लगातार शोषित होता रहे. लेकिन वह मासूमियत प्रेमचंद का अस्त्र था कहानी में करुणा पैदा करने के लिए. मासूमियत पैदा करो ताकि अत्याचार भयानक दिखे और कहानी में करूणा पैदा हो.
लेकिन यह भी आसानी से नहीं हो सकता. इस तरह की मासूमियत पैदा करने की जो क्षमता प्रेमचंद में थी वह और किसी कहानीकार में नहीं है.
गाँव भी बहुत बदल गए हैं अब तो तमाम उपभोक्ता सामग्री गाँवों में जा रही है. गाँवों का समाज शुरु से बड़ा ऐंद्रिक समाज रहा है और उसमें सुख की इच्छा जीवन जीने की कामना शुरु से रही है. इस नज़र से प्रेमचंद का जो गाँव है, जो उनका ग्रामीण समाज है वह काफ़ी बदल गया है. एक छोटा सा उदाहरण यह है कि उस गाँव में तो अब कोई रहता ही नहीं है. लोग वहाँ से रोज़गार की तलाश में भाग गए हैं.
प्रेमचंद ने जो विसंगतियाँ उस समय इंगित की थीं वह कमोबेश आज भी वैसी की वैसी हैं. वो बदली नहीं हैं बल्कि वे ज़्यादा भीषण पैमाने पर हैं लेकिन उनका तरीक़ा बदल गया है. उदारहण के तौर पर होरी ज़रा सा कर्ज़दार हो जाता है और जीवन भर वो उसे चुकाने की जुगत लगाता रहता है, एक गाय तक ख़रीदने के पैसे तक उसके पास नहीं होते लेकिन अब किसान मल्टीनेशनल का कर्ज़दार है.
किसान के पास पैसे तो आज भी नहीं है लेकिन उसे गाय ख़रीदने की इच्छा नहीं है इसलिए अब वह कर्ज लेकर ट्रैक्टर ख़रीदता है और आँध्र प्रदेश में आत्महत्या कर लेता है. नाना प्रकार के बैंक उसे लोन दे रहे हैं और उसे चुका नहीं पाता.
बदलाव यह है कि कुछ किसानों ने पैसा भी कमाया है और ख़ुश भी है. होरी कर्ज़ चुकाने के लिए मेहनत करके मर गया लेकिन अब किसान उसे चुकाने के लिए मेहनत करते हुए नहीं मरता क्योंकि वह प्रेमचंद का किसान नहीं है वह शरद जोशी का किसान है इसलिए एक सीमा तक वह उसे चुकाने का प्रयास करता है फिर आत्महत्या कर लेता है ताकि उसे वसूलने का चक्कर ही ख़त्म हो जाए.
दलित और महिलाएँ
महिलाओं और दलितों के मामले ऐसे हैं जिनके बारे में प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में संकेत दिए थे कि इनकी हालत बहुत ख़राब है.
लेकिन हमारे समाज में ये दो सामाजिक संरचनाएँ जिस तरह उभर कर आई हैं उसके बीच प्रेमचंद के अनुभवों का संसार बदला हुआ दिखाई देता है. । प्रेमचंद की रचनाओं की तरह ये सामाजिक संरचनाएँ कोई उदारतावादी व्यवहार नहीं करते बल्कि एक कट्टरपंथी राजनीति का रास्ता अपनाते हैं. और अगर उस तरह से देखें तो प्रेमचंद खासे प्रतिक्रियावादी नज़र आते हैं. जो लोग कहते हैं कि प्रेमचंद हमारे पथ प्रदर्शक हो सकते हैं उनके लिए तो मैं कहूंगा कि उनकी बात दस-बीस-चालीस साल तो प्रासंगिक हो सकती है लेकिन सवा सौ साल बाद को कहे कि वह आज की समस्याओं के लिए भी विकल्प हो सकता है तो वह सिर्फ़ आदर्श हो सकता है और मैं इसे मूर्खता के अलावा कुछ नहीं कहता.
आज की मिट्टी, आज का पानी, आज की हवा और आज की समस्याएँ आज की हैं. सौ साल के पुराने के चक्कर में हमारी हिंदी में अतीत में सर गड़ाकर जीने की जो परंपरा है वह मार्क्सवादियों में भी है.

प्रासंगिकता
यह एक ग़लतफ़हमी पहले थी कि साहित्य सार्वकालिक हो सकता है. लेकिन ज्यों-ज्यों ज्ञान का और विमर्शों का विस्तार हुआ त्यों-त्यों यह समझ में आने लगा कि आ गया कि काल की अवधारणा राजनीति से तय होती है और किसी लेखक की अमरता भी सत्ता में जो आता है उससे तय होती है. जैसे प्रेमचंद को बीजेपी ने हटा दिया क्योंकि वे उनके लिए विषम से थे. वे सेक्युलर थे, वे प्रगतिशील थे और वे ऐसे राष्ट्रवादी थे जो इनके अंधराष्ट्रवाद को चुनौती दी. मान लीजिए कि ये सफल हो जाते और वे कुछ समय तक और इतिहास से छेड़छाड़ करते रहते तो बीस साल बाद आने वाले लोगों को पूरा मामला दूसरी तरह का दिखाई देता.
इस तरह से शाश्वतता तो संदिग्ध हो गई है और इससे प्रेमचंद को कोई फ़र्क नहीं पड़ता. एक मोमबत्ती जलती है और वह अपने जलने तक प्रकाश करती है, उसके बाद प्रकाश के लिए दूसरी मोमबत्ती जलानी चाहिए. अब आप एक ही मोमबत्ती लेकर कहते रहें कि ये और उजाला दे तो यह नहीं हो सकता. यह हिंदी के स्वभाव की समस्या है वो ज़्यादातर सनातनी हैं और मार्क्सवादी बने फिरते हैं.
हालांकि ये समस्या पश्चिम की भी है. मार्क्स ने ख़ुद कहा कि शेक्सपियर मुझे मुग्ध करता है. तो हो सकता है कि मार्क्स को शेक्सपियर मुग्ध करते होंगे लेकिन आज तो बच्चा तो शेक्सपियर के पात्रों ने नई पैरोडियाँ पैदा करता है. समस्या यह थी कि पहले कोई भी पात्र आकर एक ख़ास किस्म की कुर्बानी माँगने लगता था, लेकिन पूंजीवाद इसके विपरीत है. मार्क्स ने ख़ुद कहा था कि पूंजीवाद तमाम तरह की आर्थोडॉक्सी (रूढ़िवाद) को ख़त्म कर देगा.
परंपरा
यह एक गंभीर सवाल है कि क्या भारतीय समाज ने प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश की?मैं मानता हूँ कि उन्होंने अपनी दूकान आगे बढ़ाई. प्रेमचंद तो एक नाम है, एक ब्रांड है और लोग इसे लेकर तरह-तरह के धंधे कर रहे हैं.
प्रेमचंद की विरासत को आगे बढ़ाने वाला कौन सूरमा है इसे मैं आज भी समझना चाहता हूँ. ऐसा कौन है जिसने त्याग करते हुए इस परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश की है.
प्रेमचंद के नाम पर मलाई बनती है, पैसे बनते हैं. कमेटियाँ बनते हैं, यात्रा भत्ते बनते हैं और किताबें लिखनी होती हैं. (एक मैं भी लिख रहा हूँ, मुझे भी दो चार पाँच हज़ार का धंधा मिल जाएगा) मेरी शिकायत यह है कि मुझे पाँच हज़ार और जो कुछ नहीं कर रहे हैं उन्हें पाँच लाख. यह मेरी ईर्ष्या है.
जो लोग परंपरा को आगे बढ़ाने की बात करते हैं वे अपना एजेंडा ही तय नहीं कर पाए. जो एजेंडा तय कर लेगा वह प्रेमचंद के सार को ग्रहण कर लेगा.
प्रेमचंद एक बहुत बड़ा कलाकार है. वह एक डिज़ाइनर कहानीकार है जो ऐसा क्राफ्ट रचता है जिसमें पहले वाक्य से आख़िरी वाक्य तक एक भी वाक्य अतिरिक्त नहीं होता. एक वाक्य हटा दें तो लगता है कि कहानी टूट जाएगी. वह भाषा का बड़ा मर्मज्ञ था और वह अपनी भाषा पर इतनी पकड़ रखता था कि उसे पता होता था कि क्या कहना है और क्या नहीं कहना है, वह कम्युनिकेशन का बड़ा मास्टर था और हिंदी-ऊर्दू में एक पुल की तरह काम करता था.
बाद की कहानी को देख लें. उर्दू ग़ायब है, मुसलमान पात्रों का कोई ज़िक्र ही नहीं है और गाँव तो एकदम ग़ायब है. अब वे प्रेमचंद को याद करके अचानक बिरहा गाने लगते हैं कि हाय मेरा गाँव, हाय मेरा किसान.....तो ज़िंदगी भर तो आपने शहरों में मलाई खाई और अचानक सवा सौ साल पर आप प्रेमचंद-प्रेमचंद करने लगे. मुझे लगता है कि आप इस तरह ख़ुद अपना राजनीतिक संशोधन कर रहे हैं.
प्रेमचंद ने अपनी बात कहने के लिए जिन प्रतीकों का उपयोग किया उस पर कोई काम नहीं हुआ और लोग उनके भजनानंदी बने हुए हैं.




·         'प्रेमचंद की विरासत असली विरासत है'

लेखक  गोपीचंद नारंग bbc
उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं पर ज़बरदस्त पकड़ थी प्रेमचंद की
प्रेमचंद अपनी कला के शिखर पर बहुत तज़ुर्बे करने के बाद पहुँचे. उनके सामने कोई मॉडल नहीं था सिवाय बांग्ला साहित्य के. बंकिम बाबू थे, शरतचंद्र थे और इसके अलावा टॉलस्टॉय जैसे रुसी साहित्यकार थे. लेकिन होते-होते उन्होंने गोदान जैसा जो मास्टरपीस दिया, मैं समझता हूँ कि वह एक मॉर्डन क्लासिक है.
जब हमारा स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था तब उन्होंने जो डिस्कोर्स कथा साहित्य द्वारा हिंदी और उर्दू दोनों को दिया उसने सियासी सरगर्मी को, जोश को और आंदोलन को सभी को उभारा और उसे ताक़तवर बनाया. और इससे उनका लेखन भी ताक़तवर होता है.
देखा जाए तो भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं. प्रेमचंद के पात्र सारे के सारे वो हैं जो कुचले, पिसे और दुख का बोझ सहते हुए हैं. प्रेमचंद के साहित्य में पहली बार किसान मिलता है. भारतीय किसान, जो खेत के मेंड़ पर खड़ा हुआ है, उसके हाथ में कुदाल है और वह पानी लगा रहा है. तपती दोपहरी या कड़कते जाड़े में वह मेहनत करता है और कर्ज़ उतारने की कोशिश करता रहता है.
ग़ुरबत या ग़रीबी की जो विडंबना, उनका दुख दर्द प्रेमचंद जिस तरह बयान करते हैं वह कहीं और नहीं मिलता. मुझे 'पूस की रात' की कथा याद आती है.और 'शतरंज के खिलाड़ी' याद आता है. लगता है कि उनकी नज़र कितनी गहरी थी. वो भारतीय इतिहास के कई बरसों को एक कहानी में किस ख़ूबी के साथ लकड़ी के मोहरों के सहारे से कह देते हैं.

'
वो एक' कहानी में परत दर परत खुलती है. 'कफ़न' में कफ़न एक नहीं है दो हैं. एक तो वो है जिसके पैसे से माधो और घीसू ने शराब पी ली और दूसरा कफ़न वो है जिसे वो बच्चा ओढ़ कर सो गया जो अपनी ग़रीब माँ के पेट में था. इस पीड़ा को प्रेमचंद जिस तरह उभारते हैं वो कहीं और नहीं है.
वो गाँव और शहर के बीच जो दो दूरियाँ थीं उसे देखते थे. मैं तो कहता हूँ कि प्रेमचंद के यहाँ भारत की आत्मा बसती है.
बदला हुआ समय
प्रेमचंद ने जो एक गुज़रगाह बनाई थी हिंदी और उर्दू कथा साहित्य में उससे होकर बहुत से लोग आगे बढ़े. प्रगतिशील साहित्य में देखें तो मंटो, कृश्न चंदर, राजेंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई ये सब वजूद में नहीं आ सकते थे अगर प्रेमचंद नहीं होते.
पहले तो आसान था कि ज़ुल्म करने वाला बाहर का साम्राज्य था लेकिन बाद की समस्या तो यह है कि ज़ालिम भी हमारे यहाँ है और मज़लूम भी हमारे यहाँ ही है, तो समस्याएँ गंभीर हो जाती हैं
इसके बाद का जो समय है वह नई तकनीकों का दौर है नई समस्याओं का दौर है. प्रेमचंद जिस आदर्श को लेकर चले थे उसमें गाँधीवाद था तो मार्क्सवाद भी था. लेकिन आज़ादी के बाद जिस तरह हमारे ख़्वाब टूटे हैं और जिस तरह हम नई समस्याओं से दो चार हुए हैं, उससे चीज़ें बदली हैं.
पहले तो आसान था कि ज़ुल्म करने वाला बाहर का साम्राज्य था लेकिन बाद की समस्या तो यह है कि ज़ालिम भी हमारे यहाँ है और मज़लूम भी हमारे यहाँ ही है, तो समस्याएँ गंभीर हो जाती हैं.
इसके बाद आधुनिकतावाद है, नव मार्क्सवाद है और बहुत सी नई समस्याएँ भी हैं. लेकिन अगर आप नव मार्क्सवाद को देखेंगे, आप दलितवाद को देखेंगे या आप नारीवाद को देखेंगे तो भी आपको प्रेमचंद के पास जाना पड़ेगा. मैं कहता हूँ कि वह एक सरचश्मा है, उससे नज़र हटाकर हम अपने आपको पहचान नहीं सकते.
भाषा की परंपरा
हिंदी और उर्दू दोनों बड़ी भाषाएँ हैं. आज भी बहुत से लेखक हैं जो दोनों ही भाषाओं में अधिकार पूर्वक लिखते हैं. यह कहना आसान है कि अंग्रेज़ों ने फूट डालो और राज करो की नीति का पालन किया लेकिन फूट का बीज तो हमारे बीच ही था.
लेकिन ये थोड़े दिनों की बात है. भारत एक गणतंत्र है और एक धर्मनिरपेक्ष देश है तो इसमें कोई शक नहीं कि दोनों भाषाएँ एक होंगी. मैं कहता हूँ हिंदी वालों और उर्दू वालों दोनों से, कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों भाषाएँ एक हैं और ये दोनों इसके दो बड़े साहित्यिक रुप हैं. दो परंपराएँ हैं.
आख़िर जो बँटवारा हुआ और जिन बुनियादों पर हुआ है उसके बाद न सिर्फ़ राजनीति का सांप्रदायिकरण हुआ है बल्कि भाषा का भी सांप्रदायिकरण हुआ है. कोई नहीं पूछता कि मलयालम हिंदू की भाषा है या मुस्लिम की, मराठी किसकी भाषा है, लेकिन उर्दू को अलग करके खड़ा कर दिया गया है. उसका सांप्रदायिकरण कर दिया गया. इन सबकी वजह से हम प्रेमचंद की साँझी विरासत को पहचान नहीं पाते.। लेकिन ये थोड़े दिनों की बात है. भारत एक गणतंत्र है और एक धर्मनिरपेक्ष देश है तो इसमें कोई शक नहीं कि दोनों भाषाएँ एक होंगी. मैं कहता हूँ हिंदी वालों और उर्दू वालों दोनों से कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों भाषाएँ एक हैं और ये दोनों इसके दो बड़े साहित्यिक रुप हैं. दो परंपराएँ हैं. चुनांचे आज भी ग़ालिब हों, फ़ैज़ हों, फ़राज़ हों, इस्मत हों सब नागरी में भी पढ़े जाते हैं और इसी तरह हिंदी के बड़े दिग्गज उर्दू में पढ़े जाते हैं. अभी निर्मल वर्मा की एक किताब कराची से छपकर आई है.
जो हौसला प्रेमचंद में था अगर उसका एक हिस्सा भी आज के लेखकों में पैदा हो जाए तो जो समस्याएँ हमें आज दो बड़ी भाषाओं के बीच मिलती हैं, जो अब दक्षिण एशिया की बड़ी भाषा है, वो ख़त्म हो जाएँगी. दरअसल हमारा जो 'लिंगुआ फ़्रैंक्वा' है वह तो हिंदुस्तानी है और उसके सबसे ब़ड़े हिमायती प्रेमचंद थे और गाँधी जिसके पक्षधर थे.। मैं मानता हूँ कि सपने ज़ाए नहीं होते. दोनों भाषाएँ मिलकर काम करेंगीं. जो घाव राजनीति लगाती है वो वक़्ती होते हैं, इंसानियत बहुत बड़ी ताक़त है.मुझे लगता है कि जो प्रेमचंद की विरासत है, वही भारत की असली विरासत है
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क्यों पढ़ना चाहिए आज भी प्रेमचंद को?
विश्वनाथ त्रिपाठी

उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं पर ज़बरदस्त पकड़ थी प्रेमचंद की
साहित्य या रचनाकृति जो है वह तो मूल रुप से कलाकृति होती है और वह सौंदर्य की चीज़ होती है.
सौंदर्य के बारे में कीट्स ने कहा है कि ए थिंग ऑफ़ ब्यूटी इज़ ज्वाय फॉर एवर. तो जब हम प्रेमचंद या किसी और बड़े कलाकार के बारे में बात करते हैं जो वह यह मानना चाहिए कि सौंदर्य की कृति है.
सौंदर्य एक ऐसी चीज़ है जिसे लोग देखना चाहते हैं, उसका स्वाद लेना चाहते हैं. जो साहित्य है वह शब्दबद्ध सौंदर्य है और वह बूढ़ी नहीं हो सकती.
जो कालजयी साहित्य होता है वह समय के साथ-साथ और निखरता जाता है. जैसा कि सौंदर्य के बारे में कहा गया है कि जो समय के साथ निखरता जाता है वह सौंदर्य होता है.
साहित्यकार एक सौंदर्य की सृष्टि करते हैं और प्रेमचंद जितने बड़े रचनाकार हैं उतने बड़े सौंदर्य के निर्माता हैं इसलिए साहित्य बार-बार पढ़ा जाता है, जिसे हमे क्लासिकल साहित्य कहते हैं.
तो अगर नई पीढ़ी को सौंदर्य के प्रति उत्सुकता है, यदि उसमें क्षमता बची हुई है कि वह सौंदर्य का आस्वादन कर सके तो वे प्रेमचंद को पढ़ेंगे.
इतिहास बिद्ध
दूसरी बात यह कि जो बड़ा साहित्य होता है वह इतिहास बिद्ध होता है और इसका मतलब यह है कि अपने समय के इतिहास से जूझता है.
साहित्य चीज़ों को जानने का भी बहुत बड़ा स्रोत है. इतिहासकार और अर्थशास्त्री जिन चीज़ों को छोड़ देते हैं, या छूट जाता है, जिस पर प्रकाश नहीं डाल सकते, साहित्यकार उस पर प्रकाश डालता है
साहित्य अपने समय के कितनों ही मुद्दों से, सूत्रों से, परिदृश्यों से जूझता है. आज की पीढ़ी उन सारे मुद्दों से हिंदुस्तान में जूझ रही है जो मुद्दे या सूत्र प्रेमचंद ने उठाए जैसे दहेज, अशिक्षा, वर्णाश्रम व्यवस्था, दलित आंदोलन, दलित चेतना, नारी चेतना है और सबसे बड़ी बात किसान की समस्या है.
प्रेमचंद किसान समस्या के सबसे बड़े रचनाकार हैं. अब रंगभूमि में सूरदास है, जिसकी छोटी सी ज़मीन है जिसपर मिल मालिक है जानसेवक आ कर के उस ज़मीन को हथियाना चाहता है, सूरदास उसे ज़मीन नहीं देते हैं. पूरे रंगभूमि में उसका संघर्ष दिखाई पड़ता है. गोदान में होरी छोटा किसान है. उसके ऊपर, चाहे वह कर्मकांड का हो, वर्णाश्रम व्यवस्था, सामंतवाद का हो, हर प्रकार के दबाव से उसकी ज़मीन छीन ली जाती है, और उसका लड़का नौकर बन जाता है.
इतिहास की यह प्रक्रिया उस समय से चल रही है कि छोटे किसान की ज़मीन उसके हाथ से निकल रही और वह मज़दूर बनने पर विवश है, यह एक इतिहास की प्रक्रिया है, यथार्थ का प्रवाह है. जिसे प्रेमचंद अपने उपन्यासों, कथाकृति में प्रकट करते हैं.
हमें यह याद रखना चाहिए कि साहित्य चीज़ों को जानने का भी बहुत बड़ा स्रोत है. इतिहासकार और अर्थशास्त्री जिन चीज़ों को छोड़ देते हैं, या छूट जाता है, जिस पर प्रकाश नहीं डाल सकते, साहित्यकार उस पर प्रकाश डालता है.। मूल रूप से साहित्य एक जनतांत्रिक अनुशासन ही है.
स्वाधीनता आंदोलन ने जिन संपूर्ण रचनाकारों को जन्म दिया है उनमें से प्रेमचंद निश्चित रूप से महान रचनाकार हैं इसलिए हम बार-बार उनको पढ़ते हैं.। और इसीलिए उसे आज भी पढ़ा जाना चाहिए.
ये ठीक है कि प्रेमचंद के सामने जो समस्या थी वह आज उस रूप में नहीं है. प्रेमचंद ने किसान का जीवंत चित्रण किया है. आज के किसान आत्महत्या कर रहे हैं. किसानी दिमाग में पूंजीवाद आ रहा है. वह जल्दी बड़ा बनना चाहता है, जब वह नहीं होता है तो निराश होकर किसान आत्महत्या करता है. आज के रचनाकार को इसका वरण करना पड़ेगा.



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