Tuesday, March 22, 2011

यह मुल्क हमारा होकर भी हमारा क्यों नहीं लगता? नवीन कुमार

यह मुल्क हमारा होकर भी हमारा क्यों नहीं लगता?
नवीन कुमार

आज कई महीने बाद मुश्ताक का फोन आया है। उसका पहला वाक्य था, क्या मैं आतंकवादी लगता हूं? उसका लहजा इतना तल्ख है कि मैं सहम जाता हूं। मेरी जुबान जम जाती है। वह बिना मेरे बोलने का इंतजार किये कहता चला जाता है। तुमलोग हमें ख़त्‍म क्यों नहीं कर देते? यह लड़ाई किसके खिलाफ है? कुछ लोगों के खिलाफ या फिर पूरी एक कौम के खिलाफ...? वह रोने लगता है। मुश्ताक रो रहा है। भरोसा नहीं होता। उसे मैं पिछले 18 साल से जानता हूं। तब से, जब हम पांचवीं में थे। उसके बारे में मशहूर था कि वो अब्बू के मरने पर भी नहीं रो सकता। वह मुश्ताक रो रहा है।
दो दिन पहले ही दिल्ली के बटला हाउस इलाके में मुठभेड़ हुई है। यह ख़बर देखते ही देखते राजधानी के हर गली-कूचे-चौराहे पर पसर गयी है। मुश्ताक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। वह नोएडा में एक मल्टीनेशनल कंपनी के दफ्तर में काम करता है। है नहीं, था। आज उसे दफ्तर में घुसते हुए रोक दिया गया। मैनेजमेंट ने उसे कुछ दिनों तक न आने को कहा है। यह कुछ दिन कितना लंबा होगा, उसे नहीं मालूम। उसके दफ्तरी दोस्तों में से ज्यादातर ने उससे किनारा कर लिया है। मुश्ताक हिचकी ले रहा है। मैं सन्न हूं।
मुश्ताक पटना वापस लौट रहा है। मैं स्टेशन पर उससे मिलने आया हूं। वह बुरी तरह से बिखरा हुआ है। टूटा हुआ। वह मेरी नजरों में भरोसे की थाह लेना चाह रहा है। पूछता है : यह मुल्क हमारा होकर भी हमारा क्यों नहीं लगता? मैं उसे रुकने को नहीं कह पाता। वह खुद ही कहता चला जाता है। रुक कर क्या होगा। तुम सोच भी नहीं सकते हम पर क्या बीत रही है? अंदाजा भी नहीं हो सकता तुम्हारे नाम की वजह से दफ्तर के दरवाजे पर रोक दिये जाने की टीस। कलेजा फट जाता है।
मुश्ताक सवाल नहीं कर रहा है। हथौड़े मार रहा है। हमारी लोकतांत्रिक चेतना पर। सामाजिक सरोकारों पर। कोई नहीं पूछता कि अगर पुलिस को पता था कि आतंकवादी एक खास मकान के खास फ्लैट में छिपे बैठे हैं, उन्हें जिंदा पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं हुई? उनके खिलाफ सबूत क्या हैं? आतंकवाद के नाम पर वो किसी को भी उठा सकते हैं? किसी को भी मार सकते हैं? कहा जा रहा है, वो अपना पाप छिपाये रखने के लिए ऊंची तालीम ले रहे हैं? एक पुलिसवाला पूरी बेशर्मी से कहता है - सैफ दिखने में बहुत स्मार्ट है, उसकी कई महिला मित्र हैं। जैसे यह कोई बहुत बड़ा अपराध हो।
जैसे भरोसे की मीनारें ध्वस्त होती जा रही हैं। बटला हाउस की मुठभेड़ सिर्फ एक घटना नहीं है। कानून और मान्यताओं के बीच फैला एक ऐसा रेगिस्तान है, जिस पर अविश्वास की नागफनी का एक भयावह जंगल उग रहा है। ट्रेन खुलने वाली है। मुश्ताक अपने पर्स से निकाल कर मेरा विजिटिंग कार्ट फाड़ रहा है। कहता है, क्या पता किसी एनकाउंटर में कब मार दिया जाऊं और वो तुम्हें भी कठघरे में खड़ा कर दें। वह कस कर मेरा हाथ पकड़ लेता है। लगता है, उसकी आत्मीयता की तपिश मुझे पिघला देगी। ट्रेन सरकती जा रही है। दरकती जा रही है विश्वास की दीवार।

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28 सितंबर 2008
मैं नवीन कुमार का लेख पढ़कर रोया। केवल मुश्ताक पर नहीं बल्कि मेरे अपने मुल्क की हालत पर। क्या यह वही भारत है, जिसकी खातिर शहीद भगत सिंह फांसी के तख्ते पर झूल गये थे? तुम्हीं बताओ मुश्ताक, अगर उनका सपना ऐसे भारत का नहीं था, तो वैसा भारत बनाने की लड़ाई कौन लड़ेगा? क्या इस लड़ाई में तुम शामिल नहीं होगे? यह मुल्क उतना ही तुम्हारा है, जितना मेरा – दरअसल, तुम्हारा ज्यादा। चूंकि मैं तो जिंदगी के आखिरी पड़ाव (उम्र 68 साल) में हूं। तुमने तो अभी इस मुल्क में लंबा जीना है। लौट आओ वापस पटना से – भारत को एक बार फिर शहीद भगत सिंह के सपनों वाला और हम सबका खूबसूरत मुल्क बनाने की जंग लड़ने के लिए लौट आओ। तुम्हारे बिना यह लड़ाई अधूरी रहेगी, जीती भी नहीं जा सकेगी। आज है भी 28 सितंबर - उनका जन्म दिवस। हमें आज ही अपने पुराने संकल्प को ताजा करना है – तुमको भी।
डॉ अनिल सदगोपाल
भोपाल
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Dear Navin,
I saw your article and was touched. Not many people will have courage to write such a piece and also circulate it. Indian democracy is passing through a difficult phase but I have always believed that battle for a secular India is not over. It is still being fought by people like you and many others, and I include myself in this group.
Your article reminds me of Premchand.
gauhar

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