Friday, March 18, 2011

सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना

इन सपनों का क्या करें?

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | सोमवार, 11 जनवरी 2010, 11:18 IST
कवि पाश ने कहा था, 'सबसे ख़तरनाक होता है सपनों का मर जाना...'
एक बच्चा उड़ीसा के जंगलों में मिला था. 11-12 साल का. उसने बताया कि उसका पिता किसान है. और उत्सुकतावश पूछा कि किसान यानी? तो उसने मासूमियत से कहा, ग़रीब आदमी. वह बच्चा नक्सलियों के साथ रहता और घूमता फिरता है. एके-47 से लेकर पिस्टल तक सब कुछ चलाता है. वह बड़ा होकर नक्सली बनना चाहता है. उसका कहना है कि अपने लोगों का भला ऐसे ही हो सकता है.
एक बच्चा बलिया में मिला. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के गुज़र जाने के बाद, उनके बंगले की रखवाली करता हुआ. वह दस साल का रहा होगा. पान मसाला खाते हुए वह बताता है कि एक दिन वह अपने बड़े भाई के दुश्मनों को चाकू मारना चाहता है और कट्टा हासिल करके वह अपने नेताजी के लिए काम करना चाहता है. इस काम में उसे रुतबा दिखाई देता है.
एक बच्ची मुज़फ़्फ़रपुर के रेडलाइट एरिया में मिली. उम्र बमुश्किल आठ साल. यह जानने के बाद कि मैं दिल्ली में रहता हूँ, उसने उत्सुकता के साथ कहा कि एक दिन वह मुंबई जाना चाहती है. करना वही चाहती है, जो उसकी माँ मुज़फ़्फ़रपुर में करती है. वह कहती है कि इस काम में उसे कोई बुराई नहीं दिखती, लेकिन यह शहर ख़राब है.
एक बच्चा दिल्ली के बड़े स्कूल में पढ़ता है. आठवीं कक्षा में. डिस्कवरी चैनल पर 'फ़्यूचर वेपन' यानी भविष्य के हथियार कार्यक्रम को चाव से देखता है. वह एक दिन सबसे ज़्यादा तेज़ी से गोली चलाने वाले बंदूक का आविष्कार करना चाहता है. उसका तर्क है कि गोलियों से आख़िर बुरे लोग ही तो मारे जाते हैं.
पाश की कविता अक्सर लोगों को रोमांचित करती है. लेकिन इन बच्चों के सपने सुनकर तो रूह काँप जाती है.
क्या इन सपनों को भी ज़िन्दा रखा जाए?

टिप्पणियाँटिप्पणी लिखें

  • 1. 12:04 IST, 11 जनवरी 2010 mohinder:
    विनोद जी,
    सपनों के जिन्दा रहने से भी ज्यादा जरूरी है... आदमी का जिन्दा रहना. जो कुछ हम नकसलियों के बारे में पढते हैं वह सब तो उन्नत दुनिया का नजरिया होता है. अखबार वाले अपनी टी आर पी बढाने के लिये लिखते है.. नेता अपनी साख बढाने के लिये... असल हालात वहां जा कर कौन देखता है... कौन घर का सुख छोड कर बंदूक कंधे पर टांग हमेशा मौत का डर सर पर लिये जंगलों में घूमना चाहता है.. मगर हालात ऐसे हैं कि कभी पेट के लिये.. कभी अपनी जमीन के लिये और कभी अपनों के लिये यह रास्त अपना लिया जाता है.. सिस्टम में फ़ैली गंदगी को साफ़ करना जरूरी है... गूंडे नेताओं और उनकी चापलूसी में लगे तंत्र को बदलना जरूरी है.
    मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत लेख लिखने के लिये बधाई... लिखते रहिये

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