Tuesday, March 22, 2011

सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनो का मर जाना॥
पाश को "लाल सलाम "


पंजाबी के विख्यात और क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह संधू "पाश " को उतना ही हिंदी भाषाई लोगों ने अपनाया जितना पंजाबी के पढने वालों ने. उनकी कविताओं में आक्रोश है. वो दमन और अत्याचार के खिलाफ खड़े हैं और आम तथा दबे कुचले आदमी के साथ. पाश के लिए सबसे खतरनाक है सपनो का मर जाना और ऐसा ही आम और शोषित तबके के लिए भी है. उन्होंने जो भी लिखा वो उन्हें पसंद नहीं आया जो सपनो को दबाना या मारना चाहते हैं और इसी वजह से उनके साथ भी बिलकुल वोही हुआ जो "ऐसे " विचारकों या क्रांतिकारियों के साथ होता है. 38 साल की छोटी सी उम्र में ही उन्हें मौत की नींद सुला दिया गया. पाश का जन्म जालंधर में हुआ था. अपनी कविताओं में उन्होंने हमेशा मजदूर, किसान, महिलाओं और संघर्षरत लोगों को जगह दी है. 1970 में पाश का पहला कविता संग्रह "लोह कथा " प्रकाशित हुआ. अपनी लेखनी से हमेशा की " सत्ता " की आँखों की किरकिरी बने रहे पाश जेल में भी रहे. एक जगह वो कहते हैं- " मुक्ति का जब कोई रास्ता न मिला मैं लिखने बैठ गया". उनका लेखन आम लोगों के लिए थे.
अवतार सिंह पाश, एक कवि, एक विचारक, एक क्रन्तिकारी और एक शायर. पाश जिनकी कविताओं को हर भाषा में पढ़ा गया. एक ऐसे कवि जो वामपंथी आंदोलन में सक्रिय रहे। वो भगत सिंह से बहुत ज्यादा प्रभावित थे , उनपर लिखी गई एक कविता में पाश ने कहा..
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भगत सिंह ने पहली बार पंजाब को जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से ब*ुद्धि*वाद की ओर मोड़ा था जिस दिन फांसी दी गयी उसकी कोठरी में लेनिन की किताब मिली जिसका एक पन्*ना मोड़ा गया था पंजाब की जवानी को उसके आखिरी दिन से इस मुड़े पन्*ने से बढ़ना है आगे चलना है आगे''
अंग्रेजी हुकूमत के समय भगत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारी आज़ादी के बाद जैसे समाज का ख्*़वाब देखते थे, पाश वैसा ही समाज बनाने की जद्दोजहद में लगे थे। 1970-80 के दशक में पंजाब में जब अलगाववादी आंदोलन चरम पर था, पाश ने इसका खुलकर विरोध किया। ज़ाहिर है, वे इसके ख़तरे से अच्*छी तरह वाकि़फ़ भी थे। ये केवल एक संयोग ही है या कुछ और की ये करांतिकारी कवि भी उसी दिन शहीद हो गये जिस दिन भगत सिंह शहीद हुए थे .भगत सिंह और पाश , दोनों की शहादत की तारीख एक ही है 23 मार्च बस साल अलग- अलग हैं । पाश महज़ 38 साल की उम्र में 23 मार्च 1988 को शहीद हो गये थे। 1998 में "पाश ममोरियल ट्रस्ट " ने उनकी रचनाओं का एक संग्रह छपवाया था. इसके सम्पादकीय में कात्यायनी ने लिखा है - "पाश आज केवल पंजाब या पञ्जाबी का कवि नहीं है बल्कि पुरे भारत का कवि है. उसे भारत की हर भाषा में पढ़ा जा रहा है, हमें पूरा विश्वास है की दुनिया की जिस भी भाषा में पाश का अनुवाद प्रस्तुत किया जायेगा वहां की जनता पाश को अपने कवियों की कतार में शामिल कर लेगी." इससे स्पष्ट को की कविता के क्षेत्र में पाश का कितना सम्मान को और उनकी रचनाओं को कितना ज्यादा मान दिया जाता है.
पाश में काफी कुछ लिखा लेकिन उनकी एक कविता को लगभग हर उस शख्स ने पढ़ा है जिसका साहित्य में थोडी सी भी रूचि है. सपनो के मर जाने को सबसे खतरनाक बताती इस कविता में पाश का आक्रोश साफ दीखता है. यही आक्रोश हर आम युवा में हैं. पाश के लिखे को भारत की हर भाषा सहित अंग्रेजी और नेपाली में भी अनुवादित किया गया है. अगर पाश को गोली न लगती तो आज वो 58 साल के होते और जाने कितना बेहतरीन साहित्य हमें दे चुके होते. उनके शहीदी दिवस पर उन्हें भावभीनी श्रधांजलि के साथ उनकी सबसे "खतरनाक " कविता---
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मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नही होती, पुलिस की मार सबसे खतरनाक नही होती, गद्दारी लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नही होती. बैठे बिठाये पकड़े जाना बुरा तो है, सहमी सी चुप में जकडे जाना बुरा तो है, पर सबसे खतरनाक नही होती. सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना, ना होना तड़प का, सब कुछ सहन कर जाना, घर से निकलना काम पर, और काम से लौटकर घर आना,

 सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनो का मर जाना॥

अंग्रेजी सलतनत में भगत सिंह बन्दूक से क्रांति करना चाहते थे. जबकि आजाद हिंदुस्तान में पाश क्रांति के लिए साहित्य और विचारों के पक्षधर थे. पाश कहते थे की एक ऐसी क्रांति हो जो वैचारिक हो. जिससे सामाजिक क्रांति हो. भगत सिंह और पाश में कई समानताएँ देखने को मिलती हैं. भगत सिंह एक देशभगत के तौर पर चाहते थे की देश आजाद हो तो गोरे जाने के बाद काले हम पर राज करना न शुरू कर दें. वो भले ही बन्दूक से क्रांति को तवज्जो देते थे लेकिन उन्होंने ही कहा था की-- बम और पिस्तौल कभी इन्कलाब लेकर नहीं आ सकते, बल्कि इन्कलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है. इस लिहाज से देखा जाये तो कहीं न कहीं जो भगत सिंह ने उस वक्त सोचा था उसी पर पाश चल रहे थे. वो अपना इन्कलाब विचारों से लाना चाहते थे. उनकी कविताओं में हमें वही इन्कलाब देखने को मिलता है. पूरी जिंदगी भगत सिंह की तरह एक इंकलाबी की तरह जीने वाले पाश को मौत भी उसी दिन मिली जिस दिन भगत सिंह को. क्या ये केवल एक संयोग है या फिर उन्हें मरने वालों ने जानबूझकर ही ये दिन चुना था ये आज भी बड़ा सवाल है??

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