Wednesday, June 15, 2011

पत्रकारिता के अभिमन्यु

पत्रकारिता के अभिमन्यु

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजी डीएवी कॉलेज में हिंदी पत्रकारिता और ग्लोबल समस्याएं विषय पर एक सेमिनार आयोजित था. कॉलेज के उत्साही शिक्षक डॉ. हरीश अरोड़ा ने बेहद श्रमपूर्वक दो दिन की राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी. इस संगोष्ठी के अंतिम दिन और अंतिम सत्र में मुझे भी बोलना था. मेरे साथ वक्ता थीं आउटलुक साप्ताहिक की सहायक संपादक गीताश्री और हमारे सत्र के अध्यक्ष थे डॉक्टर भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा के के एएम मुंशी इंस्टीट्यूट ऑफ हिंदी स्टडीज के प्रोफेसर हरिमोहन. दो विद्वान वक्ताओं के  बीच में मुझे ही सबसे पहले बोलना था. गीता जी मुझसे वरिष्ठ हैं और नब्बे के  शुरुआती दशक में जब मैं दिल्ली आया था और काम और पहचान की तलाश में जूझ रहा था तो गीता जी ने ही मुझे पहला असाइनमेंट दिया था. उस व़क्त वह स्वतंत्र भारत अख़बार के आईएनएस दफ्तर में बैठती थीं. इस अवांतर प्रसंग की चर्चा इस वजह से कर रहा हूं, क्योंकि मुझे दोनों से पहले बोलना था और मेरी हालात ख़राब हो रही थी.
जब मैं वहां पहुंचा तो सभागार लगभग भरा हुआ था, लेकिन यह जानकर आश्चर्य हुआ कि श्रोताओं में दिल्ली विश्वविद्यालय के तमाम कॉलेजों के  पत्रकारिता विभाग से जुड़े शिक्षक मौजूद थे. पहले मुझे यह अंदाज़ था कि कॉलेज के पत्रकारिता विभाग के छात्र होंगे, जिनसे बातचीत करनी होगी. ख़ैर समारोह शुरू हुआ और मंच संचालन कर रहे सज्जन ने पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता जताते हुए पिछले दिन और पूर्वान्ह के  सत्र में हुई बातचीत का संक्षिप्त ब्योरा दिया. पहली बात उन्होंने कही कि पूर्ववर्ती वक्ताओं ने मीडिया, ख़ासकर न्यूज़ चैनलों के गिरते स्तर पर चिंता जताई. उन्होंने जोर देकर कहा कि न्यूज़ चैनलों में काम करने वाले पत्रकारों ने ख़ुद को अभिमन्यु बताया और कहा कि वे पत्रकारिता के चक्रव्यूह में फंस गए हैं और उससे निकलने का रास्ता नहीं ढूंढ पा रहे हैं, लिहाज़ा वहीं नौकरी करने को अभिशप्त हैं. दूसरी बात, उन्होंने ब्लॉग के  माध्यम से हो रही पत्रकारिता को प्रमुखता से रेखांकित किया. इस भूमिका के  बाद उन्होंने मुझे मंच पर आमंत्रित कर लिया.
मैंने सबसे पहले ख़बरिया चैनलों के अभिमन्युओं को पत्रकारिता के चक्रव्यूह में फंसे होने पर दु:ख प्रकट किया. मेरा सा़फ तौर पर मानना है कि न्यूज़ चैनलों में कुछ ऐसे पत्रकारों की जमात है, जो न्यूज़ चैनल के मंच का, उसके ग्लैमर का, उसकी पहुंच का इस्तेमाल कर अपनी छवि भी चमकाते हैं और जब भी जहां भी सार्वजनिक तौर पर बोलने का मौक़ा मिलता है, वहां न्यूज़ चैनलों को गरियाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते. उनका यह रूप और चरित्र मुझे हमेशा से परेशान करता है. मेरा मानना है कि यह अपने पेशे से एक तरह का छलात्कार है, जो क्षणिक तो मजा देता है, लेकिन पत्रकारिता का बड़ा नुक़सान कर डालता है. ख़ुद की छवि को चमकाने के लिए पत्रकारिता पर सवाल खड़े करने वाले इन पत्रकारों की वजह से दूसरे लोगों को
आलोचना का मौक़ा और मंच दोनों मिल जाता है. मेरा मीडिया के  उन अभिमन्युओं से नम्र निवेदन है कि वे अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंसकर दम तोड़ने के बजाय युद्ध का मैदान छोड़ दें. अगर न्यूज़ चैनलों में उनका दम घुटता है तो वे वहां से तत्काल आज़ाद होकर अपना विरोध प्रकट करें, लेकिन जिसकी खाते हैं, उसको ही गरियाना कहां तक उचित है, यह मेरी समझ से बाहर है. मैं कई न्यूज़ चैनलों के अभिमन्युओं से वाक़ि़फ हूं और मेरे जानते अब तक ऐसा कोई वाकया सामने नहीं आया, जहां इस तरह के पत्रकार बंधुओं ने व्यवस्था का विरोध किया हो. विरोध करना तो दूर की बात, कभी अपनी नाख़ुशी भी जताई हो. मालिकों के सामने भीगी बिल्ली बने रहने वाले इन पत्रकारों को सार्वजनिक विलाप से बचना चाहिए, यह उनके भी हित में है और पत्रकारिता के हित में भी. किसी भी चीज की स्वस्थ आलोचना हमेशा से स्वागत योग्य है, लेकिन व्यक्तिगत छवि चमकाने के लिए की गई आलोचना निंदनीय है. दूसरी बात बताई गई कि हिंदी में ब्लॉग के माध्यम से बड़ा काम हो रहा है. यह बिल्कुल सही बात है कि ब्लॉग और नेट के माध्यम से हिंदी के लिए बड़ा काम हो रहा है, लेकिन कुछ ब्लॉगर और वेबसाइट जिस तरह से बेलगाम होते जा रहे हैं, वह हिंदी भाषा के लिए चिंता की बात है. ब्लॉग पर जिस तरह से व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने के लिए ऊलजुलूल बातें लिखी जा रही हैं, वह बेहद निराशाजनक है. कई ब्लॉग तो ऐसे हैं, जहां पहले किसी फर्जी नाम से कोई लेख लिखा जाता है, फिर बेनामी टिप्पणियां छापकर ब्लैकमेलिंग का खेल शुरू होता है. कुछ कमज़ोर लोग इस तरह की ब्लैकमेलिंग के शिकार हो जाते हैं और कुछ
ले-देकर अपना पल्ला छुड़ाते हैं. लेकिन जिस तरह से ब्लॉग को ब्लैकमेलिंग और चरित्र हनन का हथियार बनाया जा रहा है, उससे ब्लॉग की आज़ादी और उसके भविष्य को लेकर ख़ासी चिंता होती है. बेलगाम होते ब्लॉग और वेबसाइट पर अगर समय रहते लगाम नहीं लगाई गई तो सरकार को इस दिशा में सोचने के लिए विवश होना पड़ेगा. ब्लॉग एक सशक्त माध्यम है, गाली गलौच और बे सिर-पैर की बातें लिखकर अपने मन की भड़ास निकालने का मंच नहीं . इस बात पर हिंदी के  झंडाबरदारों को गंभीरता से ध्यान देने की ज़रूरत है. मैंने विनम्रतापूर्वक ब्लॉग पर चल रहे इस घटिया खेल पर विरोध जताया और हॉल में फैले सन्नाटे से मुझे लगा कि वहां मौजूद लोग मेरी बातों से सहमत हैं.
चूंकि उक्त सेमिनार में दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता पढ़ाने वाले शिक्षक उपस्थित थे और वैश्विक समस्या पर मुझे बोलना था. मुझे लगा कि पत्रकारिता की फैक्ट्री में काम करने वाले लोग वहां मौजूद हैं, इस वजह से कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के सामने मुझे उनसे जुड़ी बात ही रखनी चाहिए. वैश्विक समस्या पर तो बाद में चर्चा हुई, लेकिन सबसे पहले मैंने पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के बाबा आदम जमाने के होने की बात उठाई. कुछ दिनों पहले मैं देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक के पत्रकारिता के छात्रों से मिला था, जहां मैंने उनके सिलेबस पर बात की थी. प्रथम वर्ष में एक पेपर था-लेटर प्रेस और मुद्रण की विधियां. जब मैंने यह विषय देखा तो अपना सिर पीट लिया, क्योंकि अख़बार भी अब इनसे आगे निकल चुके थे. अब तो सारा कुछ कंप्यूटराइज़्ड होता है. वह दिन लदे भी अब सालों हो गए, जब लेटर प्रेस पर अख़बार छपा करते थे, लेकिन हमारी यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता के छात्रों को अब भी लेटर प्रेस और मुद्रण की विधियां पढ़ाई जा रही हैं. इसके अलावा भी अगर पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को देखें तो उसे समय के हिसाब से बिल्कुल नहीं बदला गया है. पता नहीं, सालों पहले जब उसको बनाया गया था, उसके बाद किसी ने भी उसको अद्यतन करने की ज़रूरत समझी या नहीं.
अगर हम न्यूज़ चैनलों की कार्य पद्धति की बात करें तो उसमें तकनीक ने क्रांतिकारी परिवर्तन किया है और हर रोज कोई न कोई अपडेट हो रहा है, जिसकी छात्रों को तो दूर, विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षकों को भी जानकारी नहीं. तो पत्रकारिता की फैक्ट्री में, जहां से देश के होनहार पत्रकार निकलते हैं, वहां यह आधारभूत दोष अब भी क़ायम है और इसको दूर करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया जाना अफसोसनाक है. अपनी इस चिंता को मैंने सेमिनार में ज़ाहिर किया, जिस पर बाद में कई शिक्षकों ने कड़ी आपत्ति जताई कि उनके ज्ञान पर सरेआम सवाल कैसे खड़ा किया जा रहा है, लेकिन बातचीत के बाद उन्होंने माना कि तकनीक के अपडेशन के बारे में उनकी जानकारी नहीं के बराबर है. छात्रों को कैमरा पढ़ाने वाले शिक्षक ने शायद ही कभी कैमरा देखा-छुआ हो, यह ज़रूरी भी नहीं है, लेकिन कम से कम कैमरा तकनीक में हुए आधुनिकीकरण के बारे में तो उसे जानकारी होनी ही चाहिए, न्यूज़ रूम सिस्टम के बारे में तो पता होना ही चाहिए.
सवाल स़िर्फ पत्रकारिता के सिलेबस का नहीं है, सवाल अन्य विषयों का भी है, जिनके सिलेबस में समय के साथ बदलाव नहीं किया गया. शिक्षा के तमाम कर्ताधर्ताओं को भी कभी इसकी ज़रूरत महसूस नहीं हुई. अब व़क्त आ गया है कि सरकार को इस ओर तत्काल ध्यान देकर इन खामियों को दूर करना होगा, ताकि देश में शिक्षा का स्तर ऊंचा हो सके और कॉलेजों में दी जाने वाली शिक्षा का उपयोग नौकरी में हो सके.


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