Thursday, October 6, 2011

सुरंजन : आंखों में तैरती कविता


ओमप्रकाश कश्यप

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मुझे अच्छी तरह से याद है. खूब अच्छी तरह से. मानो मानस-शिला पर कढ़ी गहरी लकीर हो...अमिट और अविस्मरणीय...अदृश्य मगर सघन अनुभूतियों से आच्छादित...जैसे पलकें पुतली के एहसास से भरी-भरी रहती हैं. गांव की मिट्टी अपनेपन की गंध से...कलियां मधुर सुवास से...मानस-झील मीठे-सुनहले सपनों से और जैसे संचेतना रसी-पगी रहती है, कोमल अनुभूतियों से. काल के अंतहीन प्रवाह से बेअसर. उद्दाम सलिला की तरह ऊर्जस्वित. हां, मुझे याद है, ठीक-ठीक याद है कि वर्षों पहले मैंने ही कहीं लिखा था, सुरंजन और उनकी कविता, दोनों के अंतःसंबंध के बारे में. यह कि दोनों में भेद करने की जरूरत नहीं. सुरंजन को समझना है तो उसकी कविताओं में उतरो. रूखा, सूखा, भावुक, संवेदनशील, कुंठित, यहां तक कि स्वार्थी और परपीड़क, मीठा-कड़वा और किरकिरा भी. सुरंजन का प्रत्येक रूप, उनका अनूठा व्यक्तित्व, उसकी प्रत्येक छवि, खामियां-खूबियां उनकी कविताओं में कैद है. एकदम पारदर्शी और स्पष्ट.
   तब तक सुरंजन के साथ गहरा परिचय नहीं बन पाया था. अनौपचारिक तो बिलकुल नहीं था. इस आधार पर मैं कह सकता हूं कि मैंने सुरंजन को सबसे पहले उनकी कविताओं के माध्यम से जाना. लेकिन इसलिए नहीं कि मेरी कविता पर गहरी पकड़ है. उसके संकेतों, प्रतीकों तथा भाव-रचनाओं में निहित संदेशों तक जाने की मुझमें अनोखी योग्यता है. बल्कि इसलिए कि सुरंजन और उनकी कविता की अंतर्संबद्धता इतनी पारदर्शी और मुखर है कि साहित्य का सामान्य पाठक भी उस तक पहुंच सकता है. बाद में सुरंजन ने ही बताया था कि किसी और ने भी उनकी कविता पर कुछ इसी प्रकार की टिप्पणी की थी. सुनकर मुझे अच्छा लगा था. सुरंजन को कैसा लगा था, वही जानें. मगर, यह बात तो किसी भी कवि, लेखक, साहित्यकार के बारे में कही जा सकती है. लेखन का उत्स यदि मन की गहराई में है तो वहां जो उपस्थित है, वह तो रचना में आएगा ही. लिखने वाला यदि दुःखी और अवसादग्रस्त है तो शब्द सेमल-फूल से कुम्हलाए, जीवन की निस्सारता के गीत गाते हुए सुनाई देंगे. परंतु मन में यदि खुशी और उमंग, उत्साह एवं संचेतना हैं, तो वे खील-मखानों की तरह उछलते-मचलते, नीलांबर में मुक्त उड़ान भरते हुए दिखाई देंगे. ‘स्टाइल इज द मेन हिमशेल्फ’—मनुष्य का व्यक्तित्व उसकी अभिव्यक्ति में रचा-बसा रहता है. रचनाकार वही है, जैसा वह अपनी रचना में दिखाई देता है, यह सच है, सुरंजन को लेकर तो सोलहों आना सच है. इसलिए कि वह मुखौटे लगाने की कला में पारंगत नहीं हैं. शायद उनकी बौद्धिक सीमाएं उन्हें बहुत-सी चालाकियांे से बचाए रखती हैं. वह बहुत-पढ़ा लिखे भी नहीं हैं. इसलिए महानगरों के अकादमिक चालढाल वाले लेखकों-साहित्यकारों के बीच उन्हें अक्सर अनफिट मान लिया जाता है. व्यावहारिकता में भी वह अक्सर गच्चा खा जाते हैं. किंतु हमेशा नहीं. 
सुरंजन ने यूं तो कहानी और उपन्यास भी लिखे हैं, किंतु उनकी पहचान एक कवि की है. स्वयं सुरंजन भी खुद को कवि मानते हैं. लेकिन कवि वे रूमानियत के हैं. इसका कारण संभवतः यह भी हो सकता है कि उनके भीतर कविता का पल्लवन किसी सामाजिक या नैतिक प्रतिबद्धता, अथवा बौद्धिकता के तीव्र आवेग के कारण नहीं हुआ. न ही वे बहुत पढ़ते-लिखते सृजनात्मकता के दबाव के कारण कवि बने हंै. कविता उसके मन में मुकेश के दर्द-भरे गीतों और लता के स्वर-माधुर्य से जन्मी है. फिल्मी गीत-संगीत किसी को कवि-साहित्यकार बना सकता है, इसपर आप शायद ही विश्वास करें. इससे पहले मुझे भी नहीं होता था. सुरंजन को देखकर जाना कि ऐसा भी संभव है. हालांकि अतिशय भावुकता की जो सीमाएं हैं, वही सुरंजन के कवि की भी हैं. आप उनकी बहुत-सी कविताओं को नकार सकते हैं. मगर जिन कविताओं में उनकी संवेदना सारे तटबंध तोड़कर बही है, उनपर आप व्यक्तिवादिता का आरोप तो लगा सकते हैं, नकार नहीं सकते. बिना किसी बौद्धिक अहमन्यता के सुरंजन आज भी मुकेश को अपना गुरु मानते हैं. और प्रेरणास्रोत भी. सुरंजन और उनकी कविता की अंतरंगता को लेकर जो मैंने वर्षों पहले कहा था, आज भी उसी पर कायम हूं. जबकि इस बीच धरती सूरज की हजारों परिक्रमाएं कर चुकी है. हिंडन और यमुना जैसी कभी की सदानीरा, मगर आज प्रदूषण की मार से अभिशप्त नदियां लाखों टन कचरा बहा चुकी हैं. खुद सुरंजन के भी उजड़ने और बसने सिलसिला चला है. मकान, दुकान सबकुछ बेच-बाचकर वे गया लौटे, यह कहकर कि गया की मिट्टी उन्हें बुला रही है. उनका भोला मन समझ ही नहीं पाया था कि वर्षों पहले गया से पलायन करने से लेकर अब तक फलगु नदी में अथाह पानी बह चुका है. इसलिए पत्नी और बच्चों के साथ जब गया पहुंचे तो परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी थीं. दुबारा जड़ जमाने की कोशिश में साहित्यरथ की शुरुआत कीµपुस्तकों की चलती-फिरती दुकान. ग्राहकों को लुभाने के लिए ‘हनुमान चालीसा’ की प्रतियां मुफ्त बांटीं. पर हालात विपरीत थे. इसलिए नए अरमान, नए सपनों, नई उम्मीदों के साथ दुबारा दिल्ली की राह पकड़नी पड़ी. सनातन संघर्ष के साथ भारी उतार-चढ़ाव, अंतहीन आस-निराश के बीच सुरंजन का जीवन आज भी वैसा ही है, जैसा बीस वर्ष पहले था. इस लंबे अंतराल में सुरंजन को लेकर मेरी राय ज्यों की त्यों है. इसलिए नहीं कि मेरी अवधारणाएं जड़ता और यथास्थितिवाद की शिकार हैं. समीक्षा-पुनरीक्षा का दौर उनमें आया ही नहीं है. मेरी चिंता तो इसलिए है कि सुरंजन आज भी अपनी जिदों और दुराग्रहों से उबर नहीं पाए हैं. उनकी कुंठाएं आज भी जस की तस हैं. बल्कि इस बीच उनकी काम-कुंठाओं ने तो और भी विकल उड़ानें भरी हैं. इसके बावजूद जो नहीं बदला, वह है सुरंजन की तीव्र भावुकता, जो उनके कवित्व की आत्मा, जिदों का अवलंबन है. इस बीच हमारे बीच परिचय और अपरिचय के सिलसिले में निरंतरता रही है. अपरिचय का दौर हालांकि छोटा है, लेकिन मेरे लिए महत्त्वपूर्ण भी वही है. शायद इसके पीछे मेरा यह सोच है कि खालिस परिचय से हम किसी को पूरी तरह नहीं जान पाते. व्यक्ति के अनछुए पहलुओं तक पहुंचने, उन्हें समझने, विवेचित-विरेचित करने के लिए अपरिचय के अंतराल की जरूरत पड़ती ही है. यानी मुझे इतना समय मिला है कि मैं सुरंजन के प्रति अपनी धारणा की पुनरीक्षा कर सकूं. उनके प्रति मन में जो अनुराग जमा है, जो द्वैष जड़ जमाए हुए हैं, उनपर पुनर्विचार कर सकूं. और ऐसा मैंने किया भी है. अपने अपरिचय के दम पर ही मैं यह दावा कर सकता हूं कि मेरी टिप्पणियों में सच की पर्याप्त संभावनाएं हैं. सुरंजन को लेकर मैं यदि खासा निर्मम हो सका हूं तो इस अपरिचय के कारण ही. मानसिक धरातल की दूरियां, यानी अपरिचय की अवस्था संभवतः सुरंजन के साथ भी है. जब भी उन्हें मेरे प्रति निर्मम होने का अवसर मिला, उन्होंने बिना चूके उसका इस्तेमाल किया. यह स्थिति आई तो वे आगे भी नहीं चूकंेगे. बिना लाग-लपेट खरी-खरी कहेंगे. बल्कि ऐसे मौके तो वह निकालते ही रहते हैं. कभी सीधे, संवाद के माध्यम से, कभी कविता के बहाने. अगर वह नाराज हांे तो उग्रता सवाई हो जाती है. कुछ वर्ष पहले उसकी नाराजगी से वास्ता पड़ा था. यहां मैं नाराजगी के कारणों की तह मंे नहीं जाऊंगा. इस लेख का यह उद्देश्य भी नहीं है. उन दिनों सुरंजन ने मुझपर एक कविता लिखी थी. कविता क्या थी, कैसी थी, नहीं मालूम. न तो वह सुरंजन ने कभी मुझे सुनाई, न मैंने उनसे आग्रह ही किया. शायद इसलिए कि अपने बारे में कड़वी-खरी बातें सुनने का साहस विरलों में ही होता है, उसका मुझमें अभाव था. या शायद यह सोचकर कि उस कविता में जानने लायक कुछ था ही नहीं. जिस मनःस्थिति में सुरंजन ने वह कविता मेरे ऊपर लिखी थी, अथवा मुझे लेकर जिस भाव की अभिव्यक्ति वह अपनी कविता के माध्यम से चाहते थे, उसमें व्यंजना रचना को कलात्मक ऊंचाई देने में सहायक होती. लेकिन व्यंग्य में सुरंजन का हाथ तंग है. ऐसे में कविता दिल की भड़ास अथवा कुंठा के आवेग के अतिरिक्त शायद ही और कुछ हो. कम से कम मुझे तो यही लगा था. कुछ दिनों बाद जैसा कि सुरंजन ने स्वयं ही बताया, कविता का शीर्षक उन्होंने मेरे ही व्यंग्य उपन्यास ‘जुग-जुग जीवौ भ्रष्टाचार’ से लिया था. नाराजगी के दौर में वह कविता उन्होंने हमारे कई दोस्तों को सुनाई थी. परंतु मैं उसका आस्वादन कभी न कर सका. संभव में मन में अप्रिय स्थिति से बचने की लालसा रही हो. इसीलिए मैंने न तो सुरंजन से कविता सुनाने का अनुरोध किया, न उन मित्रों के कविता के बारे में जानने में रुचि दिखाई, जो उसे सुन चुके थे. वह कविता सुरंजन की बाकी सैकड़ों अनछपी कविताओं के बीच आज भी धूल चाट रही होगी. स्थिति को फेस करने का यह भी एक तरीका है, जिसका मैं जब-तब उपयोग करता रहता हूं. सुरंजन भी इस बारे में कुछ कमजोर नहीं हैं. जिन दिनों की यह बात है, उन दिनों हर मुलाकात के समय एक जुमला उनकी जुबान पर होता था—‘दिल मिलें न मिलें, हाथ मिलाते रहिए.’ ऊपर मैंने अपरिचय का जिक्र किया है. महत्त्वपूर्ण यह भी है कि सुरंजन के साथ परिचय के क्षण जब भी गहराते नजर आए, एक दूरी सदैव मेरे मन में बनी रही. मन के किसी कोने में अवस्थित कोई सदैव यह चेताता रहा कि सावधान यहां से आगे वर्जित क्षेत्र है. यही तुम्हारी लक्ष्मणरेखा है. संभव है इसका कारण मेरी कोई कुंठा या कमजोरी रही हो. कि बचपन के संस्कार...संबंधों के बीच सुरक्षित दूरी बनाए रखने की प्रवृत्ति, जो अब जाने-अनजाने मेरे स्वभाव का हिस्सा बन चुकी है. सुरंजन ने भी अपने लिए इस प्रकार की लक्ष्मणरेखाएं खींच रखी हैं, पता नहीं. लेकिन इतना तय है कि उनके और उनकी लक्ष्मणरेखाओं के बीच निश्चित रूप से अधिक फासला है. जो उन्हें अपने परिचितों से अंतरंग होने का अपेक्षाकृत ज्यादा अवसर प्रदान करता है. मुझे लेकर सुरंजन के मन में कितने फासले हैं इससे तो परिचय नहीं, लेकिन एक बात मैं जोर देकर कह सकता हूं कि इतने वर्षों में शायद ही कोई ऐसा अवसर आया हो, जब कोई इतनी ऊंची दीवार हमारे बीच बनी हो, जिसको लांघ पाना नामुमकिन हो. अपरिचय को दौर में भी परिचय को कायम करने की ललक कमोबेश दोनों तरफ बनी रही. इस तरह यह अबूछ-अवांछित अपरिचय ही है, जिसने हमारे परिचय की निरंतरता को बनाए रखने में मदद की है. सुरंजन एक साहित्यकार हैं. कविता-कहानी-उपन्यास-बालसाहित्य सबकुछ लिखा है उन्होंने. कविता हो या गद्य, उन्होंने उन्हीं विषयों पर कलमघसीटी की है, जिन्हें स्वयं भोगा या अनुभूत किया है. उनमें एक मोटा उपन्यास ‘मंडी हाउस: यह मैं हूं मैं’ भी है. अनुभूति अत्यंत तीव्र, सघन और धारदार हो तो कविता. कुछ उथली, उखड़ी-उखड़ी-सी हो तो कहानी या उपन्यास. हालांकि भूमिका के दौरान सुभाष चंदर ने ‘मंडी हाउस...’ की प्रशंसा की है. मगर मुझे उनके उपन्यास प्रिय नहीं लगते. मेरा मानना है कि सुरंजन मूलतः कवि हैं, इसलिए उनकी कहानी-उपन्यासों में कथानक का पर्याप्त विकास हो ही नहीं पाता. ऊपर से अनुभूति की प्रामाणिकता को, निजी अनुभूतियों को ज्यों का त्यों बनाए रखने का दबाव भी रचना को बोझिल और अपठनीय बनाता है. स्वानुभूति के दबाव का शिकार उनकी कविताएं भी हैं. सुरंजन छिपाना नहीं जानते. शायद यह छल उन्होंने सीखा ही नहीं है. उनके कवि का दर्द, पूरे जमाने का दर्द है, वे अक्सर यही दिखाते रहते हैं. एक रचनाकार के रूप में सुरंजन की पूरी दुनिया दो खानों में सिमटी है. पहले खाने में वे हैं, जिन्हें वे अपना मानते हैं, जिनसे वे प्यार करते हैं. दूसरे में वे हैं जिनके प्रति उनके मन में आक्रोश भरा रहता है. अतएव उनकी रचनाओं में अक्सर वही पात्र आते हैं, जिन्हें वह अपने जीवन में तात्कालिक रूप से स्वीकार्य अथवा अस्वीकार्य पाते हैं. अनुभूति की सघनता लेखन के लिए दबाव बनाती है, जिससे वे निरंतर कुछ न कुछ रचते रहते हैं. किंतु निजता के अत्यधिक दबाव में उनकी रचनाएं निजी आक्रोश, कुंठा या खुन्नस की अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाती हैं. सुरंजन का गद्य भी कविताई लिए होता है. इससे उनकी रचनाओं में लालित्य स्वाभाविक रूप से उभर आता है. मगर कभी-कभी इससे कथानक की गत्यात्मकता शिथिल पड़ने लगती है, जो पठनीयता के लिए उतनी ही जरूरी शर्त है. इसी कारण सुरंजन को गद्य से अधिक शोहरत उनकी कविताओं से मिली है. इससे सुरंजन भी संतुष्ट ही हैं. वैसे उनके उपन्यास ‘मंडी हाउस: यह मैं हूं मैं’ का शीर्षक मुझे इसके कथानक से अधिक प्यारा लगा. हालांकि जैसा मैंने पहले बताया, यह सुरंजन की स्वानुभूति का ही खेला है. सीधा-सादा आत्मकथात्मक उपन्यास, जिसमें उन्होंने जैसा देखा-भोगा वह आया है. वही नारीपात्र हैं जो जिनसे सुरंजन की भावनाओं की दुनिया बसी है. उपन्यास में यथार्थ, सेक्स, संवेदनाएं आदि सबकुछ हैं. लेकिन आत्मकथात्मक रचनाएं जिस तटस्थता और निर्मम आत्मविश्लेषण की मांग करती हैं, वह इस उपन्यास में कहीं नहीं है. वस्तुतः यह सुरंजन की सीमा भी है. अतिसंवेदनशीलता का लक्षण होता है कि वह दिमाग को एक दायरे से बाहर नहीं जाने देती. ऐसी स्थिति में आत्मश्लाघा भी आ जुड़े तो कृति का साहित्य-तत्व संकट में पड़ जाता है. आत्मश्लाघा का शिकार मनुष्य दुनिया को दो हिस्सों में बांटकर देखता है. एक जो उसके काम की है. उसकी स्वार्थपूर्ति में सहायक है. दूसरी जिससे सिर्फ दूसरों का हितसाधन संभव है. चूंकि संवेदनाएं मन के तीव्र आवेग होती हैं, इसलिए वे क्षण-क्षण परिवर्तशील भी होते हैं. ऐसी अवस्था में दोस्तों और दुश्मनी के दायरे भी एकजैसे नहीं रह पाते. वे भी अपनी धुरियां बदलते रहते हैं. यानी एक क्षण विशेष में मित्र रहा व्यक्ति क्षण-विशेष में दुश्मनी के दायरे में भी आ सकता है. और दुश्मनों की कतार में शामिल व्यक्ति किसी भी पल दोस्त भी बन सकता है. अतिसंवेदनशीलता व्यक्ति को आत्मकेंद्रित और कभी-कभी क्रूर भी बना देती है, जिसका खामियाजा उस व्यक्ति के निकटवर्तियों को उठाना पड़ता है. सुरंजन का उपन्यास ‘मंडी हाउस...’ मुझे इस देश के लोकतंत्र की ताकत का रूपक जान पड़ता है. मंडी हाउस और उसके आसपास का इलाका राजधानी के संस्कृतिकर्मियों का सबसे पसंदीदा ठिकाना है. यहां राजधानी और बाहर से आए संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों का जमाबड़ा लगा ही रहता है. इसलिए इस परिक्षेत्र को दिल्ली की सांस्कृतिक राजधानी कहकर पुकारना कतई अतिश्योक्ति नहीं लगता. मैं बता दूं कि इस उपन्यास को सुरंजन ने मंडी हाउस की केंटीन, यहां के पार्कों में बैठे-अधलेटे होकर लिखा है. उन दिनों जो उनके कठितम संघर्ष के दिन थे. घर से खाली पेट निकलना, मंडी हाउस पहुंचकर वहां शाम तक मित्रों के साथ गपियाते रहना, फुर्सत के क्षणों में लिखना. भूख लगे तो जो मिले खा लेना. अपने एकाकी जीवन के तीव्र संत्रासों को रफ्ता-रफ्ता लेखनी के जरिये कागज पर उतारना. मुझे लगता है कि सुदूर बिहार के साधारण कस्बे से आया एक विपन्न, साधनविहीन, अल्पशिक्षित और भावुक कलमकार को, जो बिना किसी गाॅडफादर के सिर्फ अपनी कलम द्वारा, उन सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों को चुनौती देना चाहता था, जो चंद चाटुकारों तथा अवसरवादियों के बूते, नौकरशाहों और भ्रष्टाचारियों का अड्डा बन चुके हैं. जिनके लिए साहित्य और संस्कृति महज मंडी में पहुंचे हुआ ‘माल’ हैं. साधारण उत्पाद, जिनकी उपयोगिता धन कमाने तक सीमित है. उन्हें बेचकर अधिकाधिक मुनाफा कमाना उनके लिए मानवीय सरोकारों के किसी भी प्रश्न से अधिक अहम है. उन जड़ प्रतिष्ठानों को सुरंजन इस उपन्यास के शीर्षक द्वारा मानो एक चुनौती देते हैं. कह सकते हैं कि यह आधुनिक स्वार्थी और व्यक्तिकेंद्रित सत्ताकेंद्रों को एक स्वाभिमानी, संघर्षशील और आत्मविश्वास से लबरेज साहित्यकार की ओर से एक चुनौती है. एक ललकार है, संवेदनशील कलमकार की ओर से. कई मामलों में सुरंजन खासे निर्मम भी हैं. यह निर्ममता जितनी दूसरों के लिए अपने लिए भी कुछ कम नहीं है. खासकर मामला जब लेखन का हो. कभी-कभी तो खरी और बेलाग बातें भी वे इतनी मासूमियत से कह जाते हैं कि उनका दुश्मन भी गुस्सा पी जाता है. हालांकि आक्रोश से सुरंजन को ही नुकसान पहुंचा है. इससे उनकी रचनात्मकता बाधित हुई है. गुस्से में व्यक्ति अपने श्रेष्ठतम को नहीं दे पाता. उनकी अधिकांश कविताएं अकेलेपन की कहानी कहतीं, खुद को बार-बार दोहराती हैं. उनमें से अधिकांश तब लिखी गईं, जब वह घर-परिवार से दूर, अपने कमरे में सिमटे, एकाकी, खुद को भुलाने की जद्दोजहद से गुजर रहे होते थे. सुरंजन की बेहतरीन कविताएं भी वही हैं, जो उनके घने नैराश्यबोध और पीड़ाओं से जन्मी हैं. दिन-भर की हताशा से लगभग टूटकर, जिन्हें उन्होंने अपने ही भीतर डूबते-उतराते हुए रचा है. उनमें जिंदगी से भाग जाने का उतावलापन है तो उसके प्रति बेहद लगाव भी. आंतरिक संघर्ष की यही स्थिति सुरंजन की कविताओं में झीनी दार्शनिकता के साथ उपस्थित हुई है. जो अस्तित्ववाद के करीब से गुजरती है. पीड़ा के साथ सुरंजन के कवि का संगमन किसी फैशन के तहत नहीं हुआ है, जैसा कि हमारे अधिकांश कवि करते रहते हैं. सुरंजन की कविताओं में छलछलाती पीड़ा उनके अस्मिताबोध की देना है. इसलिए जब वह कहते हंै कि सुरंजन कविता को पहनता, ओढ़ता-बिछाता है तो इसमें कुछ भी अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं लगता. दूसरे कवियों की तरह सुरंजन बड़ा कवि होने का दावा करने के बजाय अपनी सर्जना में लीन होने, उसके प्रति एकात्म हो जाने में ही अपना बड़प्पन मानते हैं. एक कलमकार का अपनी विधा में विसर्जन का भाव, दूसरे शब्दों में उस उस विधा का आत्मसातीकरण कर लेना है. यह किसी भी समर्पित कलमकार का ध्येय हो सकता है. सुरंजन इस लक्ष्य को पा सके हैं, यह उनके व्यवहार से भी सिद्ध होता है. उनकी कुछ भावोद्दीपक कविताओं को पढ़ते हुए मुझे अंग्रेजी के कवि पी बी शैली के याद आ जाती है.

सुरंजन के कुछ संघर्षों का मैं साक्षी रहा हूं. जिंदगी जमाने के लिए बहुत-से पापड़ उन्होंने बेले हैं. प्रकाशन से लेकर दुकानदारी तक. साहित्यरथ से लेकर स्वप्न रथ...और फिर एक के बाद एक नौकरी, प्रूफ रीडिंग, इन दिनों कथासंसार से जुड़े हैं. वक्त काटने एक दुकान भी है. वही उनका प्रकाशन है, वही प्रिटिंग हाउस. और कहें तो स्टेशनरी की फुटकर दुकान भी है. पर बेचैनी अब भी ज्यों की त्यों है. दरअसल किसी व्यवसाय को जमाने के लिए हुनर चाहिए वह सुरंजन में नदारद है. वह सपने देखते हैं, परंतु उन्हें कारोबार में बदलने के हुनर से अनभिज्ञ हैं. आज जब हर क्षेत्र में स्पर्धा है, लोग सपने नहीं परिणाम की मांग करते हैं, सपने देखना एक रीतिकालीन शौक ही कहा जा सकता है. कथासंसार के माध्यम से मुझे सुरंजन के कई नए पहलुओं की जानकारी भी मुझे मिली है. उन्हें अगर छेड़ दूं तो बात खिंचती चली जाएगी. कुछेक प्रसंग कागज पर उतरने को जरूर उतावले हैं. शायद पाठकों की भी उनमें रुचि हो. सुरंजन की मनमानी का कुछ हिस्सा तो इन प्रसंगों के जरिए बाहर आएगा ही. कथासंसार के प्रारंभिक अंकों के प्रकाशन से मैं भी जुड़ा रहा हूं. मेरी इच्छा थी, और शायद नया-नया उत्साह भी, जिसका व्यावहारिकता के धरातल से, उस हकीकत से जिससे पत्रिका चलाने के लिए उसके प्रकाशक और संपादक को रोज दो-चार होना पड़ता है, कोई संबंध नहीं होता. तो मेरी इच्छा थी कि पत्रिका अपना स्वतंत्र चरित्र विकसित करे. प्रारंभ के कुछ अंकों में ऐसा प्रयास भी किया गया. खुद सुरंजन में भी भरपूर उत्साह था. इसलिए उन्होंने कुछ ऐसी रचनाएं लेख ढूंढ निकाले जो पूर्व प्रकाशित होने के बावजूद समसामयिकता की कसौटी पर खरे उतरते थे. प्रकाशन के बाद उनपर खूब चर्चा भी हुई थी. उन दिनों सुरंजन जिस कठिन संघर्ष से गुजर रहे थे, उनके लिए रोजी-रोटी का सवाल सबसे अहम् था. जिसे वह कथासंसार के माध्यम से हल करने का ख्बाब देखरहे थे. संपादक और लेखक भी इंसान होते हैं और उनकी कुछ जरूरतें भी होती हैं, यह देखते हुए इसमें कुछ भी गलत नहीं था. पेट की भूख में नैतिकता के सवाल अकसर दब जाया करते हैं. तो भी मुझे भरोसा था कि कविमन सुरंजन अपने धैर्य को चुकने नहीं देंगे. वे रोजी-रोटी के बाकी रास्तों को आजमाने के बाद पत्रिका के क्षेत्र में आए थे. वह उन्हें बहुत आसान भी लगा था. शायद समय भी उनके साथ था. इसलिए ‘कथासंसार’ शीर्षक पंजीकृत भी हो गया. साहित्यिक पत्रिका के क्षेत्र में स्पर्धा थी तो श्रेष्ठतर काम करने पर सफलता की संभावनाएं भी कम नहीं थीं. मुझे भी लगता था कि यदि प्रतिबद्धता के साथ पत्रिका निकाली जाए तो वह पाठकांे के मन में धीरे-धीरे अपनी पैठ बना ही लेगी. जो प्रकारांतर में अपने चरित्र के अनुरूप नया पाठकवर्ग गढ़ने में सक्षम होगी. जाहिर है कि मेरा यह थोड़ा-बहुत आदर्शात्मक सोच था, जिसका वास्तविकता से कोेई नाता ही नहीं था. जीवन की दैनंदिन की समस्याएं मुझे उतना नहीं कचोटती थीं, जितनी कि वे सुरंजन कोे विचलित रखती थीं. पत्रिका निकली मगर कुछ तो जरूरतें, और कुछ वे दुराग्रह जो सुरंजन की आत्मशलाघा की उपज थे, इन सबने कथासंसार को उस पटरी से उतार दिया, जिसपर दौड़ाने की बात उसे आरंभ करते समय सोची गई थी. बहरहाल कथासंसार सुरंजन की पत्रिका है, और उसको वही होना होगा, जैसा कि वे चाहेंगे. कथासंसार आरंभ करने से पहले मुझे लगता था कि सुरंजन में व्यावसायिक कुशलता का अभाव है. पत्रिका निकालने के आरंभिक दौर में उन्होंने जो एक के बाद एक कदम उठाए थे, उनमें मिली असफलता देखकर मेरी यह धारणा बनी थी. उनका मगध प्रकाशन भी प्रायः ठप्प-सा था. दुकानदारी वे कर नहीं सकते थे. और साहित्यरथ को बेच-बाचकर वापस गया लौटना पड़ा था. ये असफलताएं दर्शाती थीं कि वे व्यावसायिक निपुणता, कम से कम वाणिज्यिक कौशल से परे हैं. परंतु कथासंसार के माध्यम से बाकी लोगों की तरह मेरा भी भ्रम टूटा. संपादक के रूप में सुरंजन की चतुराई...किसी घाघ संपादक जैसी ही थी. यह व्यावहारिकता का ही अतिरेक था कि स्त्री सामथ्र्य के प्रति बिना किसी निष्ठा या प्रतिबद्धता के कथासंसार के ‘स्त्रीशक्ति विशेषांक’ की घोषणा कर दी जाए. उसी अंक में एक विवादित टिप्पणी, कि स्त्री को तो पुरुष के नीचे ही रहना है,’ भी संपाकदीय का हिस्सा बनकर आए. इस वक्तव्य पर जिन्हें चुभन होती है, होती रहे, किसी का जी दुखता है तो दुखे, सुरंजन को इसकी चिंता नहीं. उनकी प्रवृत्ति आग लगाकर मजा लेनेवाली तो नहीं है, मगर उस घटना में ऐसा ही हुआ था. पत्रिका की भारी आचोचना भी हुई. लेकिन कुछ छपास प्रेमी लेखिकाओं के साथ आ जाने से सुरंजन पर कोई खास फरक नहीं पड़ा. यही क्यों करगिल युद्ध के दौरान उभरी राष्ट्रवादी भावनाओं में आए उबाल को वह बाजार की अन्य शक्तियों की भांति, पत्रिका के युद्ध विशेषांक के जरिये भुनाना चाहते थे. उन्हीं दिनों अरुंधति राय के नाम लैनान पुरस्कार की घोषणा हुई. अमेरिका के फोर्ड फाउंडेशन की ओर से मिले इस पुरस्कार को अरुंधति सामाजिक संगठनों और विभिन्न पत्रिकाओं में बांट देती हैं. खबर मिलते ही सुरंजन के लिए वह ‘दुनिया की सबसे अच्छी लड़की’ बन जाती है. चूंकि दुनिया की सबसे अच्छी लड़की सुरंजन की कविता पुस्तक का शीर्षक भी है. एक पंथ दो काज, सुरंजन अरुंधति को खुश करने की कोशिश के साथ अपनी कविता पुस्तक को भी चर्चा में ले आते हैं. स्त्री विशेषांक के संपादकीय में वह स्त्री-अस्मिता के विरुद्ध और भी तल्ख टिप्पणियां देते हैं. और अपनी बात के समर्थन में ऐसे ऐसे तर्क कि आप बस सिर धुनते रह जाएं. सुरंजन की मुखरता, बेलाग बातों का मैं प्रशंसक रहा हूं. कथासंसार का वह संपादकीय अपने आप में विरोधाभासी का बहुसूत्रीय सिलसिला था. पर इसके माध्यम से सार्थक(या निरर्थक) विमर्श आरंभ करने के बजाय सुरांजन की कोेशिश इस बहाने पत्रिका को विवादों में ले आने की थी. प्रकाशनार्थ आई सामग्री से भी वह अपेक्षा करते कि उसमें कुछ चैंकाने वाला हो. लेखकों से मुलाकात या रचना के लिए आग्रह के समय तो वह ऐसा अक्सर कहते ही थे. विवाद के माध्यम से लोगों का ध्यानाकर्षण करने और धनलाभ का सपना देखने वालों में सुरंजन अकेले नहीं हैं. हिंदी में ऐसे बहुत से संपादक-साहित्यकार हैं, जो भीड़ में पत्थर उछालकर खलबली मचाकर उसका मजा लूटते रहते हैं. सुरंजन भी उन्हीं में से एक हैं. पर इस मामले में वे दूसरों से जरा अनाड़ी किस्म के. शायद इसलिए कि वह बड़ा गेम नहीं खेल पाते. इस खेल के चतुर सुजान खिलाड़ी उनकी पहुंच से बाहर हैं. छोटी-छोटी खुशियों के समान छोटी-छोटी चालाकियों से ही वे संतुष्ट हो लेते हैं. छोटी-छोटी चीजों से बहल जाना, यह अकेले सुरंजन की नहीं, बल्कि हर भावुक कवि-लेखक की आदत होती है. मैं यह कह चुका हूं कि सुरंजन मूल रूप से कवि हैं. और मैं उनकी कविता का पाठक, घनघोर भावुकता का प्रशंसक भी रहा हूं. मगर भावुकता वैचारिक तारतम्यता को पनपने नहीं देती. ऐसे में सुरंजन की साफगोई उनके लिए ढाल का काम करती है. हम उनकी राय से सहमत-असहमत हो सकते हैं. पर इस बात के लिए सुरंजन की तारीफ करनी होगी कि हम जैसे लोग जो कई-कई मुखौटों के साथ लोगों से पेश आते हैं, ऐसे में सुरंजन के पास हमारी अपेक्षा बहुत कम मुखौटे हैं. जितने हैं उनका भी वह बहुत समझदारी या कहें कि चतुराईपूर्वक उपयोग नहीं कर पाते. सुरंजन की स्पष्टवादिता उन्हें हमारी अपेक्षा निर्मेल्य सिद्ध करती है. जिस संघर्ष के दौर से वह गुजरे हैं, उसको देखते हुए यह कोई विचित्र या अस्वाभाविक स्थिति भी नहीं है. अपनी जिद और सनक के कारण सुरंजन ने नुकसान भी कम नहीं उठाया है. बार-बार उजड़ने और बसने के पीछे उनकी सनकों का ही हाथ रहा है. इसी कारण वह नौकरी पाने और छोड़ने का खेल भी खेलते रहते हैं. शायद इसी कारण उनका जीवन-संघर्ष इतना लंबा खिंचता गया. आज भी जो उनके पास है, जिस कथासंसार ने उन्हें पुनःस्थापित करने में मदद की है, उनकी लोकप्रियता में इजाफा किया है, उसे भी ठुकराकर वह कब किसी नए संसार की रचना में लग जाएंगे, कोई नहीं जानता. खुद सुरंजन भी को यह कहां मालूम है. उनके इसी स्वभाव को परखते हुए वरिष्ठ लघुकथाकार जगदीश कश्यप ने सुरंजन को फीनिक्स पक्षी की उपमा दी थी. यूनानी लोककथाओं का यह मिथकीय पात्र अपनी ही चिता की राख से पुनः जीवन पाता रहा है. भारतीय आख्यानों में इसके समानांतर रक्तबीज जैसे मिथक रहे हैं. सुरंजन के व्यक्तित्व के अनुरूप इससे सटीक उपमा मेरी निगाह में तो और हो नहीं सकती. सुरंजन को लेकर कहने के लिए बहुत-सी बातें हैं. आठ-दस वर्षों के अंतराल में साथ-साथ भोगे गए कई महत्त्वपूर्ण, यादगार क्षण हैं. बहुत कुछ सीखने को मिला है मुझे उनसे. खासकर वर्तनी की समझ. उन दिनों लिखते समय बेशुमार गलतियां करता था मैं. हालंाकि मैं दर्शनशास्त्र में परास्नातक था और वह बामुश्किल सात-आठ जमात पास. इसके बावजूद मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि साहित्य और लेखन संबंधी समझ सुरंजन के पास मुझसे कहीं अधिक थी. उनसे सूत्र रूप में अनेक वे बातें जानने को मिलीं जो आज भी बहुत काम आ रही हैं. आज साहित्य जगत मंे पांव टिकाने लायक यदि मैं जगह बना पाया हूं तो उसके पीछे सुरंजन जैसे मित्रों का योगदान कम नहीं है. इस आलेख के अंतिम हिस्से में मैं सुरंजन के उस हिस्से पर टिप्पणी करना चाहूंगा जिसके कारण वह जब तब विवादों को आमंत्रित करते रहते हैं. साथ-साथ बातचीत में उन्होंने अपने जीवन-संघर्ष से टुकड़े-टुकड़े परिचय कराया है. जानता हूं कि जितना मुझे बताया है, उससे कई गुना उन्होंने भोगा है. जितना उसने मुझसे कहा है, उसमें अतिश्योक्ति की मात्रा कम से कम है. शायद आटे में नमक जितनी. सुरंजन की खूबी है कि ऐसे मामलों में वह आश्चर्यजनक रूप से ईमानदारी से पेश आते हैं, तो भी उनके जीवन के गई गूढ़ प्रश्न ऐसे हैं, जिनके बारे में मेरे मन में सदैव जिज्ञासा रही है. परंतु उन्हें लेकर सुरंजन से बातचीत करने की कभी हिम्मत ही न पड़ी. पर मैं जानता हूं कि उन प्रश्नों पर जब भी चर्चा होगी, उनकी ईमानदारी हमारे बीच रहेगी. सुरंजन की चर्चा हो और सेक्स पर बात न हो, यह असंभव है. उसके व्यक्तित्व का यही ऐसा पहलू है, जिसके बारे में कमोबेश सभी जानते हैं. उसके साथी भी और आलोचक भी. इस मामले में सबकी राय लगभग एक जैसी है. खुद सुरंजन इस बारे में कभी कुछ नहीं छिपाते. संभवत इस मुद्दे पर वे सबसे अधिक मुखर होते हैं. बगैर किसी की परवाह किए. अक्सर मैं सोचता हूं कि सुरंजन के मानस में कोई ऐसी कुटिल ग्रंथि है. वही उन्हें अचानक उकसाकर आड़ी-तिरछी चाल चलने को विवश कर देती है. वह ग्रंथि कब, कौन-सी चाल चलने को मजबूर कर दे, इसका आकलन उनके खास मित्र हितैषी भी नहीं कर पाते. मुझे लगता है कि बूंद, एक लंबा-सा सांप, सृष्टि जैसी उनकी कविताएं, सामान्य कवि मानस की सृजनाएं नहीं हैं. वे इसी उकासाव ग्रंथि की देन हैं, जिसकी ओर मैंने ऊपर संकेत किया है. ये विकृत कामकुंठाओं की भी उपज हैं जो सुरंजन के मानस में गहरे कहीं बहुत गहराई तक समाई हुई हैं. जिनकी थाह पाना मुझ जैसे साधारण कलमकार के बस में नहीं. लेकिन ये कुंठाएं किसी एक दिन में विकसित नहीं हुई हैं. न ही ये उनके मानस में आदि रोपित हो सकती हैं. बल्कि ये उस कठिन संघर्ष का परिणाम हैं जो सुरंजन ने घर-परिवार से बरसों दूर, एकाकी रहकर भोगा है. ये उन परिस्थितियों का कुफल हैं, जो कठिन संघर्ष के दिनों में उनका हर पल इम्तिहान लेती रही हैं, और उनके व्यक्तित्व से चिपक-सी गई हैं. मगर इनके कारण उन्हें कोई नफरत से देखे या ओछेपन का आरोप लगाए, यह सुरंजन तो सुरंजन मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा. बल्कि इनके कारण सुरंजन हम सब की सहानुभूति अनायास ही बटोर ले जाते हैं. क्योंकि उन्होंने जो भोगा वह असाधारण है. सुरंजन की कुंठाओं, जो उनकी कविताओं में अश्लीलता की हद तक व्यक्त हुई हैं, के अंतःस्थलों की पड़ताल करना मुझे एक चुनौती सामान लगता है. कभी कभी मुझे लगता है कि काम-विकारों के अध्ययनकर्ताओं के लिए सुरंजन एक बेहतरीन केस हो सकतेे हैं. जिसके अध्ययन के जरिए मानवमन की कुछ नई अंतःरचनाओं तक पहुंचा जा सकता है. जिसके गढ़न में सुरंजन के एकाकी भटकाव और अंतहीन संघर्ष की भूमिका रही है. कल्पना कीजिए कि एक युवा कुछ वर्ष का सफल दांपत्य जीने के बाद अचानक खुद को अकेला पाता है. वह युवा जिसका मन रूमानियत से भरा है. मुकेश और लता के दर्द-भरे नगमों में जिसको अपनी दुनिया नजर आती है. और जो जिंदगी को उसी रूमानियत के साथ जीना चाहता है. ऐसा भावुक इंसान अपने अकेलेपन, भूख, बेकारी, गरीबी और साधनहीनता के साथ अकेला जूझता है. बचपन की त्रासद अनुभूतियों के सिवाय जिसका कोई अतीत नहीं है. महानगर में जिसका कोई अपना नहीं. जिसके पास पूंजी है तो सिर्फ अपनी भावुकता और संवेदनाओं की. उसी के माध्यम से अपने पैरों के नीचे की जमीन तलाशता हुआ वह सुदूर बिहार से देश की राजधानी पहुंचता है. अपनी आंखों में अनगिनत सपने लेकर. कुछ असफल प्रेम कहानियों के साथ. उनकी स्मृति में डूबता-उतराता, कंक्रीट के जंगल में भी उसके लिए चैन कहां. गगनचुंबी इमारतें ऐसे बेचारों को छाया तो देती नहीं. उल्टे उसके बौनेपन का एहसास कराने लगती हैं. राजधानी पहुंचकर भी उसका अंतहीन संघर्ष विराम नहीं मिलता. ऐसे हारे-थके व्यक्ति को किसी के सहारे की जरूरत पड़ती है, स्त्री का साथ ऐसे ही पलों में अमृतवर्षा करता. परिस्थितियों से जूझने का सामथ्र्य और नवजीवन देता. मगर उसे तो वह पहले ही गंवा चुका है. दैनिक आवश्यकताओं को उसने शराब और भांग के नशे के नीचे दबाने की कोशिश की. पर क्या ऐसा संभव था. फिर एक-दो दिन की बात हो तो ठीक. वहां तो महीना-दर-महीना वर्ष-दर-वर्ष एकाकी कमरे का वही सूनापन था. जो घड़ी-घड़ी देह को कचोटता. पल-पल डंक मारता. ताने-उलाहने देता. ऐसी जोड़ी बाहों से दूसरी जोड़ी बाहों तक जाने में सुरंजन को चैदह बरस लगे. राम के वनवास में तो सीता उनके साथ थीं. उनके न होने पर उनका वीरत्व कितना परवान चढ़ता कौन कह सकता है. इतने लंबे अंतराल में कामनाएं विकृत न हों तो कैसे? दूसरी बार बाहांे का सहारा तो मिला, पर मन का विश्वास नहीं. इसलिए यह कम नहीं कि ऐसे विकट झंझावातों से दिन-रात जूझने के बावजूद सुरंजन टूटे नहीं. कविता रूपी संजीवनी ने उन्हें बिखरने से बचाए रखा. एक कवि जो बेहद भावुक है. सतत कामनाओं में जीता है. चलते-चलते सपने देखता है. जिसके पास कविता की दौलत है. और जो एक के बाद एक कई असफल प्रेमकथाओं से गुजर कर भी निराश नहीं हुआ है. यानी जो सपनों में नित नए प्यार को परवान चढ़ते हुए देखता है. उसके लिए सपनों का टूटना और बिखरना कितना महत्त्च रखता है. हम लोग जो साधारण बंधा-बंधाया सा जीवन जीते हैं. उस जीवन की भयावहता के बारे में हरगिज नहीं सोच सकते. और यदि कल्पना भी करने लगें तो दिमाग की सारी नसें फटने को हो आती हैं. परंतु सुरंजन ने इन्हें अपने ऊपर झेला है. एक दो दिन नहीं, वर्षों, वर्ष अकेले-अकेले. हर दिन तिल-तिल जलते-बुझते. आज जिस सुरंजन को हम जानते हैं, वह लंबे संघर्ष और भावनाओं की लपटों में तपकर निकला है. उसके भीतर अनगढ़पन तो है, इसलिए जब भी हम सुरंजन को अलग से जानने की कोशिश करेंगे, उनका जीवन मानवीय समझ को कुछ न कुछ विस्तार ही देगा. सुरंजन की पिछली कविताओं में उनके लंबे संघर्ष और हताशाओं का विवरण है. जिनमें विषाद और करुणा की सहज प्रस्तुति है. वे कविताएं उन्हें नैसर्गिक प्रतिभायुक्त कवि सिद्ध करने को पर्याप्त हैं. किंतु उसकी हाल की कविताएं खासतौर पर संपादक सुरंजन की कविताओं में आवेगात्मक प्रेम का स्थान फूहड़पन और अश्लीलता ने ले लिया है. नारी पात्र पहले उनकी कविताओं में प्रेरणाòोत का धर्म निभाते थे. परंतु अब उनके वर्णन में अश्लीलता साफ झलकने लगी है. दुनिया की सबसे अच्छी लड़की को पाने की सनातनी कामना तो उनके मन में आज भी है. पर जिस स्त्री को वह अपनी पत्नी कहते हैं, उसको अंकशायिनी बनाने के बावजूद उसके प्रति मन में सैकड़ों शंकाएं पाले रहते हैं. जिन कविताओं में नारी पात्रों के प्रति सहज प्रेम झलका करता था, अब उनमें पत्नी के प्रति नाराजगी और शिकायत का भाव रहता है. जो कविताएं पहले कोमल भावनाओं को बड़ी सौम्यतापूर्वक सहेजे रखती थीं, आजकल उनमें फूहड़पन और अश्लीलता है. उनकी आजकल की कविताओं पढ़कर कभी-कभी दिमाग में ख्याल आता है कि काश, मैं कोई ऐसा आदमकद दर्पण का इंतजाम कर पाता, जिसमें से इंसान के अंतर्मन की झलक साफ-साफ दिखाई दे. उस दर्पण को मैं सुरंजन की आंखों के सामने रखता. उस समय जब वह अपनी पत्नी के प्रति बेवजह गुस्सा दिखाते हैं. या उनपर तरह-तरह के आरोप लगाते हैं. उस समय मैं उनकी आंखों को घूर-घूर कर पढ़ने का प्रयास करता, जब वे विकास और पंचम को साथ-साथ देख रही होतीं. उस समय सुरंजन दें तो मैं एक सवाल अवश्य करता कि पंचम को देखकर नेह से बरस-बरस पड़ने वाली आंखें विकास के प्रति उपेक्षा से क्यों भरी होती हैं? दोनों में जमीन-आसमान का अंतर क्यों है? पूछता कि अपनी कविता में पंचम को बार-बार याद करने वाले सुरंजन, उसकी जिंदगी की बेहतरी के लिए दिन-रात जूझने वाले तथा उसके भविष्य के प्रति हर पल चिंतित रहने वाले, सुहृदय और आदर्श पिता सुरंजन, अपनी दूसरी और बड़ी संतान से मुंह क्यों फेरे हुए है. पंचम के लिए एक मोमदिल पिता विकास के लिए पत्थर समान कठोर क्यों हो जाता है. मैं मानता हूं कि ये व्यक्तिगत आरोप हैं. दूसरे के जीवन में नाहक हस्तक्षेप की कोशिश हैं. साहित्य इतना व्यक्तिगत होने की अनुमति देता. हम मान लेते हैं कि हर व्यक्ति की निजी जिंदगी होती है, और साहित्यकार भी इसके अपवाद नहीं हैं. व्यक्ति की निजता में अवांछित ताकझांक करना अशिष्ट ही नहीं, पाप जैसा है. सच मानिए यह सब लिखते हुए मैं परछिंद्रान्वेषण का लुत्फ उठाने का कोई इरादा नहीं रखता. ये शब्द मेरे लिए भी कम पीड़ादायी नहीं हैं. परंतु इससे भी अधिक पीड़ा मुझे उन कविताओं को लेकर होती है, जिनमें वे अपने घर-परिवार को जबरन ले आते हैं. चूंकि सुरंजन ने अपनी निजता का सार्वजनीकरण स्वयं ही करते हैं, और गर्व के साथ करते हैं, खुद को पाठकों के बीच लाकर उनकी संवेदना लूटना चाहते हैं, तो उन्हें उससे उठने वाले प्रश्नों के लिए भी उन्हें तैयार रखना चाहिए. यह सोचते हुए कि उनको तो अभिव्यक्ति का वरदान प्राप्त है. वे अपनी पीड़ा को कागज पर उतार सकते हैं. उतारते रहते हैं. परंतु इस आदान-प्रदान में दूसरा पक्ष तो पूरी तरह मौन है. इसलिए एक साहित्यकार होने के नाते, उस पक्ष को न्याय और पूर्ण अभिव्यक्ति देने का काम भी सुरंजन का ही है. यदि वह ऐसा नहीं करते तो निजी पीड़ाओं के बाजारीकरण और दूसरों की सहानुभूति-संवेदनाओं के मोल बेचने का आरोप उनपर लगते ही रहेंगे. लोग आमने-सामने नहीं तो पीठ पीछे कहेंगे. चुप वही रहेंगे जो महज तमाशबीन होंगे. चलते-चलते सुरंजन की सपनीली पारदर्शी आंखों का उल्लेख छोड़ दूं तो मन में कुछ करकता सा रहेगा. मुझे उनमें हजार-हजार सपने हर पल तैरते हुए नजर आते हैं. चूंकि सुरंजन के पास बेशुमार सपने हैं, उसकी कल्पना की केसर-क्यारी हर पल महकती रहती है, इसलिए मन में कोई बांध नहीं रख पाता. अपनी समस्त पीड़ा, कुंठा, कलुश और बदकार सोच को कागज पर उतारकर वह निमैल्य हो जाते हैं. यही उनके अनगढ़ व्यक्तित्व की विशेषता है. यही वह वरदान है, जो कविता के साथ-साथ सुरंजन को प्रकृति की ओर से प्राप्त हुआ है. और शायद यही वह कारण है सुरंजन अगर सामने हांे तो मन उनके प्रति नापसंदगी का इजहार करता है, परंतु जब वह दूर हो तो यादों के दरवाजे पर बार-बार सिर पटककर बेचैन किए रखते हैं.
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