Saturday, October 8, 2011

कछारी गांव जहां हर शख्‍स बहरा है




कहते हैं कि भारत चमत्कारों का देश है. यहां ऐसे-ऐसे आश्चर्यजनक, अजब-ग़जब और अद्‌भुत समाचार मिल जाते हैं, जो और कहीं नही मिलते. पर कभी-कभी कुछ समाचार ऐसे होते हैं कि विश्वास ही नहीं होता कि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं. कछारी गांव इसका जीगता-जागता उदाहरण है. आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं का सामाजिक परिवेश में प्रभाव विषय पर राष्ट्रीय स्तर पर कई गोष्ठियां आपने सुनी होंगी, परंतु आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस देश में एक गांव ऐसा भी है, जहां केवल बधिर व्यक्ति ही निवास करते हैं. इस गांव का कोई भी व्यक्ति सामान्य स्तर तक सुन पाने के क़ाबिल नहीं है. यह कहानी मध्य प्रदेश के मंडला ज़िले की है, जिसे अधिसूचित आदिवासी ज़िला कहा जाता है.
गांव के 60 वर्षीय बुजुर्ग राजाराम जो इस बीमारी के शिकार नहीं हैं, के अनुसार यह बीमारी इस गांव में सालों से चली आ रही है. यह बीमारी पैदा होने के साथ नहीं,  बल्कि 10-15 वर्ष की उम्र में बच्चों पर प्रभाव डालती है. इस बारे में जांच करने कई बार डॉक्टरों की टीम इस क्षेत्र में आई, परंतु कोई नतीजा नहीं निकला.
आदिवासी विकास के नाम पर राज्य एवं केंद्र की सरकारें भले ही लाख दावे पेश करें, मंडला ज़िले के कछारी गांव को उससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता. कछारी के निवासियों का दोष केवल इतना है कि उन्होंने एक आदिवासी ज़िले में जन्म लिया, जिसके विकास के लिए अरबों रुपये खर्च किए जाते हैं, लेकिन सिर्फ काग़ज़ों पर! वास्तविकता कुछ और होती है. आदिवासी कल्याण की योजनाएं आज भी राज्य में आम व्यक्ति के हित को पूरा कर पाने में कुछ प्रतिशत ही मददगार हो पाती हैं. सरकार सदा की तरह उदासीन रहती है और कछारी के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी बहरेपन के संताप को झेलते रहते हैं. मंडला जिले से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कछारी ग्राम पंचायत की आबादी लगभग 500 है. इस गांव में रहने वाले 400 लोग एक रहस्यमय बीमारी के शिकार हैं. एक उम्र तक पहुंचने के बाद उनमें सुनने की क्षमता क्रमश: घटने लगती है. गांव के लोग किसी की बात को पूरी तरह सुन नहीं पाते. नतीजतन वे अधिकतर मूक रहना ही पसंद करते हैं. गांव की लड़कियों की शादी इसी कारण से नहीं हो पाती है, क्योंकि समाज उन्हें बहरा मानता है. मजबूरन गांव में ही परिवारों के मध्य शादी-विवाह के रिश्ते बनते हैं.
गांव के 60 वर्षीय बुजुर्ग राजाराम जो इस बीमारी के शिकार नहीं हैं, के अनुसार यह बीमारी इस गांव में सालों से चली आ रही है. यह बीमारी पैदा होने के साथ नहीं,  बल्कि 10-15 वर्ष की उम्र में बच्चों पर प्रभाव डालती है. इस बारे में जांच करने कई बार डॉक्टरों की टीम इस क्षेत्र में आई, परंतु कोई नतीजा नहीं निकला. गांव के पटवारी के अनुसार, न सुन पाने के कारण गांव का भूमि संबंधी रिकॉर्ड भी पूरी तरह तैयार नहीं हो पाता. यह गांव आसपास के क्षेत्रों में बहरा गांव के नाम से चर्चित है. ज़िला चिकित्सालय के मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी ने बताया कि इस गांव के बारे में हमें जानकारी मीडिया के माध्यम से मिली हैं. हम नाक, कान, गले के डॉक्टरों को भेजकर उचित इलाज की व्यवस्था करेंगे. उप संचालक सामाजिक न्याय विभाग के के श्रीवास्तव ने भी इन तथ्यों की जानकारी मिलने पर गांव में श्रवणयंत्र बांटने का आश्वासन दिया है. आदिवासी क्षेत्र में इस रहस्यमय बीमारी पर शोध आवश्यक है, लेकिन राज्य सरकार की ओर से अभी तक कोई पहल नहीं की गई.

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