Sunday, October 16, 2011

गांधी के विचार



रविवार, २१ नवम्बर २०१०


विचार-६९ :: गांधीजी और गांधीवाद-७ :: विवाह - विषयासक्त प्रेम

गांधीजी और गांधीवाद-७
विवाह - विषयासक्त प्रेम
"एक अच्छा विचार, हमें फ़िज़ूल के श्रम से बचाता है!"
नित्यमस्नान-शौच-बाध्यो बलवान्‌ रागमलावलेपः।
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नाशयति न दिंमोह इवोन्मार्गप्रवर्तकः पुरुषमत्यासंगो विषयेषु।
(बाणभट्ट, कादम्बरी)
  • अर्थात्‌ विषयासक्ति रूपी मल का लेप नित्य स्नान और शुद्धता से भी नष्ट नहीं होता। विषयों में आसक्ति भी उसी प्रकार मनुष्य को कुमार्ग पर ले जाकर नष्ट कर देती है जिस प्रकार दिग्भ्रम।
  • गांधी जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। आज उसी की चर्चा।
  • तेरह वर्ष की उम्र में 1882 में गांधीजी का विवाह हुआ। तीन सगाइयों के बाद उनका विवाह हुआ। दो में तो कन्या मर गई। तीसरी सगाई सात साल की उम्र में हुई थी। उनकी पत्नी का नाम कस्तूरबा बाई था। कस्तूरबा बाई के वे अत्यंत दिवाने थे पर बाद के दिनों में उन्हें अपनी इस विषयासक्ति पर शर्म महसूस होती थी। हो सकता है इसी कारण ने बाल-विवाह पर उनके मन में बड़े कठोर विचारों को जन्म दिया और वे इसे भीषण बुराई मानते रहे।
  • उन दिनों बाल-विवाह क़ानून वैध था। उन दिनों तो इसे इस हिसाब से अच्छा माना जाता था कि लोग शादी हो जाने के बाद दुनियाई आकर्षण से बचेंगे। प्रायः ऐसी शादी सुखी होती थी। कम से कम गांधी जी के बारे में तो ऐसा ही था। उन्होंने जीवन भर कस्तूरबा बाई में अपने जीवन की सुखशांति पाई।
  • पर बचपन में गांधी जी, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, विषयासक्त थे। और साथ ही ईर्ष्यालू भी। वे कस्तूरबा बाई पर दबाव डालते कि बिना पूछे कहीं मत जाओ, यहां नहीं जाओ, वहां नहीं जाओ। पर वो अधिक स्वतंत्रता से काम लेतीं और इससे चिढकर कई बार दोनों में बोलचाल बंद हो जाती।
  • शादी के बाद कस्तूरबा बाई छह महीने गांधी जी के साथ रहती थीं। छह महीने बाद कस्तूरबा बाई मायके चली जाती थीं। यह उन दिनों की प्रथा थी। जिसकी निष्ठा सच्ची है, उसकी रक्षा भगवान ही कर देते हैं। जहां समाज में बाल विवाह जैसी घातक परंपरा थी तो वहीं इससे मुक्ति दिलाने वाला यह रिवाज़ भी था जिससे गांधी जी की विषयासक्ति से बचाव भी हो पाता था। १३ साल से १९ साल की उम्र तक यह क्रम चलता रहा।
  • घर की प्रथा ऐसी थी कि गांधी जी उनसे सिर्फ़ रात में ही मिल सकते थे। उन दिनों बड़ों के सामने तो स्त्री को देखा भी नहीं जा सकता था, बात-चीत तो दूर की बात थी। वो अनपढ थीं। इसलिए गांधी जी उन्हें बहुत कुछ सीखाना चाहते थे। गांधी जी के विषयासक्त प्रेम ने उन्हें समय ही नहीं दिया। इसका गाधी जी को काफ़ी पश्चाताप था। यहां तक कि अपनी आत्मकथा में इसकी आत्म-निंदा करते हुए कहते हैं,
“मैं मानता हूं कि अगर मेरा प्रेम विषय से दूषित न होता, तो आज वह विदुषी होतीं। मैं उनके पढने के आलस्य को जीत सकता था, क्योंकि मैं जानता हूं कि शुद्ध प्रेम के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।”
  • गांधी जी जैसा विषयासक्त प्रेमी थे वैसे ही वहमी पति भी थे। उनके वहम को उनकी मित्रता भी बढाती थी। मित्रों की बात में आकर वे धर्मपत्नी को कष्ट पहुंचाते थे। पत्नी सब सहन करती थी। स्त्री तो होती ही हैं सहनशीलता की मूर्ति। बाद में जब गांधी जी को अहिंसा का सूक्ष्म ज्ञान हुआ तो और जब वो ब्रह्मचर्य की महिमा को समझे तो उन्हें यह बात समझ में आई कि पत्नी सहचारिणी है, सहधर्मिणी है, दासी नहीं। सन्देह में जिए गए अपने दिनों को बाद में याद कर गांधी जी लिखते हैं,
“मुझे अपनी मूर्खता और विषयान्ध निर्दयता पर क्रोध आता है और मित्रता-विषयक अपनी मूर्च्छा पर दया आती है।”
  • योगवासिष्ठ में कहा गया है, ‘भोगा भवमहारोगाः तृष्णाश्चमृगतृष्णिकाः।’ अर्थात्‌ विषयभोग संसार के महारोग हैं और तृष्णाएं मृगतृष्णा है।
  • इसी तरह की मृगतृष्णा में हुई भूल को महात्मा गांधी जी ने अपने जीवन का काला दाग मानते हुए इसे ‘दुहरा कलंक’ कहा है। यह घटना उनके पिता की मृत्यु जे जुड़ी है। उस समय गांधी जी सोलह साल के थे। उनके पिता जी बीमार रहते थे। गांधी जी अपने पिता की सेवा-सुश्रुषा करते थे। उनके घाव धोने से लेकर मरहम लगाना, दवा पिलाना और रात में पैरों की मालिश करने का काम भी करते थे। पैर दबाते-दबाते जब पिताजी सो जाते थे तब गांधी जी सोने जाते थे।
  • उन दिनों गांधी जी के चाचाजी भी वहीं थे। वे उनके पास ही सोते थे। कस्तूरबा बाई भी घर में ही थीं, इसलिए गांधी जी अपने ‘विषयासक्त प्रेम’ में भी मगन थे। एक रात चाचा के द्वारा इज़ाज़त दिए जाने के बाद गांधी जी बीमार पिता के सिरहाने से उठकर अपने शयन-गृह में पहुंचे और गहरी नींद में सो रही कस्तूरबा बाई को जगाया। वे तब गर्भावस्था में थीं। पांच-सात मिनट बाद ही नौकर ने दरवाज़ा खटखटाया और पिता के देहावसान की सूचना दी। गांधी जी को बहुत पश्चाताप हुआ कि अगर वे विषयान्ध न होते तो उस अंतिम घड़ी में अपने पिताजी के साथ होते। सेवा के समय भी विषय की इच्छा के काले दाग को गांधी जी कभी भूल नहीं पाए। पिता के प्रति सब कुछ छोड़ सकने वाले गांधी जी विषय को नहीं छोड़ सके, और इसे वे अक्षम्य त्रुटि मानते रहे। इसीलिए एक पत्नी और एक पति व्रत को ब्रह्मचर्य व्रत मानने वाले और एक पत्नी व्रत का पालन करने वाले गान्धी जी अपने को विषयान्ध मानते थे।
  • कस्तूरबा बाई ने जिस बच्चे को जन्म दिया वह भी ३-४ दिन ही जीवित रहा। इस पूरे प्रकरण में गांधी जी की पीड़ा बहुत गहन थी। काफ़ी दिनों तक यह उन्हें सालती रही।
  • भारवि ने किरातार्जुनीय में कहा है, ‘आपातरम्या विषयाः पर्यन्तपरितापिनः।’ अर्थात्‌ विषय-भोग तत्काल ही रमणीय प्रतीत होते हैं, अन्ततः वे ताप ही पहुंचाते हैं।
आज की चर्चा गुरुभक्त सिंह ‘भक्त’ के विक्रमादित्य की इन पंक्तियों से करना चाहूंगा,

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