Tuesday, August 30, 2022

सत्य की खोज / ओशो

 च्वांगत्सु चीन में हुआ, एक फकीर था। लोगों ने उसे हंसते ही देखा था, कभी उदास नहीं देखा था। एक दिन सुबह उठा और उदास बैठ गया झोपड़े के बाहर! उसके मित्र आये, उसके प्रियजन आये और पूछने लगे, आपको कभी उदास नहीं देखा। चाहे आकाश में कितनी ही घनघोर अंधेरी छायी हो और चाहे जीवन पर कितने ही दुखदायी बादल छाये हों, आपके होठों पर सदा मुस्कुराहट देखी है। आज आप उदास क्यों हैं? चिंतित क्यों हैं?


च्वांगत्सु कहने लगा, आज सचमुच एक ऐसी उलझन में पड़ गया हूं, जिसका कोई हल मुझे नहीं सूझता।


लोगों ने कहा, हम तो अपनी सब समस्याएं लेकर आपके पास आते हैं और सभी समस्याओं के समाधान हो जाते हैं। आपको भी कोई समस्या आ गयी! क्या है यह समस्या?


च्वांगत्सु ने कहा, बताऊंगा जरूर, लेकिन तुम भी हल न कर सकोगे। और मैं सोचता हूं कि शायद अब इस पूरे जीवन, वह हल नहीं हो सकेगी!

रात मैंने एक सपना देखा। उस सपने में मैंने देखा कि मैं एक बगीचे में तितली हो गया हूं और फूलों-फूलों पर उड़ता फिर रहा हूं।

लोगों ने कहा, इसमें ऐसी कौन सी बड़ी समस्या है? आदमी सपने में कुछ भी हो सकता है।


च्वांगत्सु ने कहा, मामला यही होता तो ठीक था। लेकिन जब मैं जागा तो मेरे मन में एक प्रश्न पैदा हो गया कि अगर च्वांगत्सु नाम का आदमी सपने में तितली हो सकता है तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि तितली सो गयी हो और सपना देखती हो कि च्वांगत्सु हो गयी! मैं सुबह से परेशान हूं। अगर आदमी सपने में तितली हो सकता है तो तितली भी सपने में आदमी हो सकती है। और अब मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि मैं तितली हूं, जो सपना देख रही है आदमी होने का या कि मैं आदमी हूं, जिसने सपना देखा तितली होने का! और अब यह कौन तय करेगा? मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं।


शायद यह कभी तय नहीं हो सकेगा। च्वांगत्सु ठीक कहता है, जो हम बाहर देखते हैं, वह भी क्या एक खुली आंख का स्वप्न नहीं है? क्योंकि आंख बंद होते ही वह मिट जाता है और खो जाता है और विलीन हो जाता है। आंख बंद होते ही हम किसी दूसरी दुनिया में हो जाते हैं। और आंख खोलकर भी जो हम देखते हैं, उसका मूल्य सपने से ज्यादा मालूम नहीं होता।


आपने जिंदगी जी ली है--किसी ने पंद्रह वर्ष, किसी ने चालीस वर्ष,किसी ने पचास वर्ष। अगर आप लौटकर पीछे की तरफ देखें कि उन पचास वर्षों में जो भी हुआ था, वह सच में हुआ था या एक स्वप्न में हुआ था? तो क्या फर्क मालूम पड़ेगा? पीछे लौटकर देखने पर क्या फर्क मालूम पड़ेगा? जो भी था-- जो सम्मान मिला था, जो अपमान मिला था-- वह एक सपने में मिला था या सत्य में मिला था?


मरते क्षण आदमी को क्या फर्क मालूम पड़ता है? जो जिंदगी उसने जी थी, वह एक कहानी थी या जो उसने सपने में देखी थी, सच में ही वह जिंदगी में घटी थी।

इस जमीन पर कितने लोग रह चुके हैं हमसे पहले! हम जहां बैठे हैं, उसके कण-कण में न-मालूम कितने लोगों की मिट्टी समायी है, न मालूम कितने लोगों की राख है। पूरी जमीन एक बड़ा श्मशान है, जिसमें न जाने कितने अरबों-अरबों लोग रहे हैं और मिट चुके हैं। आज उनके होने और न होने से क्या फर्क पड़ता है? वे जब रहे होंगे,तब उन्हें जिंदगी मालूम पड़ी होगी कि बहुत सच्ची है। अब न जिंदगी रही उनकी, न वे रहे आज, सब मिट्टी में खो गये हैं।


आज हम जिंदा बैठे हैं, कल हम भी खो जायेंगे। आज से हजार वर्ष बाद हमारी राख पर लोगों के पैर चलेंगे। तो जो जिंदगी आखिर में राख हो जाती हो, उस जिंदगी के सच होने का कितना अर्थ है? जो जिंदगी अंततः खो जाती हो, उस जिंदगी का कितना मूल्य है?


नेति नेति (सत्य की खोज)

ओशो

Monday, August 29, 2022

❤️❤️कृष्ण 🙏🙏 / ओशो

 कृष्ण जैसे व्यक्ति किसी काम के लिए नहीं जीते।

निश्चित ही जिस रास्ते वे गुजरते हैं उस रास्ते पर अगर कांटे पड़े हों तो हटा देते हैं। यह भी उनके आनंद का हिस्सा है। लेकिन कृष्ण उस रास्ते से कांटों को हटाने के लिए नहीं निकले थे। निकले थे और कांटे पड़े थे तो वे हटा दिए हैं।

जिंदगी हमारे हाथों में है। और कृष्ण जैसे लोगों के तो बिलकुल हाथों में है। वे जैसे जीना चाहते हैं, वैसा ही जीते हैं। न कोई समाज, न कोई परिस्थिति, न कोई बाहरी दबाव उसमें कोई फर्क ला पाता है। उनका होना अपना होना है।

कृष्ण कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है, तब तब मैं आऊंगा।

यह वही व्यक्ति कह सकता है, जो परम स्वतंत्र हो। आप तो नहीं कह सकते कि जब-जब ऐसा होगा, मैं आऊंगा। आप यह भी नहीं कह सकते कि अगर ऐसा नहीं होगा तो मैं नहीं आऊंगा। हमारा आना बंधा हुआ आना है। लंबे कर्मों का बंधन है हमारा।

कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि मारने से कुछ मरता नहीं। दुष्ट का अंत तभी होता है जब उसे साधु बनाया जा सके, और कोई उपाय नहीं। मारने से दुष्ट का अंत नहीं होता। इससे सिर्फ दुष्ट का शरीर बदल जाएगा, और कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। दुष्ट का अंत एक ही स्थिति में होता है, जब वह साधु हो जाए।

समस्त जीवन का नाम विष्णु है।

विष्णु के अवतार का मतलब यह नहीं है कि विष्णु नाम के व्यक्ति राम में हुए, फिर कृष्ण में हुए, फिर किसी और में हुए। नहीं, विष्णु नाम की ऊर्जा राम में उतरी, कृष्ण में उतरी, सब में उतरती है, उतरती रहेगी।

शंकर नाम की ऊर्जा है, उसे विदा देती रहेगी।

कृष्ण के ओंठों पर बांसुरी संभव हो सकी, क्योंकि वह लंबी धारा में अपने को छोड़े हुए आदमी हैं।

नदी जहां ले जाती है, जाने को राजी हैं।

अगर मथुरा के घाट से छूट गया सब तो द्वारका में घाट बन जाएगा, हर्ज क्या है? 

अनाग्रहशील व्यक्तित्व का वह लक्षण है।


#कृष्ण_जन्माष्टमी_की_शुभकामनाएं🙏

ढाई अक्षर

 "पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय ढाई अक्षर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय"

प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा



अब पता लगा है कि, ढाई अक्षर है क्या..?


तब से मन शांत हो गया ढाई अक्षर के ब्रह्मा

 और, ढाई अक्षर की सृष्टि..ढाई अक्षर के विष्णु और, ढाई अक्षर की लक्ष्मी

ढाई अक्षर की दुर्गा और, ढाई अक्षर की शक्ति

 ढाई अक्षर की श्रद्धा और, ढाई अक्षर की भक्ति

 ढाई अक्षर का त्याग

और, ढाई अक्षर का ध्यान

ढाई अक्षर की इच्छा और, ढाई अक्षर की तुष्टि ढाई अक्षर का धर्म और, ढाई अक्षर का कर्म ढाई अक्षर का भाग्य और, ढाई अक्षर की व्यथा

ढाई अक्षर का ग्रन्थ

और, ढाई अक्षर का सन्त

ढाई अक्षर का शब्द और, ढाई अक्षर का अर्थ

 ढाई अक्षर का सत्य और, ढाई अक्षर की मिथ्या

 ढाई अक्षर की श्रुति और, ढाई अक्षर की ध्वनि

 ढाई अक्षर की अग्नि और, ढाई अक्षर का कुण्ड

 ढाई अक्षर का मन्त्र और, ढाई अक्षर का यन्त्र

 ढाई अक्षर की श्वांस

 और, ढाई अक्षर के प्राण

 ढाई अक्षर का जन्म और, ढाई अक्षर की मृत्यु

 ढाई अक्षर की अस्थि और, ढाई अक्षर की अर्थी

 ढाई अक्षर का प्यार और, ढाई अक्षर का युद्ध ढाई अक्षर का मित्र और, ढाई अक्षर का शत्रु

 ढाई अक्षर का प्रेम और, ढाई अक्षर की घृणा

 जन्म से लेकर मृत्यु तक

 हम, बंधे हैं ढाई अक्षर में

हैं ढाई अक्षर ही वक़्त में और, ढाई अक्षर ही अन्त में..

समझ न पाया कोई भी,

है रहस्य क्या ढाई अक्षर में

महापुरुषों की गूढ़

रहस्यों से भरी भाषा को

शत-शत नमन जय श्री राम

✨🌱🚩🕉🐦🙏💗🔥🔱

❤️❤️🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏❤️❤️❤️❤️


#साभार

Sunday, August 28, 2022

राग से नहीं अनुराग से गायन


प्रस्तुति -  रेणु दत्ता / आशा सिन्हा


*मीराबाई कृष्णप्रेम में डूबी, पद गा रही थी , एक संगीतज्ञ को लगा कि वह सही राग में नहीं गा रही है!*


*वह टोकते हुये बोले: "मीरा, तुम राग में नहीं गा रही हो।*


*मीरा ने बहुत सुन्दर उत्तर दिया: "मैं राग में नहीं, अनुराग में गा रही हूँ।*

*राग में गाउंगी तो दुनियां मुझे सुनेगी*


*अनुराग में गाउंगी तो मेरा कान्हा मुझे सुनेगा।*

*मैं दुनियां को नही, अपने श्याम को रिझाने के लिये गाती हूँ।*

*रिश्ता होने से रिश्ता नहीं बनता,*

*रिश्ता निभाने से रिश्ता बनता है।*

*"दिमाग" से बनाये हुए "रिश्ते"*

*बाजार तक चलते है,,,!*

*"और "दिल" से बनाये "रिश्ते"*

*आखरी सांस तक चलते है,*.

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏


❤️❤️❤️❤️❤️❤️

Friday, August 26, 2022

दरस पाय नित मगन रहूँ।

 रा धा स्व आ मी!

                                 

 08/22-आज सुबह सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा शब्द पाठ:-                                                        


 8।।                                                             

  दरस पाय नित मगन रहूँ।

मेरे यही अभिलाषा हो॥२॥                                                               

प्रेम रंग भीजत रहँ।

😄 नित तुमहिं घियाता हो।।३॥                                                               

 मेरे सर्व अंग में बसि रहो।

 नित तुम गुन गाता हो॥४॥                                                           

।    माया के सब बिधन हटाओ।

काल रहे मुरझाता हो॥५॥                                                                  मन इंद्री का ज़ोर न चाले। नित्त रहूँ रँग राता हो॥६॥                                                               भोग बिलास जगत के सारे। मोको कुछ न सुहाता हो॥७॥                                                                 यह बख़्शिश करो रा धा स्व आ मी प्यारे। अब क्यों देर लगाता हो॥८॥                              *◆◆26-08-22-कल से आगे।◆◆                                           देर देर में होत अकाजा। योंहि दिन बीते जाता हो॥९॥                                                                 यह बिनती मानो मेरे प्यारे। रा धा स्व आ मी पित और माता हो।।१०॥                                                                 प्रेम दात बिन सुनो मेरे प्यारे। यह मन नाच नचाता हो॥११॥                                                                मेरा बस यासे नहिं चाले। भोगन में मदमाता हो॥१२॥                                                                दया करो मेरी मुरत चढ़ाओ। घट में शब्द बजाता हो॥१३॥                                                                जो तुम दया करो मेरे प्यारे। फला अँग न समाता हो॥१४॥                                                                नाम तुम्हार सुनाऊँ सबको। जग में धूम मचाता हो॥१५॥                                                                बल बल जाउँ चरन पर तुम्हरे। छिन छिन तुम्हें रिझाता हो॥१६॥                                                                 खुल खुल खेलूँ मुन में प्यारे। काटूँ करम विधाता हो॥१७॥                                                                खेलूँ बिगसूँ संग तुम्हारे। दया पाय इतराता हो।।१८॥                                                                मगन रहूँ नित घट में अपने। चरनन सँग इठलाता हो॥१६॥                                                                सुन सुन शब्द होय मतवाला। छिन छिन अमी चुआता हो॥२०॥                                                                ऐसी मौज करो अब प्यारे। दम दम बिनय सुनाता हो॥२१॥                                                                होय निचिंत मेरे प्यारे रा धा स्व आ मी। तुम चरनन माहिं समाता हो॥२२॥(प्रेमबानी-4-शब्द-1- भाग-9- पृ.सं.79,80,81)*

सतगुरु चरन पकड़ दृढ़ प्यारे।

 

सतगुरु चरन पकड़ दृढ़ प्यारे।

क्यों जम हाट विकाय॥१॥                                                               

करम धरम में सब जिव अटके।


गुरु सँग हेत न कोई लाय॥२॥                                                               

भागहीन सब पड़े काल बस।

गुरु दयाल की सरन न आय॥३॥                                                             

 जिन पर मेहर करें रा धा स्व आ मी।

 उन हिरदे यह बचन समाय॥४॥                                                              

 गुरु चरनन की क्या कहूँ महिमा।

बिरले प्रेमी ध्यावत ताय॥५॥                                                             

 भाव भक्ति कोइ क्या दिखलावे।

निज कर रहे चरन लिपटाय॥६॥                                                             


  सतगुरु रूप निरख हिये अंतर।

 तन मन की सब सुध बिसराय॥७॥                                                                

 ऐसी सुरत पिरेमी जाकी।

तिन गुरु मेहर मिली अधिकाय।।८।।                                                             

 जोगी ज्ञानी और बैरागी।

 यह सब झूठे ठौर न पाय॥९॥                                             

  बड़ा भाग उन प्रेमी जागा।

जिनको लिया गुरु गोद बिठाय॥१०॥                                                             

   रा धा स्व आ मी चरन धार हिये अंतर।

 यह आरत अनुरागी गाय॥११॥


 (प्रेमबानी-2-शब्द-29- पृ.सं.42,43)


Tuesday, August 23, 2022

नमामि देवी नर्मदे...।

चिरकुंवारी नर्मदा की अधूरी प्रेम-कथा*

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कहते हैं नर्मदा ने अपने प्रेमी शोणभद्र से धोखा खाने के बाद आजीवन कुंवारी रहने का फैसला किया लेकिन क्या सचमुच वह गुस्से की आग में चिरकुवांरी बनी रही या फिर प्रेमी शोणभद्र को दंडित करने का यही बेहतर उपाय लगा कि आत्मनिर्वासन की पीड़ा को पीते हुए स्वयं पर ही आघात किया जाए। नर्मदा की प्रेम-कथा लोकगीतों और लोककथाओं में  मिलती है लेकिन हर कथा का अंत कमोबेश वही कि शोणभद्र के नर्मदा की दासी जुहिला के साथ संबंधों के चलते नर्मदा ने अपना मुंह मोड़ लिया और उलटी दिशा में चल पड़ीं। सत्य और कथ्य का मिलन देखिए कि नर्मदा नदी विपरीत दिशा में ही बहती दिखाई देती है। 


कथा 1👉  नर्मदा और शोण भद्र की शादी होने वाली थी। विवाह मंडप में बैठने से ठीक एन वक्त पर नर्मदा को पता चला कि शोण भद्र की दिलचस्पी उसकी दासी जुहिला(यह आदिवासी नदी मंडला के पास बहती है) में अधिक है। प्रतिष्ठत कुल की नर्मदा यह अपमान सहन ना कर सकी और मंडप छोड़कर उलटी दिशा में चली गई। शोण भद्र को अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह भी नर्मदा के पीछे भागा यह गुहार लगाते हुए' लौट आओ नर्मदा'... लेकिन नर्मदा को नहीं लौटना था सो वह नहीं लौटी। 


अब आप कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि सचमुच नर्मदा भारतीय प्रायद्वीप की दो प्रमुख नदियों गंगा और गोदावरी से विपरीत दिशा में बहती है यानी पूर्व से पश्चिम की ओर। कहते हैं आज भी नर्मदा एक बिंदू विशेष से शोण भद्र से अलग होती दिखाई पड़ती है। कथा की फलश्रुति यह भी है कि नर्मदा को इसीलिए चिरकुंवारी नदी कहा गया है और ग्रहों के किसी विशेष मेल पर स्वयं गंगा नदी भी यहां स्नान करने आती है। इस नदी को गंगा से भी पवित्र माना गया है। 


मत्स्यपुराण में नर्मदा की महिमा इस तरह वर्णित है -‘कनखल क्षेत्र में गंगा पवित्र है और कुरुक्षेत्र में सरस्वती। परन्तु गांव हो चाहे वन, नर्मदा सर्वत्र पवित्र है। यमुना का जल एक सप्ताह में, सरस्वती का तीन दिन में, गंगाजल उसी दिन और नर्मदा का जल उसी क्षण पवित्र कर देता है।’ एक अन्य प्राचीन ग्रन्थ में सप्त सरिताओं का गुणगान इस तरह है।


गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती। 

नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन सन्निधिं कुरु।। 


कथा 2👉  इस कथा में नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है। नद यानी नदी का पुरुष रूप। (ब्रह्मपुत्र भी नदी नहीं 'नद' ही कहा जाता है।) बहरहाल यह कथा बताती है कि राजकुमारी नर्मदा राजा मेखल की पुत्री थी। राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे। राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अत: उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ। 


नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन ना कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहने लगी। विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची। जुहिला को सुझी ठिठोली। उसने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और चल पड़ी राजकुमार से मिलने। सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठा। जुहिला की ‍नियत में भी खोट आ गया। राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी। इधर नर्मदा का सब्र का बांध टूटने लगा। दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो वह स्वयं चल पड़ी सोनभद्र से मिलने। 


वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को साथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं। तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए। सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रहा लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं आई। 


अब इस कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जुहिला (इस नदी को दुषित नदी माना जाता है, पवित्र नदियों में इसे शामिल नहीं किया जाता) का सोनभद्र नद से वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर संगम होता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी और अकेली उल्टी दिशा में बहती दिखाई देती है। रानी और दासी के राजवस्त्र बदलने की कथा इलाहाबाद के पूर्वी भाग में आज भी प्रचलित है। 


कथा 3👉  कई हजारों वर्ष पहले की बात है। नर्मदा जी नदी बनकर जन्मीं। सोनभद्र नद बनकर जन्मा। दोनों के घर पास थे। दोनों अमरकंट की पहाड़ियों में घुटनों के बल चलते। चिढ़ते-चिढ़ाते। हंसते-रुठते। दोनों का बचपन खत्म हुआ। दोनों किशोर हुए। लगाव और बढ़ने लगा। गुफाओं, पहाड़‍ियों में ऋषि-मुनि व संतों ने डेरे डाले। चारों ओर यज्ञ-पूजन होने लगा। पूरे पर्वत में हवन की पवित्र समिधाओं से वातावरण सुगंधित होने लगा। इसी पावन माहौल में दोनों जवान हुए। उन दोनों ने कसमें खाई। जीवन भर एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ने की। एक-दूसरे को धोखा नहीं देने की।


एक दिन अचानक रास्ते में सोनभद्र ने सामने नर्मदा की सखी जुहिला नदी आ धमकी। सोलह श्रृंगार किए हुए, वन का सौन्दर्य लिए वह भी नवयुवती थी। उसने अपनी अदाओं से सोनभद्र को भी मोह लिया। सोनभद्र अपनी बाल सखी नर्मदा को भूल गया। जुहिला को भी अपनी सखी के प्यार पर डोरे डालते लाज ना आई। नर्मदा ने बहुत कोशिश की सोनभद्र को समझाने की। लेकिन सोनभद्र तो जैसे जुहिला के लिए बावरा हो गया था। 


नर्मदा ने किसी ऐसे ही असहनीय क्षण में निर्णय लिया कि ऐसे धोखेबाज के साथ से अच्छा है इसे छोड़कर चल देना। कहते हैं तभी से नर्मदा ने अपनी दिशा बदल ली। सोनभद्र और जुहिला ने नर्मदा को जाते देखा। सोनभद्र को दुख हुआ। बचपन की सखी उसे छोड़कर जा रही थी। उसने पुकारा- 'न...र...म...दा...रूक जाओ, लौट आओ नर्मदा। 


लेकिन नर्मदा जी ने हमेशा कुंवारी रहने का प्रण कर लिया। युवावस्था में ही सन्यासिनी बन गई। रास्ते में घनघोर पहाड़ियां आईं। हरे-भरे जंगल आए। पर वह रास्ता बनाती चली गईं। कल-कल छल-छल का शोर करती बढ़ती गईं। मंडला के आदिमजनों के इलाके में पहुंचीं। कहते हैं आज भी नर्मदा की परिक्रमा में कहीं-कहीं नर्मदा का करूण विलाप सुनाई पड़ता है। 


नर्मदा ने बंगाल सागर की यात्रा छोड़ी और अरब सागर की ओर दौड़ीं। भौगोलिक तथ्य देखिए कि हमारे देश की सभी बड़ी नदियां बंगाल सागर में मिलती हैं लेकिन गुस्से के कारण नर्मदा अरब सागर में समा गई।


नर्मदा की कथा जनमानस में कई रूपों में प्रचलित है लेकिन चिरकुवांरी नर्मदा का सात्विक सौन्दर्य, चारित्रिक तेज और भावनात्मक उफान नर्मदा परिक्रमा के दौरान हर संवेदनशील मन महसूस करता है। कहने को वह नदी रूप में है लेकिन चाहे-अनचाहे भक्त-गण उनका मानवीयकरण कर ही लेते है। पौराणिक कथा और यथार्थ के भौगोलिक सत्य का सुंदर सम्मिलन उनकी इस भावना को बल प्रदान करता है और वे कह उठते हैं।


नमामि देवी नर्मदे...।


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भक्त के अंग सँग प्रभु

प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 


 एक बार सूरदास जी कंही जा रहे थे

चलते चलते मार्ग में एक गढ्ढा आया और सूरदास जी उसमे

गिर

गए और जेसे ही गढ्ढे में गिरे तो किसको पुकारते? अपने

कान्हा को पुकारने लगे भक्त जो ठहरे !एक भक्त अपने

जीवन में

मुसीबत के समय में प्रभु को ही पुकारता है !और पुकारने

लगे

की अरे मेरे प्यारे छोटे से कन्हैया आज तूने मुझे यंहा भेज

दिया और अब क्या तू यंहा नहीं आएगा मुझे

अकेला ही छोड़ देगा,

और जिस समय सुर जी ने प्रभु को याद किया तो आज

प्रभु

भी उसकी पुकार सुने बिना नहीं रह पाए!

सच है जब एक भक्त दिल से पुकारा करता है तो यह टीस

प्रभु के

दिल में भी उठा करती है और आज कान्हा भी उसी समय

एक बाल

गोपाल के रूप में वंहा प्रकट हो गए ! और प्रभु के पांव

की नन्ही नन्ही सी पेंजनिया जब छन छन करती हुई सुर

जी के

पास आई तो सुर जी को समझते देर न लगी!

कान्हा उसके समीप आये और बोले अरे बाबा नीचे

क्या कर रहे

हो, लो मेरा हाथ पकड़ो और जल्दी से उपर चले आओ !जेसे

ही सूरदास जी ने

इतनी प्यारी सी मिश्री सी घुली हुई

वाणी सुनी तो जान गए की मेरा कान्हा आ गया,और

बहुत

प्रस्सन हो रहे है!और कहने लगे की अच्चा बाल गोपाल के

रूप में

आ गए!कन्हाई तुम आ ही गए न!

बाल गोपाल कहने लगे अरे कोन कान्हा ,किसका नाम

लेते जा रहे

हो,जल्दी से हाथ पकड़ो और उपर आ जाओ ,ज्यादा बाते

बनाओ !

सूरदास जी मुस्कुरा पड़े और कहने लगे सच में

कान्हा तेरी बांसुरी के भीतर

भी वो मधुरता नहीं ,मानता हु

की तेरी बांसुरी सारे संसार को नचा दिया करती है

लेकिन

कान्हा तेरे भक्तो की टेढ़ तुझे नचा दिया करती है!

क्यों कान्हा सच है न तभी तो तू दोडा चला आया !

बल गोपाल कहने लगे अरे बहुत

हुआ ,पता नही क्या कान्हा कन्हा किये जा रहा है!मै

तो एक

साधारण से बाल ग्वाल हु मदत लेनी है

तो लो नहीं तो में

तो चला ,फिर पड़े रहना इसी गढ्ढे में!

जेसे ही इतना कहा सूरदास जी ने झट से

कान्हा का हाथ पकड़

लिया ,और कहा कान्हा तेरा ये दिव्य स्पर्श तेरा ये

सनिध्ये ये

सुर अच्छी तरह जनता है!मेरा दिल कह रहा है की तुम

मेरा श्याम

ही है!

जेसे ही आज चोरी पकडे जाने के डर से कान्हा आज भागने

लगे

तो सुर जी ने कह दिया-

बांह छुडाये जात हो निबल जान जो मोहे

ह्रदय से जो जाओगे सबल समझूंगा में तोहे

यंहा से तो भाग जाओगे लेकिन मेरे दिल की केद से

कभी नहीं निलकल पाओगे !

तो ऐसे थे सूरदास जी प्रभु के भक्त !धन्य है ऐसे भक्त

जो प्रभु

को नचा दिए करते है ।

माखन चोर दर्शन

प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 


एक गोपी के घर लाला माखन खा रहे थे. उस समय

गोपी ने लाला को पकड लिए. तब कन्हैया बोले - तेरे

धनी की सौगंध खा कर कहता हु, अब फिर कभी भी तेरे

घर में नहीं आऊंगा. गोपी ने कहा - मेरे धनी की सौगंध

क्यों खाता है ? कन्हैया ने कहा. तेरे बाप की सौगंध ,

बस गोपी और ज्यादा खीझ जाती है और

लाला को धमकाती है परन्तु तू मेरे घर आया ही क्यों?

कन्हैया ने कहा - अरी सखी! तू रोज कथा में जाती है,

फिर भी तू मेरा तेरा छोडती नहीं - इस घर का मै

धनी हु, यह घर मेरा है गोपी को आनंद हुआ कि मेरे घर

को कन्हैया अपना घर मानता है,

कन्हैया तो सबका मालिक है, सभी घर उसी के है.

उसको किसी कि आज्ञा लेने कि जरूरत

नहीं लिए.

गोपी कहती है - तुने माखन क्यों खाया ?

लाला ने कहा - माखन किसने खाया है ? इस माखन में

चींटी चढ़ गई थी तो उसे निकलने को हाथ डाला. इतने

में ही तू टपक पड़ी गोपी कहती है. परन्तु लाला! तेरे

ओंठो के उपर भी तो माखन चिपका हुआ है कन्हैया ने

कहा - चींटी निकालता था , तभी ओंठो के उपर

भी तो मक्खी बैठ गई, उसको उड़ाने लगा तो माखन

ओंठो पर लग गया होगा कन्हैया जैसे बोलते है,

ऐसा बोलना किसी को आता नहीं. कन्हैया जैसे चलते

है, वैसे चलना भी किसी को आता नहीं.

गोपी तो पीछे लाला को घर में खम्भे के साथ डोरी से

बाँध दिया, कन्हैया का श्रीअंग बहुत ही कोमल है

गोपी ने जब डोरी कस कर बाँधी तो लाला कि आँख

में पानी आ गया. गोपी को दया आई , उसने लाला से

पूछा - लाला! तुझे कोई तकलीफ है क्या लाला ने गर्दन

हिला कर कहा - मुझे बहुत दुःख हो रहा है,

डोरी जरा ढीली करो गोपी ने विचार

किया कि लाला को डोरी से कस कर बाधना ठीक

नहीं, मेरे लाला को दुःख होगा. इस लिए गोपी ने

डोरी थोड़ी ढीली राखी और पीछे

सखियो को खबर देने गई के मैंने लाला को बांधा है तुम

लाला को बांधो परन्तु किसी से कहना नहीं, तुम खूब

भक्ति करो, परन्तु उसे प्रकाशित मत करो,

भक्ति प्रकाशित हो जाएगी तो भगवान सटक जायेंगे,

भक्ति का प्रकाश होने से भक्ति बढती नहीं , भक्ति में

आनद आता नहीं. बाल कृष्ण सूक्ष्म शरीर करके डोरी से

बहार निकल गए और गोपी को अंगूठा दिखा कर कहा,

तुझे बांधना ही कहा आता है? गोपी कहती है - तो मुझे

बता , किस तरह से बांधना चाहिए

गोपी को तो लाला के साथ खेल करना था,

लाला गोपी को बांधते है योगीजन मन से श्री कृष्ण

का स्पर्श करते है तो समाधि लग जाती है.

यहाँ तो गोपी को प्रत्यक्ष श्री कृष्ण का स्पर्श हुआ है.

गोपी लाला के दर्शन में तल्लीन हो जाती है.

गोपी को ब्रह्म - सम्बन्ध हो जाता है. लाला ने

गोपी को बाँध दिया. गोपी कहती है के

लाला छोड़! छोड़! लाला कहते है - मुझे

बांधना आता है. छोड़ना तो आता ही नहीं यह जीव

एक एसा है, जिसको छोड़ना आता है, चाहे

जितना प्रगाढ़ सम्बन्ध हो परन्तु स्वार्थ सिद्ध होने पर

उसको भी छोड़ सकता है, परमात्मा एक बार बाँधने के

बाद छोड़ते नही

Monday, August 22, 2022

हो नयन हमारे अटके श्री बिहारी जी के चरण कमल में"

 श्री राधे



प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा



एक बार एक व्यक्ति श्री धाम वृंदावन में दर्शन

करने गया. दर्शन करके लौट रहा था. तभी एक संत

अपनी कुटिया के बाहर बैठे बड़ा अच्छा पद गा रहे

थे कि "हो..नयन हमारे अटके श्री बिहारी जी के

चरण कमल में" बार-बार यही गाये जा रहे थे तभी उस व्यक्ति ने जब इतना मीठा पद सुना तो वह आगे न बढ़

सका, और संत के पास बैठकर ही पद सुनने लगा और

संत के साथ-साथ गाने लगा.

कुछ देर बाद वह इस पद को गाता-गाता अपने घर

गया, और सोचता जा रहा था कि वाह! संत ने

बड़ा प्यारा पद गाया.

जब घर पहुँचा तो पद भूल गया अब याद करने

लगा कि संत क्या गा रहे थे, बहुत देर याद करने पर

भी उसे याद नहीं आ रहा था.

फिर कुछ देर बाद उसने गाया "हो..नयन

बिहारी जी के अटके,हमारे चरण कमल में.."

उलटा गाने लगा. उसे गाना था नयन हमारे अटके

बिहारी जी के चरण कमल में अर्थात

बिहारी जी के चरण कमल इतने प्यारे है कि नजर

उनके चरणों से हटती ही नहीं है. नयन

मानो वही अटक के रह गए है.

पर वो गा रहा था कि बिहारी जी के नयन हमारे

चरणों में अटक गए, अब ये पंक्ति उसे

इतनी अच्छी लगी कि वह बार-बार बस यही गाये

जाता, आँखे बंद है बिहारी के चरण ह्रदय में है और बड़े

भाव से गाये जा रहा है. जब उसने ११ बार ये

पक्ति गाई, तो क्या देखता है सामने साक्षात्

बिहारी जी खड़े है. झट चरणों में गिर पड़ा.

बिहारी जी बोले,"भईया ! एक से बढकर एक भक्त

हुए. पर तुम जैसा भक्त मिलना बड़ा मुश्किल है

लोगो के नयन तो हमारे चरणों के अटक जाते है पर तुमने

तो हमारे ही नयन अपने चरणों में अटका दिए और जब

नयन अटक गए तो फिर दर्शन देने कैसे नहीं आता"

भगवान बड़े प्रसन्न हो गए.

वास्तव में बिहारी जी ने उसके

शब्दों की भाषा सुनी ही नहीं क्योकि बिहारी ही

ही नहीं है वे तो एक ही भाषा जानते है वह है भाव

की भाषा,भले ही उस भक्त ने उलटा गाया पर

बिहारी जी ने उसके भाव देखे कि वास्तव में ये

गाना तो सही चाहता है शब्द उलटे हो गए

तो क्या भाव

तो कितना उच्च है.सही अर्थो में भगवान तो भक्त के

ह्रदय का भाव ही देखते है.

।। बोलिए बाँके बिहारी लाल जी की जय हो ।।

देव सूर्यमंदिर की ऐतिहासिकता आज भी प्रासंगिक और चर्चित : सुरेश चौरसिया

 देव सूर्यमंदिर की ऐतिहासिकता आज भी प्रासंगिक और चर्चित :  सुरेश चौरसिया  


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देव सूर्यमंदिर को लेकर अनेक गाथाएं प्रचलित है। विशालकाय देव सूर्यमंदिर त्रेतायुग से लेकर वर्तमान समय में भी अपनी आकर्षणता व कला के लिए दुनिया में विख्यात है, तो भक्तों के लिए मनोवांछित वरदान देनेवाला है। भगवान सूर्य इस मंदिर में अपने तीनों स्वरूपों ब्रह्मा, विष्णु व महेश के रूप में विराजमान हैं। 

सूर्य मंदिर के पत्थरों में विजय चिन्ह व कलश अंकित हैं। ये विजय चिन्ह इस बात का प्रमाण माना जाता है कि शिल्प के कलाकार ने सूर्य मंदिर का निर्माण कर के ही शिल्प कला पर विजय प्राप्त की थी। देव सूर्य मंदिर के स्थापत्य से प्रतीत होता है कि मंदिर के निर्माण में उड़िया स्वरूप नागर शैली का समायोजन किया गया है। नक्काशीदार पत्थरों को देखकर भारतीय पुरातत्व विभाग के लोग मंदिर के निर्माण में नागर एवं द्रविड़ शैली का मिश्रित प्रभाव वाली वेसर शैली का भी समन्वय बताते हैं। मंदिर के प्रांगण में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल, मध्याचल तथा अस्ताचल के रूप में विद्यमान हैं। इसके साथ ही वहां अदभुद शिल्प कला वाली दर्जनों प्रतिमाएं हैं। मंदिर में शिव के जांघ पर बैठी पार्वती की प्रतिमा है। सभी मंदिरों में शिवलिंग की पूजा की जाती है। इसलिए शिव पार्वती की यह दुर्लभ प्रतिमा श्रद्धालुओं को खासी आकर्षित करती है।

मंदिर के शिखर पर स्थापित स्वर्ण कलश की चमक आज भी फीकी नहीं पड़ी है। कहा जाता है कि कभी दो चोर स्वर्ण कलश को चुराने के लिए  मंदिर पर चढ़ रहे थे, की मंदिर के आधे हिस्से पर पहुँचते ही पत्थर बन गए। जिसे लोग अंगुलियों से दिखाकर अपने परिजनों को बताते हैं। 

देव में सूर्यकुंड से सूर्यमंदिर तक कितने ही भक्त  लेट - लेट कर  दंडवत करते लोग श्रद्धा से पहुंचते हैं और उनकी जयघोष वातावरण में गूंज उठता है।


 सुरेश चौरसिया

पत्रकार 

ग्राम - तेजू विगहा, केताकी, देव

देव औरंगाबाद  बिहार - 824202


मन तू सुन ले चित दे आज।

 *रा धा स्व आ मी!            


                       

23-08-22-आज सुबह सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा शब्द पाठ:-                                                              

  मन तू सुन ले चित दे आज।

 रा धा स्व आ मी नाम की आवाज़।।टेक॥                                                               

 अनहद बाजे घट घट बाजें।

अनुरागी सुन सुन आराधें।

प्रेम भक्ति का लेकर साज॥१॥                                                               

 तीन लोक में अनहद राजें।

 सत्तलोक सत शब्द बिराजे।

तिस परे रा धा स्व आ मी नाम की गाज।।२॥                                                                

शब्द की महिमा संतन गाई।

जिन मानी धुन तिन्हें सुनाई।

 कर दिया उनका पूरा काज॥३।।                                                               

रा धा स्व आ मी नाम हिये में धारा।

 सोई जन हुआ सबसे न्यारा।

 त्याग दई कुल जग की लाज।।४।।                                                                

रा धा स्व आ मी नाम प्रीति जिन धारी।

रा धा स्व आ मी तिसको लिया सुधारी।

दान दिया वाहि भक्ती दाज॥५।।                                                                

रा धा स्व आ मी नाम है अपर अपारा।

रा धा स्व आ मी नाम है सार का सारा।

जो सुने सोइ करे घट में राज॥६।।


(प्रेमबानी-4- शब्द-9- पृ.सं.76,77)*

Saturday, August 20, 2022

सत्, रज और तम

 

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तमोगुणी मनुष्य सबसे अधिक बंधन में रहता है। उसमें महत्त्वाकांक्षा नहीं होती और जो भी थोड़ा-सा उसे मिल जाए उससे वह संतुष्ट रहता है। उसमें आत्म-नियंत्रण नहीं होता इसलिए वह सदा परिस्थितियों के अधीन होकर जीता है। स्वतंत्र चिंतन न कर पाने के कारण वह सदा मानसिक बंधन में भी रहता है। हमारे बीच अनेक मान्यताएँ केवल इसलिए चली आ रही हैं कि किसी ने उनके बारे में प्रश्न उठाने का सोचा ही नहीं। अधिकतर धार्मिक मान्यताएँ केवल इसलिए सैकड़ों - हज़ारों वर्षों तक चलती रहती हैं कि धर्मों के अनुयायी अपनी तामसिक मनोवृत्तिा के कारण उनके बारे में सोचना ही नहीं चाहते। शारीरिक आलस्य के समान मानसिक आलस्य भी मनुष्य को दास बनाता है।  


प्रकृति के ये तीन गुण निरन्तर परिवर्तनशील रहते हैं। आज तमोगुण के प्रभाव के कारण आलसी रहनेवाला मनुष्य कल रजोगुण के प्रबल हो जाने पर चंचल प्रकृति का हो सकता है। दूसरी ओर बहुत लालची और क्रूर स्वभाव का व्यक्ति सत्त्वगुण के प्रभाव में आकर सर्वथा शान्त और अहिंसक जीवन बिताने लग सकता है। अपने ही अन्दर हम देखते हैं कि प्रयास करने पर भी हमारा चित्ता कभी एक जैसी अवस्था में नहीं रहता। कभी हमारे अन्दर आलस्य प्रबल होता है तो कभी हमारा मन बहुत चंचल हो उठता है।

 साथ ही, कभी - कभी अप्रत्याशित रूप से गहरी शांति की अनुभूति भी हमें होती है। यह सब प्रकृति के गुणों में परिवर्तन के कारण होता है।

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Friday, August 19, 2022

नल दमयंती कथा

 🌹🕉️ राजा नल और सती दमयंती की कथा 🕉️🌹

प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा


विदर्भ देश में भीष्मक नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी पुत्री का नाम दमयन्ती था। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवती थी। उन्हीं दिनों निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल राज्य करते थे। वे बड़े ही गुणवान्, सत्यवादी तथा ब्राह्मण भक्त थे। निषध देश से जो लोग विदर्भ देश में आते थे, वे महाराज नल के गुणों की प्रशंसा करते थे। यह प्रशंसा दमयन्ती के कानों तक भी पहुँची थी। इसी तरह विदर्भ देश से आने वाले लोग राजकुमारी के रूप और गुणों की चर्चा महाराज नल के समक्षकरते। इसका परिणाम यह हुआ कि नल और दमयन्ती एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते गये।

दमयन्ती का स्वयंवर हुआ।  जिसमें न केवल धरती के राजा, बल्कि देवता भी आ गए। नल भी स्वयंवर में जा रहा था। देवताओं ने उसे रोककर कहा कि वो स्वयंवर में न जाए। उन्हें यह बात पहले से पता थी कि दमयंती नल को ही चुनेगी। सभी देवताओं ने भी नल का रूप धर लिया। स्वयंवर में एक साथ कई नल खड़े थे। सभी परेशान थे कि असली नल कौन होगा। लेकिन दमयंती जरा भी विचलित नहीं हुई, उसने आंखों से ही असली नल को पहचान लिया। सारे देवताओं ने भी उनका अभिवादन किया। इस तरह आंखों में झलकते भावों से ही दमयंती ने असली नल को पहचानकर अपना जीवनसाथी चुन लिया। नव-दम्पत्ति को देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त हु्आ। दमयन्ती निषध-नरेश राजा नल की महारानी बनी। दोनों बड़े सुख से समय बिताने लगे। 

दमयन्ती पतिव्रताओं में शिरोमणि थी। अभिमान तो उसे कभी छू भी नही सकता था। समयानुसार दमयन्ती के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। दोनों बच्चे माता-पिता के अनुरूप ही सुन्दर रूप और गुणसे सम्पन्न थे समय सदा एक-सा नहीं रहता, दुःख-सुख का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। वैसे तो महाराज नल गुणवान्, धर्मात्मा तथा पुण्यस्लोक थे, किन्तु उनमें एक दोष था।—जुए का व्यसन। नल के एक भाई का नाम पुष्कर था। वह नल से अलग रहता था। उसने उन्हें जुए के लिए आमन्त्रित किया। खेल आरम्भ हुआ। भाग्य प्रतिकूल था। नल हारने लगे, सोना, चाँदी, रथ, राजपाट सब हाथ से निकल गया। महारानी दमयन्ती ने प्रतिकूल समय जानकर अपने दोनों बच्चों को विदर्भ देशकी राजधानी कुण्डिनपुर भेज दिया।


इधर नल जुए में अपना सर्वस्व हार गये।। उन्होंने अपने शरीर के सारे वस्त्राभूषण उतार दिये। केवल एक वस्त्र पहनकर नगर से बाहर निकले। दमयन्ती ने भी मात्र एक साड़ी में पति का अनुसरण किया। एक दिन राजा नल ने सोने के पंख वाले कुछ पक्षी देखे। राजा नल ने सोचा, यदि इन्हें पकड़ लिया जाय तो इनको बेचकर निर्वाह करने के लिए कुछ धन कमाया जा सकता है। ऐसा विचारकर उन्होंने अपने पहनने का वस्त्र खोलकर पक्षियों पर फेंका। पक्षी वह वस्त्र लेकर उड़ गये। अब राजा नल के पास तन ढकने के लिए भी कोई वस्त्र न रह गया। नल अपनी अपेक्षा दमयन्ती के दुःख से अधिक व्याकुल थे। एक दिन दोनों जंगल में एक वृक्ष के नीचे एक ही वस्त्र से तन छिपाये पड़े थे। दमयन्ती को थकावट के कारण नींद आ गयी। राजा नल ने सोचा, दमयन्ती को मेरे कारण बड़ा दुःख सहन करना पड़ रहा है। यदि मैं इसे इसी अवस्था में यहीं छोड़कर चल दूँ तो यह किसी तरह अपने पिताके पास पहुँच जायगी।


यह विचारकर उन्होंने तलवार से उसकी आधी साड़ी को काट लिया और उसी से अपना तन ढककर तथा दमयन्ती को उसी अवस्था में छोड़ कर वे चल दिये। जब दमयन्ती की नींद टूटी तो बेचारी अपने को अकेला पाकर करुण विलाप करने लगी। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह अचानक अजगर के पास चली गयी और अजगर उसे निगलने लगा। दमयन्ती की चीख सुनकर एक व्याध ने उसे अजगर का ग्रास होने से बचाया। किंतु व्याध स्वभाव से दुष्ट था। उसने दमयन्ती के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसे अपनी काम-पिपासा का शिकार बनाना चाहा। दमयन्ती उसे शाप देते हुए बोली—‘यदि मैंने अपने पति राजा नल को छोड़कर किसी अन्य पुरुष का चिन्तन किया हो तो इस पापी व्याध के जीवन का अभी अन्त हो जाय।’ दमयन्ती की बात पूरी होते ही व्याध के प्राण-पखेरू उड़ गये। व्याध के मर जाने के बाद दमयंती एक निर्जन और भयंकर वन में जा पहुंची। राजा नल का पता पूछती हुई वह उत्तर की ओर बढऩे लगी। तीन दिन रात दिन रात बीत जाने के बाद दमयंती ने देखा कि सामने ही एक बहुत सुन्दर तपोवन है। जहां बहुत से ऋषि निवास करते हैं। उसने आश्रम में जाकर बड़ी नम्रता के साथ प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने दमयन्ती का सत्कार किया और उसे बैठने को कहा- दमयन्ती ने एक भद्र स्त्री के समान सभी के हालचाल पूछे।


फिर ऋषियों ने पूछा आप कौन है तब दमयंती ने अपना पूरा परिचय दिया और अपनी सारी कहानी ऋषियों को सुनाई। तब सारे तपस्वी उसे आर्शीवाद देते हैं कि थोड़े ही समय में निषध के राजा को उनका राज्य वापस मिल जाएगा। उसके शत्रु भयभीत होंगे व मित्र प्रसन्न होंगे और कुटुंबी आनंदित होंगे। इतना कहकर सभी ऋषि अंर्तध्यान हो गए।

चलते चलते शाम के समय वह राजा सुबाहु के यहां जा पहुंची। वहां उसे सब बावली समझ रहे थे। उसे बच्चे परेशान कर रहे थे।

उस समय राज माता महल के बाहर खिड़की से देख रही थी उन्होंने अपनी दासी से कहा देखो तो वह स्त्री बहुत दुखी मालुम होती है। तुम जाओ और मेरे पास ले आओ। दासी दमयंती को रानी के पास ले गई। रानी ने दमयंती से पूछा तुम्हे डर नहीं लगता ऐसे घुमते हुए। तब दमयंती ने बोला jjमें एक पतिव्रता स्त्री हूं। मैं हूं तो कुलीन पर दासी का काम करती हूं। तब रानी ने बोला ठीक है तुम महल में ही रह जाओ। तब दमयंती कहती है कि मैं यहां रह तो जाऊंगी पर मेरी तीन शर्त है मैं झूठा नहीं खाऊंगी, पैर नहीं धोऊंगी और परपुरुष से बात नहीं करुंगी। रानी ने कहा ठीक है हमें आपकी शर्ते मंजुर है।


जिस समय राजा नल दमयन्ती को सोती छोड़कर आगे बढ़े, उस समय वन में आग लग रही थी। तभी नल को आवाज आई। राजा नल शीघ्र दौड़ो। मुझे बचाओ। नागराज कुंडली बांधकर पड़ा हुआ था। उसने नल से कहा- राजन मैं कर्कोटक नाम का सर्प हूं। मैंने नारद मुनि को धोखा दिया था। उन्होंने शाप दिया कि जब तक राजा नल तुम्हे न उठावे, तब तक यहीं पड़े रहना। उनके उठाने पर तू शाप से छूट जाएगा। उनके शाप के कारण मैं यहां से एक भी कदम आगे नहीं बढ़ सकता। तुम इस शाप से मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हे हित की बात बताऊंगा और तुम्हारा मित्र बन जाऊंगा। मेरे भार से डरो मत मैं अभी हल्का हो जाता हूं वह अंगूठे के बराबर हो गया। नल उसे उठाकर दावानल से बाहर ले आए। कार्कोटक ने कहा तुम अभी मुझे जमीन पर मत डालो। कुछ कदम गिनकर चलो। राजा नल ने ज्यो ही पृथ्वी पर दसवां कदम चला और उन्होंने कहा दश तो ही कर्कोटक ने उन्हें डस लिया। उसका नियम था कि जब कोई बोले दश तभी वह डंसता था।

आश्चर्य चकित नल से उसने कहा महाराज तुम्हे कोई पहचान ना सके इसलिए मैंने डस के तुम्हारा रूप बदल दिया है। कलियुग ने तुम्हे बहुत दुख दिया है। अब मेरे विष से वह तुम्हारे शरीर में बहुत दुखी रहेगा। तुमने मेरी रक्षा की है। अब तुम्हे हिंसक पशु-पक्षी शत्रु का कोई भय नहीं रहेगा। अब तुम पर किसी भी विष का प्रभाव नहीं होगा और युद्ध में हमेशा तुम्हारी जीत होगी। यह कहकर कर्कोटक ने दो दिव्य वस्त्र दिए और वह अंर्तध्यान हो गया। राजा नल वहां से चलकर दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण की राजधानी अयोध्या में पहुंच गया। उन्होंने वहां राजदरबार में निवेदन किया कि मेरा नाम बाहुक है। मैं घोड़ों को हांकने और उन्हें तरह-तरह की चालें सिखाने का काम करता हूं। घोड़ो की विद्या मेरे जैसा निपुण इस समय पृथ्वी पर कोई नहीं है। रसोई बनाने में भी में बहुत चतुर हूं, हस्तकौशल के सभी काम और दूसरे कठिन काम करने की चेष्ठा करूंगा। आप मेरी आजीविका निश्चित करके मुझे रख लीजिए। उसकी सारी बात सुनकर राजा ऋतुपर्ण ने कहा बाहुक मैं सारा काम तुम्हें सौंपता हूं। लेकिन मैं शीघ्रगामी सवारी को विशेष पसंद करता हूं। तुम्हे हर महीने सोने की दस हजार मुहरें मिला करेंगी। लेकिन तुम कुछ ऐसा करो कि मेरे घोड़ों कि चाल तेज हो जाए। इसके अलावा तुम्हारे साथ वाष्र्णेय और जीवल हमेशा उपस्थित रहेंगें।

राजा नल रोज दमयन्ती को याद करते और दुखी होते कि दमयन्ती भूख-प्यास से परेशान ना जाने किस स्थिति में होगी। इसी तरह राजा नल ने दमयंती के बारे में सोचते हुए कई दिन बिता दिए। ऋतुपर्ण के पास रहते हुए उन्हें कोई ना पहचान सका। जब राजा विदर्भ को यह समाचार मिला कि मेरे दामाद नल और पुत्री राज पाठ विहिन होकर वन में चले गए हैं।

तब उन्होंने सुदेव नाम के एक ब्राह्मण को नल-दमयंती का पता लगाने के लिए चेदिनरेश के राज्य में भेजा। उसने एक दिन राज महल में दमयंती को देख लिया। उस समय राजा के महल में पुण्याहवाचन हो रहा था। दमयंती- सुनन्दा एक साथ बैठकर ही वह कार्यक्रम देख रही थी। सुदेव ब्राह्मण ने दमयंती को देखकर सोचा कि वास्तव में यही भीमक नन्दिनी है। मैंने इसका जैसा रूप पहले देखा था। वैसा अब भी देख रहा हूं। बड़ा अच्छा हुआ, इसे देख लेने से मेरी पुरी यात्रा सफल हो गई। सुदेव दमयंती के पास गया और उससे बोला दमयंती मैं तुम्हारे भाई का मित्र सुदेव हूं। मैं तुम्हारी भाई की आज्ञा से तुम्हे ढ़ूढने यहां आया हूं। दमयंती ने ब्राह्मण को पहचान लिया। वह सबका कुशल-मंगल पूछने लगी और पूछते ही पूछते रो पड़ी।

सुनन्दा दमयंती को रोता देख घबरा गई। उसने अपनी माता के पास जाकर उन्हें सारी बात बताई। राज माता तुरंत अपने महल से बाहर निकल कर आयी। ब्राह्मण के पास जाकर पूछने लगी महाराज ये किसकी पत्नी है? किसकी पुत्री है? अपने घर वालों से कैसे बिछुड़ गए? तब सुदेव ने उनका पूरा परिचय उसे दिया। सुनन्दा ने अपने हाथों से दमयंती का ललाट धो दिया। जिससे उसकी भौहों के बीच का लाल चिन्ह चन्द्रमा के समान प्रकट हो गया। उसके ललाट का वह तिल देखकर सुनन्दा व राजमाता दोनों ही रो पड़े। राजमाता ने कहा मैंने इस तिल को देखकर पहचान लिया कि तुम मेरी बहन की पुत्री हो। उसके बाद दमयंती अपने पिता के घर चली गई।

अपने पिता के घर एक दिन विश्राम करके दमयंती अपनी माता से कहा कि मां मैं आपसे सच कहती हूं। यदि आप मुझे जीवित रखना चाहती हैं तो आप मेरे पतिदेव को ढूंढवा दीजिए। रानी ने उनकी बात सुनकर नल को ढूंढवाने के लिए ब्राह्मणों को नियुक्त किया। ब्राह्मणों से दमयंती ने कहा आप लोग जहां भी जाए वहां भीड़ में जाकर यह कहे कि मेरे प्यारे छलिया, तुम मेरी साड़ी में से आधी फाड़कर अपनी दासी को उसी अवस्था में आधी साड़ी में आपका इंतजार कर रही है। मेरी दशा का वर्णन कर दीजिएगा और ऐसी बात कहिएगा।


जिससे वे प्रसन्न हो और मुझ पर कृपा करे। बहुत दिनों के बाद एक ब्राह्मण वापस आया। उसने दमयंती से कहा मैंने राजा ऋतुपर्ण के पास जाकर भरी सभा में आपकी बात दोहराई तो किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया। जब मैं चलने लगा तब बाहुक नाम के सारथि ने मुझे एकान्त में बुलाया उसके हाथ छोटे व शरीर कुरूप है। वह लम्बी सांस लेकर रोता हुआ मुझसे कहने लगा।


उच्च कुल की स्त्रियों के पति उन्हें छोड़ भी देते हैं तो भी वे अपने शील की रक्षा करती हैं। त्याग करने वाला पुरुष विपत्ति के कारण दुखी और अचेत हो रहा था। इसीलिए उस पर क्रोध करना उचित नहीं है। लेकिन वह उस समय बहुत परेशान था।जब वह अपनी प्राणरक्षा के लिए जीविका चाह रहा था। तब पक्षी उसके वस्त्र लेकर उड़ गए। जब ब्राह्मण ने यह बात बताई तो दमयंती समझ गई कि वे राजा नल ही हैं।

ब्राह्मण की बात सुनकर दमयंती की आंखों में आंसु भर आए। उसने अपनी माता को सारी बात बताई। तब उन्होंने कहा आप यह बात अब अपने पिताजी से ना कहे। मैं सुदैव ब्राह्मण को इस काम के लिए नियुक्त करती हूं। तब दमयंती ने सुदेव से कहा- ब्राह्मण देवता आप जल्दी से जल्दी अयोध्या नगरी पहुंचे। राजा ऋतुपर्ण से यह बात कहिए कि दमयंती ने फिर से स्वेच्छानुसार पति का चुनाव करना चाहती है।


बड़े-बड़े राजा और राजकुमार जा रहे हैं। स्वयंवर की तिथि कल ही है। इसलिए यदि आप पहुंच सकें तो वहां जाइए। नल के जीने अथवा मरने का किसी को पता नहीं है, इसलिए वह इसीलिए कल वे सूर्योदय पूर्व ही पति वरण करेंगी। दमयंती की बात सुनकर सुदेव अयोध्या गए और उन्होंने राजा ऋतुपर्ण से सब बातें कह दी। सुदेव की बातें सुनाकर बाहुक को बुलाया और कहा बाहुक कल दमयंती का स्वयंवर है और हमें जल्दी से जल्दी वहां पहुंचना है। 

ऋतुपर्ण की बात सुनकर नल का कलेजा फटने लगा। सोचा कि दमयंती ने दुखी और अचेत होकर ही ऐसा किया होगा। संभव है वह ऐसा करना चाहती हो। नल ने शीघ्रगामी रथ में चार श्रेष्ठ घोड़े जोत लिए। राजा ऋतुपर्ण रथ पर सवार हो गए। रास्ते में ऋतुपर्ण ने उसे पासें पर वशीकरण की विद्या सिखाई क्योंकि उसे घोड़ों की विद्या सीखने का लालच था। जिस समय राजा नल ने यह विद्या सीखी उसी समय कलियुग राजा नल के शरीर से बाहर आ गया।

राजा ने अपने रथ को जोर से हांका और शाम होते-होते वे विदर्भ देश में पहुंचे। राजा भीमक के पास समाचार भेजा गया। उन्होंने ऋतुपर्ण को अपने यहां बुला लिया ऋतुपर्ण के रथ की गुंज से दिशाएं गुंज उठी। दमयंती रथ की घरघराहट से समझ गई कि जरूर इसको हांकने वाले मेरे पति देव हैं। यदि आज वे मेरे पास नहीं आएंगे तो मैं आग में कुद जाऊंगी।


उसके बाद अयोध्या नरेश ऋतुपर्ण जब राजा भीमक के दरबार में पहुंचे तो उनका बहुत आदर सत्कार हुआ। भीमक को इस बात का बिल्कुल पता नहीं था कि वे स्वयंवर का निमंत्रण पाकर यहां आए हैं। जब ऋतुपर्ण ने स्वयंवर की कोई तैयारी नहीं देखी तो उन्होंने स्वयंवर की बात दबा दी और कहा मैं तो सिर्फ आपको प्रणाम करने चला आया। भीमक सोचने लगे कि सौ-योजन से अधिक दूर कोई प्रणाम कहने तो नहीं आ सकता। लेकिन वे यह सोच छोड़कर राजा रितुपर्ण के सत्कार में लग गए। बाहुक वाष्र्णेय के साथ अश्वशाला में ठहरकर घोड़ो की सेवा में लग गया।

दमयंती आकुल हो गई कि रथ कि ध्वनि तो सुनाई दे रही है पर कहीं भी मेरे पति के दर्शन नहीं हो रहे। हो ना हो वाष्र्णेय ने उनसे रथ विद्या सीख ली होगी। तब उसने अपनी दासी से कहा हे दासी तु जा और इस बात का पता लगा कि यह कुरूप पुरुष कौन है? संभव है कि यही हमारे पतिदेव हों। मैंने ब्राह्मणों द्वारा जो संदेश भेजा था। वही उसे बतलाना और उसका उत्तर मुझसे कहना। तब दासी ने बाहुक से जाकर पूछा राजा नल कहा है क्या तुम उन्हें जानते हो या तुम्हारा सारथि वाष्र्णेय जानता है? बाहुक ने कहा मुझे उसके संबंध में कुछ भी मालुम नहीं है सिर्फ इतना ही पता है कि इस समय नल का रूप बदल गया है। वे छिपकर रहते हैं। उन्हें या तो दमयंती या स्वयं वे ही पहचान सकते हैं या उनकी पत्नी दमयंती क्योंकि वे अपने गुप्त चिन्हों को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करना चाहते हैं।

दासी की बात सुनकर दमयंती की संका

दृढ़ होने लगी कि यही राजा नल है। उसने दासी से कहा तुम फिर बाहुक के पास जाओ और उसके पास बिना कुछ बोले खड़ी रहो। उसकी चेष्टाओं पर ध्यान दो। अब आग मांगे तो मत देना जल मांगे तो देर कर देना। उसका एक-एक चरित्र मुझे आकर बताओ। फिर वह मनुष्यों और देवताओं से उसमें बहुत से चरित्र देखकर वह दमयंती के पास आई और बोली बाहुक ने हर तरह से अग्रि, जल व थल पर विजय प्राप्त कर ली है। मैंने आज तक ऐसा पुरुष नहीं देखा। तब दमयंती को विश्वास हो जाता है कि वह बाहुक ही राजा नल है।

अब दमयंती ने सारी बात अपनी माता को बताकर कहा कि अब मैं स्वयं उस बाहुक की परीक्षा लेना चाहती हूं। इसलिए आप बाहुक को मेरे महल में आने की आज्ञा दीजिए। आपकी इच्छा हो तो पिताजी को बता दीजिए। रानी ने अपने पति भीमक से अनुमति ली और बाहुक को रानीवास बुलवाने की आज्ञा दी। दमयंती ने बाहुक के सामने फिर सारी बात दोहराई। तब दमयंती के आखों से आंसू टपकते देखकर नल से रहा नहीं गया। नल ने कहा मैंने तुम्हे जानबुझकर नहीं छोड़ा। नहीं जूआ खेला यह सब कलियुग की करतूत है। दमयंती ने कहा कि मैं आपके चरणों को स्पर्श करके कहती हूं कि मैंने कभी मन से पर पुरुष का चिंतन नहीं किया हो तो मेरे प्राणों का नाश हो जाए।

ऐसा अद्भुत दृश्य देखकर राजा नल ने अपना संदेह छोड़ दिया और कार्कोटक नाग के दिए वस्त्र को अपने ऊपर ओढ़कर उसका स्मरण करके वे फिर असली रूप में आ गए। दोनों ने सबका आर्शीवाद लिया दमयंती के मायके से उन्हें खुब धन देकर विदा किया गया। उसके बाद नल व दमयंती अपने राज्य में पहुंचे। राजा नल ने पुष्कर से फिर जूआं खेलने को कहा तो वह खुशी-खुशी तैयार हो गया और नल ने जूए की हर बाजी को जीत लिया। इस तरह नल व दमयंती को फिर से अपना राज्य व धन प्राप्त हो गया।

महर्षि वाल्मीकि


🕉️ महर्षि वाल्मीकि 🕉️🌹




प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा


पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि वाल्मीकि का मूल नाम रत्नाकर था। उनके पिता ब्रह्माजी के मानस पुत्र प्रचेता थे। बचपन में एक भीलनी ने रत्नाकर का अपहरण कर लिया और इनका लालन-पालन भील परिवार के साथ ही हुआ। भील अपनी गुजर-बसर के लिए जंगल के रास्ते से गुजरने वाले लोगों को लूटा करते थे। रत्नाकर भी भील परिवार के साथ डकैती और लूटपाट का काम करने लगे। और यही इनकी आजीविका का साधन हो गया। इन्हें जो भी मार्ग में मिलता वह उनकी संपत्ति लूट लिया करते थे। एक दिन इनकी मुलाकात देवर्षि नारद से हुई। इन्होंने नारदजी से कहा कि तुम्हारे पास जो कुछ है उसे निकाल कर रख दो नहीं तो तुम्हें जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।


देवर्षि नारद ने कहा, ''मेरे पास इस वीणा और वस्त्र के अलावा कुछ और नहीं है? तुम लेना चाहो तो इसे ले सकते हो, लेकिन तुम यह क्रूर कर्म करके भयंकर पाप क्यों करते हो?' देवर्षि की कोमल वाणि सुनकर वाल्मीकि का कठोर हृदय कुछ द्रवित हुआ। इन्होंने कहा, 'भगवन मेरी आजीविका का यही साधन है और इससे ही मैं अपने परिवार का भरण पोषण करता हूं।' देवर्षि बोले, तुम अपने परिवार वालों से जाकर पूछो कि वह तुम्हारे द्वारा केवल भरण पोषण के अधिकारी हैं या फिर तुम्हारे पाप कर्मों में भी हिस्सा बंटाएंगे। तुम विश्वास करो कि तुम्हारे लौटने तक हम यहां से कहीं नहीं जाएंगे। वाल्मीकि ने जब घर आकर परिजनों से उक्त प्रश्न पूछा तो सभी ने कहा कि यह तुम्हारा कर्तव्य है कि हमारा भरण पोषण करो परन्तु हम तुम्हारे पाप कर्मों में क्यों भागीदार बनें।

परिजनों की बात सुनकर वाल्मीकि को आघात लगा। उनके ज्ञान नेत्र खुल गये। वह जंगल पहुंचे और वहां जाकर देवर्षि नारद को बंधनों से मुक्त किया तथा विलाप करते हुए उनके चरणों में गिर पड़े और अपने पापों का प्रायश्चित करने का उपाय पूछा। नारदजी ने उन्हें धैर्य बंधाते हुए राम नाम के जप की सलाह दी। लेकिन चूंकि वाल्मीकि ने भयंकर अपराध किये थे इसलिए वह राम राम का उच्चारण करने में असमर्थ रहे तब नारदजी ने उन्हें मरा मरा उच्चारण करने को कहा। बार बार मरा मरा कहने से राम राम का उच्चारण स्वतः ही हो जाता है।

नारदजी का आदेश पाकर वाल्मीकि नाम जप में लीन हो गये। हजारों वर्षों तक नाम जप की प्रबल निष्ठा ने उनके संपूर्ण पापों को धो दिया। उनके शरीर पर दीमकों ने बांबी बना दी। दीमकों के घर को वल्मीक कहते हैं। उसमें रहने के कारण ही इनका नाम वाल्मीकि पड़ा। 


महर्षि वाल्मीकि एक बार एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे जो कि प्रेम करने में लीन था। उन पक्षियों को देखकर महर्षि काफी प्रसन्न हो रहे थे। और मन ही मन सृष्टि की इस अनुपम कृति की प्रशंसा भी कर रहे थे। लेकिन तभी एक शिकारी का तीर उस पक्षी जोड़े में से एक पक्षी को आ लगा, जिससे उसकी मौत हो गयी। यह देख के महर्षि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने शिकारी को संस्कृत में ये श्लोक कहा।


“मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥” 


मुनि द्वारा बोला गया यह श्लोक ही संस्कृत भाषा का पहला श्लोक माना जाता है। जिसका अर्थ था कि जिस दुष्ट शिकारी ने प्रेम में लिप्त पक्षी का वध किया है उसे कभी चैन नहीं मिलेगा।


लेकिन ये श्लोक बोलने के बाद वाल्मीकि सोचने लगे कि आखिर ये उनके मुंह से कैसे और क्या निकल गया। उनको सोच में देखकर नारद मुनि उनके सामने प्रकट हुए और कहा कि यही आपका पहला संस्कृत श्लोक है। अब इसके बाद आप रामायण की रचना करेंगे। उस संस्कृत श्लोक के बाद महर्षि वाल्मीकि ने ही संस्कृत में रामायण की रचना की और उनके द्वारा रची गयी रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई।

वनवास के समय भगवान श्रीराम ने इन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया। सीताजी ने अपने वनवास का अंतिम समय इनके आश्रम में बिताया। वहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ। वाल्मीकि जी ने उन्हें रामायण का गान सिखाया। इस प्रकार नाम जप और सत्संग के प्रभाव से वाल्मीकि डाकू से ब्रह्मर्षि बन गये।

कर्मो का हिसाब किताब


🕉️ कर्मो का हिसाब 🕉️



प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा  सिन्हा 


एक भिखारी रोज एक दरवाजें पर जाता और भिख के लिए आवाज लगाता, और जब घर मालिक बाहर आता तो उसे गंदीगंदी गालिया और ताने देता, मर जाओ, काम क्यूं नही करतें, जीवन भर भीख मांगतें रहोगे, कभीकभी गुस्सें में उसे धकेल भी देता, पर भिखारी बस इतना ही कहता, ईश्वर तुम्हारें पापों को क्षमा करें,


एक दिन सेठ बड़े गुस्सें में था, शायद व्यापार में घाटा हुआ था, वो भिखारी उसी वक्त भीख मांगने आ गया, सेठ ने आओ देखा ना ताओ, सीधा उसे पत्थर से दे मारा, भिखारी के सर से खून बहने लगा, फिर भी उसने सेठ से कहा ईश्वर तुम्हारें पापों को क्षमा करें, और वहां से जाने लगा, सेठ का थोड़ा गुस्सा कम हुआ, तो वहां सोचने लगा मैंने उसे पत्थर से भी मारा पर उसने बस दुआ दी, इसके पीछे क्या रहस्य है जानना पड़ेगा, और वहां भिखारी के पीछे चलने लगा,


भिखारी जहाँ भी जाता सेठ उसके पीछे जाता, कही कोई उस भिखारी को कोई भीख दे देता तो कोई उसे मारता, जालिल करता गालियाँ देता, पर भिखारी इतना ही कहता, ईश्वर तुम्हारे पापों को क्षमा करें, अब अंधेरा हो चला था, भिखारी अपने घर लौट रहा था, सेठ भी उसके पीछे था, भिखारी जैसे ही अपने घर लौटा, एक टूटी फूटी खाट पे, एक बुढिया सोई थी, जो भिखारी की पत्नी थी, जैसे ही उसने अपने पति को देखा उठ खड़ी हुई और भीख का कटोरा देखने लगी, उस भीख के कटोरे मे मात्र एक आधी बासी रोटी थी, उसे देखते ही बुढिया बोली बस इतना ही और कुछ नही, और ये आपका सर कहा फूट गया?


भिखारी बोला, हाँ बस इतना ही किसी ने कुछ नही दिया सबने गालिया दी, पत्थर मारें, इसलिए ये सर फूट गया, भिखारी ने फिर कहा सब अपने ही पापों का परिणाम हैं, याद है ना तुम्हें, कुछ वर्षो पहले हम कितने रईस हुआ करते थे, क्या नही था हमारे पास, पर हमने कभी दान नही किया, याद है तुम्हें वो अंधा भिखारी, बुढिया की ऑखों में ऑसू आ गये और उसने कहा हाँ,

कैसे हम उस अंधे भिखारी का मजाक उडाते थे, कैसे उसे रोटियों की जगह खाली कागज रख देते थे, कैसे हम उसे जालिल करते थे, कैसे हम उसे कभी_कभी मार वा धकेल देते थे, अब बुढिया ने कहा हाँ सब याद है मुजे, कैसे मैंने भी उसे राह नही दिखाई और घर के बनें नालें में गिरा दिया था, जब भी वहाँ रोटिया मांगता मैंने बस उसे गालियाँ दी, एक बार तो उसका कटोरा तक फेंक दिया,


और वो अंधा भिखारी हमेशा कहता था, तुम्हारे पापों का हिसाब ईश्वर करेंगे, मैं नही, आज उस भिखारी की बद्दुआ और हाय हमें ले डूबी,


फिर भिखारी ने कहा, पर मैं किसी को बद्दुआ नही देता, चाहे मेरे साथ कितनी भी जात्ती क्यू ना हो जाए, मेरे लब पर हमेशा दुआ रहती हैं, मैं अब नही चाहता, की कोई और इतने बुरे दिन देखे, मेरे साथ अन्याय करने वालों को भी मैं दुआ देता हूं, क्यूकि उनको मालूम ही नही, वो क्या पाप कर रहें है, जो सीधा ईश्वर देख रहा हैं, जैसी हमने भुगती है, कोई और ना भुगते, इसलिए मेरे दिल से बस अपना हाल देख दुआ ही निकलती हैं,


सेठ चुपकेचुपके सब सुन रहा था, उसे अब सारी बात समझ आ गयी थी, बुढेबुढिया ने आधी रोटी को दोनो मिलकर खाया, और प्रभु की महिमा है बोल कर सो गयें,


अगले दिन, वहाँ भिखारी भिख मांगने सेठ कर यहाँ गया, सेठ ने पहले से ही रोटिया निकल के रखी थी, उसने भिखारी को दी और हल्की से मुस्कान भरे स्वर में कहा, माफ करना बाबा, गलती हो गयी, भिखारी ने कहा, ईश्वर तुम्हारा भला करे, और वो वहाँ से चला गया,

सेठ को एक बात समझ आ गयी थी, इंसान तो बस दुआ_बद्दुआ देते है पर पूरी वो ईश्वर वो जादूगर कर्मो के हिसाब से करता हैं।


हो सके तो बस अच्छा करें, वो दिखता नही है तो क्या हुआ,


 सब का हिसाब पक्का रहता है उसके पास।

Wednesday, August 17, 2022

कोइ सुनो हमारी बात,

 कोइ  सुनो  हमारी  बात, 

कोइ  चलो   हमारे  साथ ॥ १ ॥


क्यों  सहो  काल  की  घात,

जम धर धर  मारे  लात ॥ २॥


तुम  चढ़ो  गगन  की बाट, 

तो  खुले अधर  का पाट ॥३ ॥


घट  बाँधो  दृढ़  कर  ठाट,

 छूटे   यह  औघट  घाट ॥ ४॥ 


शब्द   रस  भरो  सुरत  के  माट,

बंक  चढ़ खोलो सुखमन घाट॥ ५ ॥


नाम   की    मिली  अपूरब   चाट,

 अब   सोऊँ   बिछाये   खाट ॥ ६ ॥


चेतन की जड़ से खोली साँट',

 उलट मन कला  खाय ज्यों नाट ॥ ७ ॥


मानसर  देखा  चौड़ा  फाट,

  गया  फिर  परदा सु न का  फाट ॥ ८ ॥


काल की डारी गर्दन काट,

कर्म की खुल  गई  भारी  आँट ॥ ९ ॥


सुन्न का  लिया अमी रस बाँट,

शब्द  की खुली  हिये में हाट॥ १०॥


मोह मद  हो  गये बारह  बाट,

  मिले अब सतगुरु मेरे तात ॥ ११॥


बाल ज्यों पावे पित और मात,

कहूँ क्या खोल यह बिख्यात ॥ १२॥  


अब   चले   न  माया   घात,

  झड़   पड़ी  बृक्ष  ज्यों   पात ॥ १३॥


कर्म की कीन्ही बाज़ी मात,

लखी जाय सुन में धुन की भाँत॥ १४॥


टूट  गया  पिंड  से मेरा नात,

दिखाई गुरु ने  अचरज क्रांत ॥१५॥


पाई  अब   मैं  ने  ऐसी  शांत, 

अब   रही  न  कोई   भ्रांत  ॥१६॥ 


गुरु  करी  प्रेम   की  दात, 

सुरत  अब  हुई  शब्द  की  जात'॥ १७॥ 


सुरत रहे लागी दिन और रात,

शब्द रस अब नहिं छोड़ा जात॥ १८॥


गुरु  का  दम दम  अब गुन गात,

 अमर  पद पाया छूटा गात ॥ १९॥


नाम धुन चली  अधर से  आत,

अर्श का  चरखा  डाला कात ॥ २०॥


राधास्वामी  धरा  सीस  पर  हाथ,

 मैं  तजूँ  न  उन  का  साथ ॥ २१॥

अभिव्यक्ति या विरोध की यह कैसी आजादी? / पवन तिवारी

 मित्रों अभिव्यक्ति की आजादी और असहिष्णुता की बात करने वालों के साथ बाकायदा एक चर्चा सत्र होना चाहिए और उनसे उस चर्चा में उनके प्रश्नों के उत्तर के साथ कुछ निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर भी पूछे जाने चाहिए


1) आज तक 1004 लेखको को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है । 

2) जिसमे से 25 लेखको ने ही प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से पुरस्कार लौटाने की बात की है ।जबकि कुछ न्यूज़ चैनल इसे दिखा ऐसे रहे है।जैसे कितनी बड़ी त्रासदी आ गयी हो । 

3) 25 लेखको में से भी केवल 8 ने ही पुरस्कार लौटाने के लिए अकादमी को चिठ्ठी लिखी है ।बाकि ने तो सिर्फ चैनलों के माध्यम से बात ही कही है लौटाने की ।जैसे धमका रहें हो। 

4) 8 में से भी केवल 3 ने ही 1 लाख रुपये का चेक लौटाया है जो पुरस्कार के साथ मिलता है । अब जरा ये जानने का प्रयास किया जाये के इस पुरस्कार को लौटाने का कारण क्या है । लेखको के अनुसार जबसे केंद्र में ये सरकार बनी है ।तब से देश में सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ा है । क्या ये सच है । देखते हैं ।

साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले लेखक तथा उनका सत्य ।


1) नयनतारा सहगल जवाहर लाल नेहरू की भांजी को पुरस्कार मिला 1986 में 

सवाल - क्या पुरस्कार पाने के 29 वर्षों में भारत में राम राज्य था । 1984 के दंगों में 2800 सिख मरे और केवल 2 साल बाद ही पुरस्कार मिला पर लौटाने के बजाय चुपचाप रख लिया ।

2) उदय प्रकाश को वर्ष 2010 में साहित्य पुरस्कार मिला

सवाल - वर्ष 2013 में डाभोलकर की हत्या के बाद पुरस्कार क्यों नहीं लौटाया ।

3) अशोक वाजपेयी को वर्ष 1994 में पुरस्कार मिला ।

सवाल - क्या वर्ष 1994 से वर्ष 2015 तक देश में राम राज्य था ।

4) कृष्णा सोबती को वर्ष 1980 में पुरस्कार मिला । 

 सवाल - वर्ष 1984 के सिख दंगो के वक़्त भावनाएँ आहत क्यों नहीं हुईं ।

5) राजेश जोशी को वर्ष 2002 में पुरस्कार मिला 

 सवाल - क्या इतने वर्षों में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाये नहीं हुईं ।

आइये अब कुछ और तथ्य जानें ।

 वर्ष 2009 से लेकर वर्ष 2015 तक सांप्रदायिक हिंसा की 4346 घटनायें हुईं। मतलब वर्ष 2009 से लेकर प्रति दिन औसतन सांप्रदायिक हिंसा की 2 घटनाये हुईं। 

 वर्ष 2013 के मुज्जफरनगर दंगो में 63 लोगो की जान गयी। 

 वर्ष 2012 के असम दंगो में 77 लोग मारे गए ।

 वर्ष 1984 के सिख दंगो में 2800 लोग मारे गए थे ।

 वर्ष 1990 से कश्मीरी पंडितों की 95 प्रतिशत आबादी को कश्मीर छोड़ना पड़ा था ।करीब 4 लाख कश्मीरी पंडितों को उनके घरों से निकाल दिया गया और उन्हें देश के अन्य शहरो में रहने को मजबूर होना पड़ा ।

 अगस्त 2007 हैदराबाद में लेखिका तस्लीमा नसरीन के साथ बदसलूकी की गयी । और उसके खिलाफ फतवा जारी किया गया । और कोलकाता आने से भी रोका गया ।

वर्ष 2012 सलमान रुश्दी को जयपुर आने नहीं दिया गया ।रुश्दी को वीडियो लिंक के जरिये भी बोलने नहीं दिया गया ।    एक लेखक या बुध्धिजीवी के दो अलग पैमाने कैसे हो सकते हैं.

इससे पता चलता है कि ''अभिव्यक्ति की आजादी और असहिष्णुता'' एक  सुनियोजित  मेगाइवेंट है.एक चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के लिए जो इनके अनुरूप नहीं है. ''जो इनके अनुरूप नहीं है'' बस एक मात्र कारण से ये इतना बड़ा मेगाइवेंट कर रहे हैं वास्तव में ये सरकार ही सबसे ज्यादा असहिष्णुता की शिकार है

Monday, August 15, 2022

ध्यान साधना पूजा पाठ जप तपa

लोग पूछते हैं ध्यान साधना पूजा पाठ जप तप सब किया मगर कोई लाभ नही हुआ कोई अध्यात्मिक अनुभव नही घटा।

उनको पहले यह समझना आवश्यक है कि अध्यात्म क्या है? 

अध्यातम है सत्य के साथ परम योग inजिसमे योगी या भक्त अपने परमात्मा अपने प्रीतम अपने इष्ट के साथ एक हो जाता है। एक होने का अर्थ यही है कि अब कोई दूसरा ना रहा सब विलीन होगया केवल साधक रहा या केवल ईश्वर रहा। बाकी सब जो व्यर्थ का था विदा हो गया।

अब सोचने वाली बात यह है कि हम साधना करते हैं कुछ पाने के लिए भक्ति करते हैं तो कुछ फल चाहते हैं। भले ही मोक्ष या ईश्वर प्राप्ति की कामना हो मगर कोशिश होती है पाने की। और साधक जब सिद्ध होता है या भक्त जब अपने भगवान से मिलता है तो अद्वेत फलित होता है। अद्वेत् अर्थात दूसरा कोई नही। और जब दूसरा कोई नही तब खुद का होना भी गिर जाता है क्यूँकि खुद को होने के लिए दूसरे का भी होना आवश्यक है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं यदि एक गया तो दूसरा भी नहीं बच सकेगा। मगर हम साधना करते हैं कि हम कुछ प्राप्त कर लें। इसका अर्थ हुआ कि मैं तो बचा रहे और तू भी मिल जाए। जो कि असंभव है। क्यूँकि ईश्वर एक है और उसके साथ योग होगा तब या तो ईश्वर योगी हो जायेगा या योगी ईश्वर हो जायेगा। भक्त भगवान हो जायेगा या भगवान भक्त हो जायेगा। और जब मैं गिरेगा तो तू भी बाकी नहीं रहेगा। और जो फलित होगा वह होगा केवल होश मात्र। फिर जब योगी समाधि से वापस आता है तब पता है बहुत आनंद हुआ। मगर आनंद भी कहना गलत हो जायेगा आनंद के लिए दूसरा आवश्यक है। इसीलिए समाधि के बाद योगी या भक्त चुप हो जाता है कोई शब्द नहीं जिससे बताया जा सके कि क्या हुआ। 

अब यदि साधना कुछ पाने के लिए ही की जाती रहेगी तो हमेशा दो बने रहेंगे एक साधना का लक्ष्य और दूसरा साधक स्वयं। तो अद्वेत कैसे फलित हो सकेगा? अपने परमात्मा से कैसे मिलन होगा? फिर भले जीवन भर साधना करते रहो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क तब पड़ेगा जब साधना के मार्ग को पहले ठीक से समझा जाए। साधना मिलन की है योग की है तो मार्ग भी ऐैसा हो जिसमे दो समाप्त हो सकें योगी और ईश्वर एक हो सकें।

यदि हम सब कुछ ईश्वर पर ही छोड़ दें उसके प्रति पूर्ण शरणागत हो जाए। उससे कहें बहुत हुई मेरी मनमानी। मुझे तो यह भी नहीं पता कि मैं कौन हूँ। मुझे जाना कहाँ है। मैं यहाँ क्यूँ हूँ। तो कैसे मार्ग पर एक कदम भी ठीक ठीक रख सकूँगा। नही समझ आता भजन जप कीर्तन। नहीं समझ आता संसार। अब तू ही सहारा है तू सब जनता है। अब तू ही सम्हाल मुझे। तूने दिन रात सम्हाले तूने बसंत और पतझड़ सम्हाले एक मुझे भी तू सम्हाल। पूर्ण शर्णागति का भाव जैसे जैसे प्रगाढ़ होगा वैसे वैसे अह्नकार भी विदा होता जायेगा। चेतना निर्भार होती जायेगी। और जिस दिन अह्नकार शून्य हुआ कि परमात्मा के राज्य में प्रवेश मिला। परमात्मा के राज्य में प्रवेश का द्वार बहुत  संकरा है वहाँ अह्नकार के साथ प्रवेश संभव ही नही है। और जो करता भाव गिराकर परमात्मा से कहता है कि अब बहुत हुई मेरी मनमानी कोई लाभ नही हुआ। मै अज्ञानी हूँ तू सब जनता है अब तू ही सम्हाल। तब अहनकर शून्य होकर साधक या भक्त अपने परमात्मा के राज्य में प्रवेश करता है और स्वयं परमात्मा हो जाता है। 

जय श्री गुरु महाराज जी की।।। 🙏🙏🙏।।।

Thursday, August 11, 2022

तुम अब ही गुरु से मिलो ।

 *रा धा स्व आ मी!           

                                                       

  11-08-22-आज सुबह सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा शब्द पाठ:-        

                                 

                    

तुम अब ही गुरु से मिलो ।

 जगत की लज्या तजो ॥ १ ॥   

                                            

 सतसँग उनका करो प्रेम से।

 जग से आज भजो ॥ २ ॥                                                               

 दया लेव उनकी तुम हर दम ।

 सूरत चरन सजो ॥ ३ ॥                                                              

बिरह अंग ले अधर चढ़ाओ ।

शब्द शब्द सँग आज गजो ॥४ ॥                                                                

मेहर दया सतगुरु की लेकर ।

रा धा स्व आ मी चरनन जाय रजो ॥ ५ ॥

 (प्रेमबानी-4-शब्द-5- पृ.सं.64)*


Friday, August 5, 2022

🙏🏿परम गुरु हुज़ूर साहब जी महाराज जयंती 🙏🏿

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परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज ( सर आनंद स्वरुप साहब ) पावन जन्मदिन 6 अगस्त 1881 की समस्त सतसँग जगत् व प्राणीमात्र को बहुत बहुत बधाई !🌻🌻*


[Extract from Address to Students of Delhi University by Param Guru Sahabji Maharaj]                                     "


The teaching of Dayalbagh is directed towards the opening of the inner eye , and he who is successful in developing latent spiritual powers in the slightest degree becomes a changed man .. With the acquiring of higher consciousness , he gains a real experience of religion and of the real teaching of religion . For there is no conception without perception . We must have concrete experience of a unit of spirituality without which we cannot understand what the individual Spirit or the Universal Spirit is .

Suppose we have never had experience of sweet taste . How can we imagine what sweet dishes are ? But if we put even the smallest crystal of sugar on our tongue , we can magnify that experience and imagine what sweet dishes must be like . In a like manner the moment the inner eye is opened we know what is spirit , what is the teaching of the Rishis and what have we got to do . " " Dayalbagh seeks to demonstrate that it was not because of religion that decadence set in and that ( on the contrary ) religion makes us most useful members of Society . Ignorance and not religion has brought about degradation . Per contra by awakening our latent spiritual powers we bless not only ourselves but others also . In particular , our pendulum becomes steady , the moment we are blessed with religious experience..If we taste the bliss of the inner life even feebly , we become eternally intoxicated and become immune to the disturbing effects of the vicissitudes of life . "*


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परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज (सर आनन्द स्वरुप) कलालमाजरी  अंबाला शहर-6 अगस्त,1881-पावन जन्मदिन समस्त सतसंग जगत व प्राणी मात्र को बहुत बहुत मुबारक!                                            


धन्य धन्य सो



पुरुष है, धन्य धन्य पुनि धन्य।                                                औरन को सुख देत हैं, चाह न राखें अन्य।।                                                      जग में दुखिया बहुत हैं, रोग सोग से दीन।                                              पर दुखिया नहिं बाल सम, मात तात से हीन।।        ••••••          •••••        •••••                                                                

  हे दयाल! सद कृपाल! तेरी हो जय सदा, रहमत का तेरी हो क्यों कर बयाँ।                                                                                  


ज़बाँ में न ताकत न लफ़्ज़ों में जाँ, तेरी आन, तेरी शान कैसे हो मुख से अदा। हे दयाल! हे कृपाल! तेरी हो जय सदा।।🌹🌹🌹🌹🌹🌹*

परम गुरु हुज़ूर डॉ. लाल साहब का बचन

परम गुरु हुज़ूर डॉ. लाल साहब का बचन ।।*

जो आज सुबह आरती के समय पढ़ा गया।

                    🙏🙏🙏

बसंत 19 जनवरी, 1983- आप सबको यह भी मालूम है कि दयालबाग़ की नींव बसंत के दिन 20 जनवरी, सन् 1915 को रक्खी गई थी। दयालबाग़ तब से निरन्तर बढ़ रहा और बड़ा हो रहा है। अपनी बचपन की अवस्था व किशोर अवस्था पार करके अब युवावस्था को प्राप्त हो रहा व उसमें पदार्पण कर रहा है। साथ ही दयालबाग़ की अपनी Responsibilities (ज़िम्मेदारियाँ) बढ़ रही हैं और अपनी activities (संस्थाएँ) भी expand कर (विस्तृत हो) रही हैं। काम के नये Programmes सामने हैं। कठिन प्रोग्राम्स हैं, मेहनत का काम है Exacting (दुस्साध्य) Programmes हैं लेकिन परम गुरु साहबजी महाराज फ़रमा गये हैं कि सतसंग मंडली को हुज़ूर राधास्वामी दयाल ने जगत-सेवा के लिये चुन लिया है और ऐसा भी फ़रमाया है कि सतसंगी अपने को chosen ones (चुने हुए व्यक्ति) समझें तो फिर हमको ज़्यादा फ़िकर नहीं करना चाहिये। आप को सोचना चाहिये कि कैसे काम किया जाये ?

कैसे इस बड़े काम में आप हिस्सा लें ? क्या आपका participation (हिस्सेदारी) हो, कैसे participation हो ? हुज़ूर साहबजी महाराज यह भी फ़रमा गये हैं कि हम सब को उसी परम पिता के बच्चे होने का ख़याल रखना चाहिये यानी एक "Brotherhood" (भ्रातृत्व-भाईचारा)-असली Brotherhood क़ायम करना चाहिये। सतसंगियों को Social Status (सामाजिक स्थिति) और जात-पाँत का विचार छोड़ कर के एक दूसरे से बराबरी का व्यवहार करना चाहिये। मैं इसको Equality in Fraternity (बिरादरी में समता) कहूँगा।


          *किसी भी काम के करने में Discipline (अनुशासन) की सख़्त ज़रूरत होती है। Discipline हो, साथ ही साथ Humility (दीनता) हो। हम अपनी ज़िम्मेदारी महसूस कर के दीनता के साथ निभाएँ। सतसंग की सेवा और सतसंग के लिये क़ुरबानी के लिये तैयार हो जाना चाहिये। तन मन धन से सतसंग की जितनी सेवा हमसे हो सके, जिससे जितनी हो सके, करनी चाहिये। सेवा करने के लिये उमंग चाहिये, उत्साह चाहिये और साथ ही साथ लगन भी चाहिये।*


 परम गुरु हुज़ूर डॉ. लाल साहब द्वारा फ़रमाए गए बचन का अंश

(प्रेम प्रचारक 17-24 जनवरी, 1983)

   🙏🙏🙏 *राधास्वआमी*


 




राधास्वामी सम्वत् 204

अर्ध-शतक 101       सोमवार  जुलाई 25, 2022     अंक 37       दिवस 1-7




यथार्थ-प्रकाश


भाग पहला


परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज


(प्रेम प्रचारक दिनांक 18 जुलाई, 2022 से आगे)


राधास्वामी (’रा-धा-स्व-आ-मी’) नाम का तथ्य (असलियत)


         परम पूज्य हुज़ूर प्रो. प्रेम सरन सतसंगी साहब द्वारा की गई व्याख्याः- रा-सहस्त्रदल कमल (निरंजन), धा- त्रिकुटी (ओम), स्व-सुन्न/महासुन्न मानसरोवर, झील, आ-विशुद्ध परमार्थिक गति, मी-अनामी पुरुष द्वारा संचालित अन्तिम परमार्थी यथार्थ (गतिशील परमार्थी लाभ से सुसज्जित अलख पुरुष-अगम पुरुष एवं अतीव गतिशील निज-धाम राधास्वामी दर्बार)


            40. राधास्वामी-मत की जान राधास्वामी (’रा-धा-स्व-आ-मी’) नाम है। यह वह नाम है जो रचना के आदि में प्रकट हुआ और जिसकी ध्वनि चेतनता के प्रत्येक केन्द्र अर्थात् रचना के प्रत्येक पुरुष के अन्तर के अन्तर निरन्तर हो रही है, या यों कहो कि जहाँ कहीं आत्मा अर्थात् सुरत-शक्ति क्रियावान् है वहाँ इस नाम की ध्वनि विद्यमान है। वर्तमान अवस्था में मनुष्य की सुरत तन तथा मन के कोशों के भीतर गुप्त है, आत्मा की शक्ति से जान पाकर उसके तन तथा मन क्रियावान् हो रहे हैं और उनके क्रियावान् होने से उनके गुण अर्थात् स्वभाव का प्रादुर्भाव हो रहा है परन्तु उनके अन्तर के अन्तर चैतन्य मण्डल अर्थात् घाट पर, जहाँ सुरत की धारें प्रकट हैं, राधास्वामी (’रा-धा-स्व-आ-मी’) नाम की ध्वनि हो रही है। इसी प्रकार ओ3म्, सोहम् तथा सत्यपुरुष आदि के अन्तर के अन्तर इस नाम की ध्वनि विद्यमान है और राधास्वामी-धाम में, जो रचना का सबसे ऊँचा स्थान है, गति प्राप्त होने पर प्रत्येक अभ्यासी को इस नाम की ध्वनि सुनाई देती है। इसलिए इस नाम या शब्द को समस्त रचना की जान कहते हैं।


            41. रचना से पहले ये सब पदार्थ, जो अब दृष्टिगोचर हो रहे हैं, गुप्त अवस्था में थे अर्थात् पिण्ड, ब्रह्माण्ड, चन्द्र, सूर्य आदि कुछ भी प्रकट न थे, एक कुलमालिक ही था और उसकी शक्ति अपने केन्द्र में समाई हुई थी। संसार में प्रत्येक शक्ति की दो अवस्थाएँ होती हैं- एक गुप्त, दूसरी प्रकट। साधारण रूप से पत्थर के कोयले में अग्नि गुप्त है और प्रज्ज्वलित करने पर वह प्रकट हो जाती है और ताँबे तथा जस्ते में बिजली गुप्त है पर उचित सम्बन्ध स्थापित करने पर उसकी धार जारी होकर विद्युत्-शक्ति का विकास हो जाता है, इसी प्रकार चैतन्य शक्ति की भी दो अवस्थाएँ हैं- एक गुप्त, दूसरी प्रकट। रचना से पहले चैतन्य शक्ति अपने केन्द्र में गुप्त थी। इसी को शून्यसमाधि की अवस्था कहते हैं। धीरे धीरे एक समय आया जब कुलमालिक अर्थात् चैतन्य शक्ति के भण्डार में क्षोभ (हिलोर) होने पर आदि चैतन्य धार प्रकट हुई और जोकि शक्ति के प्रत्येक आविर्भाव के साथ साथ एक शब्द (-समूह) प्रकट होता है इसलिए भण्डार की हिलोर से ‘स्वामी’ शब्द स्व-आ-मी (3 शब्द) और आदि चैतन्य धार से ‘राधा’ (रा-धा) दो शब्द-समूह प्रकट हुआ। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि रचना का कार्य आरम्भ होने पर (अर्थात् चैतन्य शक्ति के गुप्त अवस्था से प्रकट रूप धारण करने पर) कुलमालिक से आदिशब्द प्रकट हुआ जिसे मनुष्य की बोली में उच्चारण करने पर ‘राधास्वामी’ (’रा-धा-स्व-आ-मी’) पाँच शब्द-समूह बनता है। इसी कारण यह नाम कुलमालिक का निजनाम माना जाता है।


(क्रमशः)

सरन गुरु सतसँग जिन लीनी।

 रा धा स्व आ मी!                                 

O5-08-22-आज शाम सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा शब्द पाठ:-                                                                                            

  सरन गुरु सतसँग जिन लीनी।

हुए मन सुरत चरन लीनी॥१॥                                                                  

  कहें सब महिमा सतसँग गाय।

भेद निज वहाँ का कोइ नहिं पाय॥२॥                                                               

  संत की महिमा जहाँ होई।

भेद निज घर का कहें सोई॥३॥                                                               

शब्द का मारग जो गावें।

सुरत का का प्रेम रस्ता बतलावें॥४॥                                                               

 प्रेम गुरु देवें हिये दृढ़ाय।

 सरन गुरु महिमा कहें सुनाय॥५॥                                                

सोई सतसँग सच्चा जानो।

जीव का कारज वहाँ मानो॥६॥                                                               

  मेहर से सतसँग अस मिलिया।

सुरत मन गुरु चरनन रलिया॥७॥                                   

सराहँ भाग अपना दम दम।

नाम गुरु जपत रहँ हर दम॥८॥                                            

*◆◆05-08-22-कल से आगे-◆◆     

                  

 कहूँ क्या मन मोहि धोखा दीन।

भोग रस इंद्री छिन छिन लीन॥९॥                                                                                

भूल कर अति दुख में पाया।

किए पर अपने पछताया॥१०॥                                                                                          

इसी से रहता नित मुरझाय।

पुकारूँ गुरु चरनन में जाय॥११॥                                                                                                           

मेहर मोपै कीजै गुरू दयाल।

काट दो माया का जंजाल॥१२॥                                                               

शब्द रस पीवे मन होय लीन।

 चरन में गुरु के दीन अधीन॥१३॥                                              

रहूँ नित आरत गुरु की गाय।

 सरन राधास्वामी हिये वसाय॥१४॥                                                                   

 दयि से कीजै कारज पूर।

 रहूँ नित चरन कँवल की धूर॥१५।।

(प्रेमबानी-2-शब्द-20- पृ.सं.24,25)


Thursday, August 4, 2022

मनुष्य के बार-बार जन्म-मरण का क्या कारण है ?

 

प्रस्तुति - उषा रानी  / राजेंद्र प्रसाद सिन्हा


एक बार द्वारकानाथ श्रीकृष्ण अपने महल में दातुन कर रहे थे । रुक्मिणी जी स्वयं अपने हाथों में जल लिए उनकी सेवा में खड़ी थीं । अचानक द्वारकानाथ हंसने लगे । रुक्मिणी जी ने सोचा कि शायद मेरी सेवा में कोई गलती हो गई है; इसलिए द्वारकानाथ हंस रहे हैं ।


रुक्मिणी जी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा—‘प्रभु ! आप दातुन करते हुए अचानक इस तरह हंस क्यों पड़े, क्या मुझसे कोई गलती हो गई ? कृपया, आप मुझे अपने हंसने का कारण बताएं ।’


श्रीकृष्ण बोले—‘नहीं, प्रिये ! आपसे सेवा में त्रुटि होना कैसे संभव है ? आप ऐसा न सोचें, बात कुछ और है ।’


रुक्मिणी जी ने कहा—‘आप अपने हंसने का रहस्य मुझे बता दें तो मेरे मन को शान्ति मिल जाएगी; अन्यथा मेरे मन में बेचैनी बनी रहेगी ।’


तब श्रीकृष्ण ने मुसकराते हुए रुक्मिणी जी से कहा—‘देखो, वह सामने एक चींटा चींटी के पीछे कितनी तेजी से दौड़ा चला जा रहा है । वह अपनी पूरी ताकत लगा कर चींटी का पींछा कर उसे पा लेना चाहता है । उसे देख कर मुझे अपनी मायाशक्ति की प्रबलता का विचार करके हंसी आ रही है ।’


रुक्मिणी जी ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा—‘वह कैसे प्रभु ? इस चींटी के पीछे चींटे के दौड़ने पर आपको अपनी मायाशक्ति की प्रबलता कैसे दीख गई ?’


भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘मैं इस चींटे को चौदह बार इंद्र बना चुका हूँ । चौदह बार देवराज के पद का भोग करने पर भी इसकी भोगलिप्सा समाप्त नहीं हुई है । यह देख कर मुझे हंसी आ गई ।’


इंद्र की पदवी भी भोग योनि है । मनुष्य अपने उत्कृष्ट कर्मों से इंद्रत्व को प्राप्त कर सकता है । सौ अश्वमेध यज्ञ करने वाला व्यक्ति इंद्र-पद प्राप्त कर लेता है । लेकिन जब उनके भोग पूरे हो जाते हैं तो उसे पुन: पृथ्वी पर आकर जन्म ग्रहण करना पड़ता है ।


प्रत्येक जीव इंद्रियों का स्वामी है; परंतु जब जीव इंद्रियों का दास बन जाता है तो जीवन कलुषित हो जाता है और बार-बार जन्म-मरण के बंधन में पड़ता है । वासना ही पुनर्जन्म का कारण है । जिस मनुष्य की जहां वासना होती है, उसी के अनुरूप ही अंतसमय में चिंतन होता है और उस चिंतन के अनुसार ही मनुष्य की गति—ऊंच-नीच योनियों में जन्म होता है । अत: वासना को ही नष्ट करना चाहिए । वासना पर विजय पाना ही सुखी होने का उपाय है ।


बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ,

विषय भोग बहु घी ते ।


अग्नि में घी डालते जाइये, वह और भी धधकेगी, यही दशा काम की है । उसे बुझाना हो तो संयम रूपी शीतल जल डालना होगा ।


संसार का मोह छोड़ना बहुत कठिन है । वासनाएं बढ़ती हैं तो भोग बढ़ते हैं, इससे संसार कटु हो जाता है । वासनाएं जब तक क्षीण न हों तब तक मुक्ति नहीं मिलती है । पूर्वजन्म का शरीर तो चला गया परन्तु पूर्वजन्म का मन नहीं गया ।


नास्ति तृष्णासमं दु:खं नास्ति त्यागसमं सुखम्।

सर्वांन् कामान् परित्यज्य ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।


तृष्णा के समान कोई दु:ख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है । समस्त कामनाओं—मान, बड़ाई, स्वाद, शौकीनी, सुख-भोग, आलस्य आदि का परित्याग करके केवल भगवान की शरण लेने से ही मनुष्य ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है ।


नहीं है भोग की वांछा न दिल में लालसा धन की ।

प्यास दरसन की भारी है सफल कर आस को मेरी ।।


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दरस गुरु हिरदे धारा नेम।

 *रा धा स्व आ मी!                                  

  03-08-22-आज शाम सतसँग में पढ़ा जाने वाला दूसरा शब्द पाठ:-                                                                                             

दरस गुरु हिरदे धारा नेम।

 जगाती निस दिन घट में प्रेम।।१।।                                             

भोग ले नित सन्मुख आती।

उमँग कर परशादी खाती॥२॥                                               

 देख गुरु द्वारे नया बिलास।

हाज़री देती निस  और बास॥३॥                                      

 पिरेमी आवें नित गुरु पास।

देख उन मन में होत हुलास॥४॥                                             

बढ़त नित सतसँग की महिमा।

तरत सब जिव लग गुरु चरना॥५॥                                   

शब्द ने घट घट डाली धूम।

सुरत लगी चढ़ने इत से घूम॥६॥                                            

देखती घट में बिमल बहार।

 डारती तन मन गुरु पर वार॥७॥                                              

 रहें सब रा धा स्व आ मी के गुन गाय।

सुरत से रा धा स्वा् आ मी नाम जपाय॥८॥                                                               

  अमल रस परमारथ पीते।

गुरू बल मन इंद्री जीते॥९॥                                               

 मेहर रा धा स्व आ मी करी बनाय।

दिया सब हंसन पार लगाय॥१०॥

(प्रेमबानी-2-शब्द-19- पृ.सं.22,22)


क्या पथ्य और क्या अपथ्य??

क्या पथ्य और क्या अपथ्य-?



प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा



घी के साथ शहद अपथ्य है।

अर्थात शरीर में विष बनाता है और रोग पैदा करता है।

दूध के साथ दही अपथ्य है।

चाय के साथ दही अपथ्य है।

कोल्डड्रिंक और पेस्ट्री अपथ्य है और कैंसर बनाता है।

कोल्डड्रिंक और नमकीन एक साथ जहर बनाते हैं।

दही के साथ नमक खाना अपथ्य है।

वर्षा ऋतु में दूध और दही पित्त दोष को बढ़ाता है।

दिसम्बर से फरवरी दही के सेवन से बचें।

लाल मिर्च की अपेक्षा हरी मिर्च का प्रयोग करें--

बारीक पिसे मसाले अपथ्य हैं और

किडनी के लिए हानिकारक हैं--

मूंगफली का सेवन बेसन के साथ शरीर में पित्त बढ़ाता है--

रिफाइंड में तली वस्तुएं अपथ्य हैं।

अचार का सेवन अधिक मात्रा में करना अपथ्य है, अचार को चाय या काफी के साथ प्रयोग ना करें पित्त को तेजी से बढाएगा--

रात्रि को खीरा अपथ्य है-

रात्रि को दही- अचार अपथ्य है-

मिर्च का अचार तेजी से पित्त को बढ़ाता है।

सब्जियों को तेल में तलकर बनाना अपथ्य हैं।

चावल रात्रि को अपथ्य है, और वात रोग को बढ़ाता है।

फलों के जूस के साथ कोई भी नमकीन या फास्ट फूड अपथ्य है।

समुद्री नमक पित्त को बढ़ाने वाला है और अधिक मात्रा में सेवन‌ वह अपथ्य है।

जुखाम में केला , चावल, दूध और मोटी दालें अपथ्य हैं।

मैदे का सेवन अपथ्य है।

चीनी पूरे दिन में डेढ चम्मच से अधिक अपथ्य है।

खड़े होकर भोजन करना अपथ्य है।

पनीर रात्रि के समय अपथ्य है।

लिसलिसा भोजन रात्रि के समय अपथ्य है।

नव‌ प्रसूता गाय का दूध १२ दिनों तक अपथ्य है--

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पथ्य क्या है---

सभी मौसमी फल पथ्य हैं--

सभी मौसमी सब्जियां पथ्य हैं--

मोटी दालें १२ घंटे जल में भिगोकर पीसकर बनाएं तो पथ्य हैं , और यदि सीधे बिना भिगोए कुक्कर में बनाएं तो अपथ्य हैं।

ठंड के सीजन में कड़ी पथ्य है।

कड़ी का सेवन दिन में ही करें।

दूध का सेवन रात्रि में पथ्य है और भोजन के एक घंटे बाद ही पथ्य है।

भिंडी और बैंगन रात्रि में अपथ्य है,

सुबह-दिन के समय पथ्य है।

सभी प्रकार का साग पथ्य है, केवल

वर्षा ऋतु के समय छोड़कर।

मांड वाला चावल पथ्य है, जिन चावल में मांड नहीं वो अपथ्य हैं।

सावक चावल पथ्य है।

सभी अंकुरित दालें सुबह के समय और दिन के समय पथ्य हैं--

भोजन करनें से आधा से एक घंटे पहले फलों का सेवन पथ्य है।

सेंधा नमक -डले वाला नमक पथ्य है।

घी का सेवन पथ्य है।

कोदा- रागी- बाजरा- मक्का गेंहू के साथ पथ्य है, केवल गेंहू की रोटी अपथ्य है--

खांड- बिना मसाले का गुड़ भोजन के बाद पथ्य है।

भोजन से पहले सलाद पथ्य है।

🙏🙏🙏🙏


रोग शरीर में एक दिन में नहीं पनपता वह धीरे-धीरे पनपता है।

और जब वह पनप जाता है तब

भी आप उसपर यदि ध्यान नहीं देंगे

तो वह गंभीर बीमारी बन जाता है।

पथ्य और अपथ्य का ध्यान रखें तथा रोग को मत पनपने दें।

पूज्य हुज़ूर का निर्देश

  कल 8-1-22 की शाम को खेतों के बाद जब Gracious Huzur, गाड़ी में बैठ कर performance statistics देख रहे थे, तो फरमाया कि maximum attendance सा...