Friday, August 19, 2022

नल दमयंती कथा

 🌹🕉️ राजा नल और सती दमयंती की कथा 🕉️🌹

प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा


विदर्भ देश में भीष्मक नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी पुत्री का नाम दमयन्ती था। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवती थी। उन्हीं दिनों निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल राज्य करते थे। वे बड़े ही गुणवान्, सत्यवादी तथा ब्राह्मण भक्त थे। निषध देश से जो लोग विदर्भ देश में आते थे, वे महाराज नल के गुणों की प्रशंसा करते थे। यह प्रशंसा दमयन्ती के कानों तक भी पहुँची थी। इसी तरह विदर्भ देश से आने वाले लोग राजकुमारी के रूप और गुणों की चर्चा महाराज नल के समक्षकरते। इसका परिणाम यह हुआ कि नल और दमयन्ती एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते गये।

दमयन्ती का स्वयंवर हुआ।  जिसमें न केवल धरती के राजा, बल्कि देवता भी आ गए। नल भी स्वयंवर में जा रहा था। देवताओं ने उसे रोककर कहा कि वो स्वयंवर में न जाए। उन्हें यह बात पहले से पता थी कि दमयंती नल को ही चुनेगी। सभी देवताओं ने भी नल का रूप धर लिया। स्वयंवर में एक साथ कई नल खड़े थे। सभी परेशान थे कि असली नल कौन होगा। लेकिन दमयंती जरा भी विचलित नहीं हुई, उसने आंखों से ही असली नल को पहचान लिया। सारे देवताओं ने भी उनका अभिवादन किया। इस तरह आंखों में झलकते भावों से ही दमयंती ने असली नल को पहचानकर अपना जीवनसाथी चुन लिया। नव-दम्पत्ति को देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त हु्आ। दमयन्ती निषध-नरेश राजा नल की महारानी बनी। दोनों बड़े सुख से समय बिताने लगे। 

दमयन्ती पतिव्रताओं में शिरोमणि थी। अभिमान तो उसे कभी छू भी नही सकता था। समयानुसार दमयन्ती के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। दोनों बच्चे माता-पिता के अनुरूप ही सुन्दर रूप और गुणसे सम्पन्न थे समय सदा एक-सा नहीं रहता, दुःख-सुख का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। वैसे तो महाराज नल गुणवान्, धर्मात्मा तथा पुण्यस्लोक थे, किन्तु उनमें एक दोष था।—जुए का व्यसन। नल के एक भाई का नाम पुष्कर था। वह नल से अलग रहता था। उसने उन्हें जुए के लिए आमन्त्रित किया। खेल आरम्भ हुआ। भाग्य प्रतिकूल था। नल हारने लगे, सोना, चाँदी, रथ, राजपाट सब हाथ से निकल गया। महारानी दमयन्ती ने प्रतिकूल समय जानकर अपने दोनों बच्चों को विदर्भ देशकी राजधानी कुण्डिनपुर भेज दिया।


इधर नल जुए में अपना सर्वस्व हार गये।। उन्होंने अपने शरीर के सारे वस्त्राभूषण उतार दिये। केवल एक वस्त्र पहनकर नगर से बाहर निकले। दमयन्ती ने भी मात्र एक साड़ी में पति का अनुसरण किया। एक दिन राजा नल ने सोने के पंख वाले कुछ पक्षी देखे। राजा नल ने सोचा, यदि इन्हें पकड़ लिया जाय तो इनको बेचकर निर्वाह करने के लिए कुछ धन कमाया जा सकता है। ऐसा विचारकर उन्होंने अपने पहनने का वस्त्र खोलकर पक्षियों पर फेंका। पक्षी वह वस्त्र लेकर उड़ गये। अब राजा नल के पास तन ढकने के लिए भी कोई वस्त्र न रह गया। नल अपनी अपेक्षा दमयन्ती के दुःख से अधिक व्याकुल थे। एक दिन दोनों जंगल में एक वृक्ष के नीचे एक ही वस्त्र से तन छिपाये पड़े थे। दमयन्ती को थकावट के कारण नींद आ गयी। राजा नल ने सोचा, दमयन्ती को मेरे कारण बड़ा दुःख सहन करना पड़ रहा है। यदि मैं इसे इसी अवस्था में यहीं छोड़कर चल दूँ तो यह किसी तरह अपने पिताके पास पहुँच जायगी।


यह विचारकर उन्होंने तलवार से उसकी आधी साड़ी को काट लिया और उसी से अपना तन ढककर तथा दमयन्ती को उसी अवस्था में छोड़ कर वे चल दिये। जब दमयन्ती की नींद टूटी तो बेचारी अपने को अकेला पाकर करुण विलाप करने लगी। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह अचानक अजगर के पास चली गयी और अजगर उसे निगलने लगा। दमयन्ती की चीख सुनकर एक व्याध ने उसे अजगर का ग्रास होने से बचाया। किंतु व्याध स्वभाव से दुष्ट था। उसने दमयन्ती के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसे अपनी काम-पिपासा का शिकार बनाना चाहा। दमयन्ती उसे शाप देते हुए बोली—‘यदि मैंने अपने पति राजा नल को छोड़कर किसी अन्य पुरुष का चिन्तन किया हो तो इस पापी व्याध के जीवन का अभी अन्त हो जाय।’ दमयन्ती की बात पूरी होते ही व्याध के प्राण-पखेरू उड़ गये। व्याध के मर जाने के बाद दमयंती एक निर्जन और भयंकर वन में जा पहुंची। राजा नल का पता पूछती हुई वह उत्तर की ओर बढऩे लगी। तीन दिन रात दिन रात बीत जाने के बाद दमयंती ने देखा कि सामने ही एक बहुत सुन्दर तपोवन है। जहां बहुत से ऋषि निवास करते हैं। उसने आश्रम में जाकर बड़ी नम्रता के साथ प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने दमयन्ती का सत्कार किया और उसे बैठने को कहा- दमयन्ती ने एक भद्र स्त्री के समान सभी के हालचाल पूछे।


फिर ऋषियों ने पूछा आप कौन है तब दमयंती ने अपना पूरा परिचय दिया और अपनी सारी कहानी ऋषियों को सुनाई। तब सारे तपस्वी उसे आर्शीवाद देते हैं कि थोड़े ही समय में निषध के राजा को उनका राज्य वापस मिल जाएगा। उसके शत्रु भयभीत होंगे व मित्र प्रसन्न होंगे और कुटुंबी आनंदित होंगे। इतना कहकर सभी ऋषि अंर्तध्यान हो गए।

चलते चलते शाम के समय वह राजा सुबाहु के यहां जा पहुंची। वहां उसे सब बावली समझ रहे थे। उसे बच्चे परेशान कर रहे थे।

उस समय राज माता महल के बाहर खिड़की से देख रही थी उन्होंने अपनी दासी से कहा देखो तो वह स्त्री बहुत दुखी मालुम होती है। तुम जाओ और मेरे पास ले आओ। दासी दमयंती को रानी के पास ले गई। रानी ने दमयंती से पूछा तुम्हे डर नहीं लगता ऐसे घुमते हुए। तब दमयंती ने बोला jjमें एक पतिव्रता स्त्री हूं। मैं हूं तो कुलीन पर दासी का काम करती हूं। तब रानी ने बोला ठीक है तुम महल में ही रह जाओ। तब दमयंती कहती है कि मैं यहां रह तो जाऊंगी पर मेरी तीन शर्त है मैं झूठा नहीं खाऊंगी, पैर नहीं धोऊंगी और परपुरुष से बात नहीं करुंगी। रानी ने कहा ठीक है हमें आपकी शर्ते मंजुर है।


जिस समय राजा नल दमयन्ती को सोती छोड़कर आगे बढ़े, उस समय वन में आग लग रही थी। तभी नल को आवाज आई। राजा नल शीघ्र दौड़ो। मुझे बचाओ। नागराज कुंडली बांधकर पड़ा हुआ था। उसने नल से कहा- राजन मैं कर्कोटक नाम का सर्प हूं। मैंने नारद मुनि को धोखा दिया था। उन्होंने शाप दिया कि जब तक राजा नल तुम्हे न उठावे, तब तक यहीं पड़े रहना। उनके उठाने पर तू शाप से छूट जाएगा। उनके शाप के कारण मैं यहां से एक भी कदम आगे नहीं बढ़ सकता। तुम इस शाप से मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हे हित की बात बताऊंगा और तुम्हारा मित्र बन जाऊंगा। मेरे भार से डरो मत मैं अभी हल्का हो जाता हूं वह अंगूठे के बराबर हो गया। नल उसे उठाकर दावानल से बाहर ले आए। कार्कोटक ने कहा तुम अभी मुझे जमीन पर मत डालो। कुछ कदम गिनकर चलो। राजा नल ने ज्यो ही पृथ्वी पर दसवां कदम चला और उन्होंने कहा दश तो ही कर्कोटक ने उन्हें डस लिया। उसका नियम था कि जब कोई बोले दश तभी वह डंसता था।

आश्चर्य चकित नल से उसने कहा महाराज तुम्हे कोई पहचान ना सके इसलिए मैंने डस के तुम्हारा रूप बदल दिया है। कलियुग ने तुम्हे बहुत दुख दिया है। अब मेरे विष से वह तुम्हारे शरीर में बहुत दुखी रहेगा। तुमने मेरी रक्षा की है। अब तुम्हे हिंसक पशु-पक्षी शत्रु का कोई भय नहीं रहेगा। अब तुम पर किसी भी विष का प्रभाव नहीं होगा और युद्ध में हमेशा तुम्हारी जीत होगी। यह कहकर कर्कोटक ने दो दिव्य वस्त्र दिए और वह अंर्तध्यान हो गया। राजा नल वहां से चलकर दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण की राजधानी अयोध्या में पहुंच गया। उन्होंने वहां राजदरबार में निवेदन किया कि मेरा नाम बाहुक है। मैं घोड़ों को हांकने और उन्हें तरह-तरह की चालें सिखाने का काम करता हूं। घोड़ो की विद्या मेरे जैसा निपुण इस समय पृथ्वी पर कोई नहीं है। रसोई बनाने में भी में बहुत चतुर हूं, हस्तकौशल के सभी काम और दूसरे कठिन काम करने की चेष्ठा करूंगा। आप मेरी आजीविका निश्चित करके मुझे रख लीजिए। उसकी सारी बात सुनकर राजा ऋतुपर्ण ने कहा बाहुक मैं सारा काम तुम्हें सौंपता हूं। लेकिन मैं शीघ्रगामी सवारी को विशेष पसंद करता हूं। तुम्हे हर महीने सोने की दस हजार मुहरें मिला करेंगी। लेकिन तुम कुछ ऐसा करो कि मेरे घोड़ों कि चाल तेज हो जाए। इसके अलावा तुम्हारे साथ वाष्र्णेय और जीवल हमेशा उपस्थित रहेंगें।

राजा नल रोज दमयन्ती को याद करते और दुखी होते कि दमयन्ती भूख-प्यास से परेशान ना जाने किस स्थिति में होगी। इसी तरह राजा नल ने दमयंती के बारे में सोचते हुए कई दिन बिता दिए। ऋतुपर्ण के पास रहते हुए उन्हें कोई ना पहचान सका। जब राजा विदर्भ को यह समाचार मिला कि मेरे दामाद नल और पुत्री राज पाठ विहिन होकर वन में चले गए हैं।

तब उन्होंने सुदेव नाम के एक ब्राह्मण को नल-दमयंती का पता लगाने के लिए चेदिनरेश के राज्य में भेजा। उसने एक दिन राज महल में दमयंती को देख लिया। उस समय राजा के महल में पुण्याहवाचन हो रहा था। दमयंती- सुनन्दा एक साथ बैठकर ही वह कार्यक्रम देख रही थी। सुदेव ब्राह्मण ने दमयंती को देखकर सोचा कि वास्तव में यही भीमक नन्दिनी है। मैंने इसका जैसा रूप पहले देखा था। वैसा अब भी देख रहा हूं। बड़ा अच्छा हुआ, इसे देख लेने से मेरी पुरी यात्रा सफल हो गई। सुदेव दमयंती के पास गया और उससे बोला दमयंती मैं तुम्हारे भाई का मित्र सुदेव हूं। मैं तुम्हारी भाई की आज्ञा से तुम्हे ढ़ूढने यहां आया हूं। दमयंती ने ब्राह्मण को पहचान लिया। वह सबका कुशल-मंगल पूछने लगी और पूछते ही पूछते रो पड़ी।

सुनन्दा दमयंती को रोता देख घबरा गई। उसने अपनी माता के पास जाकर उन्हें सारी बात बताई। राज माता तुरंत अपने महल से बाहर निकल कर आयी। ब्राह्मण के पास जाकर पूछने लगी महाराज ये किसकी पत्नी है? किसकी पुत्री है? अपने घर वालों से कैसे बिछुड़ गए? तब सुदेव ने उनका पूरा परिचय उसे दिया। सुनन्दा ने अपने हाथों से दमयंती का ललाट धो दिया। जिससे उसकी भौहों के बीच का लाल चिन्ह चन्द्रमा के समान प्रकट हो गया। उसके ललाट का वह तिल देखकर सुनन्दा व राजमाता दोनों ही रो पड़े। राजमाता ने कहा मैंने इस तिल को देखकर पहचान लिया कि तुम मेरी बहन की पुत्री हो। उसके बाद दमयंती अपने पिता के घर चली गई।

अपने पिता के घर एक दिन विश्राम करके दमयंती अपनी माता से कहा कि मां मैं आपसे सच कहती हूं। यदि आप मुझे जीवित रखना चाहती हैं तो आप मेरे पतिदेव को ढूंढवा दीजिए। रानी ने उनकी बात सुनकर नल को ढूंढवाने के लिए ब्राह्मणों को नियुक्त किया। ब्राह्मणों से दमयंती ने कहा आप लोग जहां भी जाए वहां भीड़ में जाकर यह कहे कि मेरे प्यारे छलिया, तुम मेरी साड़ी में से आधी फाड़कर अपनी दासी को उसी अवस्था में आधी साड़ी में आपका इंतजार कर रही है। मेरी दशा का वर्णन कर दीजिएगा और ऐसी बात कहिएगा।


जिससे वे प्रसन्न हो और मुझ पर कृपा करे। बहुत दिनों के बाद एक ब्राह्मण वापस आया। उसने दमयंती से कहा मैंने राजा ऋतुपर्ण के पास जाकर भरी सभा में आपकी बात दोहराई तो किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया। जब मैं चलने लगा तब बाहुक नाम के सारथि ने मुझे एकान्त में बुलाया उसके हाथ छोटे व शरीर कुरूप है। वह लम्बी सांस लेकर रोता हुआ मुझसे कहने लगा।


उच्च कुल की स्त्रियों के पति उन्हें छोड़ भी देते हैं तो भी वे अपने शील की रक्षा करती हैं। त्याग करने वाला पुरुष विपत्ति के कारण दुखी और अचेत हो रहा था। इसीलिए उस पर क्रोध करना उचित नहीं है। लेकिन वह उस समय बहुत परेशान था।जब वह अपनी प्राणरक्षा के लिए जीविका चाह रहा था। तब पक्षी उसके वस्त्र लेकर उड़ गए। जब ब्राह्मण ने यह बात बताई तो दमयंती समझ गई कि वे राजा नल ही हैं।

ब्राह्मण की बात सुनकर दमयंती की आंखों में आंसु भर आए। उसने अपनी माता को सारी बात बताई। तब उन्होंने कहा आप यह बात अब अपने पिताजी से ना कहे। मैं सुदैव ब्राह्मण को इस काम के लिए नियुक्त करती हूं। तब दमयंती ने सुदेव से कहा- ब्राह्मण देवता आप जल्दी से जल्दी अयोध्या नगरी पहुंचे। राजा ऋतुपर्ण से यह बात कहिए कि दमयंती ने फिर से स्वेच्छानुसार पति का चुनाव करना चाहती है।


बड़े-बड़े राजा और राजकुमार जा रहे हैं। स्वयंवर की तिथि कल ही है। इसलिए यदि आप पहुंच सकें तो वहां जाइए। नल के जीने अथवा मरने का किसी को पता नहीं है, इसलिए वह इसीलिए कल वे सूर्योदय पूर्व ही पति वरण करेंगी। दमयंती की बात सुनकर सुदेव अयोध्या गए और उन्होंने राजा ऋतुपर्ण से सब बातें कह दी। सुदेव की बातें सुनाकर बाहुक को बुलाया और कहा बाहुक कल दमयंती का स्वयंवर है और हमें जल्दी से जल्दी वहां पहुंचना है। 

ऋतुपर्ण की बात सुनकर नल का कलेजा फटने लगा। सोचा कि दमयंती ने दुखी और अचेत होकर ही ऐसा किया होगा। संभव है वह ऐसा करना चाहती हो। नल ने शीघ्रगामी रथ में चार श्रेष्ठ घोड़े जोत लिए। राजा ऋतुपर्ण रथ पर सवार हो गए। रास्ते में ऋतुपर्ण ने उसे पासें पर वशीकरण की विद्या सिखाई क्योंकि उसे घोड़ों की विद्या सीखने का लालच था। जिस समय राजा नल ने यह विद्या सीखी उसी समय कलियुग राजा नल के शरीर से बाहर आ गया।

राजा ने अपने रथ को जोर से हांका और शाम होते-होते वे विदर्भ देश में पहुंचे। राजा भीमक के पास समाचार भेजा गया। उन्होंने ऋतुपर्ण को अपने यहां बुला लिया ऋतुपर्ण के रथ की गुंज से दिशाएं गुंज उठी। दमयंती रथ की घरघराहट से समझ गई कि जरूर इसको हांकने वाले मेरे पति देव हैं। यदि आज वे मेरे पास नहीं आएंगे तो मैं आग में कुद जाऊंगी।


उसके बाद अयोध्या नरेश ऋतुपर्ण जब राजा भीमक के दरबार में पहुंचे तो उनका बहुत आदर सत्कार हुआ। भीमक को इस बात का बिल्कुल पता नहीं था कि वे स्वयंवर का निमंत्रण पाकर यहां आए हैं। जब ऋतुपर्ण ने स्वयंवर की कोई तैयारी नहीं देखी तो उन्होंने स्वयंवर की बात दबा दी और कहा मैं तो सिर्फ आपको प्रणाम करने चला आया। भीमक सोचने लगे कि सौ-योजन से अधिक दूर कोई प्रणाम कहने तो नहीं आ सकता। लेकिन वे यह सोच छोड़कर राजा रितुपर्ण के सत्कार में लग गए। बाहुक वाष्र्णेय के साथ अश्वशाला में ठहरकर घोड़ो की सेवा में लग गया।

दमयंती आकुल हो गई कि रथ कि ध्वनि तो सुनाई दे रही है पर कहीं भी मेरे पति के दर्शन नहीं हो रहे। हो ना हो वाष्र्णेय ने उनसे रथ विद्या सीख ली होगी। तब उसने अपनी दासी से कहा हे दासी तु जा और इस बात का पता लगा कि यह कुरूप पुरुष कौन है? संभव है कि यही हमारे पतिदेव हों। मैंने ब्राह्मणों द्वारा जो संदेश भेजा था। वही उसे बतलाना और उसका उत्तर मुझसे कहना। तब दासी ने बाहुक से जाकर पूछा राजा नल कहा है क्या तुम उन्हें जानते हो या तुम्हारा सारथि वाष्र्णेय जानता है? बाहुक ने कहा मुझे उसके संबंध में कुछ भी मालुम नहीं है सिर्फ इतना ही पता है कि इस समय नल का रूप बदल गया है। वे छिपकर रहते हैं। उन्हें या तो दमयंती या स्वयं वे ही पहचान सकते हैं या उनकी पत्नी दमयंती क्योंकि वे अपने गुप्त चिन्हों को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करना चाहते हैं।

दासी की बात सुनकर दमयंती की संका

दृढ़ होने लगी कि यही राजा नल है। उसने दासी से कहा तुम फिर बाहुक के पास जाओ और उसके पास बिना कुछ बोले खड़ी रहो। उसकी चेष्टाओं पर ध्यान दो। अब आग मांगे तो मत देना जल मांगे तो देर कर देना। उसका एक-एक चरित्र मुझे आकर बताओ। फिर वह मनुष्यों और देवताओं से उसमें बहुत से चरित्र देखकर वह दमयंती के पास आई और बोली बाहुक ने हर तरह से अग्रि, जल व थल पर विजय प्राप्त कर ली है। मैंने आज तक ऐसा पुरुष नहीं देखा। तब दमयंती को विश्वास हो जाता है कि वह बाहुक ही राजा नल है।

अब दमयंती ने सारी बात अपनी माता को बताकर कहा कि अब मैं स्वयं उस बाहुक की परीक्षा लेना चाहती हूं। इसलिए आप बाहुक को मेरे महल में आने की आज्ञा दीजिए। आपकी इच्छा हो तो पिताजी को बता दीजिए। रानी ने अपने पति भीमक से अनुमति ली और बाहुक को रानीवास बुलवाने की आज्ञा दी। दमयंती ने बाहुक के सामने फिर सारी बात दोहराई। तब दमयंती के आखों से आंसू टपकते देखकर नल से रहा नहीं गया। नल ने कहा मैंने तुम्हे जानबुझकर नहीं छोड़ा। नहीं जूआ खेला यह सब कलियुग की करतूत है। दमयंती ने कहा कि मैं आपके चरणों को स्पर्श करके कहती हूं कि मैंने कभी मन से पर पुरुष का चिंतन नहीं किया हो तो मेरे प्राणों का नाश हो जाए।

ऐसा अद्भुत दृश्य देखकर राजा नल ने अपना संदेह छोड़ दिया और कार्कोटक नाग के दिए वस्त्र को अपने ऊपर ओढ़कर उसका स्मरण करके वे फिर असली रूप में आ गए। दोनों ने सबका आर्शीवाद लिया दमयंती के मायके से उन्हें खुब धन देकर विदा किया गया। उसके बाद नल व दमयंती अपने राज्य में पहुंचे। राजा नल ने पुष्कर से फिर जूआं खेलने को कहा तो वह खुशी-खुशी तैयार हो गया और नल ने जूए की हर बाजी को जीत लिया। इस तरह नल व दमयंती को फिर से अपना राज्य व धन प्राप्त हो गया।

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