Friday, August 19, 2022

महर्षि वाल्मीकि


🕉️ महर्षि वाल्मीकि 🕉️🌹




प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा


पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि वाल्मीकि का मूल नाम रत्नाकर था। उनके पिता ब्रह्माजी के मानस पुत्र प्रचेता थे। बचपन में एक भीलनी ने रत्नाकर का अपहरण कर लिया और इनका लालन-पालन भील परिवार के साथ ही हुआ। भील अपनी गुजर-बसर के लिए जंगल के रास्ते से गुजरने वाले लोगों को लूटा करते थे। रत्नाकर भी भील परिवार के साथ डकैती और लूटपाट का काम करने लगे। और यही इनकी आजीविका का साधन हो गया। इन्हें जो भी मार्ग में मिलता वह उनकी संपत्ति लूट लिया करते थे। एक दिन इनकी मुलाकात देवर्षि नारद से हुई। इन्होंने नारदजी से कहा कि तुम्हारे पास जो कुछ है उसे निकाल कर रख दो नहीं तो तुम्हें जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।


देवर्षि नारद ने कहा, ''मेरे पास इस वीणा और वस्त्र के अलावा कुछ और नहीं है? तुम लेना चाहो तो इसे ले सकते हो, लेकिन तुम यह क्रूर कर्म करके भयंकर पाप क्यों करते हो?' देवर्षि की कोमल वाणि सुनकर वाल्मीकि का कठोर हृदय कुछ द्रवित हुआ। इन्होंने कहा, 'भगवन मेरी आजीविका का यही साधन है और इससे ही मैं अपने परिवार का भरण पोषण करता हूं।' देवर्षि बोले, तुम अपने परिवार वालों से जाकर पूछो कि वह तुम्हारे द्वारा केवल भरण पोषण के अधिकारी हैं या फिर तुम्हारे पाप कर्मों में भी हिस्सा बंटाएंगे। तुम विश्वास करो कि तुम्हारे लौटने तक हम यहां से कहीं नहीं जाएंगे। वाल्मीकि ने जब घर आकर परिजनों से उक्त प्रश्न पूछा तो सभी ने कहा कि यह तुम्हारा कर्तव्य है कि हमारा भरण पोषण करो परन्तु हम तुम्हारे पाप कर्मों में क्यों भागीदार बनें।

परिजनों की बात सुनकर वाल्मीकि को आघात लगा। उनके ज्ञान नेत्र खुल गये। वह जंगल पहुंचे और वहां जाकर देवर्षि नारद को बंधनों से मुक्त किया तथा विलाप करते हुए उनके चरणों में गिर पड़े और अपने पापों का प्रायश्चित करने का उपाय पूछा। नारदजी ने उन्हें धैर्य बंधाते हुए राम नाम के जप की सलाह दी। लेकिन चूंकि वाल्मीकि ने भयंकर अपराध किये थे इसलिए वह राम राम का उच्चारण करने में असमर्थ रहे तब नारदजी ने उन्हें मरा मरा उच्चारण करने को कहा। बार बार मरा मरा कहने से राम राम का उच्चारण स्वतः ही हो जाता है।

नारदजी का आदेश पाकर वाल्मीकि नाम जप में लीन हो गये। हजारों वर्षों तक नाम जप की प्रबल निष्ठा ने उनके संपूर्ण पापों को धो दिया। उनके शरीर पर दीमकों ने बांबी बना दी। दीमकों के घर को वल्मीक कहते हैं। उसमें रहने के कारण ही इनका नाम वाल्मीकि पड़ा। 


महर्षि वाल्मीकि एक बार एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे जो कि प्रेम करने में लीन था। उन पक्षियों को देखकर महर्षि काफी प्रसन्न हो रहे थे। और मन ही मन सृष्टि की इस अनुपम कृति की प्रशंसा भी कर रहे थे। लेकिन तभी एक शिकारी का तीर उस पक्षी जोड़े में से एक पक्षी को आ लगा, जिससे उसकी मौत हो गयी। यह देख के महर्षि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने शिकारी को संस्कृत में ये श्लोक कहा।


“मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥” 


मुनि द्वारा बोला गया यह श्लोक ही संस्कृत भाषा का पहला श्लोक माना जाता है। जिसका अर्थ था कि जिस दुष्ट शिकारी ने प्रेम में लिप्त पक्षी का वध किया है उसे कभी चैन नहीं मिलेगा।


लेकिन ये श्लोक बोलने के बाद वाल्मीकि सोचने लगे कि आखिर ये उनके मुंह से कैसे और क्या निकल गया। उनको सोच में देखकर नारद मुनि उनके सामने प्रकट हुए और कहा कि यही आपका पहला संस्कृत श्लोक है। अब इसके बाद आप रामायण की रचना करेंगे। उस संस्कृत श्लोक के बाद महर्षि वाल्मीकि ने ही संस्कृत में रामायण की रचना की और उनके द्वारा रची गयी रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई।

वनवास के समय भगवान श्रीराम ने इन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया। सीताजी ने अपने वनवास का अंतिम समय इनके आश्रम में बिताया। वहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ। वाल्मीकि जी ने उन्हें रामायण का गान सिखाया। इस प्रकार नाम जप और सत्संग के प्रभाव से वाल्मीकि डाकू से ब्रह्मर्षि बन गये।

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