प्रस्तुति - कृष्ण मेहता: ╲\
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╭ 🌹 ╯ *_जय श्री हरि_*
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┇ ┇ ┇ ┇ *_करूणा के सागर श्री हरि जी की_*
┇ ┇ ┇ ❁ *_असीम अनुकम्पा आप पर_*
┇ ┇ ✾ *_सदैव बनी रहे_*
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🧾 *_आज का पंचाग_* 🧾
*_शनिवार 02 मई 2020_*
*_शनि देव जी का तांत्रिक मंत्र - ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः।।_*
*_।। आज का दिन मंगलमय हो ।।_*
🌠 *_दिन (वार) -शनिवार के दिन क्षौरकर्म अर्थात बाल, दाढ़ी काटने या कटाने से आयु का नाश होता है । अत: शनिवार को बाल और दाढ़ी दोनों को ही नहीं कटवाना चाहिए_*
🌹 *_शनिवार को पीपल वृक्ष में मिश्री मिश्रित दूध से अर्घ्य देने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। पीपल के नीचे सायंकालीन समय में एक चतुर्मुख दीपक जलाकर हनुमान चालीसा का पाठ करने से सभी ग्रह दोषों की निवृति हो जाती है।_*
🌐 *_विक्रम संवत् – 2077.संकल्पादि में प्रयुक्त होनेवाला संवत्सर – प्रमादी._*
☸️ *_शक संवत - 1942_*
☣️ *_अयन - उत्तरायण_*
⛈️ *_ऋतु - सौर ग्रीष्म ऋतु_*
🌤️ *_मास - बैशाख माह_*
🌔 *_पक्ष - शुक्ल पक्ष_*
📆 *_तिथि – नवमी 11:37 AM बजे तक उपरान्त दशमी तिथि है।_*
💫 *_नक्षत्र – मघा (गंडमूल) 23:41 PM तक उपरान्त पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र है।_*
📣 *_योग – वृद्ध 15:18 PM तक उपरान्त ध्रुव योग है।_*
⚡ *_करण – कौलव 11:37 AM तक उपरान्त तैतिल 22:28 PM तक उपरान्त गर करण है।_*
✨ *_द्वितीय करण: तैतिल - 22:26 तक_*
🌙 *_चन्द्रमा – कर्क राशि पर 01:05 AM तक उपरान्त सिंह राशि पर।_*
🌞 *_सूर्योदय – प्रातः 06:09:18_*
🌅 *_सूर्यास्त – सायं 19:00:53_*
🤖 *_राहुकाल (अशुभ) – सुबह 09:00 बजे से 10:30 बजे तक।_*
🔯 *_विजय मुहूर्त (शुभ) – दोपहर 12.23 बजे से 12.47 बजे तक।_*
⚜️ *_दिशाशूल – शनिवार को पूर्व दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिये, यदि अत्यावश्यक हो तो अदरख एवं घी खाकर यात्रा कर सकते है।_*
⚛️ *_पर्व व त्यौहार :- सीता नवमी, जानकी जयंती_*
✍🏼 *_विशेष – शनिवार के दिन तेल मर्दन “मालिश” करने से हर प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती हैं – (मुहूर्तगणपति)।_*
🗽 *_वास्तु टिप्स_* 🗼
*_अगर आप भी वित्तीय समस्याओं से परेशान हैं तो वास्तु शास्त्र के अनुसार अपने हस्ताक्षर में कुछ बदलाव करके आप अपनी वित्तीय समस्याओं से आसानी से निजात पा सकते हैं। वास्तु के अनुसार, अगर आप खूब पैसा कमाते हैं लेकिन बचत एक रूपये की भी नहीं होती तो अपने हस्ताक्षर के नीचे एक सीधी लाइन बनाते हुए उसके नीचे दो बिंदु लगाने शुरू कर दीजिए और जैसे ही आपकी बचत होनी शुरू होने लगे तो अपने हस्ताक्षर के नीचे लगे बिंदुओं की संख्या एक-एक करके बढ़ाते जाएं। परंतु ध्यान रहे, ये बिंदु 6 से ज्यादा नहीं हो सकते|_*
♻️ *_जीवनोपयोगी कुंजियां_* ⚜️
*_अगर आप चाहते हैं कि आपके चित्त पर दु:ख का प्रभाव न पड़े तो सावधानीपूर्वक दु:ख के साक्षी बनकर उसे देखो या तो इन विचारों से उसे काट दो कि “सुख भी आया और चला गया । दु:ख आया है वह भी चला जायेगा । इन आने जानेवाली चीजों को देखनेवाला मैं अचल, सुखस्वरुप, साक्षी, चैतन्य आत्मा हूँ |”_*
💁🏻♀️ *_आरोग्य संजीवनी_* 🏌🏻♀️
*_शहद मीठा है और पूरी तरह प्राकृतिक है लेकिन इसमें क्लोस्ट्रीडियम बोटुलिनम बैक्टेरीया के बीजाणु हो सकते हैं। ये बीजाणु शिशु की आँतों में बढ़ सकते हैं और शिशु को बोटुलिज़्म हो सकता है। थोड़े बड़े शिशुओं के पाचन तंत्र विकसित होते हैं जो इस प्रकार के बोटुलिज़्म से लड़ सकते हैं, लेकिन 1 साल तक के शिशुओं में इसके गंभीर असर हो सकते हैं। इसलिए, एक वर्ष से कम उम्र के शिशुओं के लिए शहद देने की सलाह नहीं दी जाती।_*
👣 *गुरु भक्ति योग_* 🙏🏼
*_नवमी तिथि को काशीफल (कोहड़ा एवं कद्दू) एवं दशमी को परवल खाना अथवा दान देना भी वर्जित अथवा त्याज्य होता है। नवमी तिथि एक उग्र एवं कष्टकारी तिथि मानी जाती है। इसकी अधिष्ठात्री देवी माता दुर्गा जी हैं। रिक्ता नाम से विख्यात यह तिथि शुक्ल व कृष्ण दोनों पक्षों में मध्यम फलदायिनी मानी जाती है।_*
*_नवमी तिथि में माँ दुर्गा कि पूजा गुडहल अथवा लाल गुलाब के फुल करें एवं चुनरी चढ़ायें उसके बाद दुर्गा सप्तशती के किसी भी सिद्ध मन्त्र का जप करें। इससे हर प्रकार कि उपरी बाधा कि निवृत्ति यश एवं प्रतिष्ठा कि प्राप्ति तथा सभी मनोरथों कि पूर्ति होती है। नवमी तिथि में वाद-विवाद करना, जुआ खेलना, शस्त्र निर्माण एवं मद्यपान आदि क्रूर कर्म किये जाते हैं।_*
*_नवमी तिथि को जन्म लेने वाला व्यक्ति भाग्यशाली एवं धर्मात्मा होता है। इस तिथि का जातक धर्मशास्त्रों का अध्ययन कर शास्त्रों में विद्वता हासिल करता है। ये ईश्वर में पूर्ण भक्ति एवं श्रद्धा रखते हैं। धनी स्त्रियों से इनकी संगत रहती है तथा इसके पुत्र गुणवान होते हैं।_*
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⚜️ *_जिस व्यक्ति का जन्म शनिवार को होता है उस व्यक्ति का स्वभाव कठोर होता है। ये पराक्रमी एवं परिश्रमी होते हैं तथा इनके ऊपर दु:ख भी आये तो ये उसे भी सह लेना जानते हैं। ये न्यायी एवं गंभीर स्वभाव के होते हैं तथा सेवा करना इन्हें काफी पसंद होता है।_*
*_शनिवार को जन्म लेनेवाले जातक कुछ सांवले रंग के, साहसी, मैकेनिक अथवा चिकित्सक होते हैं। इनमें से कुछ अपने कार्य में सुस्त भी होते हैं, जैसे देर से जागना, देर तक सोना भी इनकी आदतों में शुमार होता है। पारिवारिक जिम्मेदारियां भी अधिक रहती है इसलिये ये एक मेहनतकश इंसान होते हैं। सफलता के मार्ग में रूकावटों का भी सामना करना पड़ता है।_*
🖌 *_””सदा मुस्कुराते रहिये””_*
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[02/05, 09:13] Morni कृष्ण मेहता: [02/05, 7:06 am] बेन्तिहा,,प्रभू,,,ताऊम्र: *⛳सनातन धर्म की जय
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
*आदित्यहृदय स्तोत्र*
विनियोग
*ॐ अस्य आदित्य हृदयस्तोत्रस्यागस्त्यऋषिरनुष्टुपछन्दः,आदित्येहृदयभूतो
भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः*।
ऋष्यादिन्यास
*ॐ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि। अनुष्टुपछन्दसे नमः, मुखे। आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै नमः हृदि*।
*ॐ बीजाय नमः, गुह्यो। रश्मिमते शक्तये नमः, पादयो। ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय नमः नाभौ*।
करन्यास
*ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः*।
*ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवरवते अनामिकाभ्यां नमः*।
*ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः*।
हृदयादि अंगन्यास
*ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्*।
*ॐ विवस्वते कवचाय हुम्।ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्।ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्*।
इस प्रकार न्यास करके निम्नांकित मंत्र से भगवान सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिए-
*ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्*।
[02/05, 7:36 am] Krishan Mehta Own: *दूसरों को अपनी बात मानने के लिये बाध्य करना सबसे बड़ी अज्ञानता है। यहाँ हर आदमी एक दूसरे को समझाने में लगा हुआ है। हम सबको यही बताने में लगे हैं कि तुम ऐसा करो, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था। तुम्हारे लिये ऐसा करना ठीक रहेगा।*
*ये सब अज्ञानी की अवस्थायें हैं ज्ञानी की नहीं। ज्ञानी की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह किसी को सलाह नहीं देता, वह मौन रहता है, मस्ती में रहता है, वह अपनी बात को मानने के लिए किसी को बाध्य नहीं करता है।*
*इस दुनिया की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि यहाँ हर आदमी अपने आपको समझदार और चतुर समझता है और दूसरे को मूर्ख। सम्पूर्ण ज्ञान का एक मात्र उद्देश्य अपने स्वयं का निर्माण करना ही है। बिना आत्म सुधार के सुधार किंचित संभव नहीं है।*
*जय श्री कृष्ण*🙏🙏
*।। जय सिया राम जी ।।*
*।। ॐ नमह शिवाय ।।*
[02/05, 7:36 am] Krishan Mehta Own: *आपसी फूट महंगी पड़ी...*
प्राचीन समय में एक विचित्र पक्षी रहता था।
उसका धड़ एक ही था, परंतु सिर दो थे। नाम था उसका भारुंड। एक शरीर होने के बावजूद उसके सिरों में एकता नहीं थी और न ही था तालमेल।
वे एक-दूसरे से बैर रखते थे। हर जीव सोचने-समझने का काम दिमाग से करता है और दिमाग होता है सिर में। दो सिर होने के कारण भारुंड के दिमाग भी दो थे, जिनमें से एक पूरब जाने की सोचता, तो दूसरा पश्चिम। फल यह होता था कि टांगें एक कदम पूरब की ओर चलतीं, तो अगला कदम पश्चिम की ओर। और भारुंड स्वयं को वहीं खड़ा पाता था। भारुंड का जीवन बस दो सिरों के बीच रस्साकसी बनकर रह गया था।
एक दिन भारुंड भोजन की तलाश में नदी तट पर घूम रहा था कि एक सिर को नीचे गिरा एक फल नजर आया। उसने चोंच मारकर उसे चखकर देखा तो जीभ चटकाने लगा- 'वाह! ऐसा स्वादिष्ट फल तो मैंने आज तक कभी नहीं खाया। भगवान ने दुनिया में क्या-क्या चीजें बनाई हैं।'
'अच्छा! जरा मैं भी चखकर देखूं।' कहकर दूसरे ने अपनी चोंच उस फल की ओर बढ़ाई ही थी कि पहले सिर ने झटककर दूसरे सिर को दूर फेंका और बोला, 'अपनी गंदी चोंच इस फल से दूर ही रख। यह फल मैंने पाया है और इसे मैं ही खाऊंगा।'
'अरे! हम दोनों एक ही शरीर के भाग हैं। खाने-पीने की चीजें तो हमें बांटकर ही खानी चाहिए।' दूसरे सिर ने दलील दी।
पहला सिर कहने लगा, 'ठीक! हम एक शरीर के भाग हैं। पेट हमारे एक ही हैं। मैं इस फल को खाऊंगा तो वह पेट में ही तो जाएगा और पेट तेरा भी है।'
दूसरा सिर बोला, 'खाने का मतलब केवल पेट भरना ही नहीं होता भाई। जीभ का स्वाद भी तो कोई चीज है। तबीयत को संतुष्टि तो जीभ से ही मिलती है। खाने का असली मजा तो मुंह में ही है।'
पहला सिर तुनककर चिढ़ाने वाले स्वर में बोला, 'मैंने तेरी जीभ और खाने के मजे का ठेका थोड़े ही ले रखा है। फल खाने के बाद पेट से डकार आएगी। वह डकार तेरे मुंह से भी निकलेगी। उसी से गुजारा चला लेना। अब ज्यादा बकवास न कर और मुझे शांति से फल खाने दे।' ऐसा कहकर पहला सिर चटकारे ले-लेकर फल खाने लगा।
इस घटना के बाद दूसरे सिर ने बदला लेने की ठान ली और मौके की तलाश में रहने लगा। कुछ दिन बाद फिर भारुंड भोजन की तलाश में घूम रहा था कि दूसरे सिर की नजर एक फल पर पड़ी। उसे जिस चीज की तलाश थी, उसे वह मिल गई थी। दूसरा सिर उस फल पर चोंच मारने ही जा रहा था कि पहले सिर ने चीखकर चेतावनी दी, 'अरे, अरे! इस फल को मत खाना। क्या तुझे पता नहीं कि यह विषैला फल है? इसे खाने पर मॄत्यु भी हो सकती है।'
दूसरा सिर हंसा, 'हे हे हे! तू चुपचाप अपना काम देख। तुझे क्या लेना-देना है कि मैं क्या खा रहा हूं? भूल गया उस दिन की बात?'
पहले सिर ने समझाने की कोशिश की, 'तूने यह फल खा लिया तो हम दोनों मर जाएंगे।'
दूसरा सिर तो बदला लेने पर उतारू था।
बोला, 'मैंने तेरे मरने-जीने का ठेका थोड़े ही ले रखा है? मैं जो खाना चाहता हूं, वह खाऊंगा चाहे उसका नतीजा कुछ भी हो। अब मुझे शांति से विषैला फल खाने दे।'
दूसरे सिर ने सारा विषैला फल खा लिया और भारुंड तड़प-तड़पकर मर गया।
*सीख : आपस की फूट सदा ले डूबती है।*
*।। जय सिया राम जी ।।*
*।। ॐ नमह शिवाय ।।*
[02/05, 7:36 am] Krishan Mehta Own: *(((( मानवता ))))
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ईश्वर ने मानवता का गुण डालकर मनुष्य को बहुत श्रेष्ठ बनाया है. आइये इस कहानी के माध्यम से इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं..
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एक किसान के पास बहुत पिल्ले थे तो वह कुछ पिल्लो को बेचना चाहता था. उसने घर के बाहर बिक्री का बोर्ड लगा दिया.
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एक दिन दस साल का बच्चा किसान के दरवाजे पर आया और बोला, ” मैं एक पिल्ला खरीदना चाहता हूँ. आप एक पिल्ला कितने रूपये में देंगे ?
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किसान ने कहा, ” एक पिल्ला दौ सौ रूपये का है.
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यह सुनकर वह लड़का बोला, ” मेरे पास अभी तो केवल सौ रूपये है. बाकी कीमत मैं आपको हर महीने 25 रूपये देकर चुकाऊंगा. क्या आप मुझे पिल्ला देंगे ?
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किसान ने सौ रूपये लिए और पिल्लो को बुलाने के लिए सीटी बजायी. चार छोटे – छोटे पिल्ले बाहर आ गये.
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बच्चे ने एक पिल्ले को सहलाया. अचानक उसकी नजर पांचवे पिल्ले पर पड़ी. वह लंगडाकर चल रहा था.
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मुझे वह पिल्ला चाहिए, ” बच्चे ने कहा.
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लेकिन वह तो तुम्हारे साथ खेल भी नहीं पायेगा. इसका तो एक पैर ख़राब है.
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कोई बात नहीं. मुझे वही पिल्ला पसंद है. मुझे इसी की जरुरत है, बच्चा बोला.
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तब तुम इसे ले जाओ. इसके दाम देने की आवश्यकता नहीं है – किसान बोला
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नहीं यह पिल्ला भी उतना ही महत्वपूर्ण है और मैं आपको इसकी पूरी कीमत दूंगा,” बच्चा बोला.
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लेकिन तुम्हे यह पिल्ला क्यों चाहिए ? जबकि इतने सारे और पिल्ले भी है- किसान बोला
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ताकि उसका दर्द समझने और बांटने वाला भी कोई हो. ताकि वो दुनिया में खुद को अकेला न समझे. कहकर बच्चे ने पिल्ला उठाया और वापस चल दिया.
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जब वह लड़का जाने लगा तब किसान ने देखा, वह बच्चा भी एक पैर में विशेष जूता पहने था.
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किसान सोचने लगा की एक ‘घायल की गति घायल ही जान सकता है’.
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इस कहानी में लड़के ने उस लंगड़े पिल्ले को इसलिए ख़रीदा क्योंकि वह उस पिल्ले के दुःख को जानता था. वह लड़का स्वयं भी एक पैर से लंगड़ा था.
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इसलिए उसने स्वस्थ और खुबसूरत पिल्ले लेने के बजाय लंगड़े हुए पिल्ले को चुना.
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दुःख तो हमारे जीवन का सबसे बड़ा रस है.
*।। जय सिया राम जी ।।*
*।। ॐ नमह शिवाय ।।*
[Krishan Mehta (((( सोने की नगरी का दान ))))
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एक बार की बात है, देवी पार्वती का मन खोह और कंदराओं में रहते हुए ऊब गया।
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दो नन्हें बच्चे और तरह तरह की असुविधाएँ। उन्होंने भगवान शंकर से अपना कष्ट बताया और अनुरोध किया कि अन्य देवताओं की तरह अपने लिये भी एक छोटा सा महल बनवा लेना चाहिये।
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शंकर जी को उनकी बात जम गई। ब्रह्मांड के सबसे योग्य वास्तुकार विश्वकर्मा महाराज को बुलाया गया।
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पहले मानचित्र तैयार हुआ फिर शुभ मुहूर्त में भूमि पूजन के बाद तेज गति से काम शुरू हो गया।
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महल आखिर शंकर पार्वती का था कोई मामूली तो होना नहीं था। विशालकाय महल जैसे एक पूरी नगरी, जैसे कला की अनुपम कृति, जैसे पृथ्वी पर स्वर्ग।
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निर्माता भी मामूली कहाँ थे! विश्वकर्मा ने पूरी शक्ति लगा दी थी अपनी कल्पना को आकार देने में।
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उनके साथ थे समस्त स्वर्ण राशि के स्वामी कुबेर ! बची खुची कमी उन्होंने शिव की इस भव्य निवास-स्थली को सोने से मढ़कर पूरी कर दी।
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तीनों लोकों में जयजयकार होने लगी।
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एक ऐसी अनुपम नगरी का निर्माण हुआ था जो पृथ्वी पर इससे पहले कहीं नहीं थी।
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गणेश और कार्तिकेय के आनंद की सीमा नहीं थी। पार्वती फूली नहीं समा रही थीं, बस एक ही चिंता थी कि इस अपूर्व महल में गृहप्रवेश की पूजा का काम किसे सौंपा जाय।
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वह ब्राह्मण भी तो उसी स्तर का होना चाहिये जिस स्तर का महल है। उन्होंने भगवान शंकर से राय ली।
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बहुत सोच विचार कर भगवान शंकर ने एक नाम सुझाया - महर्षि विश्रवा।
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समस्त विश्व में ज्ञान, बुद्धि, विवेक और अध्ययन से जिसने तहलका मचाया हुआ था, जो तीनो लोकों में आने जाने की शक्ति रखते थे,
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जिसने निरंतर तपस्या से अनेक देवताओं को प्रसन्न कर लिया और जिसकी कीर्ति दसों दिशाओं में स्वस्ति फैला रही थी,
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ऐसे मुनि विश्रवा गृहप्रवेश की पूजा के लिये, श्रीलंका से, कैलाश पर्वत पर बने इस महल में आमंत्रित किया गया।
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मुनि ने आना सहर्ष स्वीकार किया और सही समय पर सभी कल्याणकारी शुभ शकुनों और शुभंकर वस्तुओं के साथ वह गृहप्रवेश के हवन के लिये उपस्थित हुआ।
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गृहप्रवेश की पूजा अलौकिक थी। तीनो लोकों के श्रेष्ठ स्त्री पुरुष अपने सर्वश्रेष्ठ वैभव के साथ उपस्थित थे।
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वैदिक ऋचाओं के घोष से हवा गूँज रही थी, आचमन से उड़ी जल की बूँदें वातावरण को निर्मल कर रही थीं।
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पवित्र होम अग्नि से उठी लपटों में बची खुची कलुषता भस्म हो रही थी।
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इस अद्वितीय अनुष्ठान के संपन्न होने पर अतिथियों को भोजन करा प्रसन्नता से गदगद माता पार्वती ने ब्राह्मण से दक्षिणा माँगने को कहा।
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"आप मेरी ही नहीं समस्त विश्व की माता है माँ गौरा, आपसे दक्षिणा कैसी ?" ऋषि विश्रवा ने विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन गया।
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"नहीं विप्रवर, दक्षिणा के बिना तो कोई अनुष्ठान पूरा नहीं होता और आपके आने से तो समस्त उत्सव की शोभा ही अनिर्वचनीय हो उठी है,
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आप अपनी इच्छा से कुछ भी माँग लें, भगवान शिव आपको अवश्य प्रसन्न करेंगे।" पार्वती ने आग्रह से कहा।
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"आपको कष्ट नहीं देना चाहता माता, मैंने बिना माँगे ही बहुत कुछ पा लिया है।
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आपके दर्शन से बढ़कर और क्या चाहिये मुझे ?" विश्रवा ने और भी विनम्रता से कहा।
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"यह आपका बड़प्पन है, लेकिन अनुष्ठान की पूर्ति के लिये दक्षिणा आवश्यक है आप इच्छानुसार जो भी चाहें माँग लें, हम आपका पूरा मान रखेंगे।" पार्वती ने पुनः अनुरोध किया।
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"संकोच होता है देवि।" विश्रवा ने आँखें झुकाकर कहा।"संकोच छोड़कर यज्ञ की पूर्ति के विषय में सोचें विप्रवर।" पार्वती ने नीति को याद दिलाया।
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जरा रुककर विश्रवा ने कहा, "यदि सचमुच आप मेरी पूजा से प्रसन्न हैं, यदि सचमुच आप मुझे संतुष्ट करना चाहती हैं
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और यदि सचमुच भगवान शिव सब कुछ दक्षिणा में देने की सामर्थ्य रखते हैं तो आप यह सोने की नगरी मुझे दे दें।"पार्वती एक पल को भौंचक रह गईं !
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लेकिन पास ही शांति से बैठे भगवान शंकर ने अविचलित स्थिर वाणी में कहा- तथास्तु।
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विश्रवा की खुशी का ठिकाना न रहा। भगवान शिव के अनुरोध पर विश्वकर्मा ने यह नगर कैलाश पर्वत से उठाकर श्रीलंका में स्थापित कर दिया।
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तब से ही लंका सोने की कहलाई और विश्रवा का कुल दैवी गुणों से नीचे गिरते हुए सांसारिक लिप्सा में डूबता चला गया।
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पार्वती के मन में फिर किसी महल की इच्छा का उदय नहीं हुआ।
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इस दान से इतना पुण्य एकत्रित हुआ कि उन्हें और उनकी संतान को गुफा कंदराओं में कभी कोई कष्ट नहीं हुआ।
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((((((( जय जय श्री राधे )))))))
*।। जय सिया राम जी ।।*
*।। ॐ नमह शिवाय ।।*
[02/05, 09:14] Morni कृष्ण मेहता: *⛳सनातन धर्म की जय
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
*आदित्यहृदय स्तोत्र*
विनियोग
*ॐ अस्य आदित्य हृदयस्तोत्रस्यागस्त्यऋषिरनुष्टुपछन्दः,आदित्येहृदयभूतो
भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः*।
ऋष्यादिन्यास
*ॐ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि। अनुष्टुपछन्दसे नमः, मुखे। आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै नमः हृदि*।
*ॐ बीजाय नमः, गुह्यो। रश्मिमते शक्तये नमः, पादयो। ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय नमः नाभौ*।
करन्यास
*ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः*।
*ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवरवते अनामिकाभ्यां नमः*।
*ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः*।
हृदयादि अंगन्यास
*ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्*।
*ॐ विवस्वते कवचाय हुम्।ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्।ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्*।
इस प्रकार न्यास करके निम्नांकित मंत्र से भगवान सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिए-
*ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्*।
[02/05, 7:36 am] Krishan Mehta *दूसरों को अपनी बात मानने के लिये बाध्य करना सबसे बड़ी अज्ञानता है। यहाँ हर आदमी एक दूसरे को समझाने में लगा हुआ है। हम सबको यही बताने में लगे हैं कि तुम ऐसा करो, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था। तुम्हारे लिये ऐसा करना ठीक रहेगा।*
*ये सब अज्ञानी की अवस्थायें हैं ज्ञानी की नहीं। ज्ञानी की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह किसी को सलाह नहीं देता, वह मौन रहता है, मस्ती में रहता है, वह अपनी बात को मानने के लिए किसी को बाध्य नहीं करता है।*
*इस दुनिया की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि यहाँ हर आदमी अपने आपको समझदार और चतुर समझता है और दूसरे को मूर्ख। सम्पूर्ण ज्ञान का एक मात्र उद्देश्य अपने स्वयं का निर्माण करना ही है। बिना आत्म सुधार के सुधार किंचित संभव नहीं है।*
*जय श्री कृष्ण*🙏🙏
*।। जय सिया राम जी ।।*
*।। ॐ नमह शिवाय ।।*
Krishan Mehta *आपसी फूट महंगी पड़ी...*
प्राचीन समय में एक विचित्र पक्षी रहता था।
उसका धड़ एक ही था, परंतु सिर दो थे। नाम था उसका भारुंड। एक शरीर होने के बावजूद उसके सिरों में एकता नहीं थी और न ही था तालमेल।
वे एक-दूसरे से बैर रखते थे। हर जीव सोचने-समझने का काम दिमाग से करता है और दिमाग होता है सिर में। दो सिर होने के कारण भारुंड के दिमाग भी दो थे, जिनमें से एक पूरब जाने की सोचता, तो दूसरा पश्चिम। फल यह होता था कि टांगें एक कदम पूरब की ओर चलतीं, तो अगला कदम पश्चिम की ओर। और भारुंड स्वयं को वहीं खड़ा पाता था। भारुंड का जीवन बस दो सिरों के बीच रस्साकसी बनकर रह गया था।
एक दिन भारुंड भोजन की तलाश में नदी तट पर घूम रहा था कि एक सिर को नीचे गिरा एक फल नजर आया। उसने चोंच मारकर उसे चखकर देखा तो जीभ चटकाने लगा- 'वाह! ऐसा स्वादिष्ट फल तो मैंने आज तक कभी नहीं खाया। भगवान ने दुनिया में क्या-क्या चीजें बनाई हैं।'
'अच्छा! जरा मैं भी चखकर देखूं।' कहकर दूसरे ने अपनी चोंच उस फल की ओर बढ़ाई ही थी कि पहले सिर ने झटककर दूसरे सिर को दूर फेंका और बोला, 'अपनी गंदी चोंच इस फल से दूर ही रख। यह फल मैंने पाया है और इसे मैं ही खाऊंगा।'
'अरे! हम दोनों एक ही शरीर के भाग हैं। खाने-पीने की चीजें तो हमें बांटकर ही खानी चाहिए।' दूसरे सिर ने दलील दी।
पहला सिर कहने लगा, 'ठीक! हम एक शरीर के भाग हैं। पेट हमारे एक ही हैं। मैं इस फल को खाऊंगा तो वह पेट में ही तो जाएगा और पेट तेरा भी है।'
दूसरा सिर बोला, 'खाने का मतलब केवल पेट भरना ही नहीं होता भाई। जीभ का स्वाद भी तो कोई चीज है। तबीयत को संतुष्टि तो जीभ से ही मिलती है। खाने का असली मजा तो मुंह में ही है।'
पहला सिर तुनककर चिढ़ाने वाले स्वर में बोला, 'मैंने तेरी जीभ और खाने के मजे का ठेका थोड़े ही ले रखा है। फल खाने के बाद पेट से डकार आएगी। वह डकार तेरे मुंह से भी निकलेगी। उसी से गुजारा चला लेना। अब ज्यादा बकवास न कर और मुझे शांति से फल खाने दे।' ऐसा कहकर पहला सिर चटकारे ले-लेकर फल खाने लगा।
इस घटना के बाद दूसरे सिर ने बदला लेने की ठान ली और मौके की तलाश में रहने लगा। कुछ दिन बाद फिर भारुंड भोजन की तलाश में घूम रहा था कि दूसरे सिर की नजर एक फल पर पड़ी। उसे जिस चीज की तलाश थी, उसे वह मिल गई थी। दूसरा सिर उस फल पर चोंच मारने ही जा रहा था कि पहले सिर ने चीखकर चेतावनी दी, 'अरे, अरे! इस फल को मत खाना। क्या तुझे पता नहीं कि यह विषैला फल है? इसे खाने पर मॄत्यु भी हो सकती है।'
दूसरा सिर हंसा, 'हे हे हे! तू चुपचाप अपना काम देख। तुझे क्या लेना-देना है कि मैं क्या खा रहा हूं? भूल गया उस दिन की बात?'
पहले सिर ने समझाने की कोशिश की, 'तूने यह फल खा लिया तो हम दोनों मर जाएंगे।'
दूसरा सिर तो बदला लेने पर उतारू था।
बोला, 'मैंने तेरे मरने-जीने का ठेका थोड़े ही ले रखा है? मैं जो खाना चाहता हूं, वह खाऊंगा चाहे उसका नतीजा कुछ भी हो। अब मुझे शांति से विषैला फल खाने दे।'
दूसरे सिर ने सारा विषैला फल खा लिया और भारुंड तड़प-तड़पकर मर गया।
*सीख : आपस की फूट सदा ले डूबती है।*
*।। जय सिया राम जी ।।*
*।। ॐ नमह शिवाय ।।*
Krishan Mehta *(((( मानवता ))))
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ईश्वर ने मानवता का गुण डालकर मनुष्य को बहुत श्रेष्ठ बनाया है. आइये इस कहानी के माध्यम से इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं..
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एक किसान के पास बहुत पिल्ले थे तो वह कुछ पिल्लो को बेचना चाहता था. उसने घर के बाहर बिक्री का बोर्ड लगा दिया.
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एक दिन दस साल का बच्चा किसान के दरवाजे पर आया और बोला, ” मैं एक पिल्ला खरीदना चाहता हूँ. आप एक पिल्ला कितने रूपये में देंगे ?
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किसान ने कहा, ” एक पिल्ला दौ सौ रूपये का है.
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यह सुनकर वह लड़का बोला, ” मेरे पास अभी तो केवल सौ रूपये है. बाकी कीमत मैं आपको हर महीने 25 रूपये देकर चुकाऊंगा. क्या आप मुझे पिल्ला देंगे ?
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किसान ने सौ रूपये लिए और पिल्लो को बुलाने के लिए सीटी बजायी. चार छोटे – छोटे पिल्ले बाहर आ गये.
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बच्चे ने एक पिल्ले को सहलाया. अचानक उसकी नजर पांचवे पिल्ले पर पड़ी. वह लंगडाकर चल रहा था.
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मुझे वह पिल्ला चाहिए, ” बच्चे ने कहा.
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लेकिन वह तो तुम्हारे साथ खेल भी नहीं पायेगा. इसका तो एक पैर ख़राब है.
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कोई बात नहीं. मुझे वही पिल्ला पसंद है. मुझे इसी की जरुरत है, बच्चा बोला.
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तब तुम इसे ले जाओ. इसके दाम देने की आवश्यकता नहीं है – किसान बोला
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नहीं यह पिल्ला भी उतना ही महत्वपूर्ण है और मैं आपको इसकी पूरी कीमत दूंगा,” बच्चा बोला.
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लेकिन तुम्हे यह पिल्ला क्यों चाहिए ? जबकि इतने सारे और पिल्ले भी है- किसान बोला
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ताकि उसका दर्द समझने और बांटने वाला भी कोई हो. ताकि वो दुनिया में खुद को अकेला न समझे. कहकर बच्चे ने पिल्ला उठाया और वापस चल दिया.
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जब वह लड़का जाने लगा तब किसान ने देखा, वह बच्चा भी एक पैर में विशेष जूता पहने था.
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किसान सोचने लगा की एक ‘घायल की गति घायल ही जान सकता है’.
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इस कहानी में लड़के ने उस लंगड़े पिल्ले को इसलिए ख़रीदा क्योंकि वह उस पिल्ले के दुःख को जानता था. वह लड़का स्वयं भी एक पैर से लंगड़ा था.
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इसलिए उसने स्वस्थ और खुबसूरत पिल्ले लेने के बजाय लंगड़े हुए पिल्ले को चुना.
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दुःख तो हमारे जीवन का सबसे बड़ा रस है.
*।। जय सिया राम जी ।।*
*।। ॐ नमह शिवाय ।।*
[Krishan Mehta (((( सोने की नगरी का दान ))))
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एक बार की बात है, देवी पार्वती का मन खोह और कंदराओं में रहते हुए ऊब गया।
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दो नन्हें बच्चे और तरह तरह की असुविधाएँ। उन्होंने भगवान शंकर से अपना कष्ट बताया और अनुरोध किया कि अन्य देवताओं की तरह अपने लिये भी एक छोटा सा महल बनवा लेना चाहिये।
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शंकर जी को उनकी बात जम गई। ब्रह्मांड के सबसे योग्य वास्तुकार विश्वकर्मा महाराज को बुलाया गया।
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पहले मानचित्र तैयार हुआ फिर शुभ मुहूर्त में भूमि पूजन के बाद तेज गति से काम शुरू हो गया।
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महल आखिर शंकर पार्वती का था कोई मामूली तो होना नहीं था। विशालकाय महल जैसे एक पूरी नगरी, जैसे कला की अनुपम कृति, जैसे पृथ्वी पर स्वर्ग।
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निर्माता भी मामूली कहाँ थे! विश्वकर्मा ने पूरी शक्ति लगा दी थी अपनी कल्पना को आकार देने में।
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उनके साथ थे समस्त स्वर्ण राशि के स्वामी कुबेर ! बची खुची कमी उन्होंने शिव की इस भव्य निवास-स्थली को सोने से मढ़कर पूरी कर दी।
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तीनों लोकों में जयजयकार होने लगी।
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एक ऐसी अनुपम नगरी का निर्माण हुआ था जो पृथ्वी पर इससे पहले कहीं नहीं थी।
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गणेश और कार्तिकेय के आनंद की सीमा नहीं थी। पार्वती फूली नहीं समा रही थीं, बस एक ही चिंता थी कि इस अपूर्व महल में गृहप्रवेश की पूजा का काम किसे सौंपा जाय।
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वह ब्राह्मण भी तो उसी स्तर का होना चाहिये जिस स्तर का महल है। उन्होंने भगवान शंकर से राय ली।
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बहुत सोच विचार कर भगवान शंकर ने एक नाम सुझाया - महर्षि विश्रवा।
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समस्त विश्व में ज्ञान, बुद्धि, विवेक और अध्ययन से जिसने तहलका मचाया हुआ था, जो तीनो लोकों में आने जाने की शक्ति रखते थे,
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जिसने निरंतर तपस्या से अनेक देवताओं को प्रसन्न कर लिया और जिसकी कीर्ति दसों दिशाओं में स्वस्ति फैला रही थी,
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ऐसे मुनि विश्रवा गृहप्रवेश की पूजा के लिये, श्रीलंका से, कैलाश पर्वत पर बने इस महल में आमंत्रित किया गया।
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मुनि ने आना सहर्ष स्वीकार किया और सही समय पर सभी कल्याणकारी शुभ शकुनों और शुभंकर वस्तुओं के साथ वह गृहप्रवेश के हवन के लिये उपस्थित हुआ।
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गृहप्रवेश की पूजा अलौकिक थी। तीनो लोकों के श्रेष्ठ स्त्री पुरुष अपने सर्वश्रेष्ठ वैभव के साथ उपस्थित थे।
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वैदिक ऋचाओं के घोष से हवा गूँज रही थी, आचमन से उड़ी जल की बूँदें वातावरण को निर्मल कर रही थीं।
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पवित्र होम अग्नि से उठी लपटों में बची खुची कलुषता भस्म हो रही थी।
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इस अद्वितीय अनुष्ठान के संपन्न होने पर अतिथियों को भोजन करा प्रसन्नता से गदगद माता पार्वती ने ब्राह्मण से दक्षिणा माँगने को कहा।
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"आप मेरी ही नहीं समस्त विश्व की माता है माँ गौरा, आपसे दक्षिणा कैसी ?" ऋषि विश्रवा ने विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन गया।
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"नहीं विप्रवर, दक्षिणा के बिना तो कोई अनुष्ठान पूरा नहीं होता और आपके आने से तो समस्त उत्सव की शोभा ही अनिर्वचनीय हो उठी है,
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आप अपनी इच्छा से कुछ भी माँग लें, भगवान शिव आपको अवश्य प्रसन्न करेंगे।" पार्वती ने आग्रह से कहा।
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"आपको कष्ट नहीं देना चाहता माता, मैंने बिना माँगे ही बहुत कुछ पा लिया है।
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आपके दर्शन से बढ़कर और क्या चाहिये मुझे ?" विश्रवा ने और भी विनम्रता से कहा।
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"यह आपका बड़प्पन है, लेकिन अनुष्ठान की पूर्ति के लिये दक्षिणा आवश्यक है आप इच्छानुसार जो भी चाहें माँग लें, हम आपका पूरा मान रखेंगे।" पार्वती ने पुनः अनुरोध किया।
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"संकोच होता है देवि।" विश्रवा ने आँखें झुकाकर कहा।"संकोच छोड़कर यज्ञ की पूर्ति के विषय में सोचें विप्रवर।" पार्वती ने नीति को याद दिलाया।
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जरा रुककर विश्रवा ने कहा, "यदि सचमुच आप मेरी पूजा से प्रसन्न हैं, यदि सचमुच आप मुझे संतुष्ट करना चाहती हैं
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और यदि सचमुच भगवान शिव सब कुछ दक्षिणा में देने की सामर्थ्य रखते हैं तो आप यह सोने की नगरी मुझे दे दें।"पार्वती एक पल को भौंचक रह गईं !
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लेकिन पास ही शांति से बैठे भगवान शंकर ने अविचलित स्थिर वाणी में कहा- तथास्तु।
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विश्रवा की खुशी का ठिकाना न रहा। भगवान शिव के अनुरोध पर विश्वकर्मा ने यह नगर कैलाश पर्वत से उठाकर श्रीलंका में स्थापित कर दिया।
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तब से ही लंका सोने की कहलाई और विश्रवा का कुल दैवी गुणों से नीचे गिरते हुए सांसारिक लिप्सा में डूबता चला गया।
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पार्वती के मन में फिर किसी महल की इच्छा का उदय नहीं हुआ।
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इस दान से इतना पुण्य एकत्रित हुआ कि उन्हें और उनकी संतान को गुफा कंदराओं में कभी कोई कष्ट नहीं हुआ।
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((((((( जय जय श्री राधे )))))))
*।। जय सिया राम जी ।।*
*।। ॐ नमह शिवाय ।।*
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