आगरा। राधास्वामी मत के द्वितीय गुरु हजूर महाराज थे। उनका असली नाम सालिगराम बहादुर था। उन्होंने राधास्वामी मत के प्रथम गुरु स्वामी जी महाराज की बेमिसाल सेवा की। इसके बाद स्वामी जी महाराज ने हजूर महाराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। हजूर महाराज ने ही स्वामी जी महाराज की समाध का निर्माण कराया था, जो अब विशाल और मनमोहक है। द्वितीय जन्मशताब्दी के मौके पर स्वामी जी महाराज की समाध पर स्वामीबाग में 31 अगस्त से कार्यक्रम शुरू हो गए हैं। हजूर महाराज की समाध स्थल हजूरी भवन में महोत्सव एक सितम्बर, 2018 से शुरू होगा। इसकी व्यापाक तैयारियां चल रही हैं।
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क्या है राधास्वामी मत
राधास्वामी मत के वर्तमान आचार्य और आगरा विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति दादाजी महाराज ( प्रोफेसर अगम प्रसाद माथुर) ने बताया कि राधास्वामी मत मूलतः एक अन्तर्मुखी अध्यात्मवादी पंथ है, जिसमें बाह्य आडम्बरों का स्थान शून्य है। मत की शिक्षाओं का भव्य प्रासाद मत प्रवर्तक एवं आद्य आचार्य परमपुरुष पूरनधनी स्वामीजी महाराज तथा मत संस्थापक परमपुरुष पूरनधनी हजूर महाराज के विचार-दर्शन की आधारशिला पर टिका हुआ है। राधास्वामी मत तत्कालीन धर्म में विद्यमान रूढ़िवादिता एवं कर्मकाण्डीय प्रवृत्तियों के विरोध में एक निर्भीक प्रतिक्रिया के रूप में उभरा। इसका उद्देश्य एक ऐसे सरल धर्म की स्थापना था, जिससे मनुष्यों के आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग बिना जाति, वर्ण, आस्था एवं राष्ट्रीयता की अड़चन के प्रशस्त हो सके। सही मायनों में मत की शिक्षाएं आत्मा की अन्तर्निहित पुकार प्रेम पर आधारित हैं। आधुनिक वैज्ञानिक युग में निर्मल प्रेम आधारित यह प्रेमपंथ मत संस्थापकों की अनोखी उपलब्धि है। अतः राधास्वामी मत को आधुनिक भारत में ‘भक्ति के पुनरुद्धार की प्रथम धारा’ कहना समीचीन होगा।
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सर्वोच्च नाम राधास्वामी
उन्होंने बताया कि राधास्वामी मत सार्वभौम तत्वों को स्वयं में समाहित किए हुए ऐसा विचार है जो कि सुरत-शब्द योग के माध्यम से अपनी संकल्पनाओं को साकार देखने का खुला आमंत्रण देता है। मत प्रवर्तकों ने भले ही पुरातन संकल्पनाओं को नकारा नहीं है, लेकिन स्पष्ट कर दिया है कि सर्वोच्च नाम राधास्वामी ही है, जो भी मानव आत्मतत्व (आत्मा) के मूल निवास और उसके मालिक या स्वामी से तादात्म्य होना चाहे, सहज में मत प्रवर्तकों द्वारा आविष्कृत एवं परिष्कृत - योगाभ्यास (सुरत-शब्द योग) के माध्यम से हो सकता है।
परमपुरुष पूरनधनी हजूर महाराज का जन्म
राधास्वामी मत के द्वितीय आचार्य राय सालिगराम बहादुर ‘हजूर महाराज’ थे। उनका जन्म 14 मार्च, 1829 को पीपल मण्डी में आगरा निवासी एक कायस्थ परिवार में हुआ। उनके पिता राय बहादुर सिंह उस समय के प्रसिद्ध वकील थे। वे अत्यंत धार्मिक एवं दानशील प्रकृति के व्यक्ति थे। परिवार में दो पुत्र एवं पुत्री का जन्म हुआ। हुजूर महाराज की आयु अभी चार वर्ष की ही थी कि पिता का देहावसान हो गया। उनकी माँ ने अपने कठोर परिश्रम और सतत संघर्ष से दोनों पुत्रों को उच्चतम शिक्षा दिलायी।
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उच्च पद पर पहुँचने वाले वह प्रथम भारतीय
मकतब में प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त कर उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आगरा कालेज में प्रवेश लिया। सन् 1847 में इस विद्यालय में उन्होंने सीनियर कैम्ब्रिज की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा अंग्रेजी, गणित और उर्दू में विशेष दक्षता प्राप्त की। अध्ययन समाप्ति के बाद वर्ष 1847 में हजूर महाराज ने पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त के पोस्ट मास्टर जनरल के कार्यालय में कार्य शुरू किया। विभाग में द्रुत पदोन्नति प्राप्त हुई। उनकी प्रसिद्धि योग्य एवं सत्यनिष्ठ पदाधिकारी के रूप में स्थापित हुई। पहले वे डाकघरों के निरीक्षक बने, फिर महाडाकपाल के सहायक और निजी सहायक। वर्ष 1871 में वह भारत के डाकघरों के मुख्य निरीक्षक नियुक्त हुए। 1881 में पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त के पोस्ट मास्टर जनरल बने तथा उनका कार्य केन्द्र इलाहाबाद रहा। इस उच्च पद पर पहुँचने वाले वह प्रथम भारतीय थे।
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एक पैसे का पोस्टकार्ड चलाया
अद्भुत क्षमता के सम्पन्न प्रशासक होने के कारण उन्होंने डाक विभाग में अनेक नए सुधार किए। लैण्ड रेवेन्यू, मनीआर्डर, पार्सल इंश्योरेंस, वी0पी0 पार्सल, बैरंग पत्र के नियम, तार संयोजन, जिला डाक प्रबन्ध को शासकीय पत्रों के लिए बड़े डाकघर से संबद्ध करना इत्यादि अनमोल सुधार उन्हीं की देन है। विभागीय सेवा को नियन्त्रित करते हुए उन्होंने डाक व्यवस्था के विकास एवं प्रसार में अतुलनीय योगदान दिया। आम जनता के लिए सर्वप्रथम उन्होंने ही एक पैसे का पोस्टकार्ड प्रचलित किया, जो आज भी गरीब जनता के बीच संदेश आदान-प्रदान का प्रमुख माध्यम बना हुआ है। तत्कालीन परिवेश में हजूर महाराज ने संचार व्यवस्था को जो बहुमुखी आयाम दिये, वो वर्तमान संचार क्रान्ति से प्रत्येक मायने में श्रेष्ठतर थे।
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राय बहादुर’ की उपाधि
तत्कालीन अव्यवस्था एवं लालफीताशाही को उन्होंने दूर किया। विभागीय कार्यों में उनकी योजनाओं एवं सुधारों से सुगमता हुई और जनसाधारण को सीधा लाभ पहुँचा। पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त एवं पंजाब प्रान्त के डाक अधिनियमों को उन्होंने स्वयं जनता की भाषा में अनूदित किया। वर्ष 1871 में उनके सराहनीय प्रशासनिक सुधारों के लिए शासन द्वारा उन्हें ‘राय बहादुर’ की उपाधि से विभूषित किया गया। डाक विभाग के लिए अपनी सेवाओं के कारण वह अपरिहार्य बन गए थे और वर्ष 1884 में भी ब्रिटिश प्रशासक उनको अवकाश ग्रहण नहीं करने देना चाहते थे। भारतीय डायरेक्टर जनरल ने उनसे स्वयं एक निजी पत्र में उनके कार्यों की सराहना करते हुए सेवानिवृत्ति न लेने का अनुरोध किया था।
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गुरु की अनूठी सेवा की
लौकिक सफलताएँ हजूर महाराज के लिए महत्वहीन थीं। अपनी आत्मिक प्यास बुझाने के लिए उन्हें आध्यात्मिक गुरू की खोज थी। वर्ष 1858 ई0 में उनकी चिर कामना पूर्ण हो गई और राधास्वामी दयाल परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज से उनकी भेंट हुई। हजूर महाराज ने स्वामीजी महाराज की हर प्रकार से सेवा की। चरन दबाना, पंखा करना, चंवर डुलाना, चक्की पीसना, हुक्का भरकर लाना, शहर के बाहर मीलों दूर मीठे कुएं से नंगे पैर पद व प्रतिष्ठा का ख्याल किये बिना पानी भरकर लाना, स्नान कराना, केश संवारना, खाना बनाना, मकान की झाड़ू, सफाई-पुताई करना, स्नानागार एवं नालियाँ धोना, खदान से मिट्टी खोदकर लाना, जंगल से दातुन लाना, धोती धोना, चैका-बरतन करना, स्वामीजी महाराज के घर के लिए खाद्य सामग्री एवं अन्य आवश्यकता की वस्तुएं खरीदकर खुद लाना, पालकी उठाना, सवारी के साथ-साथ दौड़ना, पीकदान पेश करना और स्वयं पीक पी जाना आदि। हजूर सेवा में इतने तल्लीन रहते थे कि मौसम के प्रकोप की उन्हें कोई चिन्ता नहीं रहती थी। वर्ष 1858 से 1878 ई0 तक बीस वर्ष उन्होंने अपने गुरु की जो अतुलनीय सेवा की, वो भक्ति के इतिहास में अनूठी और बेमिसाल है।
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1878 में स्वामी जी महाराज के उत्तराधिकारी बने
वर्ष 1878 ई0 में निजधाम सिधारते समय स्वामीजी महाराज ने हजूर महाराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। उन्होंने सन् 1898 तक सतसंग का व्यापक विस्तार और सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर आने वाली सभी समस्याओं के लिए उठने वाली सभी शंकाओं का प्रभावी समाधान किया। इसी परिसर के प्रेम विलास में उनकी अद्धभुत पच्चीकारी से युक्त समाध का निर्माण किया गया है। उनके आवास हजूरी भवन में आज भी उनकी शिक्षाओं का प्रसार आज भी जस का तस किया जा रहा है। राधास्वामी सतसंग हजूरी भवन में स्वामीजी महाराज के दो सौ वर्ष को दिव्तीय जन्म शताब्दी महोत्सव मत के रूप में मनाया जा रहा है।
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