(बचन भाग-1)/ बचन-44
जैसी चकोर की प्रीति चन्द्रमा से है, हिरन की प्रीति नाद से है, मछली की जल से है, ऐसी प्रीति जिसकी सतगुरु दयाल से है वह निज प्रेमी है। हर वक्त़ मगन व मस्त रहता है। तन, मन, धन सब कुछ सतगुरु दयाल पर वार देता है। जैसे राखें उसी में राज़ी रहता है। ऐसे प्रेमी पर संत बलिहारी हैं। उसके लिए भक्ती के सब भंडार बख़्शने की तैयारी है। सतगुरु से ऐसी प्रीति जागेगी कि तन, मन, धन की भी ख़बर ध्यान के वक्त़ भूल जावेगी। ऐसे प्रेमी को जीते जी अंतर में दर्शन होगा। तन, मन से न्यारा होकर सतगुरु के संग हर वक्त़ खेलेगा और विष अमृत सम हो जावेगा। सतगुरु की प्रीति की महिमा बड़ी भारी है, मानों सुख का भंडार है। जो राधास्वामी दयाल के चरनों में आया, उसको ऐसी प्रीति के लिये प्रार्थना करनी चाहिए।
बचन-45
कुल सतसंगियों को, जो राधास्वामी दयाल के चरनों में आये हैं और जिन्होंने वक्त़ के सतगुरु से उपदेश लिया है, यह समझना चाहिए कि वह अपनाये गए हैं और यह ज़रूर बिलज़रूर एक दिन अबेर सबेर अपने पिता के निज धाम में पहुँचेंगे और उन पर आयंदा कर्म हरगिज़ न चढ़ेंगे। उनके पिछले कर्म भी मौज और हिकमत से सहूलियत के साथ कटवाये जायेंगे।
सतसंगियों को दुख में घबराना और सुख में फूलना नहीं चाहिए, बल्कि दुख और बीमारी आने पर समझना चाहिए कि सतगुरु की अति दया है और महज़ उनकी सँभाल के लिए यह हालत पैदा की गई है। जीव अति निर्बल और लाचार है। उससे कुछ नहीं बन पड़ता। इसलिए राधास्वामी दयाल ख़ुद देह धर कर अपने बच्चों को अपने निज धाम में पहुँचाने के लिए इस दुनियाँ में तशरीफ़ लाये हैं और वह जीव को थोड़ी सी उनके चरनों में प्रीति करने से और दृढ़ निश्चय उनके चरनों का धारन करने से और राधास्वामी नाम को सच्चा नाम मानने से और उनके चरनों की सच्ची टेक बाँधने से और वक्त़ ब वक्त़ मौक़ा मिलने पर उनका बाहरी सतसंग और दर्शन चेत कर करने से अपना लेवेंगे और अपने निज धाम में पहुँचा देवेंगे। जीव को इसमें हरगिज़ शक व शुबह न करना चाहिए।
परम गुरु महाराज साहब के बचन
(बचन भाग-1) / बचन-47
मालिक की मौज कोई नहीं परख सकता। बहुत अचरजी हालतें जो मौज से गुज़रती हैं, किसकी ताक़त है जो उनको ज़रा भी परख सके या समझ सके। बाज़े सतसंगी बड़ी कोशिश करते हैं, सुमिरन, ध्यान, भजन में मेहनत भी करते हैं, तड़पते भी हैं, रोते झींकते भी हैं, पीटते कूटते भी हैं, बहुतेरे जतन और बार बार प्रार्थना करते हैं, पर ज़रा भी अंतर में नहीं खिंचते। न अंतर में कुछ दिखलाई देता है, न रस आता है। एक सतसंगी है जो ज़ोर देकर न सुमिरन, ध्यान और न भजन करता है, थोड़ी तवज्जह अंतर में करने से आप से आप अंतर में दिखता जाता है, सब भक्ती के अंग आप से आप प्रगट होते जाते हैं। जो संस्कारी भाग्यवान है, उसके मन और सुरत निर्मल होते हैं। जब उपदेश लिया, एक दम हालत बदलनी शुरू हो जाती है। चाहे उससे भूल चूक भी हो, तो वह भी माफ़ हो जाती है। अंतरी दया होती चली जाती है। जैसे अपने बच्चे के कसूरों पर माँ बाप ज़रा ख़्याल नहीं करते, उलटे ख़ुश होते हैं, ऐसे ही जो भाग्यवान परमार्थ के हैं, उनको सतगुरु दयाल बिना माँगे परमार्थ का सब सामान अपनी दया से बख़्शते हैं, जैसे कोई राजा के घर लड़का पैदा हुआ तो उसके आराम के लिए सब सामान बादशाह तैयार करता है। सतगुरु अन्तर्यामी हैं। जिनको भजन का रस नहीं आता, उसकी वजह यह है कि उनके अव्वल तो निकृष्ट पाप कर्म बहुत जमा हैं जिनका उन्हें फल भुगतना है, कैसे अन्तर में चढ़ा दिए जावें। दूसरे उनका भाग भक्ती का नहीं है। मालिक के दरबार में यह क़ानून है, बिना भाग कुछ नहीं मिलता।
कड़ी- भाग बिना क्या करे बिचारी, यह भी भाग गुरू से पा री।
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