राधास्वामी!/ 08-10-2021-आज शाम सतसंग में पढा जाने वाला दूसरा पाठ:-
मेरे सतगुरु जग में आये ।
भौसागर जीव चिताये ।
मैं तो उमँग उमँग गुन गाता री ॥ १ ॥
सतसँग कर प्रीति जगाई ।
सेवा कर प्रेम बढ़ाई ।
मैं तो नित नित चरन धियाता री ॥ २ ॥
मेरे करम भरम सब काटे ।
गुरु चरन वहीं मैं चाटे।
अब काल न मोहि सताता री ॥३॥
घट में नित पूजा करता ।
स्रुत चरन कँवल में धरता ।
गगना में शब्द बजाता री ॥४॥
आरत की उमँग उठाई ।
सामाँ सब लेकर आई ।
गुरु सन्मुख आरत गाता री ॥५॥
●●कल से आगे●●●●●
गुरु दया दृष्टि अब कीनी ।
सुरत हुई लौलीनी ।
मैं तो हुआ प्रेम रँग राता री ॥६॥
करमी जिव अंधे धुंधे।
फँसे काल के फंदे ।
बिन सतगुरु कौन बचाता री ॥७॥
जो चाहोअपन उधारा ।
गुरु चरनन धरो पियारा।
जग जीवन आख सुनाता री ॥८॥
गुरु प्रेमी जीव पियारे ।
गुरु चरन सरनआधारे ।
मैं तो उन सँग प्रीति बढ़ाता री ॥९॥
गुरु दरशन पर बल जाऊँ ।
शोभा मैं कस कस गाऊँ ।
मैं तो तन मन वार धराता री ॥ १० ॥ गुरु दया करी अब भारी।
स्रुत सहसकँवल पग धारी ।
घंटा और शंख बजाता री ॥११॥
स्रुत वहाँ से चली अगाड़ी।
अब पहुँची गुरु दरबारी ।
धुन मिरदंग गरज सुनाता री ||१२||
सुन्न में जाय किये अशनाना ।
धुन मुरली गुफा पहिचाना ।
सतपुर में बीन बजाता री ॥१३ ॥ फिर अलख अगम को निरखा ।
घर आदि अनादी परखा ।
राधास्वामी चरन समाता री ||१४|| राधास्वामी पुरुष अपारा।
मुझ नीच अधम को तारा ।
मैं तो छिन छिन महिमा गाता री ।। १५।।
मेरे उमँग उठत दिन राती ।
निज चरन प्रेम स्रुत राती ।
मैं तो दासन दास कहाता री ॥१६॥
(प्रेमबानी-1-शब्द-33-पृ.सं.181,182,183, 184)
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